Total View : 679

अल्लाह के रसूल (सल्ल॰) का व्यवहार अपने शत्रुओं के

  
  • PART 1

अल्लाह के रसूल (सल्ल॰) का व्यवहार अपने शत्रुओं के साथ

अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के विषय में क़ुरआन में कहा गया है—
‘‘(ऐ नबी!) हमने तुम्हें सारे संसार के लिए मात्र दयालुता (रहमत) बनाकर भेजा है।’’                (क़ुरआन, 21:107)
क़ुरआन की यह आयत बताती है कि हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) को पैग़म्बरी के पद पर नियुक्त करने का वास्तविक उद्देश्य यह रहा है कि संसार में ईश्वर की दया और अनुकम्पा पूर्ण रूप से प्रदर्शित हो और ऐसा न हो कि मानवजाति दुनिया की हर चीज़ से तो फ़ायदा उठाए, किन्तु ईश्वर की दया और उसकी विशेष अनुकम्पा से वंचित रह जाए।
किन्तु जानना चाहिए कि भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति से बढ़कर ईश्वर की विशिष्ट अनुकम्पा और अनुग्रह मानव-जाति के एक अन्य क्षेत्र में भी हुआ है। वह मानव का आत्मिक क्षेत्र है। मानव शरीर ही नहीं रखता, बल्कि वह आत्मा भी रखता है। आध्यात्म की गहराई में जाने के बाद ज्ञात होता है कि मानव वास्तव में शरीर नहीं बल्कि आत्मा ही है। मनुष्य के शरीर की आवश्यकताओं की तरह उसकी आत्मा की भी अपनी विशिष्ट आवश्यकताएँ हैं। आत्मा की एक बड़ी आवश्यकता यह है कि वह चाहती है कि उसके अपने अस्तित्व का कोई उच्च और स्थायी आशय हो। क्योंकि इसके बिना उसकी और मानव-जीवन की कोई सार्थकता ही शेष नहीं रहती। जिस प्रकार प्यास और भूख में शरीर के लिए जल और भोज्य-पदार्थ चाहिए उसी प्रकार आत्मा की भी अपनी पिपासा है। आत्मा की प्यास और भूख वास्तव में आत्म-ज्ञान और ब्रह्म-ज्ञान ही से मिट सकती है। इसके अतिरिक्त आत्मा स्वभावतः अपनी अभिव्यक्ति भी चाहती है। यह अभिव्यक्ति मनुष्य के नैतिक आचरण के द्वारा संभव होती है। नैतिक गुणों और नैतिक मान्यताओं को जो महत्व प्राप्त है उसके वास्तविक कारण से साधारणतः लोग अनभिज्ञ होते हैं। नैतिक गुणों और नैतिक व्यवहार के द्वारा वास्तव में आत्मा की कोमलता और सुन्दरता की अभिव्यक्ति होती है। नैतिकता अपने व्यापक अर्थों में जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से सम्बन्ध रखती है और जीवन का प्रत्येक क्षेत्र इससे आच्छादित होता है, चाहे उसका सम्बन्ध सामाजिक मामलों से हो या आर्थिक समस्याओं से, या वह राजनीति के क्षेत्र से हो। किसी भी क्षेत्र से नैतिकता का बहिष्कार जघन्य अपराध एवं अन्याय से कम नहीं।
साधारणतया लोग अपने शरीर के आस-पास ही जीते हैं, इसलिए वे अपनी शारीरिक आवश्यकताओं को ख़ूब समझते हैं और उन शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति से प्राप्त इन्द्रीय सुख का ही आभास करते हैं। काश, वे यह जान सकें कि इन्द्रीय सुख ही सब कुछ नहीं है, आत्मा द्वारा मनुष्य को जो सुख और शान्ति प्राप्त होती है और उसे जिस आनन्द का आभास  होता है, वह चीज़ और ही है, उसका तो किसी और चीज़ से मुक़ाबला किया ही नहीं जा सकता। आत्मा द्वारा मनुष्य उस ऊँचाई को पा लेता है जहाँ जीवन संगीतमय हो जाता है, जीवन कोई अप्रिय बोझ बनकर नहीं रहता।
इस्लाम ने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में नैतिकता ही को मूल आधार स्वीकार किया है। नैतिकता का सम्बन्ध किसी एक क्षेत्र से नहीं वरन् जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से है, नैतिक आचरणों के माध्यम से ही जीवन में आत्मा की अभिव्यक्ति होती है और नैतिक आचरण के द्वारा ही आत्मा विकसित भी होती है। आत्मा की इसी अभिव्यक्ति के कारण सज्जनता, सुशीलता, सच्चरित्रता और मृदुभाषिता आदि में से एक प्रकार का अलौकिक सौन्दर्य का आभास होता है।
ऊपर यह बात आ चुकी है कि हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) की नुबूवत का वास्तविक उद्देश्य ईश्वरीय दयालुता का प्रदर्शन था। इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए आप (सल्ल॰) को नुबूवत के पद पर आसीन किया गया था। मानव के मार्गदर्शन की जो महान सेवा आप (सल्ल॰) ने की है उसमें ईश्वर की अनुकम्पा और दयालुता ही दिखाई देती है। जिस प्रकार ईश्वर सारे जगत् का पालनकर्ता और प्रेमपात्र है उसी तरह अल्लाह के रसूल (सल्ल॰) की करुणा और शिक्षाएँ भी सारे मानवों के लिए हैं। आप (सल्ल॰) वास्तव में सम्पूर्ण मानव कल्याण और भलाई के लिए ही दुनिया में आए थे। आप (सल्ल॰) की शिक्षा मित्र तो मित्र शत्रुओं के प्रति भी सुचरित्रता और सज्जनता के साथ पेश आने की शिक्षा है। क़ुरआन में है—
‘‘तुम बुराई को अच्छे से अच्छे चरित्र के द्वारा दूर करो, फिर देखो कि वही व्यक्ति, तुम्हारे और जिसके मध्य शत्रुता पाई जाती थी, ऐसा हो गया जैसे कि कोई घनिष्ट मित्र हो।’’
(क़ुरआन, 41:34)
अल्लाह के रसूल (सल्ल॰) ने संसार के समस्त मानवों को समान रूप से सत्य-धर्म से परिचित कराने का प्रयास किया। इसमें अपने और पराए का कोई अंतर नहीं रखा। फिर इसी के साथ आप (सल्ल॰) की शिक्षा भी थी कि नेकी और ईशपरायणता के कार्यों में सबके साथ सहयोग किया जाए और अन्याय और अत्याचार के कामों में अपना सहयोग देने से बचा जाए। क़ुरआन में भी स्पष्ट शब्दों में आया है— 
‘‘हक़ अदा करने और ईशपरायणता के काम में एक-दूसरे का सहयोग करो और हक़ मारने और ज़ुल्म-ज़्यादती के काम में एक-दूसरे का सहयोग न करो।’’               (क़ुरआन, 5:2)
एक अवसर पर आप (सल्ल॰) ने स्पष्ट शब्दों में यह भी कहा कि ईश्वर ने मुझे मात्र इस उद्देश्य से भेजा है कि मैं नैतिक गुणों को उनकी पराकाष्ठा तक पहुँचा दूँ कि उनमें किसी प्रकार की कमी न रहे।
नबी (सल्ल॰) ने कमज़ोरों और निस्सहाय लोगों को ऊपर उठाया, प्रताड़ित स्त्रियों को सम्मान दिया और इस बात की ताकीद की कि उनके हक़ और अधिकारों का ध्यान रखा जाए। हम यहाँ आप (सल्ल॰) के महान कार्यों का विवरण प्रस्तुत करना नहीं चाहते। इस समय हम केवल यह देखने की कोशिश करेंगे कि आप (सल्ल॰) का व्यवहार ग़ैरों और अपने शत्रुओं के साथ कैसा रहा है। जो अपने शत्रुओं का शुभ चाहता हो उसका अपने शत्रुओं के प्रति कितना करुणापूर्ण व्यवहार होगा, इसे प्रत्येक व्यक्ति समझ सकता है।

नबी (सल्ल॰) का शत्रुओं के प्रति व्यवहार
जब हम अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के जीवन-चरित्र का अध्ययन करते हैं तो जो विशेष बात स्पष्ट रूप से सामने आती है वह यह है कि आप (सल्ल॰) ने कभी भी अपने किसी बड़े-से-बड़े दुश्मन से भी व्यक्तिगत बदला नहीं लिया। नुबूवत के एलान के बाद आप (सल्ल॰) के विरोधियों ने आप (सल्ल॰) और आप (सल्ल॰) के साथियों के साथ जो दुर्व्यवहार किया और ज़ुल्म की नीति अपनाई, इतिहास के पृष्ठों में उसे देखा जा सकता है। कौन-सा अत्याचार है जो विरोधियों ने आप (सल्ल॰) और आप (सल्ल॰) के अनुयायियों के साथ न किया हो। विरोधियों के ज़ुल्म से विवश होकर आप (सल्ल॰) के कितने ही सहाबा (रज़ि॰) को देश छोड़कर हब्शा में पनाह लेनी पड़ी। दुश्मनों ने वहाँ भी उनका पीछा किया। स्वयं रसूल (सल्ल॰) को क़त्ल करने की साज़िश रची गई और विवश होकर आप (सल्ल॰) को अपने प्रिय नगर मक्का को त्याग कर मदीना की ओर प्रस्थान करना पड़ा। मदीना जाने से पहले आप (सल्ल॰) की इच्छा थी कि काबा में दाख़िल हो लें, लेकिन काबे का द्वार आपके लिए नहीं खोला गया। काबे के कुंजीबरदार ने आप (सल्ल॰) के लिए काबे का द्वार खोलने से सख़्ती के साथ इन्कार कर दिया, लेकिन दुनिया ने यह दृश्य भी देखा कि मक्का की विजय के अवसर पर काबा की कुंजी आप (सल्ल॰) ने उसी व्यक्ति को प्रदान की जिसने काबे का द्वार आप (सल्ल॰) के लिए बंद रखा और कुछ भी नर्मी से काम न लिया। आप (सल्ल॰) ने कुंजी उसे सौंपते हुए यह कहा कि जो व्यक्ति इससे कुंजी छीनेगा, ज़ालिम होगा। उस व्यक्ति को आप (सल्ल॰) का ऐसा आशीर्वाद प्राप्त हुआ कि आज भी काबा की कुंजी उसी व्यक्ति के ख़ानदान में चली आ रही है।
•••
जब मक्का के इस्लाम विरोधियों ने देखा कि मुसलमान मदीना में शक्तिशाली होते जा रहे हैं और वहाँ इस्लाम फैलता जा रहा है तो उन्होंने विचार-विमर्श के लिए गोष्ठी की और अंत में यह निर्णय किया कि हर क़बीले से एक व्यक्ति चुना जाए और फिर एक साथ मिलकर मुहम्मद (सल्ल॰) की हत्या कर दी जाए। इस प्रकार इस हत्या में तमाम क़बीले सम्मिलित होंगे और मुहम्मद (सल्ल॰) का क़बीला आले-हाशिम तमाम क़बीलों का मुक़ाबला न कर सकेगा। सबने आप (सल्ल॰) के घर को घेर लिया, ताकि जब आप (सल्ल॰) सुबह को घर से बाहर निकलें तो आप (सल्ल॰) पर हमला कर दें। अरब के लोग किसी के घर के भीतर, जहाँ औरतें भी रहती हों, प्रवेश करना बुरा समझते थे, इसलिए वे बाहर ही ठहरे रहे ताकि प्रातः बेला में आप (सल्ल॰) को क़त्ल किया जा सके।
धर्म के विरोधियों को नबी (सल्ल॰) से इस दर्जे की शत्रुता थी फिर भी वे आप (सल्ल॰) की ईमानदारी पर भरोसा रखते थे। जिस किसी को कुछ माल या कोई चीज़ किसी के पास अमानत के रूप में रखनी होती तो वह आप (सल्ल॰) ही के पास आकर रख देता था। इस तरह आप (सल्ल॰) के पास बहुत-सी अमानतें एकत्र हो गई थीं। आप (सल्ल॰) को पहले से मालूम हो गया था कि शत्रुओं का इरादा क्या है। इसलिए आप (सल्ल॰) ने हज़रत अली (रज़ि॰) को बुलाया और कहा कि मुझे ईश्वर की ओर से आदेश मिल चुका है। मैं आज मक्का छोड़कर मदीना के लिए प्रस्थान करूँगा। तुम मेरी जगह मेरे पलंग पर मेरी चादर ओढ़कर सो जाओ, सुबह-सवेरे सबकी अमानतें वापस कर देना।
सोचने की बात है कि ऐसे शत्रु जो नबी (सल्ल॰) को क़त्ल करना चाहते हैं, किन्तु आप यह नहीं चाहते कि उनकी अमानत की चीज़ें उन तक न पहुँचें। ऐसे नाज़ुक अवसर पर भी आप (सल्ल॰) ने ऐसी व्यवस्था की कि दुश्मनों की अमानतें उन तक पहुँच सकें। यह था नबी (सल्ल॰) का व्यवहार अपने शत्रुओं के साथ जो आप (सल्ल॰) की जान के दुश्मन हो गए थे। ऐसे नाज़ुक अवसर पर भी आप (सल्ल॰) ने जिस धर्मपरायणता का परिचय दिया, इतिहास में उसकी मिसाल मिलनी मुश्किल है।
•••
मक्का में नबी (सल्ल॰) विजयी होकर प्रवेश करते हैं। आप (सल्ल॰) के वे शत्रु जो आप (सल्ल॰) के ख़ून के प्यासे रहे हैं और जिन्होंने तरह-तरह की आपको तकलीफ़ें पहुँचाई थीं, तीन वर्ष तक अबू तालिब की घाटी में आप (सल्ल॰) को और आप (सल्ल॰) के ख़ानदान वालों को क़ैद कर रखा था और सामाजिक और आर्थिक बहिष्कार के कष्ट झेलने पर विवश कर दिया था, आज वे सारे शत्रु पराजित होकर सामने खड़े थे और भयभीत थे कि देखिए आज उनके साथ क्या व्यवहार किया जाता है। आप (सल्ल॰) ने कोई रक्तपात नहीं किया, बल्कि घोषणा कर दी कि जो मस्जिदे-हराम में पनाह ले ले, उसे पनाह दी जाती है; जो अबू सुफ़ियान के घर में शरण ले ले उसे भी अमान प्राप्त है और जो अपने ही घर में पनाह ले ले उसे भी क्षमा कर दिया जाएगा। अबू सुफ़ियान क़ुरैश के सरदारों में से था। उसने आप (सल्ल॰) की दुश्मनी में किसी प्रकार की कमी नहीं की थी और जब तक उसका बस चला आप (सल्ल॰) का विरोध ही करता रहा। किन्तु आज आप (सल्ल॰) अपने इतने बड़े शत्रु को यह कहकर सम्मानित कर रहे हैं कि जो अबू सुफ़ियान के घर शरण ले ले उसे भी अमान है।
नबी (सल्ल॰) की सज्जनता और आप (सल्ल॰) के महान चरित्र को देखिए कि दुश्मन शिकंजे में हैं और डरे-सहमे हैं; सोच रहे हैं कि न जाने उनके साथ क्या व्यवहार किया जाने वाला है। तभी आप (सल्ल॰) की ओर से एलान किया जाता है—
‘‘आज तुम पर कोई मलामत नहीं; जाओ, तुम सब स्वतंत्र हो।’’
•••
वह्शी नामक एक व्यक्ति मक्का में रहता था। इसी व्यक्ति ने नबी (सल्ल॰) के प्रिय चचा हज़रत हमज़ा (रज़ि॰) को क़त्ल किया था। वह यह सोच कर मक्का से भाग गया था कि मुहम्मद (सल्ल॰) उसे क्षमा नहीं कर सकते। लेकिन जब उसे आप (सल्ल॰) की दया और सद्व्यवहार की सूचना मिली तो वापस आकर आप (सल्ल॰) की सेवा में उपस्थित हुआ। आप (सल्ल॰) ने उसे क्षमा कर दिया। केवल इतना कहा कि तुम मेरे सामने न आया करना, क्योंकि तुम्हें देखकर मुझे चचा की याद आएगी और ग़म ताज़ा हो जाएगा।
•••
हिन्द अबू सुफ़ियान की पत्नी थी। इसने आप (सल्ल॰) के चचा हज़रत हमज़ा (रज़ि॰) की छाती फाड़कर उनके कलेजे के टुकड़े किए थे। मक्का की विजय के अवसर पर चेहरे पर नक़ाब डालकर आपके पास आई ताकि आप (सल्ल॰) उसे पहचान न सकें और अमान हासिल हो जाए। इस अवसर पर भी वह दुस्साहस दिखाने से बाज़ न आईं। आप (सल्ल॰) ने उसे पहचान लिया और उसे क्षमा कर दिया। आप (सल्ल॰) ने उस हृदयविदारक घटना का ज़िक्र तक न किया। हिन्द के लिए आप (सल्ल॰) का यह व्यवहार किसी आश्चर्यजनक चमत्कार से कम न था, वह प्रभावित हुए बिना न रह सकी और पुकार उठी— 
‘‘ऐ अल्लाह के रसूल! आपके शिविर से अधिक बुरा कोई शिविर मेरी दृष्टि में न था, किन्तु आज आपके शिविर से बढ़कर प्रिय कोई दूसरा शिविर नहीं है।’’
•••
सफ़वान-बिन-उमैया क़ुरैश के रईसों में से था। उसकी गणना इस्लाम के घोर शत्रुओं में होती थी। यही वह व्यक्ति है जिसने उमैर-बिन-वह्ब को नबी (सल्ल॰) के क़त्ल पर नियुक्त किया था और इसके लिए उसने इनाम का वादा भी कर रखा था। मक्का पर जब नबी (सल्ल॰) को विजय प्राप्त हुई तो वह भागकर जद्दा चला गया और वहाँ से समुद्र मार्ग से यमन जाने की सोच रहा था। उमैर-बिन-वह्ब ने नबी (सल्ल॰) से कहा कि सफ़वान अपने क़बीले के रईस हैं। डर के कारण भाग गए हैं। आप (सल्ल॰) ने कहा, ‘‘उसे अमान है।’’ उमैर (रज़ि॰) ने कहा कि अमान की कोई निशानी प्रदान की जाए जिसे देखकर उनको विश्वास हो कि उनकी जान के लिए कोई ख़तरा नहीं है। आप (सल्ल॰) ने अपना अमामा (पगड़ी) प्रदान किया। जब हज़रत उमैर (रज़ि॰) उस अमामा को लेकर सफ़वान के पास पहुँचे तो सफ़वान ने कहा कि मुझे वहाँ जाने में अपनी जान का डर है। उमैर (रज़ि॰) ने कहा, ‘‘सफ़वान, तुम अभी मुहम्मद (सल्ल॰) की सहनशीलता और क्षमा से परिचित नहीं हो!’’ सफ़वान हज़रत उमैर (रज़ि॰) के साथ नबी (सल्ल॰) की सेवा में उपस्थित हुए और कहा कि ‘‘उमैर कहते हैं कि आपने मुझे अमान दी है?’’ आप (सल्ल॰) ने कहा, ‘‘यह सच है।’’ सफ़वान ने निवेदन किया कि मुझे दो माह की मुहलत दी जाए। आप (सल्ल॰) ने कहा, ‘‘तुम्हें चार माह की मुहलत है।’’ इसके बाद सफ़वान सहर्ष इस्लाम स्वीकार कर लेते हैं।
•••
इकरमा इस्लाम के सबसे बड़े शत्रु अबू जह्ल के बेटे थे। ये भी अपने पिता की तरह नबी (सल्ल॰) के कट्टर शत्रुओं में से थे। मक्का की विजय के अवसर पर भागकर यमन चले गए। इकरमा की पत्नी ने इस्लाम ग्रहण कर लिया था। वह यमन गई और इकरमा को भरोसा दिलाया कि तुम्हें क्षमा कर दिया जाएगा। इकरमा इस्लाम ग्रहण कर लेते हैं और नबी (सल्ल॰) की सेवा में उपस्थित होते हैं। अल्लाह के रसूल (सल्ल॰) ने जब इकरमा को देखा तो आप (सल्ल॰) की ख़ुशी की कोई हद न रही। आप (सल्ल॰) तुरन्त खड़े हो गए और तेज़ी से इकरमा की ओर बढ़े। उस समय आप (सल्ल॰) की ज़बान पर ये शब्द थे— 
मरहबा बिर्राकिबिल्-मुहाजिर
अर्थात् ‘‘ऐ हिजरत करने वाले सवार तुम्हारा स्वागत है।’’
•••
अरब के क़बीलों में से कोई क़बीला अगर अंत तक इस्लाम का विरोधी रहा तो वह बनी हनीफ़ा का क़बीला था। सुमामा-बिन-अस्साल इस क़बीले के रईसों में से थे। संयोग से मुसलमानों के हाथ गिरफ़्तार हुआ। नबी (सल्ल॰) के आदेश से उसे मस्जिद के खम्भे से बाँध दिया गया। आप (सल्ल॰) मस्जिद में आए तो पूछा कि सुमामा तुम्हारा क्या हाल है? उसने कहा, ‘‘ठीक है, ऐ मुहम्मद! अगर मुझे क़त्ल करते हो तो एक ऐसे व्यक्ति को क़त्ल करोगे जो अपनी क़ौम का सरदार है और यदि एहसान करोगे तो यह एहसान एक कृतज्ञ व्यक्ति पर होगा। अगर धन चाहिए तो कहो, मैं दूँगा।’’ आप (सल्ल॰) उसे इसी दशा में छोड़कर चले गए। फिर दूसरे दिन आप (सल्ल॰) उसके पास आए और कहा, ‘‘सुमामा, तुम्हारा क्या हाल है?’’ उसने कहा, ‘‘वही जो मैं पहले कह चुका हूँ। यदि एहसान करोगे तो यह एहसान एक कुतज्ञ व्यक्ति पर होगा।’’ आप (सल्ल॰) फिर उसे उसी हाल पर छोड़कर चले गए। यहाँ तक कि इसके बाद जब उसके पास आए तो कहा, ‘‘सुमामा, क्या हाल है?’’ उसने कहा, ‘‘मेरा हाल वही है जो मैं पहले बयान कर चुका हूँ।’’ आप (सल्ल॰) ने कहा, ‘‘सुमामा को खोल दो!’’
सुमामा को इस मधुर व्यवहार की आशा न थी। क़ैद से रिहा होकर निकट के बाग़ में जाकर स्नान किया और लौट कर इस्लाम ग्रहण कर लिया और अपने भाव को इन शब्दों में व्यक्त किया—
‘‘ऐ अल्लाह के रसूल! धरती पर पहले मेरी दृष्टि में आपके चेहरे से अधिक नापसन्दीदा कोई चेहरा न था, किन्तु आज आपका चेहरा समस्त चेहरों में अधिक प्रिय है। ईश्वर की सौगन्ध! आपके धर्म से अधिक बुरा मेरी दृष्टि में कोई अन्य धर्म न था, और आज सबसे बढ़कर प्रिय मेरी दृष्टि में आपका धर्म है। ईश्वर की सौगन्ध! पहले समस्त नगरों में सबसे बुरा नगर मेरी दृष्टि में आपका नगर था, किन्तु आज समस्त नगरों में मेरी दृष्टि में प्रिय आपका नगर है।’’
पहले दिन सुमामा का ख़्याल था कि उसे क़त्ल कर दिया जाएगा, उसे क्षमा नहीं किया जा सकता। किन्तु जब उसने आप (सल्ल॰) की उदारता और आप (सल्ल॰) के मधुर व्यवहार को देख लिया तो निराशा आशा में बदल गई और अपनी वार्ता का आरम्भ उसने एहसान और कृतज्ञता पूर्ण शब्दों से किया। नबी (सल्ल॰) के सद्व्यवहार और आप (सल्ल॰) की सुशीलता का प्रभाव यह हुआ कि आप (सल्ल॰) से अत्यधिक घृणा करने वाला वह व्यक्ति मूलतः बदल जाता है और बिना किसी विलम्ब के आप (सल्ल॰) पर प्राण न्योछावर करने वालों में सम्मिलित हो जाता है और आप (सल्ल॰) ही नहीं बल्कि आप (सल्ल॰) की हर चीज़ उसे सबसे बढ़कर प्रिय हो जाती है। यह था नबी (सल्ल॰) के चरित्र का वह जादू जिससे बढ़कर किसी जादू की कल्पना भी नहीं कर सकते।
•••
हुदैबिया की संधि के अवसर पर हज़रत असमा की माँ, जो मुस्लिम नहीं थी, अपनी बेटी असमा के पास आर्थिक सहायता के लिए आती हैं। हज़रत असमा (रज़ि॰) नबी (सल्ल॰) के पास आकर पूछती हैं कि मेरी माँ जो इस्लाम की विरोधी और बहुदेववादी है उसके साथ क्या व्यवहार करूँ? आप (सल्ल॰) ने कहा, ‘‘उसके साथ नेक व्यवहार करो।’’
•••
हज़रत अबू हुरैरा (रज़ि॰) की माँ इस्लाम-विरोधी थीं। नबी (सल्ल॰) को गालियाँ दिया करती थीं। हज़रत अबू हुरैरा (रज़ि॰) ने जब उसके सम्बन्ध में आप (सल्ल॰) से कहा तो आप (सल्ल॰) ने क्रोधित होने के बजाए उसके हक़ में दुआ के लिए अपने हाथ उठा दिए। आप (सल्ल॰) की दुआ क़बूल हो गई और हज़रत अबू हुरैरा (रज़ि॰) की माँ ईमान ले आईं।
•••
फ़िदक़ की विजय के बाद की घटना है। यह हिजरत का सातवाँ वर्ष था। हज़रत बिलाल (रज़ि॰) नबी (सल्ल॰) के विशिष्ट निकटस्थ व्यक्ति थे और आप (सल्ल॰) के घर के प्रबन्धक रहे हैं। अभाव की दशा में बाज़ार से उधार सौदा भी लाते थे और जब रक़म आ जाती तो ऋण चुका देते। एक अवसर पर एक बहुदेववादी व्यक्ति ने उनसे कहा, ‘‘ऋण लेना हो तो मुझ से ले लिया करो।’’ हज़रत बिलाल (रज़ि॰) ने उससे ऋण ले लिया। एक दिन जब बिलाल अज़ान देने के लिए खड़े हुए तो वह व्यक्ति कुछ सौदागरों के साथ आया और कहा, ‘‘ऐ हब्शी! वादे के केवल चार दिन शेष रह गए हैं। ऋण न चुकाया तो मैं तुम से बकरियाँ चरवाकर रहूँगा।’’
हज़रत बिलाल (रज़ि॰) नबी (सल्ल॰) की सेवा में उपस्थित हुए और कुछ दिन कहीं चले जाने का अपना इरादा ज़ाहिर किया। नबी (सल्ल॰) ने जब यह सब कुछ सुना तो उस व्यक्ति के बारे में कुछ नहीं कहा और न ही उसके दुर्भावपूर्ण कटु शब्दों और क्रूरता का कुछ ख़याल किया। इसके बाद संयोग से ग़ल्ला आ जाता है और ऋण चुका दिया जाता है।
•••
एक यहूदी का लड़का बीमार होता है। नबी (सल्ल॰) उसका हाल मालूम करने के लिए उसके यहाँ जाते हैं। आप (सल्ल॰) ने देखा कि वह मरने के निकट है। आप (सल्ल॰) को उसके परलोक की चिंता होती है। आप (सल्ल॰) सोच में पड़ जाते हैं कि कहीं यह ईमान लाए बिना दुनिया से विदा हो जाए और परिणामतः नरक में जा पड़े। आप (सल्ल॰) ने विलम्ब नहीं किया और लड़के के पिता की मौजूदगी में उसके सामने यह प्रस्ताव रखा कि वह सत्य-धर्म को स्वीकार कर ले। बेटे ने पिता की ओर देखा कि वे क्या कहते हैं। वह लड़का बड़ा सौभाग्यशाली था। पिता ने कहा, ‘‘बेटा! अबुल-क़ासिम (नबी सल्ल॰) की बात मान ले।’’ पुत्र इस्लाम स्वीकार कर लेता है और नबी (सल्ल॰) की मौजूदगी में संसार से प्रस्थान कर जाता है। नबी (सल्ल॰) सहाबा (रज़ि॰) से कहते हैं कि अपने भाई की अंत्येष्टि की तैयारी करो।’’
•••
ईसाइयों का एक प्रतिनिधिमण्डल नजरान से मदीना आया। नबी (सल्ल॰) ने उसका अतिथि-सत्कार किया और उसे मस्जिदे-नबवी में ठहराया। इतना ही नहीं बल्कि आप (सल्ल॰) ने उसे इसकी भी इजाज़त दे दी कि वह मस्जिद में अपने तरीक़े पर उपासना भी कर सकता है। सहाबा ने प्रतिनिधि-मण्डल के लोगों को रोकना चाहा, मगर नबी (सल्ल॰) ने कहा कि उन्हें अपने तरीक़े से इबादत करने से रोका न जाए।
•••
अब्दुल्लाह-बिन-उबई मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) का सरदार था। वह अपने आपको मुसलमान ज़ाहिर करता था, मगर दिल से वह आप (सल्ल॰) का और इस्लाम का शत्रु था। उसके साथियों की नीति भी कपटाचार ही की थी। अब्दुल्लाह-बिन-उबई को जब भी अवसर मिला इस्लाम और मुसलमानों को नुक़सान पहुँचाने में कोई कमी नहीं की और न वह नबी (सल्ल॰) को तकलीफ़ पहुँचाने से बाज़ आया। उहुद की लड़ाई में ठीक युद्ध के नाज़ुक अवसर पर अपने तीन सौ आदमियों को लेकर अलग हो गया। फिर भी आप (सल्ल॰) ने उसे क्षमा कर दिया। मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) का यह सरदार जब मरा तो इस एहसान के बदले में कि उसने हज़रत अब्बास (रज़ि॰) को अपना कुर्ता दिया था नबी (सल्ल॰) ने उसे अपना कुर्ता पहनाकर दफ़न किया।
•••
इतिहास इस घटना को भी भूल नहीं सकता जो घटना नबी (सल्ल॰) के साथ तायफ़ में घटी थी। नबी (सल्ल॰) जब तायफ़ गए तो वहाँ के लोगों ने आप (सल्ल॰) के साथ दुष्टतापूर्वक व्यवहार किया। आप (सल्ल॰) को और आप (सल्ल॰) के पैग़ाम को झुठलाया, आप (सल्ल॰) को सताने के लिए लड़कों को आप (सल्ल॰) के पीछे लगा दिया। आप (सल्ल॰) पर पत्थरों की बारिश की गई जिससे आप (सल्ल॰) के पैर रक्तरंजित (लहूलुहान) हो गए। लेकिन आप (सल्ल॰) ने तायफ़वासियों के हक़ में बद्दुआ नहीं की।
•••
हुदैबिया के मैदान में नबी (सल्ल॰) मुसलमानों के साथ प्रातःकाल (फ़ज्र) की नमाज़ पढ़ रहे थे। दुश्मनों के सत्तर या अस्सी आदमी चुपके से तनीम पर्वत से उतरे, ताकि मुसलमानों को नमाज़ की हालत में क़त्ल कर दें। ये सभी लोग पकड़े गए। लेकिन नबी (सल्ल॰) ने इनको बिना किसी फ़िदया (दण्ड या अर्थदण्ड) के छोड़ दिया और उनके घातक आक्रमण का कुछ भी ख़याल न किया।
•••
हज़रत तुफ़ैल-बिन-अम्र (रज़ि॰) नबी (सल्ल॰) की सेवा में उपस्थित हुए और कहा कि दौस क़बीले ने अवज्ञा की नीति अपनाई है और सत्य को मानने से इन्कार किया है। आप इस क़बीले के लिए बद्दुआ करें। लेकिन बद्दुआ के बजाए आप (सल्ल॰) के मुख से ये शब्द निकले—
‘‘अल्ला-हुम-म यह्दि दौसन व आतिबिहिम।’’
अर्थात् ‘‘ऐ अल्लाह दौस का मार्गदर्शन कर और उन्हें मेरे पास ला दे।’’
उदाहरण और भी प्रस्तुत किए जा सकते हैं, किन्तु ये कुछ मिसालें ही यह जानने के लिए पर्याप्त हैं कि नबी (सल्ल॰) की नीति अपने ग़ैरों के साथ कैसी रही है और आप (सल्ल॰) अपने दुश्मनों के साथ कैसा व्यवहार करते थे। नबी (सल्ल॰) ने कहा है—
इर्हमू मन फ़िल अर्ज़ यर्हमकुम मन फ़िस्समाए
‘‘ज़मीन वालों पर दया करो, आसमान वाला (ईश्वर) तुम पर दया करेगा।’’
नबी (सल्ल॰) का संपूर्ण जीवन इसी शिक्षा का दर्पण रहा है।
राह में काँटे जिसने बिछाए
गाली दी पत्थर बरसाए!
उस पर छिड़की प्यार की शबनम
सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम।।