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kaya bharoon hatya aur nivaran

  
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कन्या भ्रूण-हत्या - समस्या और निवारण
—डॉ॰ रज़ीउल इस्लाम नदवी—

कन्या भ्रूण-हत्या वर्तमान समय की गंभीर सामाजिक समस्याओं में से एक है, इसी कारण लिंग संतुलन बिगड़ रहा है। लड़कों की संख्या अधिक और लड़कियों की कम होती जा रही है।  इसके कारण समाज पर अत्यधिक बुरे और ख़तरनाक प्रभाव पड़ रहे हैं। बुद्धिजीवी वर्ग चिंतित है और इस बुराई से निबटने का उपाय सोच रहा है। सामाजिक संस्थाएं भी इसकी रोकथाम की कोशिश में हैं और जिसको जो समझ में आ रहा है, कर रहा है। सरकारी स्तर पर भी इसकी रोकथाम के लिए क़ानून बनाए गए हैं। इनमें कठोरतम सज़ाओं का प्रावधान है, लेकिन इस बुराई की समाप्ति के कोई संकेत नज़र नहीं आ रहे हैं। ईश्वर की बनाई हुई प्राकृतिक व्यवस्था में इन्सानी हस्तक्षेप से पैदा होने वाली गड़बड़ियों और असंतुलन के परिणाम को इन्सान झेलने के लिए विवश हैं।
पहले जनसंख्या की समस्या को हव्वा बनाकर पेश किया गया, इससे निबटने के लिए ‘परिवार नियोजन’ की तरह-तरह की स्कीमें बनाई गईं। बर्थ कंट्रोल के क़ानून बने। मामला आगे बढ़ा, तो अब लिंग निर्धारण की कोशिश की जाती है। विभिन्न उपकरणों की सहायता से यह पता लगाने की कोशिश की जाती है कि भ्रूण जो मां के पेट में पल रहा है, उसका लिंग क्या है? यदि यह पता चल जाता है कि वह लड़की है, तो गर्भपात करा दिया जाता है।
भारत में प्रति दस वर्ष पर जनगणना होती है। सन् 2001 में देश की आबादी एक अरब दो करोड़ सत्तर लाख पन्द्रह हज़ार (1,02,70,15,000) को पार कर गई है। इनमें पुरुषों की संख्या 53,12,77,000 और महिलाओं की संख्या 49,57,38,000 बताई गई है, अर्थात् 100 पुरुषों की तुलना में 93 महिलाएं हैं। सन् 1991 की जनगणना की तुलना में यह अन्तर और भी अधिक था।                    (राष्ट्रीय सहारा, 7 सितम्बर 2006)
देश के कई राज्यों में लड़कों और लड़कियों के बीच अनुपात में बहुत अन्तर है, इनमें विशेष रूप से गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और हिमाचल प्रदेश उल्लेखनीय हैं। इन राज्यों में 1000 लड़कों की तुलना में लड़कियों की संख्या 800-900 के बीच है। सन् 1991 की जनगणना में पंजाब में 1000 लड़कों की तुलना में लड़कियों की संख्या 875 थी, जो सन् 2001 में घटकर 793 हो गई। इसी तरह महाराष्ट्र में सन् 1991 की जनगणना में 1000 लड़कों की तुलना में लड़कियों की संख्या 948 थी, जो सन् 2001 में घटकर 917 हो गई है।                 (राष्ट्रीय सहारा, 22 अगस्त, 2006)
राजस्थान के सरहदी इलाक़े जैसलमेर की आबादी में 1000 लड़कों की तुलना में लड़कियों की संख्या केवल 785 है। 
(राष्ट्रीय सहारा, 9 सितम्बर, 2006) 
आगरा डिवीज़न में 1000 लड़कों की तुलना में लड़कियों की संख्या फ़िरोज़ाबाद में 887, एटा में 891, आगरा में 866, मथुरा में 872, हाथरस में 886 और अलीगढ़ में 885 है।  
(राष्ट्रीय सहारा, 29 मई, 2006)
लड़कियों से छुटकारा पाने का यह रुझान समाज में लड़कियों को कम हैसियत हासिल होने की वजह से है। उन्हें लड़कों की तुलना में कमतर समझा जाता है। उनके अस्तित्व को माता-पिता अपने ऊपर बोझ समझते हैं। उनका लालन-पालन, उनकी सुरक्षा, उनके विवाह में होने वाली परेशानियां आदि उनके लिए बोझ बन जाती हैं। इन सबके अतिरिक्त भी बच्चियों के मामले में ऐसी नाज़ुक और संगीन समस्याएं सामने आती रहती हैं कि मां-बाप इसी में भलाई समझते हैं कि जन्म से पहले ही उससे छुटकारा पा लिया जाए।
जब अल्लाह के अन्तिम ईशदूत इस दुनिया में आए, उस समय भी लड़कियों को भारी बोझ समझा जाता था। उनके माता-पिता को इस बात की आशंका सदैव सताती रहती थी कि अच्छा रिश्ता न मिलने की स्थिति में उन्हें अपनी बेटी की शादी दूसरे क़बीलों में करनी होगी। यह भी ख़तरा रहता था कि लुटेरे जब आक्रमण करेंगे, तो वे उन्हें पकड़ ले जाएंगे और उन्हें दासियां बना लेंगे। यही कारण था कि जब उनमें से किसी के यहां लड़की पैदा होती थी, तो उसका चेहरा उतर जाता था।
‘‘और जब उनमें से किसी को बेटी की शुभ सूचना मिलती है तो उसके चेहरे पर कलौंस छा जाती है और वह घुटा-घुटा रहता है। जो शुभ सूचना उसे दी गई वह (उसकी दृष्टि में) ऐसी बुराई की बात हुई कि उसके कारण वह लोगों से छिपता-फिरता है कि अपमान सहन करके उसे रहने दे या उसे मिट्टी में दबा दे। देखो कितना बुरा फ़ैसला है जो वे करते हैं।’’   (क़ुरआन, 16:58-59)
लड़कियों से छुटकारा पाने के लिए इस्लाम के आगमन से पहले अरब के कुछ क़बीलों (Tribes) में बड़ी घिनौनी-घिनौनी प्रथाएं थीं—
‘‘जब जन्म का समय क़रीब आता, तो एक गढ़ा खोद दिया जाता था। फिर यदि लड़की पैदा होती, तो जन्म के तुरंत बाद उसे गढ़े में दफ़्न (गाड़) कर दिया जाता था ।’’   (इब्ने-अब्बास)
‘‘लड़की पैदा होते ही उसे मारकर कुत्ते के आगे डाल दिया जाता था।’’                                     (क़तादा)
(क) ‘‘किसी पहाड़ की चोटी पर ले जाकर फेंक दिया जाता था।
(ख) पानी में डुबा दिया जाता था।
(ग) ज़िब्ह (वध) कर दिया जाता था।
(घ) जब वह कुछ बड़ी हो जाती थी, तो एक दिन उसे ख़ूब सजा-संवार कर रेगिस्तान में ले जाया जाता था, जहां ख़ूब गहरा गढ़ा खोदकर उसमें धकेल दिया जाता था और ऊपर से मिट्टी बराबर कर दी जाती थी।’’       (तफ़्सीर कबीर)
 आज की परिस्थितियां भी कुछ अलग नहीं हैं। जैसलमेर (राजस्थान) के एक गांव ‘देवड़ा’ के बारे में एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई है कि वहां पिछले 100 वर्षों में किसी बच्ची की शादी नहीं हुई है। पैदा होते ही उन्हें मार दिया जाता है। कभी-कभी तो यह काम ख़ुद उनकी मां करती है। वह अपने दूध के साथ बच्ची को अफ़ीम खिला देती है। नाक पर रेत की पोटली रख देती है या मुंह और नाक में रेत भर देती है। मुंह पर रजाई या तकिया रख देती है, ताकि बच्ची का दम घुट जाए, या मुंह में नमक भर देती है।                 (राष्ट्रीय सहारा, 9 सितम्बर, 2006)
समाज का वह वर्ग जो अपने को एडवांस मानता है, वह तो इतना निर्दयी होता है कि शिशु के जन्म तक की भी प्रतीक्षा नहीं करता। गर्भ में ही स्केनिंग करके पता लगा लिया जाता है कि गर्भ में पलने वाली नन्हीं-सी जान लड़का है या लड़की। यदि लड़की हुई, तो गर्भपात करा दिया जाता है। इस तरह भ्रूण-हत्या रोकने के लिए सन् 1994 में क़ानून बनाया गया। (Natal Diagnostic Technique Regulation and Prevention of Misuse Act) इस क़ानून के तहत बच्चे के लिंग का पता लगाना क़ानूनी अपराध समझा गया, लेकिन इसके बावजूद हर साल 5-7 लाख लड़कियों की मां के गर्भ में ही हत्या कर दी जाती है। 
(राष्ट्रीय सहारा, 6 जून, 2006)
इस तरह के Fertility Centre पर समय-समय पर छापा भी मारा जाता है। इस काम में लिप्त डॉक्टरों को गिरफ़्तार भी किया जाता है, उनके विरुद्ध मुक़दमे भी चलते हैं और उन्हें सज़ा भी दी जाती है, मगर इन तमाम कोशिशों के बावजूद इस सामाजिक बुराई का ख़ात्मा तो क्या, इसके फैलाव को रोकना भी संभव नहीं हो सका है।
इस्लामी उपाय
इस्लाम भ्रूण-हत्या को गंभीर अपराध मानता है। उसको रोकने के लिए विभिन्न प्रकार की युक्तियां अपनाता है। जिन आशंकाओं और संभावित ख़तरों के कारण लोग भ्रूण-हत्या कर रहे हैं उन्हें दूर करता है। इस्लाम लड़कियों को सौभाग्यशालिनी व कल्याणकारिणी समझता है। उनके लालन-पालन और अच्छे प्रशिक्षण की भी शिक्षा देता है। सामाजिक स्तर पर यह बहुत ही लाभदायक सिद्ध हुआ है।
इस्लाम ने सबसे पहला काम यह किया कि लोगों को मानसिक रूप से इसके लिए तैयार किया। कोई भी क़ानून उस समय तक प्रभावशाली नहीं हो सकता, जब तक लोग उसे मानने के लिए तैयार न हों। लोग उसकी ख़ूबियों से अवगत न हों और उसके न मानने की हानियों को न जान जाएं।
इस्लाम ने बताया कि यह एक शैतानी कार्य है—
‘‘इसी प्रकार बहुत से बहुदेववादियों के लिए उनके साझीदारों ने उनकी अपनी संतान की हत्या को सुहाना बना दिया है, ताकि उन्हें विनष्ट कर दें और उनके लिए धर्म को संदिग्ध बना दें।’’ 
(क़ुरआन, 6:137)
‘‘वे लोग कुछ जाने-बूझे बिना घाटे में रहे, जिन्होंने मुर्खता के कारण अपनी संतान की हत्या की।’’        (क़ुरआन, 6:140)
अरब के कुछ क़बीले (Tribes) अपनी लड़कियों की हत्या केवल इसलिए कर देते थे, कि वे उन्हें आर्थिक बोझ समझते थे। लड़के तो बड़े होकर उनका हाथ बटाते थे, लेकिन लड़कियां बड़ी होकर कुछ नहीं करती थीं।
क़ुरआन ने यह स्पष्ट किया कि आजीविका की चाबियां तो अल्लाह के हाथ में हैं। इस धरती पर जितने भी प्राणी हैं, उनकी रोज़ी का ज़िम्मा ईश्वर ने अपने ऊपर ले रखा है। कोई शक्तिशाली हो या कमज़ोर, हट्टा-कट्टा हो या अपंग, स्वयं रोज़ी-रोटी के लिए दौड़-धूप करता हो या वह किसी दूसरे पर निर्भर हो, उसे रोज़ी मिलती है, तो अल्लाह (ईश्वर) की आज्ञा और उसकी मर्ज़ी से ही—
‘‘और निर्धनता के कारण अपनी संतान की हत्या न करो, हम तुम्हें भी रोज़ी देते हैं और उन्हें भी।’’        (क़ुरआन, 6:151)
‘‘और निर्धनता के भय से अपनी संतान की हत्या न करो, हम उन्हें भी रोज़ी देंगे और तुम्हें भी। वास्तव में उनकी हत्या बहुत ही बड़ा अपराध है।’’                 (क़ुरआन, 17:31)
लड़कियों की हत्या को उन घृणित कृत्यों में शामिल किया गया है, जिसके बारे में आख़िरत (परलोक) के दिन पूछताछ होगी—
‘‘और जब जीवित गाड़ी गई लड़की से पूछा जाएगा कि उसकी हत्या किस गुनाह के कारण की गई।’’      (क़ुरआन, 81:8-9)
इस्लाम में लड़कियों की हत्या की गिनती उन कामों में सम्मिलित की गई है, जिन्हें ईश्वर ने अवैध (हराम) क़रार दिया है—
‘‘अल्लाह ने तुम पर हराम क़रार दिया है मां-बाप, की अवज्ञा, लड़कियों को ज़िन्दा दफ़्न करना और फ़िज़ूलख़र्ची।’’  (मुस्लिम)
सन्तान की हत्या न करने की प्रतिज्ञा
ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰)1 अपने अनुयायियों से बैअत (प्रतिज्ञा) लेते समय जिन बातों का इक़रार (वादा) करवाते थे, उनमें एक बात यह भी होती थी कि अपनी संतान की हत्या नहीं करेंगे। ‘हुदैबिया की संधि’ के बाद और मक्का-विजय से पहले बहुत-सी महिलाएं मक्का से हिजरत (प्रवास) करके मदीना पहुंचीं। ईश्वर ने अपने ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) को उनसे बैअत लेने का आदेश दिया—
‘‘ऐ नबी ! जब तुम्हारे पास ईमान वाली स्त्रियां आकर तुमसे इस पर ‘बैअत’ (प्रतिज्ञा) करें कि वे अल्लाह (ईश्वर) के साथ किसी चीज़ को साझी नहीं ठहराएंगी और न चोरी करेंगी और न व्यभिचार करेंगी, और न अपनी औलाद (संतान) की हत्या करेंगी और न अपने हाथों और पैरों के बीच कोई आरोप घड़कर लाएंगी, और न किसी भले काम में तुम्हारी अवज्ञा करेंगी, तो उनसे ‘बैअत’ ले लो और उनके लिए अल्लाह से क्षमा की प्रार्थना करो। निश्चय ही अल्लाह बहुत क्षमाशील, अत्यंत दयावान है ।’’ 
(क़ुरआन, 60:12)
इसी तरह की अहद (प्रतिज्ञा) ईशदूत ने मर्दों से भी लिया। मदीना हिजरत करने से पहले यसरिब के जिन ख़ुशनसीब लोगों ने ईशदूत के हाथ पर ‘बैअत’ (प्रतिज्ञा) की थी उनमें हज़रत उबादा बिन सामित (रज़ि॰) भी थे। वे बयान करते हैं कि ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने फ़रमाया—
‘‘मुझ से बैअत (प्रतिज्ञा) करो उस चीज़ पर कि अल्लाह के साथ किसी को शरीक नहीं ठहराओगे, चोरी नहीं करोगे, व्यभिचार नहीं करोगे और अपनी संतान की हत्या नहीं करोगे।’’  (बुख़ारी)
इस्लाम इस बात को नहीं मानता कि लड़की का अस्तित्व आदमी के लिए मुसीबत या परेशानी का कारण है, बल्कि उसने लड़की को जन्नत (स्वर्ग) में प्रवेश करने का एक साधन बताया है।
हज़रत इब्ने-अब्बास (रज़ि॰)1 कहते हैं कि ईश्वर के दूत हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने फ़रमाया—
‘‘जिस व्यक्ति को दो लड़कियां हों, वह जब तक उनके पास रहें, वह उनके साथ अच्छा व्यवहार करता रहे, तो वह उसके स्वर्ग में प्रवेश का साधन बनेंगी ।’’        (सुनन इब्ने-माजा)
हज़रत उक़बा बिन आमिर (रज़ि॰) कहते हैं, अल्लाह के रसूल (सल्ल॰) ने फ़रमाया—
‘‘जिस व्यक्ति को तीन लड़कियां हों, वह सब्र करे और उनको अपनी हैसियत के अनुसार खिलाए, पिलाए, पहनाए वह प्रलय के दिन नरक से उसके लिए ओट बन जाएंगी।’’ (सुनन इब्ने-माजा)
हदीसों में लड़कियों की शिक्षा एवं प्रशिक्षण की बहुत ताकीद (ज़ोर देकर) की गई है । हज़रत अबू सईद अल-ख़ुदरी (रज़ि॰) से रिवायत (उल्लिखित) है कि ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने फ़रमाया—
‘‘जिस व्यक्ति ने तीन लड़कियों का लालन-पालन किया उन्हें अदब (शिष्टता) सिखाया, उनकी शादी की और उनके साथ सद्व्यवहार करता रहा, तो उसके लिए स्वर्ग है ।’’  (अबू दाऊद)
हज़रत इब्ने-अब्बास (रज़ि॰) से रिवायत है कि आप (सल्ल॰) ने फ़रमाया—
‘‘जिस व्यक्ति ने अपनी तीन बेटियों या तीन बहनों का लालन-पालन किया, उन्हें अदब (शिष्टता) सिखाया, उनके साथ हमदर्दी (सहानुभूति) का मामला किया, यहां तक कि ईश्वर ने उन्हें बेनियाज़ (निःस्पृह) कर दिया, उसके लिए अल्लाह ने स्वर्ग अनिवार्य कर दी है।’’
बयान करने वाले कहते हैं कि यह सुनकर एक व्यक्ति ने पूछा : ऐ ईश्वर के दूत! यदि किसी को दो बेटियां या दो बहनें हों और वह उनके साथ ऐसा व्यवहार करे?’’ आप (सल्ल॰) ने फ़रमाया : ‘‘उसके लिए भी यही बदला (प्रतिफल) है।’’
बयान करने वाला आगे कहता है कि यदि उपस्थित लोगों में से किसी ने कोई एक लड़की या बहन के साथ सद्व्यवहार के बारे में पूछा होता, तो ईशदूत यही जवाब देते। (शरह-अल-सुन्ना)
इस्लाम की ये शिक्षाएं लड़कियों को समाज में इतनी प्रतिष्ठा और सम्मान प्रदान करती हैं कि इससे अधिक की कल्पना भी नहीं की जा सकती। जिन समाजों में लड़कियों के अधिकार छीन लिए गए हैं, या उन्हें कमतर समझा जाता है, उन्हें उनकी हालत सुधरने और उन्हें उच्च स्थान देने के लिए इन शिक्षाओं से मदद मिलेगी।


कन्या भ्रूण-हत्या
—मुहम्मद ज़ैनुल आबिदीन मंसूरी—

पाश्चात्य देशों की तरह, भारत भी नारी-अपमान, अत्याचार एवं शोषण के अनेकानेक निन्दनीय कृत्यों से ग्रस्त है। उनमें सबसे दुखद ‘कन्या भ्रूण-हत्या’ से संबंधित अमानवीयता, अनैतिकता और क्रूरता की वर्तमान स्थिति हमारे देश की ही ‘विशेषता’ है...उस देश की, जिसे एक धर्म प्रधान देश, अहिंसा व आध्यात्मिकता का प्रेमी देश और नारी-गौरव-गरिमा का देश होने पर गर्व है।
वैसे तो प्राचीन इतिहास में नारी पारिवारिक व सामाजिक जीवन में बहुत निचली श्रेणी पर भी रखी गई नज़र आती है, लेकिन ज्ञान-विज्ञान की उन्नति तथा सभ्यता-संस्कृति की प्रगति से परिस्थिति में कुछ सुधार अवश्य आया है, फिर भी अपमान, दुर्व्यहार, अत्याचार और शोषण की कुछ नई व आधुनिक दुष्परंपराओं और कुप्रथाओं का प्रचलन हमारी संवेदनशीलता को खुलेआम चुनौती देने लगा है। साइंस व टेक्नॉलोजी ने कन्या-वध की सीमित समस्या को, अल्ट्रासाउंड तकनीक द्वारा भ्रूण-लिंग (Foetus Gender) की जानकारी देकर, समाज में कन्या भ्रूण-हत्या को व्यापक बना दिया है। दुख की बात है कि शिक्षित तथा आर्थिक स्तर पर सुखी-सम्पन्न वर्ग में यह अतिनिन्दनीय काम अपनी जड़ें तेज़ी से फैलाता जा रहा है।
इस व्यापक समस्या को रोकने के लिए गत कुछ वर्षों से कुछ चिंता व्यक्त की जाने लगी है। साइन बोर्ड बनाने से लेकर क़ानून बनाने तक, कुछ उपाय भी किए जाते रहे हैं। जहां तक क़ानून की बात है, विडम्बना यह है कि अपराध तीव्र गति से आगे-आगे चलते हैं और क़ानून धीमी चाल से काफ़ी दूरी पर, पीछे-पीछे। नारी-आन्दोलन (Feminist Movement) भी रह-रहकर कुछ चिंता प्रदर्शित करता रहता है, यद्यपि वह नाइट क्लब कल्चर, सौंदर्य-प्रतियोगिता कल्चर, कैटवाक कल्चर, पब कल्चर, कॉल गर्ल कल्चर, वैलेन्टाइन कल्चर आदि आधुनिकताओं (Modernism) तथा अत्याधुनिकताओं (Ultra-modernism) की स्वतंत्रता, स्वच्छंदता, विकास व उन्नति के लिए (मौलिक मानवाधिकार के हवाले से) जितना अधिक जोश, तत्परता व तन्मयता दिखाता है, उसकी तुलना में कन्या भ्रूण-हत्या को रोकने में बहुत कम तत्पर रहता है।
कुछ वर्ष पूर्व एक मुस्लिम सम्मेलन में (जिसका मूल-विषय ‘मानव-अधिकार’ था) एक अखिल भारतीय प्रसिद्ध व प्रमुख एन॰जी॰ओ॰ की एक राज्यीय (महिला) सचिव ने कहा था— ‘पुरुष-स्त्री अनुपात हमारे देश में बहुत बिगड़ चुका है (1000:840, से 1000:970 तक) लेकिन इसकी तुलना में मुस्लिम समाज में यह अनुपात बहुत अच्छा, हर समाज से अच्छा है। मुस्लिम समाज से अनुरोध है कि वह इस विषय में हमारे समाज और देश का मार्गदर्शन और सहायता करें...।’
उपरोक्त असंतुलित लिंग-अनुपात (Gender Ratio) के बारे में एक पहलू तो यह है कि कथित महिला की जैसी चिंता, हमारे समाजशास्त्री वर्ग के लोग आमतौर पर दर्शाते रहते हैं और दूसरा पहलू यह है कि जैसा कि उपरोक्त महिला ने ख़ासतौर पर ज़िक्र किया, हिन्दू समाज की तुलना में मुस्लिम समाज की स्थिति काफ़ी अच्छी है। इसके कारकों व कारणों की समझ भी तुलनात्मक विवेचन से ही आ सकती है। मुस्लिम समाज में बहुएं जलाई नहीं जातीं। ‘बलात्कार और उसके बाद हत्या’ नहीं होती। लड़कियां अपने माता-पिता के सिर पर दहेज और ख़र्चीली शादी का पड़ा बोझ हटा देने के लिए आत्महत्या नहीं करती। जिस पत्नी से निबाह न हो रहा हो उससे ‘छुटकारा’ पाने के लिए ‘हत्या’ की जगह पर ‘तलाक़’ का विकल्प है और इन सबके अतिरिक्त, कन्या भ्रूण-हत्या की लानत मुस्लिम समाज में नहीं है।
मुस्लिम समाज यद्यपि भारतीय मूल से ही उपजा, इसी का एक अंग है, यहां की परंपराओं से सामीप्य और निरंतर मेल-जोल (Interaction) की स्थिति में वह यहां के बहुत सारे सामाजिक रीति-रिवाज से प्रभावित रहा तथा स्वयं को एक आदर्श इस्लामी समाज के रूप में पेश नहीं कर सका, बहुत सारी कमज़ोरियां उसमें भी घर कर गई हैं, फिर भी तुलनात्मक स्तर पर उसमें जो सद्गुण पाए जाते हैं, उनका कारण सिवाय इसके कुछ और नहीं हो सकता, न ही है, कि उसकी उठान एवं संरचना तथा उसकी संस्कृति को उत्कृष्ट बनाने में इस्लाम ने एक प्रभावशाली भूमिका अदा की है।
इस्लाम, 1400 वर्ष पूर्व जब अरब प्रायद्वीप (Arabian Penisula) के मरुस्थलीय क्षेत्र में एक असभ्य और अशिक्षित क़ौम के बीच आया, तो अनैतिकता, चरित्रहीनता, अत्याचार, अन्याय, नग्नता व अश्लीलता और नारी अपमान और कन्या-वध के बहुत से रूप समाज में मौजूद थे। इस्लाम के पैग़म्बर का ईश्वरीय मिशन, ऐसा कोई ‘समाज सुधार-मिशन’ न था जिसका प्रभाव जीवन के कुछ पहलुओं पर कुछ मुद्दत के लिए पड़ जाता और फिर पुरानी स्थिति वापस आ जाती। बल्कि आपका मिशन ‘सम्पूर्ण-परिवर्तन’, समग्र व स्थायी ‘क्रान्ति’ था, इसलिए आप (सल्ल॰) ने मानव-जीवन की समस्याओं को अलग-अलग हल करने का प्रयास नहीं किया बल्कि उस मूल-बिन्दु से काम शुरू किया जहां समस्याओं का आधार होता है। इस्लाम की दृष्टि में वह मूल बिन्दु समाज, क़ानून-व्यवस्था या प्रशासनिक व्यवस्था नहीं बल्कि स्वयं ‘मनुष्य’ है अर्थात् व्यक्ति का अंतःकरण, उसकी आत्मा, उसकी प्रकृति व मनोवृत्ति, उसका स्वभाव, उसकी चेतना, उसकी मान्यताएं व धारणाएं और उसकी सोच (Mindset) तथा उसकी मानसिकता व मनोप्रकृति (Psychology)।
इस्लाम की नीति यह है कि मनुष्य का सही और वास्तविक संबंध उसके रचयिता, स्वामी, प्रभु से जितना कमज़ोर होगा समाज उतना ही बिगाड़ का शिकार होगा। अतएव सबसे पहला क़दम इस्लाम ने यह उठाया कि इन्सान के अन्दर एकेश्वरवाद का विश्वास और पारलौकिक जीवन में अच्छे या बुरे कामों का तद्नुसार बदला (कर्मानुसार ‘स्वर्ग’ या ‘नरक’) पाने का विश्वास ख़ूब-ख़ूब मज़बूत कर दे। फिर अगला क़दम यह कि इसी विश्वास के माध्यम से मनुष्य, समाज व सामूहिक व्यवस्था में अच्छाइयों के उत्थान व स्थापना का, तथा बुराइयों के दमन व उन्मूलन का काम ले। इस्लाम की पूरी जीवन-व्यवस्था इसी सिद्धांत पर संरचित होती है और इसी के माध्यम से बदी व बुराई का निवारण भी होता है।
बेटियों की निर्मम हत्या की उपरोक्त कुप्रथा को ख़त्म करने के लिए पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) ने अभियान छेड़ने, भाषण देने, आन्दोलन चलाने, और ‘क़ानून-पुलिस-अदालत-जेल’ का प्रकरण बनाने के बजाए केवल इतना कहा कि ‘जिस व्यक्ति के तीन (या तीन से कम भी) बेटियां हों, वह उन्हें ज़िन्दा गाड़कर उनकी हत्या न कर दे, उन्हें सप्रेम व स्नेहपूर्वक पाले-पोसे, उन्हें (नेकी, शालीनता, सदाचरण व ईशपरायणता की) उत्तम शिक्षा-दीक्षा दे, बेटों को उन पर प्रमुखता व वरीयता न दे, और अच्छा-सा (नेक) रिश्ता ढूंढ़कर उनका घर बसा दे, तो पारलौकिक जीवन में वह स्वर्ग में मेरे साथ रहेगा।’
‘परलोकवाद’ पर दृढ़ विश्वास वाले इन्सानों पर उपरोक्त संक्षिप्त-सी शिक्षा ने जादू का-सा असर किया। जिन लोगों के चेहरों पर बेटी पैदा होने की ख़बर सुनकर कलौंस छा जाया करती थी (क़ुरआन, 16:58) उनके चेहरे अब बेटी की पैदाइश पर, इस विश्वास से, खिल उठने लगे कि उन्हें स्वर्ग-प्राप्ति का एक साधन मिल गया है। फिर बेटी अभिशाप नहीं, वरदान, ख़ुदा की नेमत, बरकत और सौभाग्यशाली मानी जाने लगी और समाज की, देखते-देखते काया पलट गई।
मनुष्य की कमज़ोरी है कि कभी कुछ काम लाभ की चाहत में करता है और कभी डर, भय से, और नुक़सान से बचने के लिए करता है। इन्सान के रचयिता ईश्वर से अच्छा, भला इस मानव-प्रकृति को और कौन जान सकता है? अतः इस पहलू से भी कन्या-वध करने वालों को अल्लाह (ईश्वर) ने चेतावनी दी। इस चेतावनी की शैली बड़ी अजीब है जिसमें अपराधी को नहीं, मारी गई बच्ची से संबोधन की बात क़ुरआन में आई है—
‘और जब (अर्थात् परलोक में हिसाब-किताब, फ़ैसला और बदला मिलने के दिन) ज़िन्दा गाड़ी गई बच्ची से (ईश्वर द्वारा) पूछा जाएगा, कि वह किस जुर्म में क़त्ल की गई थी’ (क़ुरआन, 81:8,9)।
इस वाक्य में, बेटियों को क़त्ल करने वालों को सख़्त-चेतावनी दी गई है और इसमें सर्वोच्च व सर्वसक्षम न्यायी ‘ईश्वर’ की अदालत से सख़्त सज़ा का फ़ैसला दिया जाना निहित है। एकेश्वरवाद की धारणा तथा उसके अंतर्गत परलोकवाद पर दृढ़ विश्वास का ही करिश्मा था कि मुस्लिम समाज से कन्या-वध की लानत जड़, बुनियाद से उखड़ गई। 1400 वर्षों से यही धारणा, यही विश्वास मुस्लिम समाज में ख़ामोशी से अपना काम करता आ रहा है और आज भी, भारत में मुस्लिम समाज ‘कन्या भ्रूण-हत्या’ की लानत से पाक, सर्वथा सुरक्षित है। देश को इस लानत से मुक्ति दिलाने के लिए इस्लाम के स्थाई एवं प्रभावकारी विकल्प से उसको लाभांवित कराना समय की एक बड़ी आवश्यकता है।


रोकिए, मादा भ्रूण हत्याएं
—विद्या प्रकाश—

भ्रूण-हत्या, दहेज हत्या, सती-प्रथा, देवदासी प्रथा आदि विभिन्न स्वरूपों में नारी उत्पीड़न का सिलसिला शिक्षा के बड़े पैमाने पर प्रचार-प्रसार के बावजूद जारी है। भ्रूण-हत्या के मध्यकालीन तरीक़ों का स्थान अब आधुनिक चिकित्सा पद्धतियों तथा मेडिकल तकनीकों ने ले लिया है।
नारी उत्पीड़न के विभिन्न रूप में भ्रूण-हत्या कम ख़तरनाक और भयंकर नहीं है। पहले नवजात और अब अजन्मी बच्चियों को मौत के घाट उतारा जा रहा है। खुल्लम-खुल्ला अत्याधुनिक अल्ट्रासाउंड तकनीक के माध्यम से उनका लिंग-निर्धारण किया जा रहा है और थोड़े से पैसे के लिए मां के गर्भाशय में पल रहे बालिका-भ्रूण को जन्म लेने से पहले ही मारा जा रहा है। इस सम्बन्ध में उपलब्ध आंकड़े इतने ख़तरनाक और लोमहर्षक हैं कि उन्हें सुनकर किसी भी संवेदनशील व्यक्ति की अन्तरात्मा और हृदय कांपे बग़ैर नहीं रहता। इस सम्बन्ध में सारे नियम-क़ानून छलावा मात्र बनकर रह गए हैं।
इस सिलसिले में एक आकलन के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष एक लाख से ज़्यादा महिलाएं गर्भ सम्बन्धी कारणों से अकाल मौत का शिकार होती हैं। इनमें से ग्यारह प्रतिशत महिलाओं की मौत का कारण गर्भपात सम्बन्धी जटिलताएं बताया जाता है। आज स्थिति यहां तक बन आई है कि बालिका भ्रूण की हत्या ने भयावह सामाजिक एवं चिकित्सा सम्बन्धी समस्या का रूप ले लिया है। इस सम्बन्ध में यह निश्चित तौर पर नहीं कहा और बताया जा सकता कि कितनी महिलाओं के गर्भपात होते हैं और कितनी महिलाएं स्वेच्छा से अथवा अन्य किसी पारिवारिक या सामाजिक विवशता के कारण गर्भपात का विकल्प चुनती हैं।
यह भी तयशुदा तौर पर दावा नहीं किया जा सकता कि ख़तरनाक क़िस्म के गर्भपात के दौरान कितनी महिलाओं को अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है, मगर हमारे देश में विभिन्न स्थानों एवं भूभागों में सारे क्षेत्रीय, भाषाई और आर्थिक विषमताओं के बावजूद बालिका भ्रूण की हत्या के कारण समान हैं और वे हैं—ख़ानदान को पुत्र की चाह, आर्थिक स्थिति कमज़ोर होने के कारण लड़की पैदा होने पर दहेज की समस्या आदि।
इस सम्बन्ध में सरकार को भी कोई चिन्ता नहीं है। किसे इतनी फ़िक्र और फ़ुरसत है, जो गर्भपात के आंकड़ों के गिरने या चढ़ने को लेकर नाहक़ (अकारण) अपनी नींद ख़राब करें। ऐसे में तथ्य सम्बन्धी केवल अनुमान ही किए जा सकते हैं। इस बारे में जो आंकड़े और आकलन उपलब्ध हैं भी, वे बहुत अधिक विश्वसनीय तथा वस्तुनिष्ठ नहीं कहे—माने जा सकते। एक अनुमान के अनुसार स्वदेश में 5 लाख से दो करोड़ वार्षिक गर्भपात कराया-किया जाता है तथा गर्भधारण की उम्र की प्रत्येक हज़ार महिलाओं में से 260 से लेकर 450 तक महिलाएं विभिन्न कारणों से अपना गर्भपात कराती हैं। फैमिली मेडिसिन इंडिया ने रामी छाबड़ा और नुना शील द्वारा वर्ष 1994 के एक अध्ययन और आकलन के आधार पर जानकारी दी है कि वर्ष 1992 में देश में कुल एक करोड़ 10 लाख गर्भपात हुए। यह बात कम आश्चर्यजनक नहीं है कि देश में गर्भपात को वैधानिक मान्यता मिले 20 वर्ष हो चुके हैं, लेकिन इनमें से केवल 6.6 प्रतिशत ही पंजीकृत गर्भपात (एम॰टी॰पी॰) थे।
एक आकलन के अनुसार वर्ष 1991 से पंजीकृत गर्भपात की दर में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है । सन् 1991 में पंजीकृत संस्थानों में कुल 6 लाख 36 हज़ार 456 गर्भपात हुए जबकि वर्ष 1998-99 में यह संख्या 6 लाख 66 हज़ार 882 रही। ऐसा माना जाता है कि हर दर से बारह अवैध गर्भपात पर एक एम॰टी॰पी॰ होता है। विश्व बैंक की 1996 की रिपोर्ट के अनुसार मौजूदा आधुनिक स्वास्थ्य सेवा नेटवर्क में हर साल 50 लाख गर्भपात अवैध ढंग से होते और कराए जाते हैं। आई॰सी॰एम॰आर॰ के वर्ष 1989 के एक अध्ययन के अनुसार उस समय देश में 40 लाख असुरक्षित गर्भपात हुए थे।
देश में सुलभ गर्भपात की सुविधा उपलब्ध होने के कारण से बालिका भ्रूण के लिए जीवन असुरक्षित हो गया है। इन सबके पीछे परिवार में पुत्र-प्राप्ति की प्रेरणा इस हद (सीमा) तक काम करती है कि स्वभावतः धर्मभीरू और क़ानून का पालन करने वाली महिलाएं भी क़ानून तोड़कर और जीवन ख़तरे में डालकर गर्भपात के लिए रज़ामन्द हो जाया करती हैं। अस्सी के दशक के अन्त में देश में भ्रूण के लिंग निर्धारण की आधुनिक तकनीक लोकप्रिय होने लगी थी।
इस सम्बन्ध में उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार पुत्र प्राप्ति की कामना में प्रतिवर्ष लगभग 40 लाख महिलाएं अपने जीवन का ख़तरा उठाकर अवैध गर्भपात कराने पर आमादा (तैयार) होती है। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आई॰एम॰ए॰) के अनुसार यह संख्या 50 लाख का आंकड़ा पार कर चुकी है। अखिल भारतीय जनसंख्या प्रभाग के अनुसार प्रसव के पूर्व मौत के घाट उतारी जाने वाली बालिकाओं की संख्या चार से पांच करोड़ के बीच बताई गई है। अगर सरकारी आंकड़ों पर विश्वास किया जाए, तो पूरे देश में कुल 107 बालिका भ्रूणों की ही हत्या हुई। कितने हास्यास्पद हैं ये सरकारी आंकड़े?
सामान्यतः गर्भपात का निर्णय महिला का नहीं होता। विशेष रूप से दहेज की कुप्रथा, पारिवारिक और आर्थिक कारण उसे इस अपराध के लिए प्रेरित करते हैं। स्थिति तब और भी गंभीर तथा ख़तरनाक हो जाया करती है, जब अर्थाभाव तथा ग़रीबी की वजह से महिलाएं बालिका भ्रूण की हत्या के लिए झोलाछाप डॉक्टरों की सहायता लेती हैं, जो कभी-कभी जानलेवा सिद्ध होती है। बरसाती कुकुरमुत्तों की भांति विभिन्न नगरीय और ग्रामीण क्षेत्रों में स्थापित नर्सिंग होमों और जच्चा-बच्चा केन्द्रों (प्रसूतिगृहों) में भी यह काम चोरी-छिपे तौर पर अच्छी रक़म लेकर किया जाता है।
इस प्रकार के घिनौनी कृत्य केवल क़ानून बनाने से नहीं रुक सकता। इसके लिए सामाजिक चेतना जागृत करने की आवश्यकता है। इसके लिए महिला संगठनों को भी आगे आना होगा। इसके अतिरिक्त सरकार की भी यह ज़िम्मेदारी है कि वह एम॰टी॰पी॰ एक्ट को कड़ाई से लागू करे, नर्सिंग होमों तथा अल्ट्रासाउंड मशीनों का पंजीकरण करे, वर्ष 1994 के पी॰एन॰डी॰टी॰ एक्ट का उल्लंघन करने वाले चिकित्सकों के विरुद्ध कठोर क़ानूनी कार्रवाई की जाए तथा सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशानुसार अल्ट्रासाउंड क्लीनिकों और गर्भपात केन्द्रों पर कड़ी निगरानी रखी जाए।

कब रुकेंगी भ्रूण हत्याएं
—मुहम्मद यूसुफ़ ‘मुन्ना’—

वास्तव में भ्रूण-हत्या, मानव हत्या है। यह जघन्य अपराध जितनी तेज़ी से समाज में फैल रहा है, इससे समाज कलंकित होने के साथ-साथ नैतिक गिरावट का भी शिकार हुआ है। इस घृणित अपराध ने जहां जीवन के अधिकारों का अतिक्रमण किया है, वहीं न जाने कितने जीवनों को जन्म से पूर्व असमय ही निगल लिया है। इस कुकृत्य में मानव को जीवन देने वाले डॉक्टरों की अच्छी-ख़ासी संख्या लिप्त है, जिनके हाथों प्रतिदिन अबोध, अविकसित मानव जीवन दम तोड़ रहा है। इस पूरे मामले में सबसे दुख की बात यह है कि ममता की प्रतिमूर्ति कही जाने वाली महिलाएं भी इसमें स्वयं लिप्त हैं।
समाज में फैल रहे इस घिनौने अपराध के पीछे कुछ ऐसे सामाजिक दोष हैं, जो दुष्कृति को बढ़ावा दिए हुए हैं। इन्हीं सामाजिक दोषों के कारण बहुत बार न चाहते हुए भी महिलाएं भ्रूण-हत्या के लिए विवश होती हैं, क्योंकि अच्छे या बुरे कर्मों के पीछे कुछ हद तक समाज भी ज़िम्मेदार होता है। स्पष्ट है कि जब तक समाज में लड़के और लड़की में भेद, दहेज प्रथा, जनसंख्या नियंत्रण, धार्मिक रूढ़िवाद, धन का लोभ आदि रहेगा, भ्रूण-हत्या पर क़ाबू पाना कठिन होगा। भ्रूण-हत्या के मामले में जो बातें पाई जाती हैं वह यह कि नर की अपेक्षा मादा भ्रूण की हत्या बहुत अधिक होती है। आइए, भ्रूण-हत्या के कारणों पर एक नज़र डालें।
समाज में जब से जनसंख्या नियंत्रण के अभियान ने ज़ोर पकड़ा है, लोगों में छोटा परिवार सुखी परिवार का संदेश गया है और सीमित बच्चों का परिवार फ़ैशन बना है, भ्रूण-हत्या में तेज़ी आई है। जनसंख्या पर नियंत्रण के लिए अपनाए जाने वाले साधनों में भ्रूण-हत्या को भी शामिल कर लिया गया है। जनसंख्या नियंत्रण के राग और छोटा परिवार रखने के फ़ैशन ने लोगों को भ्रूण-हत्या के लिए उकसाने का काम किया है।
भारतीय समाज में इस तरह की हत्याओं का प्रचलन बहुत पुराना है। लिंग परीक्षण की आधुनिक मशीनों के आगमन से पूर्व भी लड़की पैदा होने पर प्राचीन रूढ़ियों के चलते उसकी हत्या कर दी जाती थी। आज भी लिंग भेद के चलते हत्या की जाती है। बस हत्या के कारण और रूप बदल गए हैं। आज भी लड़कों की अपेक्षा लड़कियों की भ्रूण में हत्या की संख्या बहुत अधिक है। लड़कियों की भ्रूण-हत्या के पीछे समाज में फैले दहेज रूपी दानव की भी भूमिका रही है। गर्भ में हत्या के अलावा ससुराल में दहेज के लिए हत्या, प्रताड़ना के कारण आत्महत्या आदि घटनाओं में चिंताजनक हद तक बढ़ोत्तरी हुई है।
मादा भ्रूण-हत्या के कारण लिंगीय संतुलन बिगड़ रहा है और दोनों के अनुपात में अन्तर आ रहा है। कुछ राज्यों में तो यह असंतुलन चिंताजनक स्थिति तक पहुंच गया है। 
समाज में लड़के-लड़कियों में तेज़ी से फैल रहे भेदभाव के कारण भी मादा भ्रूण-हत्या में वृद्धि हुई है। लड़के के सम्बन्ध में जहां सकारात्मक धारणा यह पाई जाती है कि वह घर की आर्थिक सहायता करेगा, माता-पिता का सहारा बनेगा, उनकी सेवा करेगा। वहीं लड़की के बारे में यह सोच पाई जाती है कि वह पराई अमानत (धरोहर) है, न तो वह मां-बाप की सेवा करेगी, न ही उनका सहारा बनेगी, उलटे वह परिवार पर बोझ है। ऐसे सोच-विचार के कारण लोगों में पुत्र मोह अधिक पनपता है और लड़कियों के प्रति उपेक्षाभाव। इस तरह की सशक्त धारणा उस समय महसूस होती है, जब ख़बर मिलती है कि पुत्र की चाह में किसी बच्चे की बलि चढ़ा दी गई। ऐसी घटनाएं प्रायः सामने आती रहती हैं।
बढ़ती महंगाई ने भी भ्रूण-हत्या को प्रोत्साहन देने का काम किया है। ग़रीब परिवारों में बच्चों की परवरिश पर होने वाले ख़र्च के डर से उनकी भ्रूण-हत्या कर दी जाती है। ऐसे ग़रीब परिवारों के मन-मस्तिष्क में यह बात बैठा दी गई है कि अधिक बच्चे विकास के मार्ग में बाधक हैं, जबकि इस तरह के तर्क, सोच और विचार पूरी तरह से अप्राकृतिक व असामाजिक हैं। यदि बड़ा परिवार ग़रीबी का कारण बनता, तो आज देश के प्रमुख उद्योगपति व व्यापारी ग़रीब हो चुके होते।
समाज में बढ़ रही भ्रूण-हत्या की घटनाएं उसकी नैतिक गिरावट की सूचक हैं। वर्तमान के भोगवादी संस्कृति ने आग में घी डालने का काम किया है। समाज में जिस तरह खुलापन आया है, उसने लोगों को निर्लज्ज बनाने के साथ-साथ संवेदनहीन भी बनाया है। इस खुलेपन व भोगवादी संस्कृति ने अवैध सम्बन्धों को पशुता की हद तक पहुंचा दिया है। इस दिशा में अवैध संबंधों व अवैध भ्रूण-हत्या को बढ़ावा दिया है। यह संख्या बहुत अधिक है। चूंकि ऐसे मामले इतने गुप्त होते हैं कि उनकी सही संख्या का पता नहीं चल पाता।
भ्रूण-हत्या के सम्बन्ध में सबसे घिनौना रोल डॉक्टरों का रहा है। बहुत से डॉक्टरों ने तो इसको अपना धंधा बना लिया। छोटे-छोटे स्थानों पर खुलने वाले क्लीनिक जिनकी ओर मरीज़ कम आकर्षित होते हैं, वे अवैध भ्रूण की हत्या का पेशा अपना लेते हैं। नब्बे के दशक के आरंभ में जयपुर में एक निजी क्लीनिक ने ‘एमनियोसेटेंसिस’ तकनीक से गर्भ में लिंग परीक्षण की शुरुआत की थी। जिस पर जयपुर के कुछ डॉक्टरों ने आरोप लगाया था कि इस क्लीनिक में प्रतिदिन औसतन 10 भ्रूण-हत्याएं होती हैं। उस समय यहां भ्रूण लिंग परीक्षण के 1400 रुपए, भ्रूण-हत्या के 1200 रुपए अर्थात् कुल 2600 रुपए वसूले जाते थे।
देश की राजधानी कही जाने वाली दिल्ली, उत्तर प्रदेश के कानपुर, लखनऊ जैसे महानगरों तथा देश के अनेक शहरों में यह धंधा ज़ोरों से चल रहा है। एक आंकड़े के अनुसार सन् 1978 से 1983 तक पूरे देश में लगभग 78,000 मादा भ्रूणों की हत्या की गई थी। इस समय पूरे देश में लगभग प्रतिवर्ष 18560 भ्रूण-हत्याएं हो रही है।
चिकित्सा के क्षेत्र में जब से सोनोग्राफ़ी, अल्ट्रासाउंड आया है, तब से यह काम और अधिक तेज़ हो गया है। बहुत बार तो मात्र पैसे के लिए डॉक्टर नर भ्रूण को मादा बताकर उसकी हत्या कर देते हैं। जबकि सरकार ने भ्रूण-हत्या को रोकने के लिए ‘‘लिंग परीक्षण प्रतिरोधी क़ानून’’ बना रखे हैं, फिर भी लिंग परीक्षण जारी है।
चिकित्सा विज्ञान का इस दुष्कृत्य के लिए लगातार दुरुपयोग हो रहा है। अब तो भ्रूण की हत्या के लिए इसको ‘क्रश’ करने के अतिरिक्त इसमें ‘एमक्रेडिल’ नामक दवा डाल दी जाती है, जिससे भ्रूण अपने आप बाहर निकल आता है। अल्ट्रा-सोनोग्राफी से लिंग परीक्षण तभी हो सकता है, जब गर्भ तीन से चार महीने का हो जाता है।
इसके बाद ही भ्रूण-हत्या संभव है। भ्रूण का लिंगीय परीक्षण ग़लत भी हो सकता है। इस सम्बन्ध में डॉक्टरों का कहना है कि कोई भी टेस्ट सौ प्रतिशत सही नहीं हो सकता है।
सरकार के पास पर्याप्त क़ानून होने के बाद भी पूरे देश में बड़ी संख्या में भ्रूण-हत्याएं हो रही हैं। इस सम्बन्ध में पहले सरकार के पास भारतीय दंड संहिता (आई॰पी॰सी॰) के अतिरिक्त और कोई क़ानून नहीं था, पर अब मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रिगनेंसी एक्ट (ए॰पी॰टी॰) के अतिरिक्त राज्य सरकारों ने भी पर्याप्त क़ानून बना रखे हैं।
इस सम्बन्ध में सरकार की उदासीनता संदेहात्मक है। इस उदासीनता के पीछे कहीं सरकार की मुख्य सोच जनसंख्या नियंत्रण तो नहीं है? कहीं सरकार यह तो नहीं चाहती कि इसी बहाने कम से कम जनसंख्या वृद्धि में कुछ कमी बनी रहे।
समाज में जारी भ्रूण-हत्या से यह तो स्पष्ट है कि व्यवस्था में कहीं न कहीं कमी ज़रूर है। चाहे वह जान-बूझकर हो या अनजाने में, पर यह कमी समाज के लिए बहुत घातक है। यह बात सर्वविदित है कि मादा भ्रूण की हत्या बड़े पैमाने पर हो रही है। साथ ही प्रतिवर्ष लगभग 25,000 महिलाएं अन्य कारणों से काल का ग्रास बन रही हैं। इससे ज़ाहिर होता है कि भ्रूण-हत्या का आरोप एक पक्षीय होता जा रहा है। वैसे भी भ्रूण-हत्या कराने वालों में सबसे बड़ी संख्या उन लोगों की है, जो दहेज से बचने के लिए मादा भ्रूण की हत्या कराते हैं या लोकलाज के भय से अवैध भ्रूण की।
यदि एकपक्षीय हो रही भ्रूण-हत्या को समय रहते रोका न गया, तो समाज में एक ऐसा शून्य पैदा हो जाएगा, जिसको भर पाना आसान नहीं होगा।
सरकार को चाहिए कि वह मात्र भ्रूण-हत्या निरोधक क़ानून न बनाएं, बल्कि भ्रूण-हत्या के लिए उक्साने व विवश करने वाले सामाजिक दोषों पर अंकुश लगाएं। दहेज प्रथा, अश्लीलता, सामाजिक खुलापन व अवैध सम्बन्धों को रोकने के लिए कठोर क़दम उठाए।
समाज के जागरूक व प्रबुद्ध वर्ग को भी इस दिशा में आगे आना होगा, ताकि समाज में व्याप्त रूढ़िवादी परम्पराओं दोषों व कमियों को समाप्त किया जा सके। महिलाओं को इस सम्बन्ध में विशेष रूप से आगे आना होगा तथा जागृति लानी होगी, क्योंकि भ्रूण-हत्या का समाज से समाप्त होना या समाज में व्याप्त होना दोनों ही उनकी सोच, आचार-विचार पर मुख्य रूप से निर्भर करता है।

बच्ची की लाश और कुत्ता
—डॉ॰ मुहम्मद अहमद—
(संपादक, कान्ति)

जी हां, यह हृदयविदारक दृश्य चाय पी रहे लोगों ने देखा, जिसने उन्हें स्तब्ध ही नहीं अन्दर से हिला दिया। सहसा वे यक़ीन नहीं कर सके कि कुत्ते के मुंह में जो कुछ है, वह एक नवजात बच्ची की लाश है। यह दृश्य कुरुक्षेत्र बस अड्डे के निकट स्थित ज्योतिसर टूरिस्ट कामप्लेक्स के ठीक सामने का है, जहां लगे कूड़े के ढेर से कुत्ते ने शव को अपने जबड़ों में दबोचा। यह ज्योतिसर वही स्थल है, जिसके बारे में गीता की जन्मस्थली होने का दावा किया जाता है। पुलिस को सूचित करने पर उपाधीक्षक कमलदीप मौक़े पर पहुंचे और सामान्य प्रक्रिया (?) के तहत अपनी कार्रवाई शुरू कर दी।
‘दैनिक भास्कर’ (18 मार्च 2009, हिसार संस्करण) के अनुसार, बताया जाता है कि बच्ची होने के कारण उसे मृत्यु का दंश झेलना पड़ा, वह भी अत्यंत नृशंस और निर्मम। कहां गई मां की ममता? माता-पिता का संतान के प्रति सहज-स्वाभाविक लगाव, वात्सल्य का जनाज़ा किसने निकाल दिया? कितना बर्बर हो गया है भौतिकवादी समाज? कन्या भ्रूण-हत्या के आंकड़े बार-बार सामने आते हैं जो समाज की क्रूरता बताते हैं। कुछ पिताओं के कर्तव्य पर भी सवालिया निशान लग रहे हैं। लड़कियों की लगातार घटती संख्या को सामने लाते हैं, मगर न मीडिया में कोई बहस छिड़ती है और न ही समाज के कर्णधार उद्वेलित होते हैं मानो सब गूंगे, बहरे, अंधे हो गए हों। उन्हें तो लगता है कि नकारात्मक मुद्दों से मोह है और ये ऐसे इन्सान हैं, जिन्हें इन्सानों से ही वैर है।
जो आंकड़े प्रकाशित-प्रसारित होते हैं, उनसे पता चलता है कि पंजाब-हरियाणा क्षेत्र ऐसा है जहां कन्या भ्रूण-हत्या के मामले सर्वाधक हैं, जिसके नतीजे में स्त्री-पुरुष अनुपात में स्त्रियों की संख्या चिन्ताजनक स्थिति तक घट गई है। अभी पिछले वर्ष हरियाणा के एक गांव में मुद्दतों बाद एक ऐसी लड़की पैदा हुई, जो जीवित थी, अतः ख़बर बन गई। यह ऐसा गांव रहा है कि जहां बच्ची को जीवित नहीं रखा जाता था। लोग बच्ची रखना अपना और अपने ख़ानदान का अपमान समझते थे और किसी को दामाद बनाना इतना असह्य था मानो उनकी नाक कट गई हो। अरब में हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के आगमन से पूर्व ज्ञानाभाव काल में लगभग यही स्थिति थी। इस्लाम ने इस विषम स्थिति को एकदम बदल दिया और बच्चियों का ठीक से पालन-पोषण होने लगा और उनको यथोचित सम्मान मिलने लगा। इस्लाम की शिक्षाओं में महिलाओं की प्रतिष्ठा व सम्मान एक उल्लेखनीय स्थान रखता है।
पवित्र क़ुरआन मानवता के नाम ईश्वर का सन्देश और निर्देश है। इसकी 81वीं सूरह (अध्याय) में भी क़ियामत (प्रलय) का दृश्य पेश किया गया है। इस दिन जो सवाल पूछे जाएंगे, उनमें यह भी होगा—‘‘जब जीवित गाड़ी हुई लड़की से पूछा जाएगा कि उसकी हत्या किस गुनाह के कारण की गई?’’ अत-तकवीर : 8,9)। जगत-उद्धारक हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने फ़रमाया, ‘‘तुममें से जिसके तीन लड़कियां या तीन बहनें हों और वह उनके साथ अच्छा व्यवहार करे, तो वह जन्नत में अनिवार्यतः प्रवेश पाएगा’’ (तिरमिज़ी)।