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बंधुआ मजदूरी और इस्लाम

लेखक: सुल्तान अहमद इस्लाही
अनुवाद: मुनाजिर हक

  
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बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम।
‘‘अल्लाह के नाम से जो बड़ा ही मेहरबान और रहम करने वाला है।''
 

बंधुआ मज़दूरी और इस्लाम

 

बंधुआ मज़दूरी भारत में


स्वतंत्रता एवं समानता के ध्वजावाहक वर्तमान भारत के लिए जिन समस्याओं को उसके माथे का कलंक घोषित किया जा सकता है उनमें से एक समस्या बंधुआ मज़दूरी की है। जिसके कारण न जाने कितने आज़ाद इंसानों के इरादे, क्षमता एवं जीने के अधिकार को कुछ स्वेच्छाचारियों और दौलत के पुजारियों की बलिदेवी पर भेंट चढ़ा दिया जाता है और एक बेसहारा इंसान जिसकी जीवन-निधि केवल उसकी मेहनत-मज़दूरी करने की योग्यता होती है, उसे कुछ साहूकारों के हाथों गिरवी रख कर उसे जीवन भर के लिए अभावग्रस्त और अर्ध-ग़ुलामों का जीवन व्यतीत करने के लिए मजबूर होना पड़ता है।
 
 
भारतीय संविधान के मूल अधिकारों की धारा से शोषण के विरुद्ध अधिकार के शीर्षक के तहत अन्य बातों के अतिरिक्त बलपूर्वक मज़दूरी कराने की मनाही और पाँच वर्ष पूर्व भारतीय संसद में बन्धुआ मज़दूरी उन्मूलन अधिनियम के तहत बंधुआ मज़दूरी को उसके सभी रूपों के साथ क़ानूनी तौर पर अवैध घोषित किए जाने के बावजूद, यह लानत आज भी पूरे भारत में अपनी बदतरीन सूरत में मौजूद है। यह एक ऐसी वास्तविकता है जिससे देश का वह वर्ग जो अख़बारों पर नज़र रखता हैं एवं हर विवेक शील नागरिक भलीभाँति परिचित है। अख़बारों में प्रायः इसके संबंध में रिपोर्ट प्रकाशित होती रहती है। इस संबंध में ‘इण्डियन एक्सप्रेस' दिल्ली ने अपेक्षाकृत सबसे अधिक रुचि एवं जागरूकता का सुबूत दिया है, जिसके लिए वह हमारी ओर से बधाई का पात्र है। यही नहीं बल्कि उसके ध्यानकर्षण से ऐसे कुछ बदक़िस्मत इंसानों को इस लानत से रिहाई भी मिली है।
उसी अख़बार की रिपोर्ट है कि कहीं दूरदराज़ नहीं, बल्कि देश की राजधानी दिल्ली में या यह कहें कि केन्द्रीय सरकार की बिल्कुल नाक के नीचे हरिजनों को, जिनमें से अधिकतर राजस्थान से भाग कर आए हुए है, बंधुआ मज़दूर के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। 

 

उनसे पत्थरों की खदानों में बहुत मामूली मज़दूरी पर काम लिया जाता है और उन्हें अति दयनीय स्थिति में रहने के लिए मजबूर कर दिया जाता है। इसका अनुमान इस ब्योरे से लगाया जा सकता है कि उनकी घनी अंधेरी झोपड़ियों से एक मील की दूरी पर केवल एक कच्चा कुआँ है और वह भी गर्मियों में सूख जाता है। चिकित्सा सुविधा नाम की कोई चीज़ वहाँ उपलब्ध नहीं है। जबकि उन मज़दूरों को प्रायः चोटे लगती रहती है, यहाँ तक कि कई मज़दूरों की एक आंख तक ख़राब हो गई है। उन पीड़ित मज़दूरों को मुआवज़ा भी नहीं दिया जाता । इसके अतिरिक्त ठेकेदारों की ओर से उन बंधुआ मज़दूरों को अपनी जगह छोड़ने की इजाज़त भी नहीं है, जिसके लिए वे (ठेकेदार)किराए के ग़ुण्डों की मदद लेने से भी नहीं चूकते।

 

इसके बाद उक्त अख़बार लिखता है कि आश्चर्य है कि ये दुकानें (दिल्ली लघु उद्योग विकास निगम) के स्वामित्वाधीन हैं, जिसने अपने ठेकेदारों को उन बेसहारा मज़दूरों के शोषण की खुली छूट दे रखी है। इससे भलीभाँति अनुमान लगाया जा सकता है कि देश के दूरदराज़ इलाक़ों में ये बंधुआ मज़दूर किन दुखद परिस्थितियों का सामना करते होंगे।

 

इससे भी अधिक दर्दनाक हालत हरियाणा और पंजाब में भट्टे में काम करनेवाले बन्धुआ मज़दूरों की है जिनकी दास्तान इसी अख़बार के 14 अगस्त 1980 ई0 के संपादकीय (नग्न ग़ुलामी) के शीर्षक से इस प्रकार लिखी हैः 

 

"यह सिसरा का एक परिवार है जिनमें सोलह सदस्य है, जिसमें मर्द, औरतें और बच्चे सब सम्मिलित हैं। ग़रीबी और भूख से तंग आकर आज से तीन साल पूर्व यह परिवार हरियाणा के ज़िला सोनीपत के एक स्थान सुसाना की ओर कूच करता है, जहाँ वे एक भट्टे वाले के यहाँ क़ुली के रूप में काम करने लगता है। यह क्रूर भट्टा मालिक कथित रूप से सशस्त्र ग़ुण्डों की मदद से उन्हें क़ैदियों की तरह रखता है। उन्हें और उनके बच्चों से सुबह से शाम तक काम लेता है। उनकी औरतों से छेड़छाड़ करने से भी नहीं चूकता और उन्हें वादे के अनुसार पारिश्रमिक देने के बदले घटिया प्रकार के गेहूं का आटा बहुत थोड़ी-थोड़ी मात्रा में देता है। जब ईट बनाने का मौसम ख़त्म होता है तो उसी से लगे पानीपत ज़िले के एक दूसरे भट्टे वाले को यह परिवार 2500 रूपये में बेच दिया जाता है। यह नया भट्टा मालिक और भी अधिक अत्याचारी साबित होता है। अतः वह औरतों के तमाम ज़ेवरात, स्पष्ट है जो चांदी ही के हो सकते थे, लूट लेता है। एक मज़दूर जो उसके दिए हुए सख़्त काम को करने से असमर्थ रहता है, उसे इतना मारता है कि वह दम तोड़ देता है और इस प्रकार उनके ख़ून का बूंद-बूंद चूसने के बाद वह भट्टा मालिक उन्हें समालखा के एक अन्य ग्रुप को साढ़े सात हज़ार रूपयें मे बेच देता है।"
(यह घटना इन पंक्तियों के लिखे जाने से एक सप्ताह पूर्व की है।) सिसरा के इन्हीं मज़दूरों का बयान है कि-

 

"लगभग इस प्रकार के दस हज़ार परिवार, जिनमें से अधिकतर का संबंध राजस्थान से है, पंजाब और हरियाणा के भट्टा मालिकों के यहाँ ग़ुलामी की ज़िन्दगी गुज़ार रहे हैं।" इसके बाद यह अख़बार इस पर टिप्पणी करते हुए लिखता है कि
‘‘कुल मिला कर पूरे देश में कितने बंधुआ मज़दूर पाए जाते हैं इसके बारे में अनुमान विभिन्न है और कुछ लाख से लेकर कुछ मिलियन (एक मिलियन दस लाख का होता है) तक का अनुमान लगाया जाता है। परन्तु यदि बंधुआ मज़दूरी और इसी प्रकार की अर्द्ध ग़ुलामी के तमाम रूपों को निगाह में रखा जाए तो यह अनुमान भी वास्तविकता से बहुत कम होगा।'' बंधुआ मज़दूरी की यह लानत सारे देश में मौजूद है। इसी अख़बार की रिपोर्ट है कि तमिलनाडु के तरापत्तुर ताल्लुक़ा के केवल एक गाँव कादिरमपत्ती में तीन सौ हरिजन परिवारों को एक सौ सतरह हिन्दू ज़मीदारों ने बंधुआ मज़दूर बना रखा है। और उसी ताल्लुक़ा के गाँवों में आम तौर पर यह स्थिति है कि हरिजन लोग सफ़ेद धोती और जूते पहन कर गाँव की गलियों में चल -फिर नहीं सकते ।

 

इसी प्रकार गांधी-पीस फ़ाउंडेशन की रिपोर्ट है कि भारत के केवल दस राज्यों में छब्बीस लाख बंधुआ मज़दूर मौजूद हैं।

परन्तु वास्तविक यह है कि भारत में यह लानत जिस बहुलता से मौजूद है, उसके मुक़ाबले में ये आंकड़े कुछ भी नहीं हैं। अतः अभी यू0पी0 डेवलपमेंट सिस्टम्स कारपोरेशन की ताज़ा रिपोर्ट है कि इलाहाबाद और बांदा ज़िले के केवल दो ब्लाकों शंकरगढ़ और मानिकपुर में इन बंधुआ मज़दूरों की संख्या बारह हज़ार एक सौ बानवे (12,192) है। सात सदस्यों पर आधारित इस सर्वेक्षण टीम की रिपोर्ट में उन मज़दूरों की जो दयनीय हालत बयान की गई है वह दिल दहला देने वाली है। इसके अनुसार जंगलों और पशु-फार्मों में काम करने वाले तीन हज़ार एक सौ सोलह (3,116) मज़दूर लगभग भुखमरी की ज़िन्दगी गुज़ारते हैं। शंकर गढ़ ब्लाक में आठ हज़ार नौ सौ छिहत्तर (8,976) बंधुआ मज़दूरों की तादाद पत्थर काटने, सिलिका और बालू की खानों और फामों में काम करती है। मानिकपुर ब्लाक में इन बंधुआ मज़दूरों का दैनिक पारिश्रमिक एक रूपया ब्यालीस पैसा प्रति मज़दूर है। जबकि शंकर गढ़ में इन्हें उसके अनुपात में कुछ ज़्यादा मज़दूरी मिल जाती है। फ़ार्मों में काम करने वाले बंधुआ मज़दूरों को रोज़ाना आधा किलो ख़राब क़िस्म का अनाज प्रति मज़दूर मिलता है।


कहीं-कहीं इन्हें कुछ ज़मीन भी दे दी गई, है जो दो बीघे से अधिक नहीं होती है। स्वतंत्र भारत में बंधुआ मज़दूरी की यह समस्या किस प्रकार आम है इसका अनुमान इससे कीजिए कि अभी 14 मई, 1981 ई0 को बिहार में ज़िला रोहतास के सासाराम नामक स्थान पर पत्थर की खानों में काम करने वाले लगभग आठ हज़ार मज़दूरों को ‘बंधुआ मज़दूर' घोषित करके उन्हें आज़ाद करके उनके घरों को भेज दिया गया है। इसी प्रकार 24 फरवरी, 1981 ई0 के इसी अख़बार की रिपोर्ट है कि हरियाणा के बहादुर गढ़ औद्योगिक क़स्बे से छः किलोमीटर की दूरी पर भराई नामक एक गाँव में एक भट्टे वाले के चंगुल से सतरह परिवारों को छुड़ाया गया है, जिन्हे बंधुआ मज़दूर के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा था, जिनमें एक पचास वर्षीय बूढ़ी औरत भी थी जिसे भट्टा मालिक के आदमियों ने बंधक के तौर पर पकड़ रखा था। इनमें से नौ परिवारों का संबंध मध्य प्रदेश के ज़िला छत्तीसगढ़ क्षेत्र से है। शेष परिवार उत्तर प्रदेश के ज़िला बुलंदशहर के रहने वाले हैं। रोचक तथ्य यह है कि यह जगह दिल्ली से मात्र तीस किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
 
ताज़ा आकड़ों के अनुसार इस समय देश में बंधुआ मज़दूरों की संख्या पांच मिलियन (50 लाख) है जिनमें से पचास हज़ार की हालत अत्यन्त दयनीय है। बंधुआ मज़दूरी मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष स्वामी अग्निवेश के अनुसार केवल उत्तरी बिहार के दो ज़िलों- पश्चिमी चम्पारण और गोपाल गंज में ग़ुलामों की तरह काम करने वाले इन मज़दूरों की संख्या बीस हज़ार है। और स्थिति यह है कि इस क्षेत्र की सारी ज़मीन केवल दस से लेकर पंद्रह परिवारों के हाथों में है, जो हरिजनों एवं आदिवासियों की एक बड़ी तादाद का बुरी तरह से शोषण करते हैं। हर ओर जंगल-राज क़ायम है और मज़दूरों को बहुत ही मामूली मज़दूरी दी जाती है। काम करने वालों को मज़दूरी में रक़म नहीं दी जाती बल्कि उन्हें तीन किलो धान दिया जाता है, जिससे डेढ़ किलो चावल प्राप्त होता है। स्वामी अग्निवेश के अनुसार ये लोग कई पीढ़ी से ग़ुलामी का जीवन व्यतीत कर रहे हैं। इनमें से बहुत से ऐसे लोग हैं जो आज तक अपने बाप, दादा और परदादा के क़र्ज़ चुका रहे हैं। इस प्रकार ये लोग एक तरह से जन्मजात ग़ुलाम हैं। उच्च जाति के लोगों के भय से इन अन्यायों के ख़िलाफ़ इन्हें जुबान खोलने का भी साहस नहीं होता।
 
भारत सरकार की ताज़ा सूचना के अनुसार, जिसमें उसने बंधुआ मज़दूरों के पुनर्वास के लिए राज्य सरकारों से जवाब तलब किया है, देश के बारह राज्यों की ओर से बंधुआ मज़दूरी की घटनाओं की सूचना मिली है।

ये राज्य आंध प्रदेश, बिहार, गुज़रात, हरियाणा, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, राजस्थान, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश हैं। बंधुआ मज़दूरी की सबसे अधिक घटनाओं की सूचना कर्नाटक राज्य से मिली है। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि किस राज्य में बंधुआ मज़दूरों की तादाद कितनी है। सरकार के बयान के अनुसार अब तक सभी ज्ञात बंधुआ मज़दूरों को मुक्त करा कर उन्हें आबाद किया जा चुका है। सरकार की सूचनानुसार 31 मार्च 1988 ई0 तक सम्पूर्ण देश में ज्ञात बंधुआ मज़दूरों की कुल तादाद दो लाख पैंतीस हज़ार छः सौ सत्तर (2,35,670) थी। अक्टूबर 88 ई0 तक इसमें कोई वृद्धि नहीं हुई है। सरकार का दावा है कि इन तमाम ज्ञात बंधुआ मज़दूरों को आज़ाद कराया जा चुका है। इनमें से दो लाख दो हज़ार (2,02,000) को बसाया भी जा चुका है। सरकार ने सन 1988-89 ई0 के लिए उन्नीस हज़ार एक सौ (19,100) बंधुआ मज़दूरों के पुनर्वास का लक्ष्य निर्धारित किया है।

स्वतंत्र एजेंसियों द्वारा पेश की गई सूचनाओं के आधार पर इंटरनेशनल लेबर आर्गनाइज़ेशन की ताज़ा रिपोर्ट 93 ई0 के अनुसार भारत में इस समय बंधुआ मज़दूरों की कुल तादाद डेढ़ करोड़ है, जिसमें पाँच मिलियन (50 लाख) मर्द एवं औरत तथा शेष 10 मिलियन (एक करोड़) बाल बंधुआ मज़दूर हैं, जो खेती,-बाड़ी, खदान की खुदाई, क़ालीन-बुनाई आदि कामों के अतिरिक्त घरेलू नौकर की हैसियत से काम कर रहे हैं। केवल खेती-बाड़ी के क्षेत्र में बीस लाख से अधिक बंधुआ मज़दूर हैं। लगभग दस लाख बंधुआ मज़दूर ईंट के भटटों, पत्थर तोड़ने एवं भवन-निर्माण के क्षेत्र में काम करते देखे गए हैं। अन्य हज़ारों बंधुआ मज़दूर क़ालीन-निर्माण और हीरा-तराशों के धंधे में फंसे हुए हैं। अन्य उद्योगों, क़ैंची, ताला, और खाद के कारख़ानों में भी ये काम करते हैं। लाखों लोग ग़ुलामी जैसी स्थिति में घरेलू नौकरों के रूप में काम कर रहे हैं। इन लोगों को ‘अदृश्य बंधुआ मज़दूर' कहा जाता है। इसलिए कि इन्हें घरों के अन्दर ताले में बंद रखा जाता है और ये दुनिया की निगाहों से दूर रहते हैं। सरकार के अपने आंकड़ों के अनुसार देश में इस समय बंधुआ मज़दूरों की कुल संख्या तीन लाख तिरपन हज़ार (3,53,000) है। 1990 ई0 तक दो लाख पैंतालीस हज़ार (2,45,000) बंधुआ मज़दूरों को आज़ाद कराया गया, जिनमें से दो लाख अट्ठारह हज़ार (218,000) को आबाद भी कर दिया गया। यद्यपि इन मज़दूरों के आर्थिक एवं सामाजिक पूनर्वास के सम्बन्ध में अभी बहुत कुछ करना बाक़ी है।

 



बन्धुआ मज़दूरी विश्व के अन्य देशों में 

भारत के अतिरिक्त दुनिया के जिन अन्य देशों में बंधुआ मज़दूरीकी यह बुरी रस्म एक संगीन समस्या के रूप में मौजूद है, उनमें पाकिस्तान का नाम सबसे आगे है। इसके अतिरिक्त थाईलैण्ड, सूडान, हैती, पेरू, ब्राज़ील, मोरेतानिया और डोमिक गणतंत्र में भी यह समस्या बदले हुए रूप में मौजूद है। थाईलैण्ड में इसका आम चलन है। जबकि पाकिस्तान में बंधुआ मज़दूरों के रूप में काम करने वाले लोगों की तादाद बीस मिलियन (2 करोड़) के निकट है, जिन में सत्तर लाख पचास हज़ार (7.5मिलियन) बच्चे हैं। केवल भट्टा मज़दूरी के धंधे में ऐसे मज़दूरों की संख्या 20 लाख है। दूसरे उद्योग, जिनमें इस प्रकार की मज़दूरी का आम चलन है, वे हैं- मछली सफ़ाई, जूता-निर्माण, खेती और खदान मज़दूरी । इस देश के कुछ ज़िलों में बंधुआ कृषि मज़दूरों को ‘बंधक-प्राणी' के नाम से जाना जाता है। दिलचस्प बात है कि भारत की तरह पाकिस्तान में भी बंधुआ मज़दूरी का तरीक़ा ग़ैर क़ानूनी है। इस के बाद भी सरकार स्वीकार करती है कि यह समस्या काफ़ी दूर-दूर तक अपनी जड़ें जमाए है। साथ ही उसने इस बुरी प्रथा को समाप्त करने का दृढ़ संकल्प किया हुआ है। इन मज़दूरों के साथ अत्यन्त एवं अत्याचार पूर्ण व्यवहार किया जाता है और बहुत ही मामूली मज़दूरी पर उनसे काम लिया जाता है।

 

बंधुआ मज़दूरी की बुरायाँ

बंधुआ मज़दूरी की इस लानत में जो बुराइयाँ हैं, उन्हें एक व्यक्ति सामान्य रूप से महसूस कर सकता है।
1-एक इंसान आज़ाद है, परन्तु उसे अपनी आज़ादी से वंचित कर दिया जाता है।
2-एक आज़ाद इंसान को अपनी इच्छा एंव अधिकार से वंचित कर के एक व्यक्ति के पास बलपूर्वक रोक दिया जाता है और उसी एक द्वार पर उसे माथा रगड़ने को मजबूर कर दिया जाता है।
3-एक व्यक्ति हमेशा एक काम करना नहीं चाहता, लेकिन उसको अपनी इच्छा के विरुद्ध उस काम के लिए मजबूर कर दिया जाता है।
4-एक कमज़ोर और बेसहारा इंसान जिसकी आजीविका का एक मात्र साधन उसकी मेहनत-मज़दूरी की योग्यता होती है। उसके हाथों से उसकी इस एक मात्र पूंजी को भी छीन लिया जाता है।
5-इस लानत का कोप भाजन प्रायः कमज़ोर एवं पिछड़े वर्ग होते हैं, जिनके भाग्य में प्रारम्भ से ही वंचित रहना लिखा होता है। इसलिए समाज का समृद्ध एवं पूंजीपति वर्ग उन्हें जिस प्रकार चाहता है ज़ुल्म एवं अत्याचार की चक्की में पीसता है और उसके मुक़ाबले में उन भाग्यहीन इंसानों की कमज़ोर आवाज बड़ी मुश्किल से ध्यान देने योग्य समझी जाती है, जिसके परिणाम स्वरूप उनकी पूरी ज़िन्दगी दुख, हानि एवं क्षति के साए में गुज़र जाती है।

बंधुआ मज़दूरी के उन्मूलन के लिए इस्लाम का प्रयास

हमारा मानना है कि ज़िन्दगी की अन्य सभी समस्याओं की तरह बंधुआ मज़दूरी की इस लानत के उन्मूलन के सिलसिले में भी केवल इस्लाम का प्रयास ही कारगर साबित हो सकता है, इसलिए किः-

1-बिना लाग-लपेट के न्याय एवं इंसाफ़ की स्थापना तथा ज़ुल्म एवं अन्याय का ख़ातिमा इसके अतिरिक्त कोई अन्य ‘इज़्म' अथवा ‘जीवन-सिद्धान्त' के वश की बात नहीं है।
2-दूसरे सभी धर्म एवं जीवन-सिद्धान्त आंशिक सत्य रखते हैं और मानव-समस्याओं की तह तक पहुँचने और उनके तमाम पहलुओं को सामने रखते हुए एक ठोस एवं सार्वभौमिक नियम प्रतिपादित करने की योग्यता से वंचित हैं। यह काम केवल हर बात का इल्म और ख़बर रखने वाले ख़ुदा का प्रदान किया हुआ जीवन-सिद्धान्त ही कर सकता है, जिसका दूसरा नाम ‘इस्लाम' है।

3-दुनिया के अन्य सभी जीवन-दर्शन और उनके द्वारा निर्मित संवैधानिक दस्तावेज़ मात्र वाह्य प्रभाव डालने की योग्यता रखते हैं और इंसान के अन्तःकरण में वह प्रभाव डालने में असमर्थ हैं, जिनके बिना किसी संविधान एवं क़ानून को अपनी निष्ठापूर्वक पैरवी कराने का अवसर न कहीं मिला है और न मिल सकता है। यह केवल इस्लाम ही है जो इंसान के अन्दर बिना लाग-लपेट के ईश-भय एवं आख़िरत में जवाबदेही का भय पैदा करके उनके अन्दर वह शक्ति प्रदान कर देता है, जिसकी मदद से उसके द्वारा प्रतिपादित नियम एवं क़ानून को समाज में ख़ुद बख़ुद लागू होने का अवसर मिलता है और उस क़ानूनको मानने वाला समाज क़ानून के डंडे से अधिक ईश-भय की भावना से परिपूर्ण होकर उसके प्रदान किए गए नियम को अपने ऊपर लागू करने का प्रयास करता है।
देखना है कि बंधुआ मज़दूरी की इस लानत से बचाव के लिए इस्लाम हमारा क्या मार्ग-दर्शन करता है।

इस्लाम के वे उसूल जिनसे बंधआ मज़दूरी के उन्मूलन में मदद मिलती है

 

1-ज़ुल्म की मनाही

 

बंधुआ मज़दूरी ज़ुल्म एवं अन्याय के जिन घटिया प्रकारों का द्योतक है उसकी ओर संकेत करने की कोई आवश्यकता नहीं है। इसके कारण एक अच्छा-भला इंसान जीवन भर अत्यंत असहाय स्थिति में घुटन एवं कुढ़न के साथ जीने को विवश होता है। इस्लाम बिना किसी लाग-लपेट के न्याय एवं इंसाफ़ स्थापित करने का पक्षधर है और ज़ुल्म एवं अन्याय के तमाम रूपों का निषेध करता है। क़ुरआन में अल्लाह का फ़रमान है-
‘‘ न तुम ज़ुल्म करो, न तुम पर ज़ुल्म किया जाए।''(2:279)

इसी प्रकार हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) एक हदीस में फ़रमाते हैं-

‘‘ (अल्लाह का आह्वान है) ऐ मेरे बन्दो! मैंने अपने ऊपर ज़ुल्म को हराम कर रखा है और तुम्हारे लिए भी इसे हराम क़रार दिया है। तो ऐ मेरे बंदो! तुम आपस में एक-दूसरे पर ज़ुल्म न करो।''

इस्लाम की नज़र में ज़ुल्म केवल इसी का नाम नहीं है कि इंसान किसी को बिना किसी कारण के क़त्ल कर दे या किसी व्यक्ति पर डाका डाल कर उसका माल छीन ले। इस्लाम के निकट ज़ुल्म का अर्थ बहुत व्यापक है और वह किसी भी व्यक्ति को उसके जाइज़ अधिकारों से वंचित रखने और किसी भी रूप में उसके जाइज़ (वैध) हितों को नुक़सान पहुँचाने के सभी रूपों को अपने दायरे में लेता है। इस सिलसिले में अल्लामा इब्ने ख़लदून (प्रसिद्ध इस्लामी इतिहासकार) की निम्नलिखित व्याख्या स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने योग्य है-

"यह न समझा जाए कि ज़ुल्म केवल किसी माल अथवा किसी स्वामित्वाधीन वस्तु को उसके स्वामी (मालिक) के हाथ से किसी बदले और किसी कारण के बिना लेने का नाम है, जैसा कि आम तौर पर समझा जाता है। बल्कि ज़ुल्म का दायरा इससे बहुत अधिक विस्तृत है। अतः जो कोई किसी की स्वामित्वाधीन वस्तु को लेता है या किसी के काम में ज़बरदस्ती बाधा डालता है या उसके ऊपर किसी ऐसी ज़िम्मेदारी का बोझ डालता है जो शरीअत ने उसके लिए अनिवार्य नहीं किया है, तो वह उस पर ज़ुल्म करता है। अतः (टैक्सों के रूप में) अवैध रूप से धन बटोरने वाले ज़ालिम हैं। इसी प्रकार (किसी भी रूप में) माल पर हाथ डालने वाले ज़ालिम है। ऐसे ही मान पर डाका डालने वाले ज़ालिम हैं। इसी प्रकार प्रायः सभी ऐसे लोग जो मिल्कियतों पर ज़बरदस्ती क़ब्ज़ा करने वाले हैं ज़ालिम हैं और तमाम चीज़ों का दोष सरकार पर आता है। इस प्रकार उसकी आबादी, जबकि वही किसी हुकूमत की मूल शक्ति है, तबाही और बरबादी का शिकार हो जाती है। क्योंकि इस शोषण एवं अत्याचार के नतीजे में उसकी सभी योजनाएं ठप पड़ जाती है।''
एक आम आदमी जिसे कोई बड़ी जायदाद विरासत में नहीं मिली हो, अथवा जो ऊंची डिग्रियों एवं उच्च बौद्धिक योग्यताओं से वंचित हो, ऐसे सभी लोगों की एकमात्र जीवन-निधि उनकी कमाने की शक्ति एंव मेहनत-मज़दूरी की योग्यता होती है। अब यदि कोई साहूकार उससे ज़बरदस्ती उसकी इस एकमात्र जीवन-निधि को छीन लेता है अथवा उसे अत्यंत सस्ते दरों पर बेचने के लिए विवश कर देता है तो इसका मतलब इसके सिवा और क्या हो सकता है कि वह जीवन की ख़ुशियों से वंचित होकर केवल जीवन के बोझ को जीवन भर अपने कंधे पर उठाए रहे और सुबह से शाम तक नज़रें उठा-उठा कर मौत की राह देखता रहे। सांस्कृतिक तबाही के सिलसिले में इस ज़ुल्म एवं अन्याय की मुख्य भूमिका को स्पष्ट करते हुए विचारशील लेखक इब्ने ख़लदून ने निम्न टिप्पणी की है-
‘‘सबसे अधिक बदतरीन ज़ुल्म जो आबादी को तबाही एवं बर्बादी के गड्ढे में पहुँचाने वाला है वह यह कि प्रजा से ज़बरदस्ती काम लिया जाए और उन पर विभिन्न ज़िम्मेदारियों का बोझ डाला जाए। क्योंकि काम भी दर असल दौलत ही की श्रेणी में आता है कि जैसा कि हम आगे ‘रिज़्क़' के अध्याय में विस्तार से बयान करेंगे। इसलिए कि रोज़ी और कमाई दरअसल जनता के काम का फल है। अतः उनकी मेहनत और उनका काम चाहे वह किसी भी रूप में हो दरअसल यही उनकी दौलत और कमाई है, बल्कि सच्ची बात यह है कि इसके अतिरिक्त उनके पास कोई दूसरी कमाई ही नहीं है। इसलिए कि आम जनता जो आबादी में काम करती है उसकी रोज़ी और उसकी कमाई दरअसल उसका यही काम और मेहनत है। अत: जब उससे अनुचित तरीक़े से काम लिया जाएगा और अपनी रोज़ी के सिलसिले में उसे केवल बेगार बना कर रख दिया जाएगा तो उसकी कमाई ख़त्म हो जाएगी। दूसरे शब्दों में उसके काम की क़ीमत छिन जाएगी। जबकि यही चीज़ उसकी एकमात्रपूंजी है, तो उसे नुक्सान होगा और उनकी रोज़ी का बड़ा भाग बर्बाद हो जाएगा। बड़ा भाग क्या, यही चीज़ तो दरअसल उसकी कुल रोज़ी होती है। और यदि अत्याचार एवं शोषण की यह चक्की उसके ऊपर बराबर चलती रहे तो यह चीज़ उनके हौसले मुर्दा कर देती है और उन्हें ग़लत रुख़ पर मोड़ देती है। वे संस्कृति के वाहन को आगे खींचने में बिल्कुल असमर्थ हो जाती है। फिर यही चीज़ आबादी की तबाही-बर्बादी और उसके विघटन का कारण बनती है।''

2.किसी को भी क्षति पहुँचाने पर रोक

इस्लाम का दूसरा उसूल जिससे बंधुआ मज़दूरी प्रथा का निषेध होता है, यह है कि इस्लाम किसी को भी क्षति पहँचाने की मनाही करता है। इस्लाम के निकट जीवन का आनन्द एवं उसका सुख किसी विशेष मानव-वर्ग की इजारादारी नहीं है। सारे इंसान एक ख़ुदा के बंदे हैं और एक ही मां-बाप आदम व हव्वा की औलाद हैं। अतः जीवन के आनन्द से आनन्दित होना और अपनी योग्यतानुसार जीवन से अपना हिस्सा प्राप्त करने की कोशिश करना हर इंसान का जन्मसिद्ध अधिकार है। किसी दूसरे इंसान को यह अधिकार प्राप्त नहीं है कि उसे अपने इस स्वाभाविक अधिकार से वंचित कर सके और किसी की तमन्नाओं, आशाओं के खण्डहर पर अपनी इच्छाओं का शीश महल उठाए। इसी कारण इस्लाम सख़्ती से इस उसूल का पक्षधर है कि व्यक्ति अपनी जाइज़ सीमा में रहे और अपनी हद के अन्दर रह कर ही अपने लिए अधिकारों की मांग करे। कोई व्यक्ति न स्वयं क्षति एवं हानि उठाए, न किसी को क्षति पहुँचाने की कोशिश करे।
मुहम्मद (सल्ल0) की स्पष्ट हदीस है-

‘‘ न कोई किसी के द्वारा क्षति पहुँचाए जाने का निशाना बने, न कोई किसी को क्षति पहुँचाए।'' (इब्नेमाजा)
इसी प्रकार एक दूसरी हदीस है-

‘‘जो कोई दूसरे को क्षति पहुँचाएगा अल्लाह उसे क्षति पहुँचाएगा। और जो कोई किसी दूसरे को (बिना कारण) दुश्मनी का निशाना बनाएगा, अल्लाह उसे दुश्मनी का निशाना बनाएगा।'' (तिरमिज़ी)

पति-पत्नी के बीच रिश्ते एवं संबंध के कई स्तर होते हैं और अधिकतर ऐसे हित इनके बीच क्रियाशील रहते हैं कि एक आम आदमी भी चाहता है कि कुछ दब कर ही सही यह हित समाप्त न होने पाए। परन्तु इस्लाम पति एवं पत्नी के बीच तलाक़ की स्थिति में बच्चे को दूध पिलाने के सिलसिलें में किसी एक के कारण दूसरे को क्षति पहुँचना स्वीकार नहीं करता। सूरः बकरा में है-

‘‘माँ को अपने बच्चे के कारण क्षति न पहुँचाई जाए, न बाप को अपनी औलाद के कारण क्षति में डाला जाए।'' (2:233)

स्पष्ट है कि जब इस्लाम पति एवं पत्नी के संबंध में इस क्षति को बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं है, जबकि उनके बीच रिश्ते एवं संबंध के तह-दर-तह कारक क्रियाशील होते हैं तो दो अजनबी इंसानों के सिलसिले में वह इसे कैसे स्वीकार कर सकता है ?

 

3-किसी आज़ाद इंसान को उसकी आज़ादी से वंचित करना जाइज़ नहीं

बंधुआ मज़दूरी के अन्तर्गत जैसा कि आप ने देखा एक व्यक्ति आज़ाद होते हुए भी व्यवहारतः ग़ुलामी का जीवन व्यतीत करने के लिए विवश होता है। इस्लाम के निकट आज़ादी हर इंसान का जन्मसिद्ध अधिकार है और किसी व्यक्ति के लिए जाइज़ नहीं है कि वह किसी आज़ाद इंसान को उसके इस अधिकार से वंचित कर दे। हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) फ़रमाते हैं-

‘‘तीन आदमी ऐसे है जिनकी नमाज़ अल्लाह क़ुबूल नहीं करता। एक वह जो किसी क़ौम की इमामत (नेतृत्व के लिए) आगे बढ़े, हालांकि लोग उसे नापसंद करते हों। दूसरे वह जो (जमाअत की) नमाज़ में हमेशा पीछे (देर से) पहुँचे। तीसरे वह आदमी जो अपने आज़ाद किए हुए व्यक्ति को पुनः ग़ुलाम बना ले।'' (अबू-दाउद)

किसी आज़ाद व्यक्ति को ग़ुलाम बनाने के दो तरीक़े हैं-
एक यह कि एक व्यक्ति अपने ग़ुलाम को आज़ाद कर दे और फिर उसके बाद उसे छुपाए रखे या यह कि सिरे से इसका इंकार कर दे। दूसरे यह कि आज़ाद करने के बाद उससे ज़बरदस्ती काम ले। इसी आधार पर किसी आज़ाद इंसान को ग़ुलाम बनाने के अन्य प्रकारों के संबंध में भी अनुमान लगाया जासकता है। अतः एक अन्य हदीस में आता है कि क़ियामत के दिन अल्लाह जिन चंद लोगों के मुक़ाबले में फ़रियादी होगा उनमें एक वह व्यक्ति भी होगा जो किसी आजाद इंसान को बेच डाले और उसकी रक़म को खा जाए।
‘‘और एक व्यक्ति वह जो किसी आज़ाद इंसान को बेचे और उसकी रक़म खा जाए।'' (बुख़ारी)

किसी आज़ाद इंसान को बेचकर उसकी रक़म को खा जाना ज़ुल्म, अत्याचार, नीचता एवं कमीनापन का बदतरीन रूप है। और यही बात उन तमाम स्थितियों के लिए सत्य है जिनमें किसी आज़ाद इंसान को उसकी आज़ादी से वंचित कर दिया जाए। इसलिए कि इन सब का संयुक्त परिणाम एक ही है। हदीस के शब्दों में वह परिणाम यह है कि -
‘‘जिस किसी ने किसी आज़ाद व्यक्ति को बेचा तो उसने उसे उन चीज़ों का भागी होने से वंचित कर दिया जिन्हें अल्लाह ने उसके लिए जाइज़ घोषित किया था और उसके ऊपर वह अपमान एवं नीचता (की चादर) फैला दी, जिससे अल्लाह ने उसे सुरक्षित रख था।'' (फ़तहुलबारी)

 

4-किसी आज़ाद इंसान को ज़बरदस्ती रोकना जाइज़ नहीं

बंधुआ मज़दूरी - प्रथा के अन्तर्गत जैसा कि इससे पहले संकेत किया गया, एक व्यक्ति को ज़बरदस्ती रोक लिया जाता है और इस प्रकार उसे अपनी इच्छा एवं अधिकार के इस्तेमाल से वंचित कर दिया जाता है। जब कि इस्लाम हर व्यक्ति के लिए उसकी अपनी इच्छा एवं अधिकार के अनुसार काम करने को उसका मूल अधिकार समझता है और किसी व्यक्ति के लिए जाइज़ नहीं ठहराता कि उसे वह उसके इस अधिकार से वंचित कर दे। पति एवं पत्नी जो एक लम्बी अवधि तक दाम्पत्य संबंध से जुड़े रहे हों उनके बीच रिश्ता एवं संबंध के कितने अनेकानेक कारक क्रियाशील होते हैं और प्रत्यक्षतः दोनों एक-दूसरे के पूरक बन जाते हैं। परन्तु तलाक़ के बाद इस्लाम पति के लिए इसकी कोई गुंजाइश शेष नहीं छोड़ता कि वह अपनी पूर्व पत्नी को ज़बरदस्ती अपने पास रोके रखे। क़ुरआन में आया है-

‘‘और जब तुम औरतों को तलाक़ दो और वे पहुँच जाएं अपनी (इददत की) मुद्दत को तो उन्हें रोको भले तरीक़े से या उन्हें छोड़ दो भले तरीक़े से। और उन्हें न रोको नुक़सान पहुँचाने के उद्देश्य से ताकि तुम उन्हें अपनी ज़्यादती का निशाना बनाओ। और जो कोई ऐसा करे तो उसने अपने ऊपर ज़ुल्म किया। और अल्लाह की आयतों को मज़ाक़ न बनाओ।" (2:231)

तलाक़ के बाद पति अधिकतर अपनी अज्ञानता के दंभ को बरक़रार रखने के लिए इसे पसंद नहीं करता कि उसकी तलाक़शुदा पत्नी की कहीं और शादी हो। इसी प्रकार पहली और दूसरी तलाक़ की स्थिति में कई बार औरत के रिश्तेदारों का अनुचित अहंकार जाग उठता है और वे चाहते हैं कि पुनः अपने पति के निकाह में न जाए। परन्तु इस्लाम इन दोनों ही स्थितियों को नाजाइज़ क़रार देता है। इसलिए कि जब पति-पत्नी के बीच समझौते का बंधन टूट चुका है तो मामले के किसी एक पक्ष को दूसरे पर रोक लगाने का कोई अधिकार नहीं, अतः क़ुरआन में उपर्युक्त आयत के तुरंत बाद बयान हुआ है-

‘‘और जब तुम औरतों को तलाक़ दो और वे पहुँच जाएं अपनी मुददत को तो उन्हें न रोको इससे कि वे अपने शौहरों से शादी कर सकें। जब कि उनके बीच इसके लिए रज़ामंदी हो जाए। दस्तूर (विधान) के अनुसार यह नसीहत की जाती है उसे जो तुम में से ईमान रखता है अल्लाह पर और आख़िरत के दिन पर । यह चीज़ तुम्हारे लिए ज़्यादा शुद्ध (साफ़-सुथरी) और पवित्रता का कारण है। और अल्लाह जानता है और तुम नहीं जानते।''

स्पष्ट है कि जब इस्लाम पति-पत्नी के मामले में जबकि वे एक लम्बी अवधि तक दाम्पत्य संबंध के बंधन में बंधे होते हैं, एक के लिए जाइज़ नहीं रखता कि वह दूसरे को ज़बरदस्ती अपने पास रोके रखे और उसे स्वतंत्र रूप से अपने अधिकार के इस्तेमाल से वंचित कर दे, तो वे दो अजनबी इंसानों के मामले में वह इसकी कैसे अनुमति दे सकता है ?

5-किसी आज़ाद इंसान से उसकी इच्छा के विरुद्ध काम लेना जाइज़ नहीं

बंधुआ मज़दूरी के अन्तर्गत जैसा कि आपने देखा, एक व्यक्ति को ज़बरदस्ती उसकी इच्छा के विरुद्ध काम करने के लिए विवश कर दिया जाता है। इस्लाम जिस प्रकार किसी आज़ाद इंसान को उसकी इच्छा के ख़िलाफ़ रोकने को जाइज़ क़रार नहीं देता, उसी प्रकार वह किसी व्यक्ति के लिए अपनी इच्छा के विरुद्ध काम लिए जाने को भी जाइज़ नहीं रखता। अरब में रिवाज था कि लोग दौलत कमाने के उद्देश्य से अपनी लौण्डियों (दासियों) से ज़बरदस्ती पेशा कराते थे। इस्लाम आया और उसने इस कुकृत्य को कठोरता पूर्वक अवैध घोषित किया। क़ुरआन में आया हैः-
‘‘और अपनी लौण्डियों(दासियों) पर कुकर्म के लिए ज़बरदस्ती न करो, जबकि वे पाकबाज़ रहना चाहें, ताकि तुम चंद रोज़ की दुनियावी ज़िन्दगी का माल कमाओ। और जो कोई उन पर ज़बरदस्ती करे तो अल्लाह उनकी इस बेबसी के पीछे बख़्शने वाला (क्षमा करने वाला) रहम करने वाला है।'' (24:33)

यह तो ख़ैर दुनियावी मामले की बात है, इस्लाम तो अल्लाह की हिदायत को स्वीकारने एवं इंकार करने के संबंध में भी किसी ज़बरदस्ती को जाइज़ नहीं रखता । जबकि इंकार करने वाला दुनिया की चन्द रोज़ की ज़िन्दगी तो दूर, आख़िरत की हमेशा की ज़िन्दगी में नाकामी के खड्डे में गिर जाता है। परन्तु इस्लाम इस विशुद्ध-लाभ के सौदे को भी ज़बरदस्ती किसी के सिर थोपना नहीं चाहता। फिर भला वह आम जीवन में इसकी अनुमति कैसे दे सकता है ?

क़ुरआन में मुहम्मद (सल्ल0) को संबोधित करके अल्लाह फ़रमाता है-

‘‘और यदि तेरा रब चाहता तो ज़मीन में जितने लोग हैं सब के सब ईमान ले आते। तो क्या तुम लोगों से ज़बरदस्ती करना चाहते हो, इस बात पर कि वे ईमान लाने वाले बन जाएं। '' (10:19)

 

मज़दूरों के संबंध में इस्लाम की शिक्षाएँ

इस्लाम के ये उसूल हैं जिनसे बंधुआ मज़दूरी का खण्डन होता है। अब देखना है कि मज़दूरों के संबंध में इस्लाम ने कौन-सा रवैया अपनाने का आदेश दिया है और मानव-समाज में न्याय एवं इंसाफ़ को रिवाज देने तथा कमज़ोर वर्ग को अत्याचार एंव शोषण से सुरक्षित रखने के लिए किन उपायों की ओर संकेत किया है।

1-सद्व्यवहार
इस संबंध में सबसे पहले इस्लाम ने मज़दूरों एवं दासों के साथ सद्व्यवहार की शिक्षा दी है और इस के लिए मानव-एकता के आधार को बलपूर्वक उभारा है। उसका कहना है कि सारे इंसान एक ख़ुदा के बंदे और एक ही मां-बाप आदम एवं हव्वा की औलाद हैं। और इस प्रकार सारे इंसान आपस में एक-दूसरे के भाई हैं। दो भाई हमेशा एक-दूसरे के सुख-दुख के साथी और एक-दूसरे के हितैषी एवं हमदर्द हैं। अतः यदि एक व्यक्ति परिस्थितिवश दूसरे व्यक्ति के यहाँ काम कर रहा है, तो उसे चाहिए कि उसके साथ अपने भाई-जैसा व्यवहार करे। उसके साथ प्रेम एवं विनम्रता से पेश आए और उसके सामर्थ्य से अधिक उससे काम न ले मुहम्मद (सल्ल0)फ़रमाते हैं-

‘‘ये तुम्हारे भाई है जिन्हें अल्लाह ने तुम्हारे क़ब्ज़े में दे दिया है। अतः जिस किसी के क़ब्ज़े में अल्लाह उसके भाई को दे दे तो चाहिए कि उसे (खाना) खिलाए उसमें से जो वह ख़ुद खाए और उसे (कपड़े) पहनाए, उसमें से जो वह ख़ुद पहने और उसके ऊपर किसी ऐसे काम का बोझ न डाले जिसे वह न कर सके। और अगर वह उसके ऊपर किसी ऐसे काम का बोझ डाले जिसे वह न कर सके, तो चाहिए कि उसमें उसकी मदद करें।'' (बुख़ारी)


इसी प्रकार एक दूसरे अवसर पर इंसान की शुक्र (कृतज्ञता) की भावनाको उद्वेलित करते हुए दासों के ज़रिए अल्लाह ने तुम्हारी ज़िन्दगी के बोझ को हल्का कर दिया, उनके साथ सद्व्यवहार का आदेश इन शब्दों में देते हैं-

‘‘तुम्हारे ये ग़ुलाम तुम्हारे भाई हैं। इसलिए इनके साथ अच्छा बर्ताव करो। इनकी मदद लो उस काम में जो तुम न कर सको और इनकी मदद करो उन कामों में जिन्हें वे न कर सकें।'' (अल-अदबुल मुफ़रद)

 

2-पसीना सूखने से पहले मज़दूरी दी जाए

मज़दूरों के संबंध में इस्लाम की दूसरी प्रमुख शिक्षा यह है कि काम पूरा होने के बाद उन्हें बिना विलम्ब किए मज़दूरी दी जाए। ग़रीब मज़दूरों का शोषण करने वाले अत्याचारी ज़मींदार एवं पूजीपति जैसा कि बंधुआ मज़दूरी के संबंध में इसके विभिन्न प्रमाण प्राप्त हुए हैं, मज़दूरों से काम तो सुबह से शाम तक लेते हैं परन्तु जहाँ तक उनकी मज़दूरी का सवाल है तो उन्हें कुछ पता नहीं होता कि कब मिलेगी और यह कि मिलेगी भी या नहीं। वे सुबह से शाम तक अपना गाढ़ा पसीना बहाते हैं, परन्तु मज़दूरी के मामले में अपने मालिक के रहमो-करम के उम्मीदवार बने बैठे रहते हैं, और दिल में हर समय यह अंदेशा लगा रहता है कि मालिक उन पर रहम करता भी है या नहीं। इस्लाम इसके विपरीत मज़दूरी के संबंध में किसी टाल-मटोल एवं विलम्ब की इजाज़त नहीं देता। अतः इसका आदेश है कि मज़दूर को उसकी मज़दूरी उसका पसीना सूखने से पहले दी जाए। मज़दूर की मज़दूरी उसका अधिकार है, मालिक की बख़्शिश एवं अनुदान नहीं है।
एक हदीस के अनुसार -

‘‘मज़दूर को उसकी मज़दूरी सौंप दो इससे पहले कि उसका पसीना सूख जाए।'' (इब्ने माजा)

3-मज़दूरी पूरी दी जाए

इस्लाम ने जिस प्रकार इस बात का आदेश दिया है कि काम पूरा होने के बाद बिना विलम्ब किए मज़दूरी दे दी जाए, उसी प्रकार उसने इस बात का भी आदेश दिया है कि मज़दूरी पूरी-पूरी दी जाए। जिस स्तर और जिस परिश्रम का काम हो उसके अनुसार मज़दूरी दी जाए और इस वास्तविक मज़दूरी में किसी प्रकार की कमी न की जाए।

बंधुआ मज़दूरी की स्थिति में जैसा कि आपने देखा, एक व्यक्ति से काम तो सुबह से शाम तक लिया जाता है, और वह भी अति-परिश्रम का काम, परन्तु मज़दूरी के नाम पर उसे जो चीज़ मिलती है वह बस केवल इतनी होती है, जिससे कि उस ग़रीब के शरीर एवं आत्मा का संबंध बना रहे। ताकि वह अगले दिन फिर अपने मालिक के दर पर माथा रगड़ने के लिए आ सके। ऐसा लगता है कि भारत में एक ज़ालिम वर्ग ने, जो अपने को पैदाइशी तौर पर श्रेष्ठ एवं उच्च समझता है, कतिपय वर्ग को अनन्त रूप से नीच घोषित करके उन पर भिन्न-भिन्न प्रकार के अत्याचार को न केवल वैध, बल्कि धार्मिक पवित्रता का सर्टिफ़िकेट प्रदान किया। यह शोषण वाली मानसिकता यहाँ के अन्य वर्गों में भी घुस गई है। इस्लाम इस शोषण वाली मानसिकता को जड़ से उखाड़ना चाहता है। अतः उसका आदेश है कि किसी व्यक्ति से किसी प्रकार का बेगार न कराया जाए, बल्कि जिससे जो काम भी लिया जाए उसकी मज़दूरी दी जाए और किसी कमी के बिना पूरी-पूरी मज़दूरी दी जाए। मुहम्मद (सल्ल0) एक हदीस मे अल्लाह की ओर से फ़रमाते हैं-

‘‘तीन आदमी हैं कि मै उनके ख़िलाफ़ क़ियामत के दिन वादी बनकर खड़ा हूंगा। एक वह जो मेरे नाम पर किसी से कोई अहद (वादा) करे फिर बेवफ़ाई कर जाए। दूसरा वह जो किसी आज़ाद इंसान को बेचे और उसकी रक़म खा जाए। तीसरा वह जो किसी मज़दूर को मज़दूरी पर रखे और उससे पूरा-पूरा काम ले, परन्तु उसकी मज़दूरी पूरी-पूरी न दे।'' (बुख़ारी)

इस हदीस में मज़दूरी न देने का उल्लेख, आज़ाद व्यक्ति को बेचकर उसकी रक़म खा जाने के साथ हुआ है, जिससे पता चलता है कि मज़दूर को उसकी मज़दूरी न देना व्यवहारतः उसे ग़ुलाम बनाने के बराबर है। हाफ़िज़ इब्ने हजर (रह0) फ़रमाते हैं-

‘‘तीसरा वह जो किसी मज़दूर को मज़दूरी पर रखे और उससे पूरा-पूरा काम ले ले परन्तु (पूरी) मज़दूरी न दे। उसका भी वही हाल है कि एक व्यक्ति किसी आज़ाद इंसान को बेचे और उसकी रक़म खा-जाए इसलिए कि उसने किसी बदले के बिना उसके श्रम को पूरा पूरा प्राप्त कर लिया तो गोया वह उसको खा गया। और उसने उसे मज़दूरी के बिना ख़िदमत ली तो गोया उसको अपना ग़ुलाम बना लिया।'' (फ़तहुल-बारी, जिल्द 4, पृ0-284)

मुहम्मद (सल्ल0) जिस व्यक्ति से भी कोई काम लेते, उसे पूरी-पूरी मज़दूरी देते थे। मामूली-से-मामूली काम में भी मज़दूरी में तनिक कमी की आप कल्पना भी नहीं कर सकते थे। हज़रत अनस बिन मालिक (रज़ि0) का बयान है कि:
‘‘मुहम्मद (सल्ल0) पिछना (टीका) लगवाते थे और किसी की मज़दूरी में नाममात्र की भी कमी नहीं करते थे।'' (मुसनद अहमद)



4-मज़दूरी निर्धारित करके काम लिया जाएः-

इस्लाम ने जिस प्रकार मज़दूर को पूरी-पूरी मज़दूरी देने का आदेश दिया है, उसी प्रकार उसने इस बात का भी आदेश दिया है कि मज़दूर से मज़दूरी तय कर के ही काम लिया जाए। इसलिए कि जब तक मज़दूरी निर्धारित नहीं कि जाएगी तब तक कमज़ोर मानव-वर्ग को अतयाचार एवं शोषण के पंजे से आज़ाद नहीं कराया जा सकता है। इस्लाम इस अन्तिम चोर दरवाज़े को समाप्त करके शोषण की तमाम संभावनाओं को समाप्त कर देना चाहता है। ग़रीब मज़दूर अपने पेट की आग बुझाने के लिए आकर काम पर लग जाता है, परन्तु उसे साहस नहीं होता कि मालिक से अपनी मज़दूरी के संबंध में कोई बात कर सके। इस्लाम मज़दूर रखने वालों को ख़ुद यह आदेश देता है कि वह मज़दूर को काम पर लगाने से पहले उसकी मज़दूरी निर्धारित कर दे। मुहम्मद (सल्ल0) की हदीस है-

‘‘ जो कोई किसी मज़दूर को मज़दूरी पर रखे तो चाहिए कि उसकी मज़दूरी को पहले बता दे।''
इसी प्रकार हज़रत अबू सईद (रज़ि0) ने मुहम्मद (सल्ल0) की एक हदीस बयान की है-
‘‘मुहम्मद (सल्ल0) ने मना किया है मज़दूर को मज़दूरी पर रखने से यहाँ तक कि वह उससे उसकी मज़दूरी को स्पष्ट रूप से बता दें। '' (मुस्नद अहमद)
इमाम नसई ने हम्माद के बारे में लिखा हैं कि उनसे उस व्यक्ति के बारे में पूछा गया जो किसी को खाने की चीज़ पर मज़दूरी पर रखे, उसके जवाब मे उन्होंने फ़रमाया कि-
‘‘नहीं जब तक कि तुम खाने की चीज़ का निर्धारण न कर दो।'' (नसई)
इन्हीं हदीसों के आधार पर फ़ुक़्हा (इस्लामी धर्म-विधान के विद्धानों) ने स्पष्ट किया है कि जब तक काम और मज़दूरी दोनों का निर्धारण न कर दिया जाए उस वक़्त तक मज़दूर रखने का समझौता सही नहीं माना जाएगा।

‘‘और मज़दूर रखने का समझौता सही नहीं होगा जब तक कि काम और मज़दूरी दोनों मालूम एवं निर्धारित न हो। (हिदाया)

 

5-शोषण की मानसिकता का उन्मूलन

इन प्रेरणाओं एवं क़ानूनी सुरक्षा के साथ इस्लाम ने इंसान की शोषण की मानसिकता पर भी कुठाराघात किया है। इसी शोषण की मानसिकता के कारण ही सारी बुराइयाँ पैदा होती हैं।
इस्लाम कहता है कि यदि इस दुनिया में कुछ लोग आर्थिक एवं सामाजिक रूप से सम्पन्न हैं तो इसका मतलब यह नहीं है कि वे कमज़ोर ग़रीब और बेसहारा इंसानों का ख़ून चूसते फिरें। भली-भाँति समझ लेना चाहिए कि पृथ्वी पर ईश्वर के प्रतिनिधित्व का सौभाग्य समान रूप से तमाम इंसानों को प्राप्त है। और जीवन के आनन्द एवं उसके सुख में तमाम इंसानों का हिस्सा है। अब यदि ईश्वर ने कुछ लोगों को विभिन्न हैसियतों से उच्च रखा है जिसके परिणामस्वरूप दूसरे लोग उनके मातहत बन कर काम करते हैं,तो यह ईश्वर की ओर से एक आज़मा
श (परीक्षा) है, जिसमें क़दम फूँक-फूँक कर रखने और बहुत संभल कर चलने की ज़रूरत है। ईश्वर की ओर से पकड़ होने में देर नहीं लगती। हाँ, यदि कोई व्यक्ति अपने पिछले बुरे कर्मो को त्याग कर सुधार एवं भलाई की राह अपनाए तो वह ईश्वर की कृपा का अधिकारी बन सकता है। क़ुरआन में है-

‘‘और वही है, जिसने तुम्हें धरती पर अपना प्रतिनिधि बनाया है। और कुछ(लोगों) को कुछ (लोगों) पर श्रेष्ठता प्रदान की है, ताकि तुम्हें अपनी प्रदान की हुई नेमतों (चीज़ों) से आज़माए। बेशक तेरा रब जल्द पकड़ने वाला है और बेशक वह बहुत ज़्यादा बख़्शने वाला (क्षमा करने वाला) और दया करने वाला है।'' (6:166)
महान हैं वे जो इस आज़माइश में पूरे उतरें और ईश्वर के बन्दों के साथ हक़ एवं इंसाफ़ के तरीक़े को अपना जीवन-अंग बना लें।