Total View : 3959

बाबा साहब डा. अम्बेडकर और इस्लाम

बाबा साहब डा. अम्बेडकर और इस्लाम

By R. S. Adil

  
  • Part-1
  • Part-2
  • Part-3
  • Part-4
  • Part-5
  • Part-6

बाबा साहब डा. अम्बेडकर और इस्लाम
मूल रूप से पशु और मनुष्य में यही विशेष अंतर है कि पशु अपने विकास की बात नहीं सोच सकता, मनुष्य सोच सकता है और अपना विकास कर सकता है। हिन्दु धर्म ने दलित वर्ग को पशुओं से भी बदतर स्थिति में पहुंचा दिया है, यही कारण है कि वह अपनी स्थिति परिवर्तन के लिए पूरी तरह कोशिश नहीं कर पा रहा है। हाँ, पशुओं की तरह ही वह अच्छे चारे की खोज में तो लगा है लेकिन अपनी मानसिक ग़ुलामी दूर करने के अपने महान उद्देश्य को गंभीरता से नहीं ले रहा है।

दलितों की वास्तविक समस्या क्या है?

परंपरागत उच्च वर्ग द्वारा दलितों पर बेक़सूरी एवं बेरहमी से किए जा रहे अत्याचारों को कैसे रोका जाए, यही दलितों की मूल समस्या है।
हज़ारों वर्षों से दलित वर्ग पर अत्याचार होते आए हैं, आज भी बराबर हो रहा है। यह अत्याचारों का सिलसिला कैसे शुरु हुआ और आज तक भी यह अत्याचार क्यों नहीं रूके हैं? यह एक अहम सवाल है। इतिहास साक्षी है कि इस देश के मूल निवासी द्रविड़ जाति के लोग थे जो बहुत ही सभ्य और शांतिप्रिय थे। आज से लगभग पांच या छः हज़ार वर्ष पूर्व आर्य लोग भारत में आए और यहां के मूल निवासी द्रविड़ों पर हमले किए। फलस्वरूप आर्य और द्रविड़ दो संस्कृतियों में भीषण युद्ध हुआ। आर्य लोग बहुत चालाक थे। अतः छल से, कपट से और फूट की नीति से द्रविड़ों को हराकर इस देश के मालिक बन बैठे।
                                         इस युद्ध में द्रविड़ों द्वारा निभाई गई भूमिका की दृष्टि से द्रविड़ों को दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है। प्रथम श्रेणी में वह आते हैं जिन्होंने इस युद्ध में बहादुरी से लड़ते हुए अंत तक आर्यों के दांत खट्टे किए। उनसे आर्य लोग बहुत घबराते थे। दूसरी श्रेणी में वे द्रविड़ आते हैं जो इस युद्ध में आरंभ से ही तटस्थ रहें या युद्ध में भाग लेने के थोड़े समय बाद ही युद्ध से अपने आप को अलग कर लिया।
                              आर्यों ने विजय प्राप्त कर लेने के बाद युद्ध में भाग लेने वाले और न लेने वाले दो श्रेणी के द्रविड़ों को शूद्र घोषित कर दिया और उनका काम आर्यों की सेवा करना भी निश्चित कर दिया। केवल इतना फ़र्क़ किया कि जिन द्रविड़ों ने युद्ध में भाग नहीं लिया था उन्हें सछूत-शूद्र घोषित कर शांति से रहने दिया। कोली, माली, धुना, जुलाहे, कहार, डोम आदि इस क्षेणी में आते हैं। लेकिन जिन द्रविड़ों ने इस युद्ध में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और अपनी शूर वीरता का परिचय दिया उन मार्शल लोगों को अछूत-शूद्र घोषित कर दिया और इसके साथ ही उन्हें इतनी बुरी तरह कुचल दिया जिससे कि वे लोग हज़ारों साल तक सिर भी न उठा सके। उनके कारोबार ठप कर दिए, उन्हें गांव के बाहर बसने के लिए मजबूर कर दिया और उन्हें इतना बेबस कर दिया कि उन्हें जीवित रहने के लिए मृत पशुओं का मांस खाना पड़ा। इन्होंने अपनी टट्टी उठवाने तक का काम भी हमें सौंपा जिसे उस समय हमने मजबूरी में उठाना शुरु कर दिया और आज तक उठा रहे हैं। जाटव, भंगी, चमार, महार, खटीक आदि इस श्रेणी के लोग हैं।
किन्तु इस मार्शल श्रेणी के लोगों में से एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसा बना जिसने यह तय कर लिया कि ठीक है हम युद्ध में हार गए हैं लेकिन फिर भी हम इन आर्यों की ग़ुलामी स्वीकार नहीं करेंगे। वे लोग घोर जंगलों में निकल गए और वहीं पर रहने लगे। नागा, भील, संथाल, जरायु आदि जंगली जातियां इसी वर्ग में आती हैं, जो आज भी आर्यों की किसी भी सरकार को दिल से स्वीकार नहीं करती हैं और आज भी स्वतंत्रता पूर्वक जंगलों में ही रहना पसंद करती हैं।
                                                        आर्य संस्कृति का ही दूसरा नाम हिन्दु धर्म या हिन्दु समाज है। हिन्दु आज बात तो शांति की करते है, लेकिन हज़ारों वर्ष पूर्व हुए आर्य-द्रविड़ युद्ध में छल से हराए गए द्रविड़ संस्कृति के प्रति महाराजा रावण का प्रतिवर्ष पुतला जलाकर द्वेष भावना का प्रदर्शन करते हैं। आज भी वे शूद्रों को अपना शत्रु और ग़ुलाम मानकर उन्हें ज़िंदा जला डालते हैं, उनका क़त्लेआम करते हैं, उनके साथ तरह-तरह के अवर्णीय लोमहर्षक अत्याचार करते हैं। वर्तमान में हुए कुछ अत्याचारों के उदाहरण इस प्रकार हैं-

मंदिर में जल चढाने के आरोप में हरिजनों को गोली से उड़ा दिया 

(हमारे कार्यालय संवाददाता द्वारा) नई दिल्ली 7, अगस्त।

मध्य प्रदेश के शिवपुरी ज़िले में खेरावाली गांव में शिव मंदिर में जल चढ़ाने जा रहे तीन हरिजनों को दिन-दहाड़े गोली से उड़ा दिया गया। तीन अन्य घायल हो गए, इनमें एक ग़ैर-हरिजन था। यह जानकारी यहां मध्य प्रदेश के भूतपूर्व स्वायत्त शासक मंत्री व अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ई. के सदस्य श्री राजाराम सिंह ने दी। उन्होंने बताया कि गोली तो डाकुओं ने मारी लेकिन उन्हें गांव के ठाकुरों ने बुलाया था। घटना का विवरण देते हुए श्री राजाराम सिंह ने बताया कि ठाकुरों ने हरिजनों को पहले ही धमकी दी थी कि उन्हें शिवालय में जल नहीं चढ़ाने दिया जाएगा। हरिजनों ने इस धमकी की रिपोर्ट थाने में लिखवाई। पुलिस ने धारा 107 के अन्तर्गत मामला तो दर्ज कर लिया लेकिन कोई प्रभावी क़दम नहीं उठाया। श्री सिंह के अनुसार हरिजन 28 जुलाई को जब मथुरा ज़िले के सोरोघाट से कांवर में जल लेकर गांव आए और शिवालय जाने लगे तो पहले से उपस्थित डाकुओं के एक गिरोह ने उन पर गोली चलाई। इनमें तीन हरिजन मारे गए तथा अनेक घायल हुए। यह घटना दिन में 3 और 4 बजे के बीच हुई। घटना के बाद डाकू बिना किसी लूटपाट के लौट गए। अभी तक कोई गिरफ़्तारी नहीं हुई। (हिंदुस्तान दैनिक, दिनांक 8-8-1981)

हरिजन को पेड़ पर लटका कर मार दिया
                                    (सांध्य टाइम्स, दिनांक 11-8-1981) कोयम्बतूर से 20 किलोमीटर दूर मानपल्ली गांव में सवर्ण ज़मींदारों ने 20 वर्ष के हरिजन युवक को नारियल के पेड़ से लटका दिया। कई घंटे लटकने के बाद उस युवक की मृत्यु हो गई। पुलिस के अनुसार उस युवक के साथ दो हरिजन औरतों को भी नारियल के पेड़ से टांग दिया गया था। मगर युवक की मृत्यु के बाद उन्हें छोड़ दिया गया। बताया जाता है कि दो ज़मींदार मोटर साईकिल पर गांव से कहीं बाहर जा रहे थे। रास्ते में उन्हें दो हरिजन युवक और दो युवतियां दिखीं। उन ज़मींदारों को रास्ता देने पर झगड़ा हो गया। एक हरिजन युवक भाग खड़ा हुआ। शेष तीनों युवक युवतियों को नारियल के पेड़ से बांध दिया गया, जिससे युवक की मृत्यु हो गई।
                         इसके अतिरिक्त रोज़ाना ही अत्याचारों की ख़बरें अख़बारों में छपती रहती हैं। बेलछी, कफलटा, दिहुली, साढूपुर आदि में हुए दिल दहला देने वाले काण्ड कभी भुलाए नहीं जा सकते।देश में कोई ऐसा क्षण नहीं होगा जबकि दलित वर्ग पर अत्याचार नहीं होता होगा, क्योंकि अख़बार में तो कुछ ही ख़ास ख़बरें छप पाती हैं।

बाबा साहब ने इस संबंध में कहा हैः-
"ये अत्याचार एक समाज पर दूसरे समर्थ समाज द्वारा हो रहे अन्याय और अत्याचार का प्रश्न है। एक मनुष्य पर हो रहे अन्याय या अत्याचारों का प्रश्न नहीं है, बल्कि एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग पर ज़बरदस्ती किए जा रहे अतिक्रमण और ज़ुल्म, शोषण तथा उत्पीड़न का प्रश्न है।" (‘दलित वर्ग को धर्मान्तरण की आवश्यकता क्यों है' ? के पृष्ठ 9 से)
इस प्रकार यह एक निरंतर से चले आ रहे वर्ग कलह की समस्या है।

                                                           इन अत्याचारों को कौन करता है ? क्यों करता है ? और किस लिए करता है ?अत्याचारी अत्याचार करने में सफल क्यों हो रहा है ? क्या यह अत्याचार रोके जा सकते हैं ? अत्याचारों को रोकने का सही और कारगर उपाय, साधन या मार्ग क्या हो सकता है ? यह कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिन पर दलित वर्ग को आज फिर से संजीदगी से विचार करना चाहिए। दलित वर्ग पर अत्याचार हिन्दु धर्म के तथाकथित सवर्ण हिन्दु करते हैं और वे अत्याचार इस लिए नहीं करते कि दलित लोग उनका कुछ बिगाड़ रहे हैं बल्कि दलितों पर अत्याचार करना वे अपना अधिकार मान बैठे हैं और इस प्रकार का अधिकार उन्हें उनके धर्म ग्रन्थ भी देते हैं। 

सवर्ण अपनी परंपरागत श्रेष्ठता क़ायम रखने के लिए अत्याचार करता है। जब दलित वर्ग परंपरागत उच्च वर्ग (हिन्दु) से व्यवहार करते वक़्त बराबरी के, समानता के रिश्ते से बर्ताव रखने का आग्रह करता है तब यह वर्ग कलह उत्पन्न होता है, क्योंकि ऊपरी वर्ग निचले वर्ग के इस प्रकार के व्यवहार को अपनी मानहानि मानता है। इस प्रकार सवर्ण अपनी परंपरागत श्रेष्ठता क़ायम रखने के लिए अत्याचार करता है। सवर्ण और दलित वर्ग के बीच यह एक रोज़ाना होने वाला ‘वर्ग कलह' है।


बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर ने अपने भाषण में बताया है
                                                                "इस तरह से इस वर्ग कलह से अपना बचाव किया जा सकता है। इसका विचार करना अत्यावश्यक है। इस वर्ग कलह से अपना बचाव कैसे होगा ? इस प्रश्न का निर्णय करना मैं समझता हूं मेरे लिए कोई असंभव बात नहीं है। यहां इकट्ठा हुए आप सभी लोगों को एक ही बात मान्य करनी पड़ेगी और वह यह कि किसी भी कलह में, संघर्ष में, जिनके हाथ में सामर्थ्य होती है, उन्हीं के हाथ में विजय होती है, जिनमें सामर्थ्य नहीं है उन्हें अपनी विजय की अपेक्षा रखना फ़िज़ूल की बकवास है। इसके समर्थन में अन्य कोई आधार खोजने की बात भी फ़िज़ूल है। इस लिए तमाम दलित वर्ग को अब अपने हाथ में सामर्थ्य और शक्ति को इकट्ठा करना बहुत ज़रूरी है (‘दलित वर्ग को धर्मान्तरण की आवश्यकता क्यों है' ? के पृष्ठ 10 से)

सामर्थ्य अर्थात बल क्या चीज़ होती है ?

बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर ने कहा-
                           "मनुष्य समाज के पास तीन प्रकार का बल होता है। एक है मनुष्य बल, दूसरा है धन-बल, तीसरा है मनोबल। इन तीनों बलों में से कौन-सा बल आपके पास है ? मनुष्य बल की दृष्टि से आप अल्पसंख्यक ही नहीं बल्कि संगठित भी नहीं हैं। फिर संगठित नहीं, इतना ही नहीं, इकट्ठा भी तो नहीं रहते। दलित लोग गांव और खेड़ों में बिखरे हुए हैं इसी कारण से जो मनुष्य बल है भी उसका भी ज़्यादती ग्रस्त, ज़ुल्म से पीड़ित अछूत वर्ग की बस्ती को किसी भी प्रकार का उपयोग नहीं हो सकता है।"
"धन-बल की दृष्टि से देखा जाए तो आपके पास थोड़ा-बहुत जनबल तो है ही लेकिन धन-बल तो कुछ भी नहीं है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार देश की कुल आबादी की 55% जनसंख्या आज भी ग़रीबी की रेखा से नीचे का जीवन बिता रही है जिसका 90% दलित वर्ग के लोग ही हैं।" 

"मानसिक बल की तो उनसे भी बुरी हालत है। सैंकड़ों वर्षों से हिन्दुओं द्वारा हो रहे ज़ुल्म, छि-थू मुर्दों की तरह बर्दाश्त करने के कारण प्रतिकार करने की आदत पूरी तरह से नष्ट हो गई है। आप लोगों का आत्म विश्वास, उत्साह और महत्वकांक्षी होना, इस चेतना का मूलोच्छेद कर दिया गया है। हम भी कुछ कर सकते हैं इस तरह का विचार ही किसी के मन में नहीं आता है।" (‘दलित वर्ग को धर्मान्तरण की आवश्यकता क्यों है' ? के पृष्ठ 11-12 से) यदि मनुष्य के पास जनबल और धनबल यह दोनों हों भी और मनोबल न हो तो यह दोनों बेकार साबित हो जाते हैं। मान लीजिए आपके पास पैसा भी ख़ूब हो और आदमी भी काफ़ी हों, आपके पास बन्दूक़ें और अन्य सुरक्षा सामग्री भी उपलब्ध हो लेकिन आपके पास मनोबल न हो तो आने वाला शत्रु आपकी बन्दूक़ें और सुरक्षा सामग्री भी छीन ले जाएगा। अतः मनोबल को होना परम आवश्यक है। मनोबल का जगत प्रसिद्ध उदाहरण आपके सामने है। ऐतिहासिक घटना है कल्पना की बात नहीं। नेपोलियन एक बहुत साहसिक एवं अजेय सेनापति के रूप में प्रसिद्ध था, उसके नाम ही से शत्रु कांप उठते थे, लेकिन उसको मामूली से एक सैनिक ने युद्ध में हरा दिया था। विशेष उल्लेखनीय बात यह है कि इस सैनिक ने यह कह कर उसे हराया था कि मैं नेपोलियन को अवश्यय हराऊंगा क्योंकि मैने उसे खेल के मैदान में हरा रखा है। और वास्तव में उसने नेपोलियन को हरा दिया। उस सैनिक ने उस महान शक्तिशाली अजेय कहे जाने वाले नेपोलियन को इसलिए हरा दिया, क्योंकि उसका मनोबल नेपोलियन के प्रति खेल के मैदान से ही बढ़ा हुआ था। 

मनोबल की यह एक विशेषता है कि वह एक बार जब किसी के विरुद्ध बढ़ जाता है तो फिर उसका कम होना असंभव होता है। तभी तो नेपोलियन के पास वास्तविक भौतिक शक्ति एवं रण कौशल होने के बावजूद उसके विरुद्ध बढ़े मनोबल वाले एक मामूली से सैनिक ने उसे ऐलान करके हरा दिया। अतः यदि दलित वर्ग यह सोचे कि हम सिर्फ़ अपनी शक्ति के बल पर ही अत्याचारों का मुक़ाबला कर लेंगे तो यह उनकी भूल है। फिर हमें इस पहलू को हरग़िज़ नहीं भूलना चाहिए। सवर्ण हिन्दुओं का मनोबल हमारे विरुद्ध पहले से ही बहुत बढ़ा हुआ है। हम चाहे कितनी भी वास्तविक शक्ति अर्जित कर लें लेकिन वह तो यही सोचते हैं कि- है तो यह फिर वे ही चमार, भंगी (या अछूत) ही, यह कर भी क्या सकते हैं ? इस लिए हमें मनोबल बढ़ाने की ज़रूरत है और यह उसी समय संभव है जब हम किसी बाहरी सामाजिक शक्ति की मदद लें जिसका मनोबल गिरा हुआ नहीं वरन बढ़ा हुआ हो। और जिससे हिन्दु समाज डरता भी हो।

 

दलितों पर ही ज़ुल्म क्यों होता है?

बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर का कथन है-
                                  "वास्तविक स्थिति का मैने यह जो विश्लेषण किया है यदि यह ठीक है तो इससे जो सिद्धांत निकलेगा उसको भी आप सब लोगों को स्वीकार करना होगा और वह यह है कि आप अपने ही व्यक्तिगत सामर्थ्य पर निर्भर रहेंगे तो आपको इस ज़ुल्म का प्रतिकार करना संभव नहीं है। आप लोगों के सामर्थ्यहीन होने के कारण ही आप पर स्पृश्य हिन्दुओं द्वारा ज्यादती, ज़ुल्म और अन्याय होता है इसमें मुझे किसी भी प्रकार का संदेह नहीं है।" (‘दलित वर्ग को धर्मान्तरण की आवश्यकता क्यों है' ? के पृष्ठ 12 से)
बाबा साहब ने बताया किः-     
                       "आपकी तरह यहां मुस्लिम भी अल्पसंख्यक हैं। जिस तरह महार, चमार, मांगों (भंगियों) के दो-चार घर गांव में होते हैं उसी प्रकार मुस्लमान के भी दो-चार मकान गांव में होते हैं। किन्तु इन मुसलमानों की ओर आंखें उठाकर देखने की किसी भी स्पृश्य हिन्दु की मजाल होगी ? नहीं। किन्तु आप लोगों पर जैसे-जैसे ज़ुल्म ढाए जा रहे हैं, ज़्यादतियां हो रही हैं, इसका कारण क्या है। किसी गांव में मुसलमानों के दो घर होने पर कोई स्पृश्य हिन्दु उनकी ओर आंख उठाकर नहीं देख सकता है। आप (दलित-अस्पृश्य) लोगों के दस मकान होने पर भी स्पृश्य हिन्दु ज्यादती, अन्याय और ज़ुल्म करते हैं। आपकी बस्तियां जला दी जाती हैं, आपकी महिलाओँ से बलात्कार होता है। आदमी, बच्चे और महिलाओं को ज़िंदा जला दिया जाता है। आपकी महिलाओं, बहू और जवान बेटियों को नंगा कर के गांव में घुमाया जाता है यह सब क्यों होता है ? यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न है, इस पर आप लोगों को गंभीरता से चिंतन और खोज करनी चाहिए। मेरी दृष्टि में इस प्रश्न का एक ही उत्तर दिया जा सकता है और वह यह है कि उन दो मुसलमानों के पीछे सारे भारत के मुसलमान समाज की शक्ति और सामर्थ्य है। इस बात की हिन्दु समाज को अच्छी तरह जानकारी होने के कारण उन दो घर के मुसलमानों की ओर टेढ़ी उंगली उठाई तो पंजाब से लेकर मद्रास तक और गुजरात से लेकर बंगाल तक संपूर्ण मुस्लिम समाज अपनी शक्ति खर्च कर उनका संरक्षण करेगा। यह यक़ीन स्पृश्य हिन्दु समाज को होने के कारण वे दो घर के मुसलमान निर्भय होकर अपनी ज़िंदगी बसर करते हैं। किन्तु आप दलित अछूतों के बारे में स्पृश्य हिन्दु समाज की यह धारणा बन चुकी है और वाक़ई सच ही है कि आपकी कोई मदद करने वाला नहीं है, आप लोगों के लिए कोई दौड़ कर आने वाला नहीं है, आप लोगों को रुपये पैसे की मदद होने वाली नहीं है और न ही आपको किसी सरकारी अधिकारी की मदद होने वाली है। पुलिस, कोर्ट और कचहरियां यह सब उनके ही होने के कारण स्पृश्य हिन्दु और दलितों के संघर्ष में वे जाति की ओर देखते हैं, अपने कर्तव्य की ओर उनका कोई ध्यान नहीं होता है, पहले जाति बाद में कुछ और, और जाति वालों को भी इस बात का पूरी तरह यक़ीन होता है कि हमारा कौन क्या बाल बांका कर सकता है। आप लोगों की इस असहाय अवस्था के कारण ही आप पर स्पृश्य हिन्दु समाज ज़्यादती, ज़ुल्म और अन्याय करता है।" (‘दलित वर्ग को धर्मान्तरण की आवश्यकता क्यों है' ? के पृष्ठ 12 से)
बाबा साहब आगे कहते हैं-
                      "यहां तक जो मैने विश्लेषण किया है उससे दो बातें सिद्ध होती हैं। पहली बात यह है कि बिना सामर्थ्य के आप के लिए इस ज़ुल्म और अन्याय का प्रतिकार करना संभव नहीं है। दूसरी बात यह है कि प्रतिकार के लिए अत्यावश्यक सामर्थ्य आप के हाथ में नहीं है। यह दो बातें सिद्ध हो जाने के बाद तीसरी एक बात अपने आप ही सिद्ध हो जाती है कि यह आवश्यक सामर्थ्य आप लोगों को कहीं न कहीं से बाहर से प्राप्त करना चाहिए। यह सामर्थ्य आप कैसे प्राप्त कर सकते हैं ? यही सचमुच महत्व का प्रश्न है और आप उसका आप लोगों को निर्विकल्प दृष्टि से चिंतन और मनन करना चाहिए।" (‘दलित वर्ग को धर्मान्तरण की आवश्यकता क्यों है' ? के पृष्ठ 13-14 से)


बाहरी शक्ति कैसे प्राप्त करनी चाहिए ?

बाबा साहब के शब्दों को ध्यान से देखिए बाबा साहब लिखते हैं:-
"जिस गांव में अछूत लोगों पर स्पृश्यों की ओर से ज़ुल्म होता है उस गांव में अन्य धर्मावलंबी लोग नहीं होते हैं ऐसी बात नहीं है। अस्पृश्यों पर होने वाला ज़ुल्म बेक़सूरी का है, बेगुनाहों पर ज्यादती है, यह बात उनको (अन्य धर्म वालों को) मालूम नहीं ऐसी कोई बात नहीं है, जो कुछ हो रहा है वह वास्तव में ज़ुल्म और अन्याय है यह मालूम होने पर भी वे लोग अछूतों की मदद करने के लिए दौड़ कर नहीं जाते हैं, इसका कारण आख़िर क्या है ? ‘तुम हमको मदद क्यों नहीं देते हो ? यदि ऐसा प्रश्न आपने उनसे पूछा तो ‘आपके झगड़े में हम क्यों पड़ें ?' यदि आप हमारे धर्म के होते तो हमने आपको सहयोग दिया होता' - इस तरह का उत्तर वे आपको देंगे। इससे बात आपके ध्यान में आ सकती है कि किसी भी अन्य समाज के आप जब तक एहसानमंद नहीं होंगे किसी भी अन्य धर्म में शामिल हुए बिना आपको बाहरी सामर्थ्य प्राप्त नहीं हो सकता है। इसका ही स्पष्ट मतलब यह है कि आप लोगों को धर्मान्तर करके किसी भी अन्य समाज में अंतभूत हो जाना चाहिए। सिवाय इसके आपको उस समाज का सामर्थ्य प्राप्त होना संभव नहीं है। और जब तक आपके पीछे सामर्थ्य नहीं है तब तक आपको और आपकी भावी औलाद को आज की सी भयानक, अमानवीय अमनुष्यतापूर्वक दरिद्री अवस्था में ही सारी ज़िंदगी गुज़ारनी पड़ेगी। ज्यादतियां बेरहमी से बर्दाश्त करनी पड़ेंगी, इसमें कोई सन्देह नहीं है।" (‘दलित वर्ग को धर्मान्तरण की आवश्यकता क्यों है' ? के पृष्ठ 14-15 से)
बाबा साहब के इन विचारों से यह बात अपने आप साफ़ हो जाती है कि सामर्थ्य प्राप्त करने के लिए हमें किसी अन्य समाज का एहसानमंद अवश्य ही होना पड़ेगा। किसी अन्य समाज में हमे अवश्य ही मिल जाना होगा। दलित वर्ग के जो लोग ऐसा समझते हैं कि वह स्वयं अपने संगठन और बाहूबल से ही अपनी समस्या हल कर सकते हैं वे सिर्फ़ यही नहीं कि ख़ुद धोखे और फ़रेब में हैं बल्कि दलित समाज को भी ग़लत राह दिखा रहे हैं- ऐसी राह, जो बाबा साहब के विचारों के बिल्कुल विपरित है।


हिन्दु धर्म में आपके प्रति कोई सहानुभूति नहीं

बाबा साहब ने कहा है-
"हिन्दु धर्म और समाज की ओर यदि सहानुभूति की दृष्टि से देखा जाए तो ठन-ठन गोपाल, चारों ओर से अंधकार नज़र आएगा। हर जगह पर घृणा, द्वेष, अहंकार, अज्ञान और अंधकार ही दिखाई देगा, यही कहना पड़ेगा। इसका आप लोगों को अच्छा ख़ासा अनुभव है। हिन्दु धर्म में अपनत्व की भावना तो है ही नहीं। किन्तु हिन्दु समाज की ओर से आप लोगों को दुश्मनों से भी दुश्मन, ग़ुलामों से भी ग़ुलाम और पशुओं से भी नीचा समझा जाता है।" (‘दलित वर्ग को धर्मान्तरण की आवश्यकता क्यों है' ? के पृष्ठ 18 से)

हिन्दु समाज में क्या आप के प्रति समता की दृष्टि है ?

कुछ हिन्दु लोग अछूतों को कहते हैं कि तुम लोग शिक्षा लो, स्वच्छ रहो, जिससे हम आपको स्पर्श कर सकेंगे, समानता से भी देखेंगे। मगर वास्तव में देखा जाए तो अज्ञानी, दरिद्री और अस्वच्छ दलितों का जो बुरा हाल होता है वही बुरा हाल पढ़्-लिखे पैसे वाले और स्वच्छ रहने वाले तथा अच्छे विचार वाले दलितों का भी होता है। दलित वर्ग की समृद्धि की पराकाष्ठा के प्रति तत्कालीन उपप्रधानमंत्री श्री जगजीवन राम जी को वराणसी में श्री संपूर्णानंद की मूर्ति का अनावरण करने पर जिस तरह से अपमानित होना पड़ा था उससे दलितों की आंखें खुल चुकी हैं कि हिन्दुओं का स्वच्छता के आधार पर समानता का बर्ताव होने का आश्वासन कितना बड़ा धोखा है। याद रहे, श्री जगजीवन राम जी द्वारा अनावरण की गई मूर्ति को गंगाजल से धो कर पवित्र किया गया था।
कुछ भाई अपने आर्थिक पिछड़ेपन ही को अपने उपर हो रहे अत्याचारों का कारण मानते हैं। यह बात ठीक है कि ग़रीबी बहुत से दुखों का कारण है लेकिन ग़रीब तो ब्राह्मण भी हैं, वैश्य भी हैं और क्षत्रिय भी है। ग़रीबी से वे लोग भी परेशान है और वे ग़रीबी के विरुद्ध लड़ भी रहे हैं लेकिन हमें एक साथ दो लड़ाइयां लड़नी पड़ रही है- एक तो ग़रीबी की दूसरी घृणा भरी जाति प्रथा की। एक तरफ हम पर ग़रीबी की मार पड़ रही है और दूसरे हमारी एक विशेष जाति होने के कारण हम पिट रहे हैं। हमें जाति की लड़ाइ तो तुरंत समाप्त कर देनी चाहिए। हम भंगी, चमार, महार, खटीक आदि अछूत तभी तक हैं, जब तक की हम हिन्दु हैं।


हिन्दु धर्म में स्वतंत्रता
क़ानून से आप को चाहे कितने अधिकार और हक़ दिए गए हों किन्तु यदि समाज उनका उपयोग करने दे तभी यह कहा जा सकता है कि यह वास्तविक हक़ है। इस दृष्टि से देखा जाए तो आपको न मंदिर जाने की स्वतंत्रता है और न जीने की स्वतंत्रता है, यह आप भली-भांति जानते हैं। इसके समर्थन में अधिक तथ्य जुटाने की आवश्यकता नहीं है। यदि स्वतंत्रता की दृष्टि से देखा जाए तो हम आपने आप को एक ग़ुलाम से भी बदतर हालत में ही पाएंगे। स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुत्व जो मनुष्य के विकास के लिए आवश्यक चीज़े बताई गई हैं उनमें से आप के लिए हिन्दु धर्म में कोई भी चीज़ उपलब्ध नहीं है।


क्या हिन्दु धर्म हमारे पूर्वजों का धर्म था ?
बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर ने बताया है कि हिन्दु धर्म हमारे पूर्वजों का धर्म नहीं था, इसलिए उन्होंने अपने लोगों से उसे छोड़ने के लिए समझाते हुए कैसे कठोर शब्दों का प्रयोग किया है। बाबा साहब लिखते हैं- "हिन्दु धर्म हमारे पूर्वजों का धर्म नहीं हो सकता है, बल्कि उन पर ज़बरदस्ती लादी गई एक ग़ुलामी, दासता थी। हमारे पूर्वजों को इस धर्म में ही रखना यह एक क्रूर ख़ूनी पंजा था जो हमारे पूर्वजों के ख़ून का प्यासा था। इस ग़ुलामी से अपनी मुक्ति पाने की क्षमता और साधन उपलब्ध नहीं थे, इसलिए उन्हें इस ग़ुलामी के विरुद्ध विद्रोह करना संभव नहीं था। उन्हें इसी ग़ुलामी में रहना पड़ा। इसके लिए उन्हें हम दोषी नहीं ठहराएंग,कोई भी उन पर रहम ही करेगा। किन्तु आज की पीढ़ी पर उस तरह की ज़बरदस्ती करना किसी के लिए भी संभव नहीं है। हमें हर तरह की स्वतंत्रता है। इस आज़ादी का सही-सही उपयोग कर यदि इस पीढ़ी ने अपनी मुक्ति का रास्ता नहीं खोजा, यह जो हज़ारों साल से ब्राह्मणी अर्थात हिन्दु धर्म की ग़ुलामी है उसको नहीं तोड़ा तो मैं यही समझूंगा कि उनके जैसे नीच, उनके जैसे हरामी और उनके जैसे कायर जो स्वाभिमान बेचकर पशु से भी गई गुज़री ज़िंदगी बसर करते हैं अन्य कोई नहीं होंगे। यह बात मुझे बड़े दुख और बड़ी बेरहमी से कहनी पड़ेगी।"(दलित वर्ग को धर्मान्तरण की आवश्यकता क्यों है'? के पृष्ठ 34 से)

धर्म, उद्देश्य- पूर्ति का साधन है, अतः धर्म परिवर्तन करो
बाबा साहब कहते हैं-

"यदि आपको इंसानियत से मुहब्बत है तो धर्मान्तर करो। हिन्दु धर्म का त्याग करो। तमाम दलित अछूतों की सदियों से ग़ुलाम रखे गए वर्ग की मुक्ति के लिए एकता, संगठन करना हो तो धर्मान्तर करो। समता प्राप्त करनी हो तो धर्मान्तर करो। आज़ादी प्राप्त करनी हो तो धर्मान्तर करो। अपने जीवन की सफ़लता चाहते हो तो धर्मान्तर करो। मानवीय सुख चाहते हो तो धर्मान्तर करो। हिन्दु धर्म को त्यागने में ही तमाम दलित, पददलित, अछूत, शोषित पीड़ित वर्ग का वास्तविक हित है, यह मेरा स्पष्ट मत बन चुका है।" (‘दलित वर्ग को धर्मान्तरण की आवश्यकता क्यों है' ? के पृष्ठ 51 से)

धर्म-परिवर्तन का उद्देश्य
इस प्रकार बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर ने धर्मान्तरण का मुख्य उद्देश्य स्पष्ट रूप से बाहरी शक्ति प्राप्त करना निश्चित किया था। इसे हमें कभी भी नहीं भूलना चाहिए, क्योंकि बाहरी शक्ति प्राप्त करने से अर्थात दूसरे समाज के अंदर विलीन होकर ही दलित वर्ग पर होने वाले अत्याचारों को रोका जा सकेगा, बेइज़्ज़तीपूर्ण ज़िंदगी से मुक्ति मिल सकेगी और हमें मिल पाएगा समता का जीवन, स्वतंत्र जीवन, सम्मानपूर्ण जीवन, इंसानियत की ज़िंदगी। ऐसा कौन सा धर्म है जो कि हमारे उद्देश्य अर्थात जो वस्तु हमें चाहिए उसे स्वीकार करने से प्राप्त होता हो ?  

बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर ने इस संबंध में बिल्कुल स्पष्ट रूप से कहा था कि इस्लाम धर्म अपनाने से ही आपको वह सब कुछ मिल सकता है जो हमें चाहिए। बाबा साहब कहते हैं "तीन धर्म हैं जिनमें से दलित-वर्ग (एक को) चुन सकता है।
                                                  (1) इस्लाम धर्म (2) ईसाई धर्म (3) सिख धर्म। इन तीनों की तुलना करने पर इस्लाम धर्म दलित-वर्ग को वह सबकुछ देता हुआ दिखाई देता है जो उसे चाहिए।" (From page No-296-297 of Thus Spoke Ambedkar Vol.4 By Bhagwan Das)
बाबा साहब ने इस्लाम धर्म को दलित वर्ग का उद्देश्य पूरा करने वाला बताया और उसकी क़लम तोड़ पढ़ाई की। लेकिन फिर भी इस्लाम धर्म क्यों नहीं अपनाया बल्कि बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर ने 14 अक्तूबर सन् 1956 ई. को अपने लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म क्यों ग्रहण किया था ? यह एक बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न है।


बाबा साहब ने बौद्ध धर्म ही क्यों अपनाया ?
किसी भी विद्वान् और विशेषकर वकील को अपने किसी भी मामले में सफल होने के लिए उसे अपने लक्ष्य को नहीं भूलना चाहिए। सबसे अच्छा रास्ता वही होता है, जिससे लक्ष्य तक पहुंचा जा सके। किसी भी रमणीय सुंदर रास्ते को अच्छा नहीं कहा जा सकता ? यदि वह लक्ष्य तक नहीं पहुंचाता है। बाबा साहब एक महान विद्वान् ही नहीं उच्च कोटि के बैरिस्टर भी थे। अतः सन् 1956 ई. में जब उन्होंने धर्म-परिवर्तन करने की बात सोची तो धर्म-परिवर्तन के लिए पूर्व निश्चित लक्ष्य ‘बाहरी शक्ति प्रदान करना' अर्थात किसी भी बाहरी समाज की शक्ति प्राप्त करने को सामने रखा था। तदानुसार उन्होंने सोचना प्रारंभ किया कि हिन्दु समाज के अलावा किस समाज की शक्ति इस देश में है जिसे प्राप्त करके दलित वर्ग के लोग अत्याचारों से बच सकें और सम्मानित जीवन व्यतीत कर सकें। उन्होंने पाया कि इस देश में न तो ईसाई समाज की शक्ति है, न बौद्ध समाज की और न इस्लामी समाज की। सन् 1947 ई. के देश विभाजन के बाद दूसरों की तरह मुसलमानों की शक्ति भी हमारे देश में न के बराबर ही रह गई थी। अर्थात हमारे देश में किसी अन्य समाज की शक्ति नहीं थी जिसे पा कर अर्थात जिसके अंदर अपने आप को विलीन कर के अत्याचारों से मुक्ति मिल सकती। लेकिन बाबा साहब को अपनी भीषण प्रतिज्ञा को पूरा करना था। सम्यक् कल्पना कीजिए कि एक कमरे के बीचोंबीच एक कमज़ोर जर्जर मरीज़ गिरने वाला है और उस कमरे में स्तंभ आदि कुछ भी नहीं है जिसका वह सहारा ले सके। तब वह क्या करेगा ? वह सहारा लेने के लिए उस कमरे कि किसी दीवार की तरफ़ ही बढ़ेगा। ठीक इसी प्रकार बाबा साहब ने भी जब देखा कि इस कमरा रूपी देश में कोई सहारा नहीं है तब उनको अपने कमज़ोर समाज को गिरने से बचाने के लिए दीवारों की ओर जाना पड़ा। अर्थात जब उन्होंने पाया कि इस देश में कोई भी ऐसा समाज नहीं है जिसकी शक्ति में विलीनी होकर दलित वर्ग को उत्पीड़न एवं अत्याचारों से बचाया जा सके। तब उन्होंने हमारे देश के निकट के देशों की ओर दृष्टि डाली कि क्या उनमें कोई ऐसा समाज रहता है जिसकी शक्ति पाकर लक्ष्य की प्राप्ति की जा सके। उन्होंने पाया कि चीन, जापान, लंका, बर्मा, थाईलैंड आदि देशों में बौद्ध धर्मावलंबी समाज है। अतः उनकी शक्ति अर्थात ‘बाहरी शक्ति' पाने के लिए बौद्ध धर्म ही अपनाना चाहिए और उन्होंने ऐसा ही किया। उन दिनों किसी अन्य धर्म को अपना कर लक्ष्य की प्राप्ति में दिक़्क़त हो सकती थी और बौद्ध धर्म को अपना कर ही लक्ष्य की प्राप्ति आसान मालूम पड़ती थी। इसलिए बाबा साहब ने बौद्ध धर्म अपनाया था। इसमें ज़रा भी संदेह की गुंजाइश नहीं है।
पाकिस्तान बनने के बाद सन् 1956 ई. में बाबा साहब ने जब धर्म-परिवर्तन किया था उस समय भारत में मुसलमानों की शक्ति तो थी ही नहीं, इसके अलावा उन दिनों हिन्दुओं के मन में मुसलमान या इस्लाम के नाम से ही इतनी घृणा थी कि यदि हम लोग उस वक्त मुसलमान बनते तो हमें गांव-गांव में गाजर मूली की तरह काट कर फेंक दिया जाता। अतः यदि बाबा साहब 1956 ई. में इस्लाम धर्म स्वीकार करते तो यह उनकी एक बहुत बड़ी आज़माइश होती। इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए उद्देश्य को पाने के लिए बाबा साहब ने मजबूरी की हालत में बौद्ध धर्म अपनाकर अर्थात भविष्य में बुद्धि से काम लेने का संकेत करके दलित वर्ग की मुक्ति का वास्तविक मार्ग खोल कर एक महान कार्य किया था। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि बाबा साहब अम्बेडकर दलित वर्ग को बौद्ध धर्मरूपी यह औषधि देकर केवल एक महीना 22 दिन बाद ही 6 दिसंबर सन् 1956 ई. में परलोक सिधार गए। इस प्रकार बाबा साहब अम्बेडकर यह देख ही नहीं पाए कि मैने अपने इन लोगों को जो महाव्याधि से पीड़ित है, जो औषधि दी है वह इन्हें माफ़िक भी आई या रिएक्शन कर रही है अर्थात माफ़िक नहीं आ रही है।
बाबा साहब हमको हिदायत देने के लिए आज हमारे बीच मौजूद नहीं हैं। अब तो इस दलित वर्ग को स्वयं ही अपनी भलाई का विचार करना होगा। हम सबको मिलकर सोचना होगा कि जो बौद्ध धर्मरूपी औषधि हमने आज से लगभग 32 वर्ष पूर्व लेनी प्रारंभ की थी उसमें हमारे रोग को कितना ठीक किया ? ठीक किया भी है या नहीं ? अथवा कहीं या औषधि रिएक्शन तो नहीं कर रही है अर्थात उल्टी तो नहीं पड़ रही है ? क्या ऐसा मूल्यांकन करने का समय आज 39 वर्ष बाद भी नहीं आया है ? निश्चित रूप से हमें मूल्यांकन करना चाहिए।
बौद्ध धर्म अपना कर हम अपने उद्देश्य में कितने सफल हुए हैं? इस संबंध में बाबा साहब द्वारा निर्धारित किसी भी धर्म को अपनाने का उद्देश्य दलित वर्ग को बाहरी शक्ति अर्थात किसी दूसरे धर्म में विलीन होकर अत्याचारों से मुक्ति पाना था। अतः हमें यह देखना है कि बौद्ध धर्म अपनाने से दलित धर्म में बाहरी शक्ति कितनी आई ? कुछ आई भी है या बिल्कुल भी नहीं आई ? या इस धर्म को अपनाने से बाहरी मूल शक्ति में भी कुछ कमी आ गई है ?
हम पाते हैं कि बौद्ध धर्म के अपनाने से दलितों के अंदर किसी प्रकार कि कोई भी बाहरी शक्ति आई नहीं बल्कि उसकी मूल शक्ति में भी कमी आ गई है। सर्वप्रथम तो दलित वर्ग को जितनी बड़ी संख्या में बौद्ध धर्म अपनाना चाहिए था उतनी बड़ी जनसंख्या द्वारा नहीं अपनाया गया और इसलिए नहीं अपनाया गया कि दलित समाज अधिकतर अशिक्षित समाज है। बौद्ध धर्म कहता है कि कोई ईश्वर, अल्लाह आदि नहीं है। यह बात अच्छे पढ़े-लिखे लोगों की भी समझ में नहीं आती है। वह किसी न किसी रूप में ईश्वर या अल्लाह की सत्ता को स्वीकारते हैं, तब यह बात अनपढ़ अशिक्षित लोगों की समझ में कैसे आ सकती है कि ईश्वर या अल्लाह है ही नहीं। यही सबसे बड़ा कारण है जिसकी वजह से दलित वर्ग की बड़ी संख्या ने इस धर्म को नहीं अपनाया अगर अपनाया है तो दलित वर्ग के छोटे से हिस्से ने। सत्य तो यह है कि बौद्ध धर्म केवल चमार या महार जाति की कुल संख्या कि मुश्किल से 20 प्रतिशत ने ही अपनाया है। और उनकी भी स्थिति यह है कि जो 20 प्रतिशत बौद्ध बने हैं वे 80 प्रतिशत चमारों को कहते हैं कि वे ढेढ़ के ढेढ़ ही रहे। और 80 प्रतिशत चमार जो बौद्ध नही बने वे कहते हैं कि ये बुद्धु-चुद्धु कहां से बने फिरते हैं?
इस प्रकार पहले जो सौ चमारों की भी शक्ति थी वह भी 20 और 80 में बंट गई है। फिर 20 और 80 की शक्ति भी अपनी-अपनी जगह पूरी बनी रही हो ऐसा भी नहीं रहा। कर्योंकि बौद्ध और चमारों के बीच संघर्ष भी हुए हैं। इस प्रकार बौद्ध धर्म अपनाने से दलित वर्ग की शक्ति घटी है, बढ़ी नहीं, जबकि उद्देश्य था, बाहरी अतिरिक्त शक्ति प्राप्त करना।
यह तो रहा समग्र समाज का विश्लेषण। अब हम उन दलितों की स्थिति पर ग़ौर करें, जिन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया है। क्या उनमें कुछ बाहरी शक्ति आ गई है ? बिल्कुल नहीं। केवल इतना हुआ कि जो पहले चमार थे वे अब अपने को बौद्ध कहने लगे। लेकिन कुछ भी कहने मात्र से तो शक्ति आती नहीं। इस देश में पुराने बौद्ध तो है ही नहीं कि उनकी शक्ति इन नौ बौद्धों में आ गई हो और दोनों ने मिल कर एक ताक़तवर समाज बना लिया हो। दूसरे बौद्ध देशों ने भी नौ बौद्धों की मदद में कोई रुचि नहीं दिखाई। और यदि बौद्ध देश मदद करना भी चाहे तो कैसे करेंगे ? ज़्यादा से ज़्यादा भारत समाज को एक विरोध-पत्र लिख भेजेंगे कि भारत में बौद्ध पर अत्याचार करना मुनासिब नहीं है। क्या उस विरोध पत्र से काम चल जाएगा और उसकी फोटो स्टेट कॉपियां करा के बौद्ध उन्हें लट्ठ मारने वाले या ज़िंदा जला देने वालों को दिखा कर बच जाएंगे ? या जहां उन्हें गोलियों से उड़ा देने वाली बात होती है तो क्या वह दूसरे देशों के विरुद्ध पत्र की कॉपी गोली मारने वाले को दिखा कर गोली से बच जाएंगे ? इस प्रकार बाहरी देशों की मदद से तो इस देश में हम असहाय लोगों का कुछ भी भला होने वाला नहीं है और न ही होगा।
उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि बौद्ध धर्म को अपना कर हमने कुछ पाने की बजाय कुछ खोया है और वही खोया है जिसको पाने के लिए यह अपनाया गया था। इस प्रकार बौद्ध धर्म दलित वर्ग के उद्देश्य की पूर्ति में पूर्ण रूप से विफल रहा है।


प्रश्न किया जा सकता है कि क्या डॉ. अम्बेडकर ने ग़लत सोचा था ? क्या उनकी बुद्धि में यब सब बातें नहीं आई होंगी ? इस संबंध में इतना ही कहना काफ़ी होगा कि एक तो कमी किसी भी इंसान में हो सकती है। दूसरे यह कि बाबा साहब उस वक़्त कुछ और कर पाने में अपने को मजबूर महसूस कर रहे थे। तीसरे कुछ समस्याएं ऐसी होती हैं जो केवल सोचने मात्र से ही हल नहीं होती है बल्कि उनका क्रियान्वित होते देखना भी अत्याधिक महत्वपूर्ण होता है। बाबा साहब ने जो कुछ भी सोचा था वह ठीक ही सोचा था लेकिन जिस पर कोई नैतिक दायित्व हो और वह उसे पूरा न करे तो क्या उसमें सोचने वाले की ग़लती मानी जाएगी ? बौद्ध देशों ने अपनी ज़िम्मेदारी नहीं निभाई और अब उनकी मदद से कुछ होने वाला भी नहीं है। क्योंकि हमारी समस्या केवल राजनैतिक नहीं है, वरन सामाजिक भी है और वह अधिक विकट है। यदि हमारे सामने सामाजिक समस्या न होती तब तो संभवतः संयुक्त राष्ट्र संघ आदि में बौद्ध देशों का सहारा ले सकते थे और अपनी राजनीतिक गुत्थी को सुलवझा सकते थे। किन्तु हमें तो पहले सामाजिक शक्ति प्राप्त करनी है जिससे कि आए दिन होने वाले अत्याचारों से बचा जा सके।
दलित लोग करोड़ों की संख्या में इस देश के लाखों गांव में अलग-अलग बिखरे पड़े हैं बिल्कुल निर्दोष होते हुए भी उन पर जगह-जगह ज़ुल्म और अत्याचार होते हैं। इन अत्याचारों से कैसे बचा जाए यही दलित वर्ग की मूल समस्या है। इस महाव्याधि से मुक्ति दिलाने के लिए ही बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर ने बौद्ध धर्मरूपी औषधि दी थी जो कामयाब नहीं हुई बल्कि उल्टी पड़ गई। अर्थात दलित समाज बौद्ध और अबौद्ध दो ख़ेमों में बंट कर और भी कमज़ोर हो गया है। आप कहेंगे कि क्या बाबा साहब इसके लिए दोषी हैं ? नहीं! बिल्कुल नहीं! बल्कि हमारे शरीर को यह औषधि माफ़िक ही नहीं आई।
इस विश्लेषण से इतना तो स्पष्ट रूप से सिद्ध हो चुका है कि बैद्ध धर्म से अब हमारा काम चलने वाला नहीं है, अब तो इस समाज को भला चंगा तगड़ा बनाने के लिए, अतिरिक्त बाहरी शक्ति प्रदान करने के लिए दूसरी दवाई भी लेनी चाहिए।

कुछ लोग जानना चाहेंगे कि क्या बाबा साहब हमारे रोगी रूपी समाज के लिए सिद्धहस्त डॉ. नहीं थे जो हमें ठीक दवाई नहीं दे पाएं ? इस प्रश्न का उत्तर आप एक सर्वांग रूप से उचित उदाहरण से समझ सकते हैं- कहा जाता है कि जिन डॉक्टरों ने पेंसिलीन नामक औषधि की खोज की थी उन्होंने घोषणा कि थी कि संसार में यदि कोई अमृत नाम की चीज़ है तो वह पेंसिलीन है और उसे हमने खोज लिया है। बड़ी हद तक वह ठीक भी है, क्योंकि जिसको पेंसिलीन माफ़िक आ जाती है वह उसके लिए अमृत ही साबित होती है। कितने ही गंभीर रोग को यह ठीक कर देती है। लेकिन जिसको माफ़िक नहीं आती उस मरीज़ की वही अमृत (पेंसिलीन) जान तक ले लेती है। प्रत्येक डॉक्टर यही चाहता है कि मैं हर मरीज़ को पेंसिलीन का इंजेक्शन दूं, लेकिन देने से पहले ही वह एक टेस्ट डोज़ लगाता है। ताकि जान सके कि मरीज़ को यह दवाई माफ़िक भी आती है या नहीं। यदि उसको माफ़िक नहीं आती है तो डॉक्टर उसको पेंसिलीन बिल्कुल नहीं लगाता है। और साथ ही यह भी कह देता है कि पेंसिलीन कभी मत लगवाना क्योंकि यह आपको रिएक्शन करती है। और यह भी सच है कि अब तो पेंसिलीनों से भी उत्तम दवाइयों की खोज हो चुकी है।
बौद्ध धर्मरूपी औषधि लेने से दलित वर्ग को रिएक्शन हुआ है। यह उसे और अधिक कमज़ोर बनाती जा रही है। बौद्ध धर्म द्वारा 20 प्रतिशत और 80 प्रतिशत में बंट कर दलित वर्ग की मूल शक्ति भी घट रही है और हमारी दशा ठीक ऐसी बन गई है जैसे एक बड़े डॉक्टर के पास एक गंभीर रोग से पीड़ित मरीज़ आया और वह डॉक्टर उसकी प्रतीक्षा कर अपने चेलों से कह कर कहीं चला गया कि इसको पेंसिलीन लगा दो जो सर्वोत्तम है। उसके चेले उस मरीज़ को पेंसिलीन का इंजेक्शन लगा देते हैं लेकिन वह इंजेक्शन उस मरीज़ को रिएक्शन करता है अर्थात माफ़िक नहीं आता है जिससे की मरीज़ की हालत और बिगड़ने लगती है और बड़े डॉक्टर के वे मूर्ख और नातजुर्बेकार चेले अब भी कह रहे हैं कि हमारे बड़े डॉक्टर साहब इसको पेंसिलीन लगाने के लिए ही कह गए थे। अतः पेंसिलीन ही लगाओ! क्या कोई भी समझदार व्यक्ति उनको बुद्धिमान कहेगा कि यह बड़े अच्छे पक्के चेले हैं कि अपने गुरु अर्थात अपने बड़े डॉक्टर की बात पर अड़े हुए हॆं। या उल्टे उनको मूर्ख या अज्ञानी कहेगा ?
यही हाल हमारा है। बौद्ध धर्म हमें रिएक्शन कर रहा है जिस औषधि को बाबा साहब डॉ. अम्बेडक हमें देकर केवल 1 माह 22 दिन के बाद ही परलोक सिधार गए थे। वह हमें माफ़िक नहीं आ रही है, क्योंकि बौद्ध धर्म अपनाने का उद्देश्य बाहरी शक्ति प्रदान करना था, लेकिन बाहरी शक्ति आना तो दूर की बात है, वह हमारी मूल शक्ति को भी घटा रहा है, यह हमने अच्छी तरह जान लिया है अर्थात जान लेना चाहिए। यदि आज भी हम बौद्ध धर्म को ही अपनाने की ज़िद या आग्रह करते हैं तो प्रत्येक समझदार व्यक्ति हमारी बुद्धिहीनता पर तरस खाएगा, वह हंसेगा और दुश्मन ख़ुशी मनाएगा और हो भी यही रहा है। आज जब हमारे कुछ जागरुक साथियों ने दूसरी औषधि, इस्लाम धर्म की तरफ़ ध्यान देना शुरु किया है और उसे अपनाना शुरु किया है तो हमारे अज्ञानी साथी इसका विरोध कर सकते हैं और कह सकते हैं कि नहीं, वही बाबा साहब की बताई हुई दवा लेनी है, और आज हमारा दुश्मन भी यही सलाह दे रहा है कि बौद्ध धर्म को अपनाओ, मुसलमान मत बनो, क्योंकि वह जानता है कि इसके बौद्ध धर्म अपनाने से इसका कोई भला होने वाला नहीं है और मुझे कोई हानि भी होने वाली नहीं है इस बात को बाबा साहब के अनुयायी कहलाने वालों को भली प्रकार समझ लेना चाहिए और यदि बाबा साहब के अनुयायियों में थोड़ी भी समझ है तो उन्हें जान लेना चाहिए कि बाबा साहब द्वारा निर्धारित घर्मान्तरण का उद्देश्य बाहरी शक्ति प्राप्त करना है। यह अच्छी तरह से समझ लीजिए कि बाहरी शक्ति से तात्पर्य विदेशी शक्ति नहीं वरन भारत में विद्यमान अन्य किसी भी समाज की शक्ति से है जिसे प्राप्त करने के लिए हमें पूरा प्रयत्न करना चाहिए। उसी के लिए हमें धर्म-परिवर्तन करना है।
अब बाबा साहब के अनुयायियों को चाहिए कि बौद्ध धर्म रूपी औषधि लेने से जो विकार और उपद्रव हमारे समाज में पैदा हो गए हैं सर्वप्रथम उन्हें शांत करे और इस बौद्ध धर्म रूपी औषधि के स्थान पर कोई अन्य धर्म अपनाएं जिससे की हम अपने धर्मांतरण के उद्देश्य को प्राप्त कर अत्याचारों से मुक्ति प्राप्त कर सकें। यहां यह बताना ज़रूरी है कि बाबा साहब इस्लाम धर्म को ही परमौषधि मान कर चल रहे थे लेकिन हालात की तरह मजबूरन उनको बौद्ध धर्म अपनाना पड़ा। इस तथ्य का ख़ुलासा आगे किया जाएगा।
बाबा साहब इस बात के लिए प्रयत्नशील थे कि मेरे दलित पीड़ित भाइयों को हिन्दुओं के ज़ुल्म और अत्याचारों से मुक्ति मिलनी चाहिए। वे इस बात के बिल्कुल कायल नहीं थे कि इस रोगी रूपी दलित वर्ग को अमुक औषधि अर्थात बौद्ध धर्म ही दिया जाएगा, फ़ायदा हो या न हो। इसलिए एक समय पर उन्होंने कहा है कि- ‘यदि मैं अपने अछूत भाइयों को अत्याचारों से मुक्ति न दिला सका तो मैं अपने आप को गोली मार कर आत्महत्या कर लूंगा' यह थी उनकी भीषण प्रतिज्ञा। इस प्रकार यह स्पष्ट हो चुका है कि यदि आज बाबा साहब होते तो निश्चित ही बौद्ध धर्म छोड़ इस्लाम धर्म को ही अपनाने के लिए ही कहते। लेकिन बाबा साहब हमारे बीच में नहीं हैं, अतः आज तो हमको ही उनके द्वारा निश्चित किए गए उद्देश्य को पाने के लिए, अपने आपको अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के लिए बौद्ध धर्म को त्याग कर इस्लाम धर्म को अपनाना होगा।
स्वयं बाबा साहब ने अपने ही जीवन-काल में अपनी ही बहुत-सी मान्यताओं को बदला था।

इसके कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं-
(1)सांप्रदायिक समझौते (कम्यूनल एवार्ड) द्वारा मिले दो वोटों के अधिकार को जिसे बाबा साहब बहुत ही आवश्यक मानते थे स्वयं एक वोट में बदलना स्वीकार कर लिया था।

 

(2)बाबा साहब गांधी जी के कट्टर विरोधी तथा उनको अछूतों का दुश्मन मानते थे। लेकिन ऐसे भी उदाहरण हैं कि बाबा साहब ने गांधी जी की दिल खोलकर बड़ाई भी की है। उन्हीं के शब्दों में "मैं समझता हूं कि इस सारे प्रकरण (पूना पैक्ट को करने के लिए) में इस हल का बहुत-सा श्रेय स्वयं महात्मा गांधी को है। मैं महात्मा गांधी का कृतज्ञ हूं कि उन्होंने मुझको एक बड़ी नाज़ुक परिस्थिति में से निकाल लिया। मुझे एक ही अफ़सोस है, महात्मा जी ने गोल मेज़ कांफ़्रेंस के समय भी यही रुख़ क्यों नहीं अपनाया। यदि उन्होंने मेरे दृष्टिकोण के साथ ऐसा ही उदारतापूर्ण व्यवहार किया होता तो इस संकट में से उन्हें न गुज़रना पड़ता। जो हो, यह सब बीती हुई बातें हैं। मुझे हर्ष है कि आज मैं यहां इस प्रस्ताव का समर्थन करने के लिए उपस्थित हूं। मुझे विश्वास है कि जो अन्य मित्र उपस्थित नहीं हैं, मैं उनकी ओर से भी बोल रहा हूं कि हम उस समझौते का पालन करेंगे, इस विषय में किसी के मन में कोई सन्देह नहीं रहना चाहिए। मैं आशा करता हूं कि हिन्दुगण इस समझौते को एक पवित्र समझौता समझेंगे और इसका पालन करते समय अपनी इज़्ज़त को बट्टा नहीं लगने देंगे।" (डॉ. अम्बेडकर के भाषण, प्रथम भाग 1978 के संस्करण के पृष्ठ 33 से, संपादक भगवान दास एडवोकेट)

 

(3)बाबा साहब का विचार पहले हिन्दु धर्म में ही रहने का था- यदि हिन्दु दलित वर्ग को समानता का दर्जा दे देता। उन्हीं के शब्दों में ‘यदि मंदिर प्रवेश अछूतों की उन्नति का पहला क़दम है तो वे इसका समर्थन इसलिए करेंगे क्योंकि वे ऐसा ही धर्म चाहते हैं जिसमें उन्हें सामाजिक समानता प्राप्त हो। अछूत लोग अब ऐसे धर्म को बर्दाश्त नहीं करें जिनमें जन्मना सामाजिक विषमता और भेदभाव सुरक्षित हो।' (पृष्ठ संख्या 122 ‘बाबा साहब का जीवन संघर्ष' लेखक-जिज्ञासु) जिसे उन्होंने बाद में बदल दिया और धर्मांतरण की घोषणा कर दी। पूना पैक्ट के समय भाषण करते हुए उन्होंने कहा था कि- ‘आप इसे राजनैतिक समझौते से आगे बढ़कर वह ऐसा कर सकें जिससे दलित वर्ग के लिए न केवल हिन्दु समाज का एक हिस्सा बना रहना संभव हो जाए बल्कि उसे समाज में सम्मान और समानता का दर्जा प्राप्त हो जाए।‘ (डॉ. अम्बेडकर के भाषण, पृष्ठ 35)

 

(4)बाबा साहब कांग्रेस के प्रायः विरुद्ध ही रहे, लेकिन उसके पक्के समर्थक बन कर भी सामने आए। उन्हीं के शब्दों में- ‘तुम्हें कांग्रेस के प्रति अपने रुख़ को एक दम बदल लेना चाहिए। अभी तक कांग्रोस के प्रति हमारा दृष्टिकोण एक विरोधी का दृष्टिकोण रहा है। राजनीतिक क्षेत्र में हम परस्पर शत्रु रहे हैं। अभी तक हमारा दृष्टिकोण कुछ संकुचित रहा है। हमें केवल अपने जातिगत स्वार्थों की ही चिंता रही है। अब हमने जब स्वतंत्रता प्राप्त कर ली है, हमें अपने दृष्टिकोण में आमूल परिवर्तन कर डालना चाहिए।' (डॉ. अम्बेडकर के भाषण, पृष्ठ 66)


‘मुझसे लोग पूछते हैं कि पिछले पच्चीस वर्ष तक कांग्रेस के विरुद्ध लड़ते रहने के बावजूद मैने उस ख़ास अवसर पर मौन क्यों धारण कर लिया। हमेशा लड़ते ही रहना सर्वश्रेष्ठ युद्धकौशल नहीं है, हमें दूसरे ढंगों से भी काम लेना चाहिए।' (डॉ. अम्बेडकर के भाषण, पृष्ठ 68)
इस तरह हम दखते हैं कि बाबा साहब ने अपने ही जीवन-काल में अपनी मान्यताओं को बदला। इस बात के समर्थन में पूर्व वर्जित कुछ उदाहरण बहुत ख़ास मामलों में संबंधित हैं जिनसे कि दलित वर्ग के जीवन-मरन का प्रश्न जुड़ा था। इसके अलावा जहां बाबा साहब ने दलितों के हितार्थ अपनी मान्यताओं को बदला, वहीं उनकी कुछ मान्यताएं पूरी भी नहीं उतरी। जैसे कि उन्होंने कहा था-
‘जिस समाज में 10 बैरिस्टर, 20 डॉक्टर तथा 30 इंजीनियर हों ऐसे समाज को मैं धनवान समाज समझता हूं, यद्यपि उस समाज का हर एक व्यक्ति शिक्षित नहीं उदाहरण के लिए चमार। आज इस समाज को घृणा की दृष्टि से देखते हैं। अगर इसी समाज में कुछ वकील, डॉक्टर तथा पढ़ा-लिखे लोग हों तो कोई भी इस समाज की ओर आंख उठाकर भी देखने की हिम्मत नहीं करेगा, यद्यपि उसमें हर व्यक्ति शिक्षा प्राप्त नहीं है।'
लेकिन इसमें बाबा साहब का तनिक भी कोई दोष नहीं। यदि आप अपने पुत्र से बहुत-सी उम्मीद रखते हैं और आपका पुत्र उन्हें पूरी नहीं करता है तो क्या आप दोषी हैं ? नहीं, बल्कि आपका पुत्र दायित्वहीनता को दोषी है। ठीक इसी प्रकार बाबा साहब की मान्यताओँ के ग़लत सिद्ध होने में बाबा साहब का कोई दोष नहीं है बल्कि उनके अनुयायियों की कोताही है कि जिन्होंने अपना वह दायित्व नहीं निभाया, जो उन्हें निभाना चाहिए था।धर्म मनुष्य के लिए है
बाबा साहब ने कहा-
"मैं आप लोगों से यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मनुष्य धर्म के लिए नहीं है बल्कि धर्म मनुष्य के लिए है। संसार में मनुष्य से बढ़कर और कोई चीज़ नहीं है। धर्म एक साधन मात्र है, जिसे बदल दिया जा सकता है, फेंक दिया जा सकता है।" (‘दलित वर्ग को धर्मान्तरण की आवश्यकता क्यों है' ? के पृष्ठ 59 से)
हम यह देख चुके हैं कि बौद्ध धर्म जिस उद्देश्य के लिए अपनाया गया था उनमें वह बिल्कुल असफल रहा है। अतः यह प्रश्न पैदा होता है कि अब कौन-सा धर्म अपनाया जाए। जिसके लिए हमें वही करना चाहिए जो बाबा साहब करना चाहते थे लेकिन मजबूरी की वजह से नहीं कर पाएं। उन्होंने इस्लाम और ईसाई धर्म की बहुत बड़ाई की है और कहा है कि ‘इंसान की इंसानियत यही सबसे महत्वपूर्ण चीज़ है। यह (इंसानियत) इस्लाम और ईसाई धर्म की बुनियाद है। और यह इंसानियत सबको आदरणीय होनी चाहिए।' किसी को भी किसा का अपमान नहीं करना चाहिए और न ही किसी को असमान मानना चाहिए, यह शिक्षा वे (इस्लाम और ईसाई) धर्म देते हैं। इसके अलावा यह सच्चाई है कि बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर इस्लाम धर्म ही अपनाना चाहते थे।

इस्लाम धर्म अपनाएं या ईसाई मत ?
फिर भी हम इस बात को स्पष्ट करना चाहते हैं कि यदि कुछ लोग ईसाई धर्म अपनाने की भी सलाह देते हैं तो वे अपनी मूल समस्याओं को भूल जाते हैं अतः हमें अपनी मूल समस्याओं को फिर से याद कर लेना चाहिए क्योंकि अच्छा विचारक वही होता है जो अपनी मूल समस्याओं से न हटे, उसका पूरा ध्यान रखे। यदि रोग को तय कर लिया जाता है तो रोगी का ईलाज करने में अधिक कठिनाई नहीं होती है।
समस्याएं तो हमारे सामने बहुत-सी हैं, आर्थिक भी है, शिक्षा संबंधी भी हैं, लेकिन यह समस्याएं तो अन्य लोगों की भी हैं, सवर्णों की भी हैं। रोटी तो तभी मिलेगी जब हम काम करेंगे। शिक्षा की समस्याएं तो तभी हल होंगी जब हम अपने बच्चों को पढ़ाने की ठान लेंगे वर्ना तो शिक्षा की समस्त सुविधाएं होते हुए भी आज भी चेतना शून्य लोग अपने बच्चों को जूते पॉलिश करने के लिए भेज देते हैं ताकि शाम को दस रूपये कमा कर ले आए। कहने का मतलब यह है कि हमें पहले अपनी मूल समस्या की तरफ़ ध्यान देना चाहिए।
दलित लोग करोड़ों की संख्या में इस देश के लाखों गांव में अलग-अलग बिखरे पड़े हैं, जिन्हें बिल्कुल निर्दोष होते हुए भी आए दिन मारा-काटा और अपमानित किया जाता है। यह तरह-तरह के ज़ुल्म और अत्याचार और रोज़ाना की बेइज़्ज़ती कैसे रुके और बराबरी के साथ कैसे जीवन व्यतीत करें यह मूल समस्या है।
यद्यपि समस्या को सही रूप में लेना बहुत महत्वपूर्ण बात है, लेकिन कुछ निहित स्वार्थी लोग जिनमें कुछ हमारे अज्ञानी भाई भी शामिल हो सकते हैं, हमें हमारी मूल समस्या और हल की तरफ़ से हटाकर दूसरी ओर ले जाना चाहते हैं जहां हम व्यर्थ भटकते ही रहें और अपनी मंज़िल तक न पहंच पाएं।
हमें अपनी मूल समस्या का निदान ढूंढते हुए यह देखना चाहिए कि हम पर तरह-तरह के अत्याचार लाखों गांव में रोजाना कहीं न कहीं होते ही रहते हैं, इसलिए हमें उन्हीं लाखों गांव में रहने वाले मददगार चाहिएं। और हमें धन-दौलत की मदद देने वाला नहीं, बल्कि बेक़सूर होते हुए भी हमें निर्दयतापूर्वक क़त्ल करने वाले उन अत्याचारियों के हाथ रोकने वाला मददगार और मार्शल चाहिए, ताकि पहले अत्याचारी से हमारी जान बच सके।
ईसाई भारत देश के बहुत थोड़े से गांव में हैं और उनमें इतनी शक्ति नहीं है कि वे हमारी रक्षा कर सकें। लेकिन मुसलमान इस देश के सत्तर फ़ीसदी गांव में हैं और वे ख़ुद में मार्शल हैं। वे अपनी क़ौम पर, धर्म बंधुओं पर अत्याचार होते हुए सहन नहीं कर सकते। इस प्रकार यदि हम इस्लाम धर्म ग्रहण कर लेते हैं तो निश्चय ही हमारी मूल समस्या हल हो जाएगी।


बाबा साहब इस्लाम धर्म ही अपनाना चाहते थे
बाबा साहब तो इस्लाम धर्म ही ग्रहण करना चाहते थे तभी तो बाबा साहब ने कहा था कि "इस्लाम धर्म अपनाने से ही हमको वह सबकुछ मिल सकता है जो हमें चाहिए।" बाबा साहब कहते हैं "तीन धर्म हैं जिनमें से दलित वर्ग (एक को) चुन सकता है (1) इस्लाम धर्म (2) ईसाई धर्म (3) सिख धर्म। इन तीनों की तुलना करने पर इस्लाम धर्म दलित वर्ग का उद्देश्य पूरा करने वाला बताया और उसकी कलमतोड़ प्रशंसा की।"

पतित पावन दास महाराष्ट्र के दलित वर्ग में पैदा हुआ एक संत था जो की डॉ. अम्बेडकर का विश्वसनीय अनुयायी था। वह महाराष्ट्र मंदिर प्रवेश सत्याग्रह आंदोलन का अध्यक्ष था। अर्थात बाबा साहब के बहुत ही क़रीब था। अपने भाषणो में से एक भाषण में पतित पावन दास ने कहा "इस्लाम धर्म संपूर्ण (पूरा) एवं सार्वभौमिक धर्म है जो कि अपने सभी अनुयायियों से समानता का व्यवहार करता है (अर्थात उनको समान समझता है)। यही कारण है कि सात करोड़ अछूत हिन्दु धर्म को छोड़ने के लिए सोच रहे हैं और यही कारण था कि गांधी जी के पुत्र (हरिलाल) ने भी इस्लाम धर्म ग्रहण किया था। यह तलवार नहीं थी कि इस्लाम धर्म का इतना प्रभाव हुआ बल्कि वास्तव में यह थी सच्चाई और समानता जिसकी इस्लाम शिक्षा देता है।" (From page 144-145 of Thus Spoke Ambedkar Vol-IV by Bhagwan Das)

बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर के समकालीन दलितों के परम हितैषी डॉ. अम्बेडकर के मित्र और समर्थक महान विचारक पेरियर ई. वी. रामास्वामी नायकर ने कहा कि-
"मित्रों! शूद्रपन की बीमारी हमारी बहुत भयंकर बीमारी है। यह कैंसर के समान है। बहुत पुराना मर्ज़ है। इसके लिए केवल एक ही औषधि है और वह है ‘इस्लाम'। इसके अलावा कोई औषधि नहीं है। यदि हमने इस्लाम स्वीकार नहीं किया तो हमको कष्ट सहना पड़ेगा। अपनी बीमारी को भूलने के लिए या बीमारी को दबाने के लिए नींद की गोलियां लेते रहना पड़ेगा और दुर्गंधयुक्त मुर्दों के रूप जीवन जीना पड़ेगा। इस बीमारी को जड़ से समाप्त करने के लिए खड़े हो जाओ और उत्तम मानव की तरह चलो, केवल इस्लाम ही एक मार्ग है।" (From ‘The Way of Salvation", E. V. Rama Swamy, Page-13)

वहीं पर अन्तिम पैरे में ई. वी. रामास्वामी जी ने कहा है कि "मैं इस्लाम की वकालत नहीं कर रहा हूं। मैं इस (इस्लाम) का प्रचार नहीं कर रहा हूं। लेकिन यह सच्चाई है। मेरा मुसलसमानों से आपकी तुलना में कोई असाधारण प्रेम, मित्रता या विश्वास नहीं है। मैं आपके सामने क्या प्रस्तुत करना चाहता हूं वह है कि ब्राह्मणवाद के ज़हरीले सांप को मारने के लिए या इसकी भयंकर जकड़ से छुटकारा पाने के लिए केवल ‘इस्लाम' ही एक औषधि है। (From ‘The Way of Salvation", E. V. Rama Swamy, Page-16)
इस्लाम की अन्य धर्मों से तुलना करते हुए ई. वी. रामास्वामी ने कहा है कि "इस देश में ईसाईयों में भी अछूत ईसाई हैं। उनमें से कुछ को बस कुछ शिक्षा दे दी गई है और वे अध्यापक के रूप में नियुक्त कर दिए गए हैं। ईसाई उनके साथ उस तरह का व्यवहार नहीं करते जैसा (अच्छा) कि मुसलमान करते हैं। इसलिए आर्य (हिन्दु) लोग ईसाईयों और सिखों से एक प्रकार की दोस्ती महसूस करते हैं। बौद्ध और जैन भी इस्लाम धर्म का विरोध करते हैं इस प्रकार यह आर्य लोग इस्लाम धर्म को अलग-थलग करने के लिए एक-दूसरे के साथ हैं। (इनकी) इस्लाम से घृणा स्वार्थ-वश, अपने बड़प्पन और जाति के आधार पर लाभ उठाने के कारण है। शूद्र लोग जो आख़िरकार ब्राह्मणों के ग़ुलाम हैं इस्लाम और मुसलमानों को दोषी सिद्ध करने में ब्राह्मणों का साथ देते हैं। (From ‘The Way of Salvation", E. V. Rama Swamy, Page-21)
रामास्वामी ने कहा है कि "इस्लाम् की स्थापना बहुदेववाद और जन्म के आधार पर विषमता को समाप्त करने के लिए हुई थी। एक ईश्वर और मानव समानता के सिद्धांत को स्थापित करने के लिए हुई थी।" सारे अंधविश्वास, और मूर्तिपूजा को ख़त्म करने के लिए और युक्ति संगत, बुद्धिपूर्ण जीवन (Rational) जीने के लिए नेतृत्व प्रदान करने के लिए इसकी स्थापना हुई थी। (From ‘The Way of Salvation", E. V. Rama Swamy, Page-21)
दलित वर्ग में बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर के विरोधी नेता मिस्टर जी. ए. गवई (M. L. C) ने एक वक्तव्य (Statement) जारी करके कहा था कि डॉ. अम्बेडकर ने इस्लाम धर्म ग्रहण करना तय कर लिया है। (From page no. 116 ‘Thus Spoke Ambedkar' Vol IV by Bhagwan Das)
हिन्दु महासभा और अन्य प्रमुख हिन्दु नेताओं का भी यही कहना था कि डॉ. अम्बेडकर इस्लाम धर्म स्वीकार करने जा रहा है । जिससे उनके शत्रुओं की संख्या बढ़ जाएगी। अतः यह सारे नेता बाबा साहब के पास गए और उन पर यही दबाव डाला कि वे इस्लाम धर्म न अपनाएं। जिसमें वे सफल हुए। (From page no. 145 ‘Thus Spoke ambedkar' Vol IV by Bhagwan Das)
साथियों ! किसी भी मुद्दे पर किसी भी विद्वान के जो कि जीवित न हो विचार जानने का एक ही तरीक़ा है। और वह यह है कि उस विद्वान का स्वयं का कोई लेख या कथन मिल जाए तो यह सबसे उत्तम तथ्य या साक्ष्य माना जाएगा। उस विद्वान के उन विचारों को और अधिक प्रामाणिक बनाने के लिए यह देखना होगा कि उस विद्वान के साथ रहने वाले उसके नज़दीकी और उसके पक्के किसी समर्थक ने भी उसी के सामने क्या ऐसे ही विचार उस मुद्दे पर रखे थे। और यदि उनके समकालीन उनके विरोधी भी उसी बात की पुष्टि करते हों तो फिर किसी भी प्रकार का संदेह बाक़ी नहीं रह सकता है। और उन्हें हम पूर्ण रूप से प्रामाणिक मान लेते हैं।
जब हम इसे सर्वमान्य सिद्धांत की दृष्टि से देखते हैं तो बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर इस्लाम धर्म ही ग्रहण करना चाहते थे।
आपने देखा कि प्रथम तो बाबा साहब ने स्वयं इस्लाम स्वीकार करने की वकालत की है दूसरे उनके परम सहयोगी सन्त पतित पावन दास ने उन्हीं के जीवन काल में इस्लाम धर्म ग्रहण करने की वकालत की थी। तीसरे उनके समय के दलित वर्ग में ही उनके विरोधी श्री जी. ए. गवई और एम. सी. राजा ने भी यही कहा था कि डॉ. अम्बेडकर इस्लाम धर्म गर्हण करने जा रहा है। इसके अलावा सवर्ण हिन्दुओं के नेताओं ने भी यही कहा था कि डॉ. अम्बेडकर इस्लाम धर्म ग्रहण करने जा रहा है। अतः इसके बाद कोई शक की गुंजाइश बाक़ी नहीं रह जाती है कि डॉ. अम्बेडकर इस्लाम धर्म ही अपनाना चाहते थे। लेकिन ऐसा क्यों न कर सके इसको आगे स्पष्ट किया जाएगा।
इस्लाम मध्यम मार्ग है
आप इस बात से सहमत होंगे कि धर्म बेहतर जीवन जीने की कला (साधन) मात्र है। इसके संसार में हमें तीन रूप मिलते हैं। घोर ईश्वरवादी और घोर अनिश्वरवादी तथा बुद्धि परक ईश्वरवादी। घोर ईश्वरवादी इंसान को कोई अहमियत ही नहीं देते। घोर अनिश्वरवादी केवल मनुष्य को ही सब कुछ मानते हैं। यह दोनों रास्ते अतिवादी रास्ते हैं। हमने भी इन्हीं में से एक बौद्ध धर्म को चुना था। लेकिन एक तीसरा मध्यम मार्ग इस्लाम धर्म का है जो अल्लाह में भी विश्वास करता है लेकिन यह इंसान को भी अहमियत देता है। वह कहता है कि सारे संसार की तरह ही इंसान को भी अल्लाह ने ही बनाया है, लेकिन इंसान को अल्लाह ने स्वतंत्र छोड़ दिया कि वह जो भी भला-बुरा कर्म करना चाहे कर सकता है, और इस प्रकार अपने कर्मों के लिए ख़ुद इंसान ही ज़िम्मेदार है अल्लाह नहीं। अल्लाह नहीं कहता है कि कमज़ोरों पर अत्याचार करो, उनका शोषण करो, बल्कि उनसे तो ऐसे मज़लूमों के साथ हमदर्दी करने का आदेश दिया है। हमने ईश्वर को इस लिए मानना छोड़ा था कि हिन्दु धर्म में कहा गया है कि इंसान जो भी कर्म करता है ईश्वर के ही आदेश से करता है। अतः जो अत्याचार ग़रीबों के साथ हो रहे हैं वे ईश्वर के आदेश से ही हो रहे हैं। और इस प्रकार अत्याचार करने वाले का कोई दोष नहीं होता है। यह ईश्वरवादी दर्शन हमें पसंद नहीं था।
इसके अलावा हमारी समस्या दर्शन की नहीं है। जो हमारे लोगों को गांव में धूं-लट्ठ मारता है वह कोई दर्शन-फ़र्शन नहीं जानता है उसे तो यह पता है कि यह नीच हैं इन्हें मारना मेरा अधिकार है।

 

मुसलमानों द्वारा दलितों की सहायता
दूसरी तरफ़ आम मुसलमानों ने मानवीय आधार पर अछूतों की सदा ही कुछ-न-कुछ मदद की है। जब धर्म परिवर्तन करने की कोई भी बात न थी तब भी मुसलमानों ने अछूतों की मदद की। महाद तालाब के आंदोलनों में जब हिन्दुओं ने अछूतों को बेरहमी से मारा तब अछूतों ने मुसलमानों के ही घरों में शरण ली थी। जब महाद तालाब का जल पीने के लिए दोबारा आंदोलन करने के लिए पंडाल के लिए किसी भी हिन्दु ने जगह- नहीं दी थी तब मुसलमानों ने ही जगह दी थी। (पृष्ठ 74-75 जीवन संघर्ष)
बाबा साहब ने सिद्धार्थ कॉलेज की स्थापना की तो इसके निर्माण के लिए बंबई के मुसलमान सेठ हुसैन जी भाई लाल जी ने 50 हज़ार रूपया चंदा दिया और सर काउसजी जहांगीर ने भी सहयोग प्रदान किया किन्तु सखेद कहना पड़ता है कि श्री गोविंद मालवीय जी ने इसकी कटु आलोचना की। (पृष्ठ 125 जीवन संघर्ष- लेखक जिज्ञासु)
"दूसरी गोल मेज़ कांफ़्रेंस में हिंदुस्तान के नेताओं में काफ़ी ले-दे हुई। अछूतों की मांग को कुचलने के लिए गांधी जी ने गुप्त संधि करने की कोशिश की और जिन्नाह साहब से गांधी जी ने कहा- ‘मैं तुम्हारी सब शर्तें मानने को तैयार हूं यदि तुम मेंरे साथ मिलकर अछूतों की मांग का विरोध करो।' परन्तु जिन्नाह साहब ने इस बात को स्वाकार नहीं किया और कहा ‘हम स्वयं अल्पसंख्यक होने के कारण जब विशेषाधिकार चाहते हैं' तो फिर हम दूसरे अल्पसंख्यकों की मांग का विरोध कैसे कर सकते हैं।" (पृष्ठ 13, पूना पैक्ट बनाम गांधी, लेखल शंकरानंद शास्त्री)
"हिन्दुओं ने बाबा साहब को विधान परिषद में न आने देने के लिए पूरे प्रबंध कर लिए थे। कहा जाता था कि हमने डॉ. अम्बेडकर के लिए विधान परिषद में आने के लिए तमाम रास्ते बंद कर दिए हैं, तब बाबा साहब ने यूरोपियन वोट प्राप्त कर विधान परिषद में आना चाहा तो गांधी जी ने यह अड़ंगा लगाया कि बंगाल असेंबली के यूरोपियन सदस्यों को अपने वोट देने का अधिकार नहीं है। तब बाबा साहब योगेन्द्र नाथ मंडल और मुस्लिम लीग की सहायता से अछूतों के प्रतिनिधि निर्वाचित हो कर विधान परिषद में आ सके थे।" (पृष्ठ 141 जीवन संघर्ष- लेखक जिज्ञासु)
यह भी ध्यान रखने योग्य बात है कि हिन्दुओं ने दलित वर्ग के राजनेताओ को कभी भी सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा। जब जगजीवन राम का प्रधानमंत्री बनने का पूरा हक़ था उन्हें नहीं बनाया गया और इस तरह से अपमानित किया। दूसरी तरफ़ देखिए, गुजरात का हसन नाम का एक अछूत ग़ुलाम था। जो कि दिल्ली का सुलतान बना और सुलतान ख़ुसरो शाह के नाम से जाना गया। जिसे सभी मुस्लिम बादशाहों ने बादशाह के रूप में स्वीकार किया और किसी ने भी एतराज़ नहीं किया।

बाबा साहब द्वारा इस्लाम और मुसलमानों की प्रशंसा
जहां मुसलमानों ने दलित वर्ग की क़दम-क़दम पर सहायता की है वहीं बाबा साहब ने भी इस्लाम धर्म और मुसलमानों की दिल खोल कर प्रशंसा की है। बाबा साहब यदि किसी धर्म को दिल से सबसे ज़्यादा पसंद करते थे तो वह केवल इस्लाम धर्म ही है। उदाहरण के लिए उन्हीं के शब्द आगे अंकित किए जा रहे हैं-
"ईसाई धर्म में, इस्लाम धर्म में जो समानता की शिक्षा दी गई है उसका संबंध विद्या, धन-दौलत, अच्छे कपड़े और बहादुरी ऐसे बाह्य कारणो से कुछ भी नहीं है। मनुष्य का मनुष्यतम (इंसानियत) यही सबसे महत्वपूर्ण चीज़ है। यह (इंसानियत) इस्लाम और ईसाई धर्म की बुनियाद है और यह इंसानियत सबको मान्य होनी चाहिए। किसी को असमान नहीं मानना चाहिए। यह शिक्षा वे (इस्लाम और ईसाई) धर्म देते हैं।"(‘दलित वर्ग को धर्मान्तरण की आवश्यकता क्यों है' ? के पृष्ठ 23 से)
"धार्मिक संबंध के कारण तुर्कों का गठजोड़ अरबों से रहा। इस्लाम धर्म का सहयोग मानवता के लिए बहुत प्रबल है, यह बात सबको याद है। इस्लाम् बंधुत्व की दृष्टता की प्रतियोगिता कोई अन्य सामाजिक संघ नहीं कर सकता।"(पृष्ठ-244 पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन, लेखक डॉ. अम्बेडकर)
बाबा साहब ने कहा है कि तीन धर्म हैं इस्लाम, ईसाई और सिख धर्म जिनमें से दलित वर्ग को अपनाना है। फिर साथ ही कहते हैं कि तीनों की तुलना करने पर इस्लाम दलित वर्ग को वह सब कुछ देता हुआ प्रतीत होता है जिसकी उसको आवश्यकता है।

उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट हो गया है कि बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर इस्लाम धर्म को बड़े ही श्रद्धा भाव से देखते थे। वे इसकी बुनियाद इंसानियत मानते थे। वे इस्लामी संघ को संसार में सुदृढ़ भाई-चारे का सर्वश्रेष्ठ प्रतीक एवं गतिशील संघ मानते थे। फिर क्यों न हम अपनी मूल समस्या के समाधान के लिए लक्ष्य को प्राप्त करने में पूर्ण रूप से सक्षम, सामाजिक दासता की बेड़ियों को काटकर फेंकने के लिए और बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर के सपनों को साकार बनाने के लिए इस्लाम जैसे प्यारे धर्म को अपनाएं जिससे कि सुख शांति एवं समृद्धि को प्राप्त कर ले और अपने परलोक को भी सुधार लें। आइए हम भी इस्लाम की शीतल छाया की ओर चल पड़ें।

‘राष्ट्रीयता के नाम पर हिन्दु लोग दलित वर्ग को धोखा दे सकते हैं। लेकिन मुसलमानों को मूर्ख नहीं बना सकते।'
कुछ लोग बाबा साहब की उस उक्ति को सामने रखना चाहेंगे जिसमें उन्होंने कहा है कि ‘हम लोग यदि ईसाई या इस्लाम धर्म स्वीकार करेंगे तो हमारी भारतीयता में अन्तर आ जाएगा। याद रखिए धर्म परिवर्तन के साथ राष्ट्रीयता में कोई अन्तर नहीं आता। यदि ऐसा ही वे देश भी सोच लेते जहां के लोग आज बौद्ध धर्म को मानते हैं तो बौद्ध धर्म किसी अन्य देशवासियों ने न अपनाया होता, क्योंकि वह उनके देश में पैदा हुआ धर्म नहीं है। इस स्पष्टीकरण के साथ ही बाबा साहब की ही यह उक्ति अधिक ध्यान देने योग्य है कि वे (सवर्ण हिन्दु) राष्ट्रीयता के नाम पर निम्न हिन्दु (दलित वर्ग) को धोखा दे सकते हैं परन्तु अपना प्रभुत्व बनाए रखने के लिए वे मुस्लिम क्षेत्र की मुस्लिम जनता को मूर्ख नहीं बना सकते। इसके साथ ही वहीं पर उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि ‘लिंकन का यह कथन सटीक है कि तमाम समय सब सोगों को मूर्ख बना सकना संभव नहीं है।'(पृष्ठ-114-115 पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन, लेखक डॉ. अम्बेडकर, जुलाई 1972 संस्करण)
कुछ लोगों का कहना है कि इस्लाम विज्ञान को अपना शत्रु मानता है परन्तु बाबा साहब इसके उत्तर में कहते हैं कि "यह सत्य प्रतीत नहीं होता क्योंकि यदि इसमें यथार्थता होती तो जगत के अन्य मुस्लिम देशों में परिवर्तन, पूछताछ तथा सामाजिक सुधार की भावना की हलचल क्यों दिखाई देती ?"
यदि इन मुस्लिम देशों के सामाजिक सुधार में इस्लाम ने कोई व्यवधान नहीं डाला तो भारतीय मुसलमानों के सुधारवादी मार्ग में कोई बाधा क्यों पड़नी चाहिए? भारत में मुस्लिम जाति की उक्त गतिशून्यता को कोई विशेष कारण अवश्य है। यह विशेष कारण क्या हो सकता है ? मेरी समझ में भारतीय मुसलमानों में उक्त गतिशून्यता का मुख्य कारण उनकी वह विशिष्ट स्थिति है जिसमें वे रह रहे हैं। वे एक ऐसे सामाजिक वातावरण में रह रहे हैं जो मुख्य रूप से हिन्दु है और जो उन पर चुपचाप परन्तु दृढ़तापूर्वक अपना प्रभाव डाल रहा है।‘ (पृष्ठ-267 पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन, लेखक डॉ. अम्बेडकर)

 

मुसलमानों में भी जातिवाद है ?

बाबा साहब ने इस संबंध में कहा है-
"धर्मांतरण के रास्ते में और भी एक अड़ंगा डाला जाता है। जाति भेद ग्रस्त होकर धर्मांतरण करने में कुछ भी लाभ नहीं है। इस प्रकार का युक्तिवाद कुछ मूर्ख हिन्दु लोग ही करते हैं। वे तर्क देते हैं- कहीं भी जाइए वहां पर भी जाति भेद ही है। ईसाईयौं में भी जातिभेद और मुसलमानों में भी है। अफ़सोस यह बात क़बूल करनी पड़ती है कि इस देश के अन्य धर्म समाजों में भी जातिभेद का प्रवेश हुआ है किन्तु इस अपराध के अपराधी हिन्दु लोग ही हैं। मूल में यह रोग उन्हीं से उत्पन्न हुआ है। उसका संसर्ग फिर अन्य समाजों को लगा है। यह उसकी दृष्टि से नाक़ाबिल बात है। ईसाई और मुसलमानों में यदि जाति भेद है भी तब भी वह जाति भेद हिन्दुओं के जाति भेद जैसा ही है, यह कहना ‘चोरों को सारे नज़र आते हैं चोर' वाली बात है। हिन्दुओं में जाति भेदभाव और मुस्लिम तथा ईसाईयों में जाति भेद इन दोनों में बहुत बड़ा अंतर है। सबसे पहले तो यह बात ध्यान में रखनी होगी कि मुसलमानों और ईसाईयों में जाति भेद होने पर भी वह उनके समाज का प्रमुख अंग नहीं है। हिन्दुओं को छोड़ कर यदि दूसरों से आप यह पूछते हैं कि आप कौन हैं तो वे कहेंगे- मैं मुसलमान हूं, या ईसाई। इतना ही उत्तर मिलने पर सबका (उत्तर देने वाले का और प्रश्न पूछने वाले का) समाधान हो जाएगा। तेरी जाति क्या है? यह पूछने या बताने की किसी को भी आवश्यकता नहीं है। किन्तु यदि आप किसी हिन्दु से पूछते हैं- "तुम कौन हो?" तो वह उत्तर देता है कि मैं हिन्दु हूं' तो इससे किसी का भी समाधान होने वाला नहीं है। न ही प्रश्न पूछने वाले का और न ही उत्तर देने वाले का। फिर प्रश्न पूछा जाता है कि तुम्हारी जाति क्या है? जब तक वह अपनी जाति का नाम न बताए किसी को भी उसकी वास्तविक स्थिति का पता नहीं चलेगा। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि हिन्दु समाज में जाति-पांति को कितनी प्रधानता दी गई है और ईसाई और मुस्लिम समाज में जाति को कितना गौण स्थान दिया गया है। यह बात स्पष्ट हो जाति है।" (‘दलित वर्ग को धर्मान्तरण की आवश्यकता क्यों है' ? के पृष्ठ 40 से)
"इसके अतिरिक्त हिन्दु और अन्य समाजों में और भी एक महत्वपूर्ण फ़र्क है। हिन्दुओं के जाति भेद के मूल में स्वयं उनका हिन्दु धर्म है। मुस्लिम और ईसाईयों के जाति भेद के मूल में उनके धर्म की स्थापना नहीं है। हिन्दुओं में जाति भेद समाप्त करने में उनका धर्म इसमें अड़ंगा बन जाता है हिन्दु ईसाई और मुसलमान लोगों ने अपना आपस का जाति भेद नष्ट करने का प्रयास किया तो उनका धर्म इसमें अड़ंगा नहीं बनता, बल्कि उनका धर्म जाति भेद को हतोत्साहित करता है। हिन्दुओं को अपने धर्म का विध्वंस किए बिना जाति विध्वंस करना संभव नहीं है। मुस्लिमों और ईसाईयों में जाति विध्वंस करने के लिए अपना धर्म विध्वंस करने की कोई आवश्यकता नहीं है। जाति विध्वंस के काम में उनका धर्म अड़ंगा बनने वाला नहीं है। जाति भेद सब में और सभी ओर है, यह क़बूल करने पर भी हिन्दु धर्म में ही रहो, ऐसा निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता। जाति भेद यह चीज़ यदि बुरी है तो जिस समाज में जाने पर जाति भेद की तीव्रता, जाति भेद का विनाश, शीघ्र, सहजता से और मूल रूप से नष्ट किया जा सकता है, यही वास्तव में तर्क सिद्ध सिद्धांत है, ऐसा मानना पड़ेगा।"(‘दलित वर्ग को धर्मान्तरण की आवश्यकता क्यों है' ? के पृष्ठ 41 से)
यद्यपि उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट हो चुका है कि मुसलमानों में जाति-पांति केवल सुविधा के लिए है। ईर्ष्या, द्वेष या घृणा के लिए नहीं है, फिर भी यदि हम दोष के रूप में ले तो भी मुसलमानों में जाति वाद इतना गहरा नहीं जितना हिन्दुओं में है, क्योंकि इस्लाम धर्म में इसके लिए कोई स्थान नहीं है, जबकि हिन्दुओं में जातिवाद उनके धर्म का अभिन्न अंग है।
अत्यंत गंभीरता से सोचने की बात यह है कि क्या सिर्फ जाति वाद ही हमको परेशान कर रहा है ? ऐसी बात बिल्कुल निराधार है। केवल जातिवाद ही किसी को परेशान नहीं कर सकता। यदि हमारे लोगों को चमार कहा होता और हमें पूरी मुहब्बत और इज़्ज़त दी होती तो हमें क्या परेशानी थी ? यदि केवल जातिवाद ही परेशान करने वाला हो तो सवर्ण हिन्दुओं में भी तो अलग-अलग जातियां हैं और यहां तक की उनकी भी शादियां आपस में एक दूसरी जाति में नहीं होती हैं ऐसा होने पर भी बताइए ब्राह्मण से क्षत्रिय या वैश्य कहां परेशान हैं? या क्षत्रिय से ब्राह्मण और वैश्य कहां दुखी हैं? आदि-आदि। बल्कि ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य तो बेहद सौहार्द, प्रेम एवं सहयोग के साथ रहते हैं।
स्वयं अपनी तरफ़ देखिए - दलित वर्ग में भी तो अनेक जातियां हैं और उनमें भी एक दूसरे में शादियां नहीं होती हैं। इसके बावजूद भी बताइए भंगी चमार से कहां परेशान है ? चमार, भंगी से या खटीक से कहां परेशान है? रैगर चमार से या धानक से कहां परेशान है ? कहने का तात्पर्य यह है कि केवल अलग-अलग जातियां होने से ही कोई परेशान नहीं है। केवल आप चमार जाति को ही देख लें। इसमें भी कई जातियां बन गई है और यहां तक कि इनमें भी आपस में शादियां नहीं होती हैं। चमड़ा रंगने वाले चमार के साथ नौकरी पेशा या खेती करने वाला चमार कभी शादी-सम्बंध नहीं करता है। लेकिन यदि चमड़ा रंगने वाले चमार पर कोई ज़ुल्म ढाया जाता है तो नौकरी पेशेवाला चमार व्याकुल हो उठता है और उसकी सामर्थ्य अनुसार सहायता के लिए भी तैयार रहता है। ठीक इसी प्रकार यदि नौकरी या खेती करने वाले चमार पर कोई ज़ुल्म या अत्याचार होता है तो चमड़ा रंगने वाला चमार या अन्य चमार बहुत दुखी होते हैं और उसे अपने ऊपर हुआ ज़ुल्म या अत्याचार समझते हैं। ऐसा क्यों होता है ? इसलिए कि उनमें आपस में ईर्ष्या, घृणा या द्वेष नहीं है, बल्कि उसके स्थान पर प्यार, लगाव व सहानुभूति है।
कुछ भाई इस प्रकार की शंका पैदा करने लगते हैं कि धर्मांतरण के बाद हमारी या हमारे बच्चों की शादियां कैसे होंगी? इस सिलसिले में यह समझ लेना चाहिए कि सबसे पहले तो मुसलमान ही ब्याह शादियों के लिए तैयार रहते हैं और सदियों से भारतीय मुस्लिम समाज में यह सिलसिला जारी है। दूसरे हम आपस में भी तो रिश्ते कर सकते हैं।
मुसलमान में जब किसी बढ़ई, लुहार या सक्के के बेटे की बारात सज-धज कर शान से निकाली जाती है तो कोई भी शेख़, सैयद, मुग़ल या पठान उसमें बाधा नहीं डालता है, लेकिन हिन्दुओं में यदि किसी चमार या भंगी के बेटे की बारात सज-धज कर निकाली जाती है तो उसमें विघ्न डाला जाता है, उन पर पत्थर फेंके जाते है, कहीं उन्हें पीटा जाता है, और कहीं उनको ज़िंदा जला दिया जाता है। कफल्टा में दूल्हे के घोड़ी पर चढ़े होने के कारण ही 14 बारातियों को ज़िंदा जला दिया गया था। तात्पर्य यह है कि मुसलमानों में जाति के नाम पर घृणा, द्वेष या ईर्ष्या नहीं है जबकि हिन्दुओं में जाति के नाम पर हमसे घृणा, द्वेष और ईर्ष्या है जिसकी वजह से हम पर तरह-तरह के अत्याचार किए जाते हैं। अत्याचारों के इस सिलसिले को केवल इस्लाम ही समाप्त कर सकता है। मुसलमान होकर व्यर्थ की घृणा, द्वेष व अत्याचारों से बचा जा सकता है, जो हमारी मूल समस्या है। इस्लाम क़बूल करने से जहां एक दुनियावी समस्या हल हो जाती है वहीं हम अपने परलोक को को सुधारने का रास्ता भी पा लेते हैं।


इस्लाम की प्रमुख शिक्षाएं
ईश्वर एक है, उसका कोई साझी नहीं। वह अकेला है, उसके सिवा कोई पूज्य नहीं। वह अत्यंत कृपाशील और दयावान है।
ईश्वर अपने बन्दों के प्रति इतना उदार है कि उनकी ग़लतियों और भूलों को क्षमा कर देता है बशर्ते कि वे उसकी ओर रुजू करें।
जिन लोगों ने ईश्वर का भय रखा और परहेज़गारी का जीवन बिताया उनके लिए स्वर्ग है। और जिन्होंने ईश्वर का इनकार किया और सरकशी का जीवन बिताया .उनका ठिकाना निश्चित रूप से नरक है।
जो व्यक्ति झूठ न बोले, वादा कर के न तोड़े, अमानत में ख़ियानत न करे, आंखें नीची रखे, गुप्त अंगों की रक्षा करे और अपने हाथ को दूसरों के दुख और कष्ट पहुंचाने से रोके, वह जन्नत में जाएगा।
घमण्ड से बचो। घमण्ड ही वह पाप है जिसने सबसे पहले शैतान को तबाह किया।
आपस में छल-कपट और वैर न रखो। डाह और इर्ष्या न करो, पीठ पीछे किसी की बुराई न करो। तुम सब भाई-भाई हो।
शराब कभी न पियो।
जीव-जन्तुओं को अकारण मत मारो।
माता-पिता के साथ अच्छा व्यवहार करो। मां-बाप की ख़ुशी में ईश्वर की ख़ुशी है।
बाल-बच्चों की अच्छी देखभाल करो, उनको अच्छी शिक्षा दो।
किसी इंसान को किसी पर कोई श्रेष्ठता प्राप्त नहीं है। हां, वह इंसान सर्वश्रेष्ठ है जिसके कर्म अच्छे हैं। चाहे उसका संबंध किसी भी देश अथवा संप्रदाय से हो।
ब्याज खाना और ब्याज का कारोबाकर हराम (अवैध) है।
नाप-तौल में कमी न करो।
सब के साथ न्याय करो, चाहे तुम्हारे रिश्तेदार हों या दुश्मन।
अगर कोई किसी इंसान को नाहक़ क़त्ल करता है तो मानो उसने सारे इंसानों की हत्या कर दी। और अगर कोई इंसान की जान बचाता है तो मानो उसने सारे इंसानों को ज़िंदगी बख़्शी।
सफ़ाई-सुथराई आधा ईमान है।
वह आदमी मुसलमान नहीं जो ख़ुद तो पेट भर खाए और उसका पड़ोसी भूखा रहे।
सारे इंसानों को मरने के बाद ख़ुदा के सामने हाज़िर होना है और अपने कर्मों का हिसाब देना है। यह दुनिया तो इम्तेहान की जगह है। यहां हर इंसान अपने कर्म करने के लिए स्वयं है और इसी लिए अपने किए के लिए वह ख़ुद ज़िम्मेदार होगा। अल्लाह किसी को ज़ुल्म करने के लिए नहीं कहता।
ख़ुदा इंसानों के मार्ग दर्शन के लिए अपने पैग़म्बर भेजता रहा है और अंत में हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) को अपना आख़िरी पैग़म्बर बनाकर भेजा है। रहती दुनिया तक सारे इंसानों के लिए ज़रूरी है कि हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) का अनुसरण करें।
क़ुरआन अल्लाह की भेजी हुई किताब है जो हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) के ज़रिए समस्त इंसानों की रहनुमाई के लिए भेजी गई। इसमें पूरी ज़िंदगी के लिए हिदायतें दी गई हैं।
जाति, रंग, भाषा, क्षेत्र, राष्ट्र, राष्ट्रीयता के आधार पर किसी के साथ ऊंच-नीच, छूआछूत, भेदभाव और पक्षपात का व्यवहार न करो।
ग़लत तरीक़े से दूसरों का माल न खाओ। हलाल (वैध) कमाई करो।
मज़दूर का पसीना सूखने से पहले उसकी मज़दूरी दे दो।