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एकेश्वरवाद की मौलिक धारणा

लेखक:- डा0 मुहम्मद अहमद
डा0 फरहत हुसैन
मुहम्मद जैनुल-आबिदीन मन्सूरी
डा0 सैयद शाहिद अली

  
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बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम।
‘‘अल्लाह के नाम से जो बड़ा ही मेहरबान और रहम करने वाला है।''

एकेश्वरवाद की मौलिक धारणा

दो शब्द
आज संसार में इस्लाम ही एकमात्र ऐसा धर्म है, जो एकेश्वरवाद की मौलिक धारणा को पेश करता है और उसके विरुद्ध अनेकेश्वरवाद और शिर्क से होने वाले नुक़सान को स्पष्ट रूप से बतलाता है। ईश्वर को एक मानकर उसकी ज़ात, गुण, अधिकार और इख़्तियार में किसी को साझी ठहराना शिर्क है। यह शिर्क ईश्वर के इनकार से बढ़कर इनसान के लिए हानिकारक है। क़ुरआन एकेश्वरवाद की धारणा के साथ-साथ अमली ज़िन्दगी में उसकें तक़ाज़ों के बारे में बताता है। क़ुरआन का कहना है कि जो इनसान ईश्वर को एक मानता हो, उसके लिए आवश्यक है कि वह अपने जीवन में इसके तक़ाज़ों को पूरा करे। इसके बिना ईश्वर को मानना या न मानना दोनों बराबर है। 


ईश्वर अल्लाह को एक मानने का अर्थ और उसके अमली तक़ाज़ों को क़ुरआन ने प्रमाणों के आधार पर समझाया है।


1-वह ईश्वर इंसान, सृष्टि और इस ब्रह्माण्ड को पैदा करनेवाला ही नहीं, बल्कि मालिक, रब और पालनहार और शासक भी है।

2-ईश्वर को कोई परिवार, बेटा पत्नी नहीं है। वह सदैव से है और सदैव रहेगा।

3-उसके अच्छें गुणों में जैसे वह राज़िक़ (रोज़ी देनेवाला), आदिल (न्याय करनेवाला), अलीम (हर चीज़ का ज्ञान रखनेवाला) है, वह समी (सुननेवाला) और बसीर (देखनेवाला) है। ये सारे गुण उसके अस्तित्व के अलग-अलग रूप नहीं हैं कि उनकी पूजा व इबादत की जाए, बल्कि ये सब उसी एक ही ईश्वर के गुण हैं। 

4-वह अपनी सृष्टि, विशेष रूप से इंसानों को मार्गदर्शन और क़ानून देनेवाला भी है। उसने हर एक के लिए कुछ सिद्धांत व नियम बनाए। इनसान ईश्वर की अनुपम सृष्टि है, इसलिए उसकी हिदायत व रहनुमाई के लिए एक बेहतरीन सिस्टम बनाया, जिसे ईशदूतत्व कहते हैं। इस धरती पर पहले इनसान आदम (अलैहि0) अल्लाह के संदेशवाहक थे। अखिरी संदेष्टा हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) हैं। संसार के अलग-अलग देशों, ज़ुबानों एवं विभिन्न भाषाओं में 1,24,000 संदेशवाहक आए हैं। ये संदेशवाहक ईश्वर की ओर से मार्गदर्शन, हिदायत और रहनुमाई लेकर आते और उसके अनुसार अपना जीवन व्यतीत करते। इसी तरह ईश्वर को मानने का अर्थ यह हुआ कि उसके सारे संदेष्टाओं और अंतिम संदेष्टा हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) को माना जाए।

5-ईश्वर को एक मानने का अर्थ यह भी है कि उसे निराकार व अजन्मा माना जाए। उसे किसी ने अपनी आँखों से देखा नहीं और न ही इस दुनिया में कोई उसे देख सकता है। दुनिया में उसका जो चित्र व रूप बनाया जाता है, वह सच्चाई व यथार्थ से परे है।

6-ईश्वर को एक मानने का एक अर्थ यह भी है कि उसके आदेशों व निर्देशों को जो अन्तिम ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) के द्वारा मानव के लिए भेजे गए उन्हें माना जाए और उनका पालन किया जाए। यह आदेश-निर्देश और जीवन के लिए मार्गदर्शन अब क़ुरआन और मुहम्मद (सल्ल0) के जीवन में सुरक्षित है।


क़ुरआन से पहले के ग्रंथों, वेद व बाइबल इत्यादि में उस काल व समय के इनसानों के लिए ईश्वर के आदेश आए थे। उन ग्रंथों का आदर करना होगा, परन्तु अब क़ुरआन ही मार्गदर्शन करेगा। अगर कोई वेदों व बाइबल को माने और क़ुरआन का इनकार करे, तो वह न वेदों का माननेवाला है और न ही बाइबल का, क्योंकि वेदों व बाइबल को जिस आधार पर ईश्वरीय ग्रंथ माना जाता है, उसी आधार पर क़ुरआन को ईश्वरीय ग्रंथ मानना चाहिए, क्योंकि पिछले ग्रंथों में समय के साथ-साथ परिवर्तन होता रहा, इसलिए अब वे सुरक्षित नहीं है मात्र क़ुरआन ही सुरक्षित है।


क़ुरआन में एकेश्वरवाद के सिलसिले में प्रमाणों के आधार पर इनसानों के चिंतन-मनन, मानने या न मानने की आज़ादी की बात विस्तारपूर्वक कही गयी है। क़ुरआन में है, "ऐ मुहम्मद! आप लोगों से कह दीजिए, लोगो, यह तुम्हारे रब की ओर से हक़ है, यदि उसको मानो या इनकार कर दो। (इसकी ज़िम्मेदारी व नतीजा तुम्हारे ऊपर ही होगा।" (क़ुरआन 18:29)
एकेश्वरवाद को समझाने के लिए शिर्क को जानना भी ज़रूरी है। एकेश्वरवाद की ज़िद (विलोम) शिर्क है। यह सबसे बड़ा महापाप है। क़ुरआन ने तो यहाँ तक कहा है कि अगर कोई शिर्क का गुनाह करे फिर तौबा करके उसे न छोड़े, तो अल्लाह उसके गुनाह को माफ़ नहीं करेगा। शिर्क के साथ कोई भी नेकी पारलौकिक जीवन में कोई काम नहीं आएगी।


क़ुरआन ने शिर्क को महापाप बताया है। धरती पर मानव का आरंभ एकेश्वरवाद से हुआ है। हज़रत आदम (अलैहि0) एवं हव्वा (अलैहि0) सारे मानवजाति के माता-पिता थे। वे और उनकी संतान एकेश्वरवाद पर क़ायम थे। उनकी मृत्यु के बाद उनकी संतान में शिर्क आया। विशेषतः अल्लाह के एक संदेष्टा हज़रत नूह (अलैहि0) का काल हज़रत आदम (अलैहि0) के बाद का है। इस काल में बड़े बुजुर्गों की याद के लिए उनके पांच बड़े बुत (मूर्ति) बनाकर रखे गए थे। बाद के लोगों ने उनको याद रखने से आगे बढ़कर उन बुतों की पूजा करनी शुरू कर दी। इस तरह मुर्तिपूजा का आरंभ हुआ। कुछ लोग जानकारी न होने के कारण से यह समझते हैं कि काबा एक मंदिर था और मक्केश्वर भगवान और अनेक भगवानों की मूर्तियाँ वहाँ थीं। हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) नें वहाँ से सब मूर्तियों को निकालकर केवल एक ईश्वर की बात कही, जबकि इतिहास में ऐसी बात नहीं है। हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) के जमाने में ख़ाना-ए-काबा में बुत ज़रूर थे, लेकिन जब यह इबादतगाह हज़रत इबराहीम (अलैहि0) ने हज़ारों वर्ष पहले मक्का में बनायी थी, तो वह केवल एक ईश्वर की इबादत व उपासना के लिए थी।

हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) से केवल 350 वर्ष पहले अम्र बिन लुई एक बड़े आदमी ने मक्का से शाम (सीरिया) की यात्रा पर वापस आते समय कुछ बुत लाकर ख़ाना-ए-काबा में रख दिए। वहीं से ख़ाना-ए-काबा में मूर्तिपूजा शरू हुई।

 

 

अनेकेश्वरवाद की वास्तविकता
डॉ0 मुहम्मद अहमद
 
यह एक सर्वमान्य सच्चाई है कि मनुष्य सृजनकार-ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना है। सृष्टि के अन्य सभी जीवों, वस्तुओं, चीज़ों और प्राकृतिक संरचनाओं में केवल मनुष्य को ही कुछ विशिष्ट अधिकार मिले हुए हैं, जिसके अंतर्गत वह अपनी बुद्धि और अक़्ल का प्रयोग सकारात्मक और नकारात्मक दोनों दिशाओं में करने के लिए स्वतंत्र है। वह अपनी इच्छानुसार जीवन बरतता और जीता है। वास्तव में यह स्वतंत्रता और इरादे की शक्ति उसकी परीक्षा है, अन्यथा वह भी सूर्य, चन्द्रमा आदि प्राकृतिक रचनाओं की भांति निश्चित नियम का पाबंद होता है। वह चाहता है तो ईश्वरीय आदेशों और निर्देशों के अनुसार जीवन व्यतीत करता है और इस प्रकार अपने लौकिक व पारलौकिक जवीन को सफल बनाता है। इसके विपरीत वह स्वच्छंद जीवन जीकर सर्वथा असफल परिणाम का भुक्त भोगी बनता है।
 

 

मनुष्य वह प्राणी है जिसको ईश्वर ने इतनी शक्ति व सामर्थ्य प्रदान की है कि वह एक सीमा के अंतर्गत सृष्टि के संसधानों से लाभ उठा सकता है और उसका दोहन भी कर सकता है। इस दृष्टि से यह स्पष्ट है कि सृष्टि में जो मानव को स्थान प्रदान किया गया है, वह सोद्देश्य है और विशिष्ट उद्देश्य के अंतर्गत ही मनुष्य के लिए वे असीमित और असंख्य संसाधन जुटाए गए हैं।


स्वाभाविक रूप से एवं सुगमता के साथ वह तथ्य और मर्म समझा जा सकता है कि जिस स्रष्टा-पालनकर्ता प्रभु ने मनुष्य सहित सारी सृष्टि को उत्पन्न किया है वह उसे उपकृत ही नहीं करता, बल्कि उसे उसके प्रति निष्ठावान एवं आभारी होकर उसकी भक्ति व बन्दगी करनी चाहिए। इस प्रकार स्रष्टा और उसकी रचनाओं के बीच एक विशिष्ट प्रकार का मधुर संबंध पाया जाता है। कुछ अनेकेश्वरवादी लोग इस संबंध का इनकार और उसकी अवहेलना कर सकते हैं, लेकिन मानव और उसके स्रष्टा के इस कोमल नैसर्गिक संबंध में कदापि कोई परिवर्तन नहीं ला सकते। यह तथ्य स्वमेव सप्रमाण हर काल और समय में उपस्थित रहा है। फिर भी आश्चर्य और चिंता का विषय है कि अंधता के विश्वासियों की दृष्टि नहीं खुल पा रही है।


स्रष्टा और मनुष्य के बीच इस संबंध को अपेक्षित है कि मनुष्य अपने पालनकर्ता प्रभु का आज्ञाकारी बने और उसके आदेशों व इच्छाओं के अनुसार अपना जीवन व्यतीत करे। उस एक ईश्वर स्रष्टा, पालनकर्ता को छोड़कर किसी अन्य को पूज्य, उपास्य, नियंता, अधिपति न बनाए। वह विशुद्धभाव से एकेश्वरवादी बने और एक ईश्वर को ही अपना उपास्य और पूज्य माने। अपनी आवश्यकताओं, आकांक्षाओं और अपेक्षाओं आदि के लिए उसी की ओर रुजू करे, उसी से विनीत भाव से प्रार्थना करे और उसकी प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए निरंतर प्रयास करे। मनुष्य के पास एक ही हृदय है, जो एक ईश्वर की भक्ति की सामर्थ्य रखता है, फिर भक्ति को विखंडित तो किया ही नहीं जा सकता। अन्तरात्मा को भी यही वांछित है कि वह एक ही ईश्वर की भक्ति करे।


मनुष्य का अपने स्रष्टा के साथ इस प्रकार के मधुर संबंध की उक्त और अन्य अपेक्षाओं-वांछाओं को मानव जीवन में सही तौर पर उतारने, बरतने और उन्हें अमल में लाने के परिणामस्वरूप जीवन में जो गुण, विशिष्टताएँ, शील-स्वभाव, नैतिकता और सदाचार पैदा होते हैं वे जीवन को विकारों और चिंताओं से मुक्त करते ही हैं, ईश्वर की प्रसन्नता का इतना उत्तम साधन बन जाता है। यही सफलता मानव जीवन की वास्तविक सफलता है।


इसके विपरीत जो मनुष्य स्रष्टा के नैसर्गिक संबंध को झुठलाता है, उससे मुंह फेरता है वह बड़ा कृतघ्न तो है ही अपने जीवन को अत्यंत जटिल और समस्याग्रस्त बना लेता है। अंततः उसके हाथ असफलता और निराशा ही लगती है। मानव इतिहास यह बताता है कि मनुष्य अपने विवेक का प्रयोग उद्दण्डता, निरंकुशता और मनमाने व्यवहार के रूप में भी करता रहा है, वहीं दूसरी ओर करुणामय, पालनहार, स्रष्टा ने उसे बार-बार सन्मार्ग दिखाया और इस्लाम को परिपूर्ण रूप से ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) के द्वारा भेजा। ईश्वरीय शिक्षाओं को जब भी झुठलाया गया या इनमें परिवर्तन आ गया तो उसका समाज पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा और उसमें बिगाड़ आ गया। इन अवसरों पर सर्वशक्तिमान संप्रभु, ईश्वर मनुष्य के मार्गदर्शन के लिए अपने दूत, संदेशवाहक, पैग़म्बर और रसूल भेजता रहा एवं आवश्यकता के अनुसार इन पर अपनी किताब उतारी। इस प्रकार करुणामय दयावान प्रभु ने उन शिक्षाओं को मनुष्य तक पहुंचाने का प्रबंध किया जिन्हें वे भुला बैठे थे। ईश्वर के दूत ओर पैग़म्बर संसार के प्रत्येक भू-भाग में भेजे गए, अतः भारत में भी वे ईश्वर का संदेश लेकर आए होंगे। सभी नबियों ने अपने आह्वान का आरंभ एकेश्वरवाद (तौहीद) से किया और इस पर इस प्रकार जमे रहे कि किसी भी हाल में इससे बाल बराबर भी हटने को तैयार न हुए। अल्लाह के अंतिम रसूल हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) से विरोधियों ने बार-बार चाहा कि आप इस विषय में थोड़ी-सी नरमी दिखाएँ, लेकिन आपने ज़रा भी नरमी नहीं दिखाई, यहाँ तक कि आपको प्रलोभन दिया गया, रिश्वत में वह सब कुछ पेश किया जिसकी उन्हें सामर्थ्य थी, लेकिन इन सब उपायों के बावजूद वे पैग़म्बर को विचलित न कर सके।


इस्लाम : विशुद्ध एकेश्वरवादी धर्म
‘इस्लाम‘ का शाब्दिक अर्थ है-आज्ञा मानना अर्थात् एक ईश्वर सर्वशक्तिमान की आज्ञा का पालन करना। आज्ञापालन करनेवाले को मुस्लिम कहते हैं। इस्लाम ‘स्लिम‘ धातु अक्षर से बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ अम्न और शान्ति है। ‘इस्लाम‘ शब्द का अर्थ भी यही है।


इस्लाम विशुद्ध एकेश्वरवादी धर्म है। अर्थात् उसकी यह धारणा है कि संपूर्ण जगत् का एक ही ईश और ख़ुदा है और वही एक मात्र पूज्य और उपास्य है। इस्लामी शब्दावली में ईश, पूज्य प्रभु, पालनहार को अल्लाह कहा जाता है, परन्तु अल्लाह शब्द का शाब्दिक अर्थ क्या है। आगे बढ़ने से पहले इसे जान लेना उचित और समीचीन होगा। ‘‘अल्लाह'' शब्द का अर्थ निरुपण मौलाना अबुल-कलाम आज़ाद ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘‘तफ़सीर सूरह फ़ातिहा'' में निम्नलिखित शब्दों में किया हैं-


‘‘सामी भाषाओं के अध्ययन से ज्ञात होता है कि व्यंजनों और स्वरों का एक मुख्य समूह है, जो ‘‘पूजित'' के अर्थ में प्रयुक्त होता रहा है। इबरानी, सुरयानी, कलदानी, हमीरी, अरबी आदि समस्त भाषाओं में उसका यही शाब्दिक गुण पाया जाता है। यह ‘अलिफ़', ‘ला' और ‘हे' का धातु है। कलदानी और सुरयानी का ‘अलाहिया', इबरानी का ‘उलूह' और अरबी का ‘इलाह' इसी से बना है। और निस्सन्देह यही ‘इलाह' है, जो ‘अलिफ़' और ‘लाम' अक्षरों के बढ़ा देने से ‘अल्लाह' हो गया है, और इस प्रयोग ने ‘अल्लाह' के नाम को उस सत्ता के लिए विशिष्ट कर दिया है, जो संपूर्ण सृष्टि का रचयिता है। परन्तु यदि ‘अल्लाह', ‘इलाह' से बना है तो, ‘अल्लाह' का अर्थ क्या है? इसके संबंध में विद्वानों के विभिन्न कथन हैं। परन्तु सबसे अधिक प्रबल पक्ष यह ज्ञात होता है कि इस नाम का उद्गम शब्द ‘अलह' है। ‘अलह' का अर्थ चकित और विवश हो जाना है। कुछ ने कहा है कि ‘अल्लाह', ‘वलह' शब्द से बना है। इसका अर्थ भी यही है। अतः सृष्टि के रचयिता का नाम ‘अल्लाह' इसलिए हुआ कि इस सत्ता का विषय में मनुष्य जो कुछ जानता है और जान सकता है वह इससे अधिक और कुछ नहीं है कि बुद्धिचकित रह जाए और उसकी वास्तविकता को समझने के लिए विवष हो जाए।''


‘‘अल्लाह'' शब्द का अर्थ स्पष्ट करते हुए मौलाना अबू-मुहम्मद इमामुद्दीन ‘रामनग़री' लिखते हैं।


‘इल्लाह' का अर्थ है : पूज्य। इसलिए ‘इल्लाह' प्रत्येक उस व्यक्ति, जीव और निर्जीव वस्तु को कह सकते हैं जिसकी पूजा की जाए। इस ‘इलाह' शब्द में ‘अलिफ़' और ‘लाम' संयुक्त कर ‘अल्लाह' कर देने का अभिप्राय यह है कि एक ईश्वर ही पूज्य है। इसके अतिरिक्त कोई पूजा और उपासना का अधिकारी नहीं है।


(इस्लाम का एकेश्वरवाद, पृ.1, इस्लामी साहित्य सदन, रामनगर, वाराणसी)


‘अल्लाह' शब्द में यह विशिष्ट गुण निहित है कि उसका प्रयोग एक ही उपास्य-प्रभु के लिए हो सकता है। भाषा विज्ञान के अनुसार, उसके सिवा किसी अन्य के लिए इसका प्रयोग नहीं हो सकता। इस शब्द का न तो कोई बहुवचन है और न ही इसका कोई लिंग (Gender) है। इस शब्द क सटीक हिन्दी अनुवाद ‘ईश्वर' इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि यह शब्द भगवान देवी-देवता, देव, विशिष्ट पुरुष अथवा जीव आदि उपास्यों के लिए भी भाववाचक रूप में प्रायः प्रयुक्त होता है। यह ज़रूर है कि काम चलाने अथवा समझने-समझाने के लिए अल्लाह का अनुवाद ईश्वर जा सकता है। वैसे सारे अच्छे नाम अल्लाह के ही लिए हैं। एक हदीस के अनुसार अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद ने अल्लाह के लिए 99 नामों का उल्लेख किया है, जिसे ‘‘अल-असमाउलहुस्ना'' (अल्लाह के अच्छे नाम) कहा जाता है।


क़ुरआन में है-
‘‘कह दो अल्लाह कहकर पुकारो या रहमान कहकर जिस नाम से भी पुकारो उसके सब अच्छे ही नाम हैं।'' (17:110)
 ‘‘ अल्लाह अच्छे नामों का अधिकारी है-उसको अच्छे ही नामों से पुकारो और उन लोगों को छोड़ दो, जो उसके नाम रखने में सच्चाई से हट जाते हैं।'' (7:180)

 ‘‘ वह अल्लाह ही है उसके सिवा कोई पूज्य नहीं, उसके लिए सर्वोत्तम नाम हैं।'' (20:8)

 

अल्लाह एक है
‘‘ अल्लाह'' शब्द से उसके एक होने का अर्थ निहित है। पवित्र क़ुरआन में अल्लाह के एक होने के संबंध में अनेक आयतें अवतरित हुई हैं, जिनमें से कुछ निम्नलिखित हैं-
‘‘ तुम्हारा पूज्य प्रभु एक ही पूज्य प्रभु है, उस करुणामय और दयावान के सिवा कोई और पूज्य प्रभु नहीं है।'' (2:163)


‘‘वही अल्लाह है उसके सिवा कोई पूज्य प्रभु नहीं।'' (28:70)


‘‘कह दो वह अल्लाह है यकता (अकेला)।'' (112:1)


‘‘अल्लाह का आदेश है दो ख़ुदा न बनाओ, ख़ुदा तो बस एक ही है।'' (16:51)


वास्तव में इस्लाम की शिक्षाओं का सार तत्व एकेश्वरवाद (तौहीद) है। दूसरे शब्दों में यह इस्लाम की आधारशिला है। ‘‘ला इला-ह इल्लल्लाह'' अर्थात् अल्लाह के सिवा कोई पूज्य-प्रभु नहीं-इस्लाम के प्रथम सू़त्र-वाक्य (कलिमा) का आरंभिक वाक्यांश है, जिस पर ईमान लाना प्रत्येक मुसलमान के लिए अनिवार्य है। हम अपनी खुली आंखों और बुद्धि, विवेक एवं चेतना के ज़रिए से जब समूची सृष्टि पर नज़र डालते हैं, तो एक से अधिक ईश्वर के चिन्ह नहीं मिलते। स्वयं ‘ब्रह्माण्ड' शब्द भी इस सत्य-तथ्य का द्योतक है। अन्य धर्म-ग्रंथों में भी इस सिलसिले में कई उद्धरण पाए जाते हैं, जो इस सच्चाई और वास्तविकता को प्रकट करते हैं। मानव की प्रकृति एकेश्वरवाद के प्रति ही मौलिक रूप से आकर्षित होती है, क्योंकि यह उसके सर्वथा अनुकूल है। क़ुरआन में है--


‘‘अल्लाह एक मिसाल देता है। एक व्यक्ति तो वह है जिसके मालिक होने में बहुत-से दुःशील स्वामी साक्षी हैं जो उसे अपनी-अपनी ओर खींचते हैं और दूसरा व्यक्ति पूरा का पूरा एक ही स्वामी का दास है। क्या इन दोनों का हाल एक-सा हो सकता है ? -प्रशंसा अल्लाह के लिए है, मगर ज़्यादातर लोग नादानी में पड़े हुए हैं।''


उसका कोई साझी नहीं

अल्लाह का कोई साझी और शरीक नहीं है। उसकी सत्ता, अखंड है। जिस प्रकार किसी राज्य में दो शासक नहीं हो सकते, उसी प्रकार पूरी सृष्टि में एक ही शासक की सत्ता संभव है। यदि किसी भी स्थान पर एक साथ दो आदेश चलाए जाएँगे तो व्यवस्था सुचारू रूप से नहीं चल सकती। क़ुरआन में है -
‘‘ अगर आसमान और ज़मीन में एक अल्लाह के सिवा दूसरे पूज्य होते तो (ज़मीन और आसमान) दोनों की व्यवस्था बिगड़ जाती।'' (21:22)
अल्लाह संपूर्ण जगत् का स्रष्टा है। वह किसी के द्वारा स्रष्ट नहीं कि उसमें स्रष्ट प्राणियों की भांति कमज़ोरियां पायी जाती हों। क़ुरआन में है -
‘‘अल्लाह सबसे निरपेक्ष है और सब इसके मुहताज हैं, न उसकी कोई सन्तान है और न वह किसी की सन्तान है। और कोई उसका समकक्ष नहीं है।'' (112:2-4)
सारी स्रष्टी अल्लाह की आज्ञाकारी है-
‘‘क्या तुम देखते नहीं हो कि अल्लाह के आगे सजदे में हैं वे सब जो आसमानों में हैं और जो धरती में हैं, सूरज, चाँद और तारे और पहाड़ और पेड़ और जानवर और बहुत-से इंसान और बहुत से वे लोग जो अज़ाब के अधिकारी हो चुके हैं?'' (22:18)

अल्लाह न किसी को न बेटा-बेटी बनाया और न ही अन्य किसी को साझीदार ठहराया। क़ुरआन की निम्नलिखित आयतें इस मिथ्यापूर्ण बातों का पूर्णतः खंडन करती हैं--
‘‘उनका कहना है कि अल्लाह ने किसी को बेटा बनाया है। अल्लाह पाक है इन बातों से। वास्तविक तथ्य यह है कि धरती और आकाशों में पायी जानेवाली सभी चीज़ों का वह मालिक है। सबके सब उसके आज्ञाकारी है।'' (2:116)
‘‘अल्लाह ने किसी को अपनी संतान नहीं बनाया है और कोई दूसरा ख़ुदा उसके साथ नहीं है। अगर ऐसा होता तो हर ख़ुदा अपनी सृष्टि को लेकर अलग हो जाता और फिर वे एक-दूसरे पर चढ़ दौड़ते। पाक है अल्लाह उन बातों से जो ये लोग बनाते हैं। खुले और छिपे का जाननेवाला, वह उच्चतर है उस शिर्क से जो ये ठहरा रहे हैं।'' (23:91,92)
‘‘लोगों ने जिन्नों को अल्लाह का साझीदार ठहरा दिया, हालांकि वह उनका पैदा करनेवाला है और उन्होंने बिना जाने-बूझे उसके लिए बेटे और बेटियाँ रच दीं। हालांकि वह पाक और उच्च है उन बातों से जो ये लोग कहते हैं। वह तो आकाशों और धरती का आविष्कारक है, उसका कोई बेटा कैसे हो सकता है जबकि उसका कोई जीवन साथी ही नहीं है। उसने हर चीज़ को पैदा किया है और उसे हर चीज़ का ज्ञान है।'' (6:100,101)

‘‘ उसके साथ किसी को साझीदार न बनाओ।'' (6:151)

शिर्क (अनेकेश्वरवाद)

 

‘शिर्क' शब्द का शाब्दिक अर्थ है-शरीक करना या साझी ठहराना, अर्थात् अल्लाह के साथ किसी अन्य को शरीक करना या उसका साझी ठहराना। ईश्वर की सत्ता, उसके गुणों व अधिकारों में किसी को सम्मिलित करना या उसका साझी ठहराना शिर्क है। इसका बौद्धिक और तर्किक प्रमाण सिरे से अनुपलब्ध है। मानव की भूल प्रकृति इसके विरुद्ध है। पवित्र क़ुरआन में इसकी निंदा की गयी है और इससे जनसामान्य को बचने का आदेश दिया गया है।

अल्लाह शिर्क को कदापि क्षमा नहीं करता। क़ुरआन में है-

‘‘अल्लाह बस शिर्क (साझीदार बनाने) ही को माफ़ नहीं करता, इसके सिवा दूसरे जितने भी गुनाह हैं वह जिसके लिए चाहता है माफ़ कर देता है।'' (4:48)

‘‘ये लोग अल्लाह के सिवा उनको पूज रहे हैं, जो इनको न हानि पहुँचा सकते हैं न लाभ और कहते हैं कि ये अल्लाह के यहाँ हमारे सिफ़ारिशी हैं- पाक है वह और उच्च है उस शिर्क से जो ये लोग करते हैं।'' (10:18)

‘‘इन लोगों ने अल्लाह को छोड़कर अपने कुछ ख़ुदा बना रखे हैं कि वे इनके पृष्ठपोषक होंगे। कोई पृष्ठपोषक न होगा। वे सब इनकी उपासना का इनकार करेंगे और उल्टे इनके विरोधी बन जाएँगे।'' (19:81, 82)

‘‘ख़ूब सुन लो, वास्तव में ये लोग अपनी मनगढ़न्त कहते हैं कि अल्लाह संतान रखता है और वास्तव में ये लोग झूठे हैं।'' (37:151, 152)

‘‘(ऐ नबी) इनसे कहो, फिर क्या ऐ अज्ञानियो, तुम अल्लाह के सिवा किसी और की बन्दगी मुझसे करने के लिए कहते हो? (यह बात तुम्हें उनसे साफ़ कह देनी चाहिए क्योंकि) तुम्हारी ओर और तुमसे पहले गुज़रे, हुए सारे नबियों की ओर यह प्रकाशना भेजी जा चुकी है कि अगर तुमने शिर्क किया तो तुम्हारा सारा कर्म व्यर्थ हो जाएगा और तुम घाटे में रहोगे। अतः तुम बस अल्लाह ही की बन्दगी करो और कृतज्ञ बन्दों में से हो जाओ।'' (39:64, 65)

‘‘तुम स्पष्ट रूप से कह दो कि ‘‘मुझे तो सिर्फ़ अल्लाह की बन्दगी का आदेश दिया गया है और इससे रोका गया है कि किसी को उसका साझीदार ठहराऊँ, अतः मैं उसी की ओर बुलाता हूँ और उसी की ओर मेरा रुजू (पलटना) है।'' (13:36)

‘‘जिसने ताग़ूत का इनकार करके अल्लाह को माना उसने एक ऐसा मज़बूत सहारा थाम लिया जो कभी टूटनेवाला नहीं।'' (2:256)

शिर्क करनेवाला अर्थात् अनेकेश्वरवादी/बहुदेववादी व्यक्ति आश्रयहीन, बेसहारा और दुर्दशाग्रस्त हो जाता है। उसकी हालत ऐसी हो जाती है मानो वह आकाश से गिर पड़ा हो और बुरी तरह धूल-धूसरित हो गया हो। क़ुरआन में है -

‘‘एकाग्रचित होकर अल्लाह के बन्दे बनो, उसके साथ किसी को साझी न ठहराओ। और जो कोई अल्लाह के साथ साझी ठहराए तो मानो वह आसमान से गिर गया, अब तो उसे पक्षी उचक ले जाएँगे या हवा उसको ऐसे स्थान पर ले जाकर फेंक देगी जहाँ उसके चीथड़े उड़ जाएँगे।'' (22:31)

‘‘वही एक आसमान में भी ईश्वर है और ज़मीन में भी ईश्वर, और वही तत्वदर्शी और सर्वज्ञ है। बहुत उच्च और सर्वोपरि है वह जिसके अधिकार में ज़मीन और आसमानों और हर उस चीज़ की बादशाही है जो ज़मीन और आसमानों के बीच पायी जाती है। और वही क़ियामत की घड़ी का ज्ञान रखता है और उसी की ओर तुम सब पलटाये जानेवाले हो। उनको छोड़कर ये लोग जिन्हें पुकार रहे हैं उन्हें सिफ़ारिश का अधिकार प्राप्त नहीं, सिवाय इसके कि कोई ज्ञान के आधार पर हक़ की गवाही दे। और अगर तुम इनसे पूछो कि इन्हें किसने पैदा किया है, तो ये ख़ुद कहेंगे कि अल्लाह ने। फिर कहाँ ये धोखा खा रहे हैं।'' (43:84-87)

 

हिन्दू धर्म में एकेश्वरवाद

वेद हिन्दू धर्म का आधार हैं। इन्हें ईश्वरीय ग्रंथ कहा जाता है। अतएव ईश्वर के वास्तविक स्वरूप और उसकी सत्ता को जानने का एक माध्यम वेद हो सकते हैं। इनमें ईश्वर के एक होने अर्थात् एकेश्वरवाद की बात बहुत खुलकर आयी है। इनमें अनेकेश्वरवाद/बहुदेववाद नहीं पाया जाता।

ऋग्वेद (1-164-46), अथर्ववेद (9-10-28), ऋग्विधा0 (1-25-7),बृहद्देवता (4-42) और निरुक्त (7-18, 14-1) नामक पुस्तकों में आया है-

इन्द्र मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यः सुपर्णो गरुत्मान्।

एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः।।

पं0 दामोदर सातवलेकर ने इस मंत्र का अनुवाद इन शब्दों में किया है-

‘‘एक ही सत् स्वरूप परमात्मा को अनेक प्रकार से बोलते हैं। इन्द्र, मित्र, वरुण, अग्नि, दिव्य, सुपर्ण, गुरुत्मान्, सत्, सम, मातरिश्वा आदि नामों से एक ही परमात्मा का वर्णन करते हैं।

इस मंत्र से मिलता-जुलता मंत्र यजुर्वेद (32-1) में भी आया है।

पं0 सातवलेकर इस मंत्र के संबंध में लिखते हैं-‘‘जिस प्रकार एक ही पुरुष को मिला, भाई आदि गुणबोधक अनेक शब्द प्रयुक्त होते हैं, उसी प्रकार अग्नि, वायु और अनेक गुण-बोधक शब्दों से एक ही परमात्मा का बोध होता है। इसलिए भिन्न नामों के भ्रम से अनेक-देवतावाद में फंसना किसी को भी उचित नहीं।''

सारी सृष्टि का एक ही ईश्वर है और वही पूजनीय व वंदनीय है। ऋग्वेद में है -

 एक इत तमुष्टिहि।

    अर्थात्, वह एक ही है। उसी को पूजो।

मा चिदन्यद् विशंसत।

अर्थात् किसी दूसरे को मत पूजो।

उक्त दोनों मंत्रांशों के अनुवाद पंडित गंगा प्रसाद उपाध्याय ने किये हैं। -‘इस्लाम के दीपक' पृ-402, 385, अमर स्वामी प्रकाशन विभाग, ग़ाज़ियाबाद, उ0 प्र0)

      पतिर्बभृथासमो जनानामेको विष्वस्य भुवनस्यराजा। (ऋग्वेद 6-36-4)

  अर्थात्, संसार का स्वामी जिसके समान और नहीं, (एक) सहायरहित प्रकाशमान राजा है।

(स्वामी दयानन्द सरस्वती, ऋग्वेद भाष्य, पृ-498)

भुवनस्यपस्यपतिरेभ एव

नमस्यो विक्ष्वीड्यः।

  अर्थात् सब ब्रह्माण्ड का एक ही स्वामी, नमस्कार योग्य और स्तुति योग्य है। 

                     (प0 क्षेमकरण दास त्रिवेदी),

अथर्ववेद (2-2-2) में है।

एक  नमस्यः सुशेवाः।

अर्थात् वह एक ही है, जो नमस्कार और पूजा के योग्य है।

(पंडित गंगा प्रसाद उपाध्याय, -‘इस्लाम के दीपक' पृ-386)

ईश्वर शरीर धारण नहीं करता। यजुर्वेद (40-48) में है-

 

 र्य्यगाच्छक्रमक़ायमव्रणमस्नावि शुद्धमपापविद्धम्।

कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽ

अर्थान्व्यदधाच्छाष्वतीभ्यः समाभ्यः।। 

 

श्री नारायण स्वामी ने इस मंत्र का अनुवाद इस प्रकार किया है-

‘‘वह (ईश्वर) सर्वत्र व्यापक, जगदुत्पादक, शरीर-रहित, शारीरिक विकार-रहित, नाड़ी और नस के बंधन से रहित, पवित्र, पाप से रहित, सूक्ष्मदर्शी, मननशील, सर्वोपरि, वर्तमान, स्वयंसिद्ध, अनादि प्रजा (जीव) के लिए ठीक-ठाक कर्मफल का विधान करता है।''

("वंद रबस्य", पृ-94, वैदिक पुस्तकालय, वाराणसी,1972)

डॉ0 पं0 श्रीपाद दामोदर सातवलेकर ने इसका अनुवाद इस प्रकार किया है-

‘‘वह (ईश्वर) सर्वत्र गया हुआ है। वह देहरहित, स्नायुरहित है। वह व्रणरहित हैं। वह पवित्र और वीर्यवान है। वह पाप से विद्व (बिंधा) हुआ नहीं है। वह मन का स्वामी है, विचारशील है। वह सबसे श्रेष्ठ व विजयी है। वह अपनी शक्ति से स्थित है। करने योग्य कार्य वह करता रहता है।" (‘यजुर्वेद का सुबोध भाष्य', पृ-647)

 

अथर्ववेद (13-4-16 से 18, 20, 21) में उसकी अविभाज्यता का स्पष्ट शब्दों में उल्लेख आया है--

 द्वितीय  तृतीयश्चतुर्थो नाप्युच्यते ।।16।।

 पंचमों  षष्ठः सप्तम नाप्युच्यते।।17।।

नाष्टमो  नवमो दषमो नाप्युच्यते।।18।।

तमिदं निगतं सहः  एष एक एकवृदेक एव।।20।।

सर्वे अस्मिन् देवा एकवृतो भवन्ति।।21।।

 

दयानन्द सरस्वती जी इन मंत्रों का भावार्थ व्यक्त करते हुए लिखते हैं--

‘‘इन सब मंत्रों से यह निश्चय होता है कि परमात्मा एक ही है, उससे भिन्न कोई न दूसरा, न तीसरा, न कोई चैथा परमेश्वर है। (16) न पांचवा, न छठा, और न सातवां ईश्वर है। (17) न आठवां, न नौंवा, और न काई दसवां ईश्वर है। (18) किन्तु वह सदा एक अद्वितीय ही है। उससे भिन्न दूसरा कोई नहीं। वह अपने काम में किसी की सहायता नहीं लेता, क्योंकि वह सर्वशक्तिमान है। (20) उसी परमात्मा की सामर्थ्य में वसु आदि सब देव अर्थात् पृथ्वी आदि लोक ठहर रहे हैं और प्रलय में भी उसकी सामर्थ्य में सब होकर उसी के बने रहते हैं। (21)

("दयानंद ग्रंथ-माला", द्वितीय खंड, पृ- 337, 338)

इसी से मिलता-जुलता अनुवाद पं0 क्षेमकरण दास त्रिवेदी और पं0 सातवलेकर ने किया है। अलबत्ता इन मंत्रों की क्रम संख़या में समानता नहीं है।

ईश्वर के एकत्व की बात ऋग्वेद (1-164-6, 3-54,8, 8-58-2, 10-82-3, 10-82-6, 10-82-7, 10-129-2 और 10-129-3), अथर्ववेद (10-2-23, 10-7-21, 10-8-6, 10-8-11, 10-8-28, और 10-8-29) के अतिरिक्त यजुर्वेद (32-8, 32-9, 40-4, 40-5) में भी आयी है।

("विश्व ज्योति", वेद अंक, पृ-164 से 169, डॉ0 विश्वबंधु के आलेख से उद्धृत, होशियारपुर जून-जुलाई 1972)

इन मंत्रों मे ईश्वर के एक होने, उसी के पूर्व सामर्थ्यवान होने और उसकी तत्वदर्शिता का बहुत ही खुलकर उल्लेख हुआ है। डॉ0 पी0 वी0 काणे के अनुसार ऋग्वेद के 8-58-1 और 10-129-2 मंत्रों में भी ईश्वर के एक होने का वर्णन है। डा0 काणे महाभारत और कुछ पुराणों के अतिरिक्त कुमार संभव (7-44) में भी एकेश्वरवाद की धारण के पाए जाने की बात कहते हैं और निम्नलिखित हवाले पेश करते हैं-

वन पर्व (39-76,77), शान्ति पर्व (343-131), ब्रह्म पुराण (192-51), विष्णु पुराण (5-18-50) और हरिवंश (विष्णु पुराण 25-31)।

("धर्मशास्त्र का इतिहास", (पंचम भाग, पृ-393)

एक ईश्वर ही के होने का तथ्य इन मंत्रों में भी पाया जाता है: ऋग्वेद (10-12-3) और (10-12-11) यजुर्वेद (13-4, 23-1 और 23-3)। इनके अतिरिक्त वेदों में और भी मंत्र मिलते हैं जो एकेश्वरवाद की धारणा का प्रतिपादन करते हैं अतः वेदों में वहुदेववाद की धारणा नहीं पायी जाती। इस सत्य के विपरीत किसी प्रकार के प्रयास को अनुचित ही कहा जाएगा।

ईश्वर वास्तविक सम्राट है किंतु इसकी कोई प्रतिमा (मूर्ति) नहीं है। वह सम्राट है (इन्द्रश्च सम्राड्, यजुर्वेद 8-37), वह चल अचल का राजा है (इन्द्रो पातोऽवतिस्य राजा, यजुर्वेद 36-8) उससें श्रेष्ठ कोई नहीं (यस्मान्नान्यत्परमस्ति भूतम, यजु0 32-6) इसकी कोई प्रतिमा नहीं (नतस्य प्रतिमाऽअस्ति, यजु0, 32-3)।  (‘‘यजुर्वेद का सुबोध भाष्य'', पृ0 551) 

गुणों का उल्लेख इस प्रकार किया है- वह पोषक है (पूषा) वह एक ज्ञानी है (एक ऋषिः) वह नियायक है (यमः) वह प्रकाशक है (सूर्यः) वह पालक शक्ति से युक्त है (प्रजापत्यः 40-16) वह उत्तम मार्ग से ऐश्वर्य की ओर ले जाता है (सुपाथारपेनयरति), वह सब कर्मों को जानता है (विश्वानिवयुनानि विद्वान्) वह कुटिलता और पाप से युद्ध करता है (जुहुराणां एनः युध्यतेः 40-18)।  (‘‘यजुर्वेद का सुबोध भास्य'', पु0 648)

ऋग्वेद (1-4-1 से 5) में है--

सुरूपकृत्नुमूतये सुदुघामिव गोदुहे।

जुहूमसि द्यविद्यवि 11।। 

उप नः सवनागहि सोमस्य सोमपाः पिब।

गोदा इद्रेवत मदः 12।।

अथा ते अन्तमानां विद्याम सुमतीनाम। 

मा नो अतिखया आगाहि 13।।

परेहि विग्रमस्तृतमिन्द्रं पृच्छा विपश्चितम्।

यस्ते सखिभ्य  वरम् 14।।

उत ब्रुन्तु नो निदो निरन्यतश्चिदारत।

दधाना इन्द्र इददुवः 15।।

प0 दुर्गाशंकर सत्यार्थी ने इन मंत्रों का अनुवाद इस प्रकार किया है-

‘‘सुन्दर रूपों वाली मूर्ति बनाकर, गाय दुहकर (अपनी समझ में) और द्यवि द्यवि अर्थात् दिवि दिवि अर्थात् संपूर्ण पृथ्वी में ये उन मूर्तियों की उपासना करते हैं। (1) ये हमारे सब (मार्गों का) परित्याग कर चन्द्रमा की महत्ता (अर्थात् मूर्तिपूजक ईश्वर हुए भी हमारी शक्ति) भूलकर शराब पीते हैं। (अर्थात् चन्द्रमा को देखते हुए भी हमारी शक्ति) भूलकर शराब पीते हैं (अर्थात् मूर्तिपूजक ईश्वर की शक्ति एवं सामर्थ्य का विस्मरण कर मूर्तिपूजा में चूर रहते हैं) ये नशे की गोद में दुराचारियों के समान सो गए हैं। (2) वे अन्तिम दिन का विस्मरण कर विधा एवं बुद्धि का तिरस्कार कर हमारी निश्चित की हुई सीमा को पकड़ रहे हैं। (3) अपनी विस्तृत इन्द्रियों से परे ये विपत्तियों का ठिकाना पूछते हैं। जो ऐसे साथियों के लिए परम अर्थात् श्रेष्ठ हैं (हम उन्हें विपत्तियां ही देंगे (4) और ये हमारी निंदा करते हैं। तुम जो कि अपनी इन्द्रियों को वश में करनेवाले हो, हमारा स्तवन करो। और विधर्मियों को इस देश से दूर भाग जाने को कहो अर्थात् उन्हें देश से निकाल दो, वे पवित्र आर्यावर्त में रहने योग्य नहीं हैं। (5)

(मधुर उपहार, पृ-128, 129, मर्कज़ी मक्तबा इस्लामी)

यजुर्वेद में भी कई ऐसे मंत्र है, जिनके द्वारा एक ईश्वर की भक्ति पर बल दिया गया है। उसे छोड़कर अन्य की भक्ति करने वाले को चेतावनी दी गयी है। कुछ मंत्रों पर दृष्टिपात कीजिए-

ईशा वास्यमिदम् सर्व यत्किं  जगत्यां जगत्।

तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्वनम्।। 

(यजुर्वेद, 40-1)

स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने इस मंत्र का निम्नलिखित शब्दों में अनुवाद किया है- ‘‘हे मनुष्य! जो कुछ इस संसार में जगत् है उस सब में व्याप्त होकर जो नियंता है वह ईश्वर कहलाता है। उससे डरकर तू अन्याय से किसी के धन की आकांक्षा मत कर। उस अन्याय के त्याग और न्यायाचरणरूप धर्म से अपने आत्मा से आनन्द को भोग।

(सत्यार्थ प्रकाश, समुल्लास-7)

इसी वेद में है-

अन्धन्तमः प्रविन्ति येऽसंभूतिमुपासते।

ततो भूयऽइव ते तमो यऽउसम्भूत्याम् रताः।।

 

भावार्थ-‘‘जो ‘असंभूति' अर्थात् अनुत्पन्न अनादि प्रकृति कारण की ब्रह्म के स्थान में उपासना करते हैं वे अंधकार अर्थात् अज्ञान और दुखः सागर में डूबते हैं। और संभूति जो कारण से उत्पन्न हुए कार्य रूप पृथ्वी आदि भूत, पाषाण और वृक्षादि अवयव और मनुष्यादि के शरीर की उपासना ब्रह्म के स्थान पर करते हैं, वे उस अन्धकार से भी अधिक अंधकार अर्थात् महामूर्ख चिरकाल घोर दुखः नरक में गिरके महाक्लेश भोगते हैं।''

(सत्यार्थ प्रकाश, समुल्लास-11)

 

गीता के एकेश्वरवाद

श्रीमद भगवद् गीता में है-

अंतवन्तू फलं तेषां तद्भवत्यमेसाम्।

देवान्देवयजो यान्ति मदरभक्ता यान्ति मामपि।।

अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्वयः।ं

परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्।।

नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमाव्रतः।

मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्।।

(अध्याय, 7:23-25)

अर्थात् जो मेरे अतिरिक्त किसी और को पूजते हैं, वे उसी को प्राप्त होते हैं। (अर्थात् पत्थर, नदी, पहाड़ों को पूजने वालों को पत्थर, नदिंयाँ और पहाड़ों की ही प्राप्ति होती है) किंतु मुझे पूजने वाले मुझ तक पहुंच जाते हैं ऐसा होने पर भी सब मनुष्य मुझे नहीं पूजते (इसका कारण यह है कि बुद्धिहीन पुरुष मेरे अनुतम अर्थात् जिससे उत्पन्न कुछ भी नहीं ऐसे अविनाशी परमभाव को तत्व से न जानते हुए मन इन्द्रियों से घिरे मुझको मनुष्यों की भांति मानते हैं मैं उनके सामने प्रत्यक्ष नहीं होता हूँ इसलिए अज्ञानी मनुष्य मुझ जनम रहित अविनाशी परमात्मा को तत्व से नहीं जानते हैं और मुझे जन्म लेने तथा मरने वाला समझते हैं।"

एक अन्य श्लोक में ईश्वर को अजन्मा बताया गया है श्लोक निम्नलिखित है-

नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायामावृतः।

मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्।।

(7:25)

श्री जयदयाल गोविन्द का ने इस श्लोक का अनुवाद इस प्रकार किया है-

‘‘अपनी योग माया से छिपा हुआ मैं सबके प्रत्यक्ष नहीं होता इसलिए यह अज्ञानी जनसमुदाय मुझ जन्म रहित अविनाशी परमेश्वर को नहीं जानता अर्थात् मुझको जन्मने-मरने वाला समझता है।'' ("गीता तत्व-विवेचनी", पृ-323)

 

उपनिषदो में एकेश्वरवाद

उपनिषेदों में भी एकेश्वरवाद की धारणा पाई जाती है। कुछ उपनिषद तो वेद मंत्र ही हैं जैसे शुक्ल यजुर्वेद की माध्यन्दिन शाखा और काण्व शाखा की संहिताओं के अंतिम अध्याय को ईशोपनिषद या ईशावास्योपनिषद (माध्यन्दिन) और ईशोपनिषद या ईशावास्योपनिषद (3-1, 2) में एकेश्वरवाद को इस प्रकार निरूपित किया गया है-

 एको जालवानीशत ईशनीभिः सर्वाल्लोकनीश ईशनीभिः।

 एवैक उद्भवे संभवे   एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति।।1।।

एको हि रुदो  द्वितीयाय तस्थुर् इमांल्लोकानीश ईशनीभिः।

प्रत्यड़्जनांस्तिष्ठति संचुकोपान्तकाले संसृज्य विश्वा भुवनानि गोपा।।2।।

पं0 श्रीरात शर्मा आचार्य ने इन श्लोकों का निम्नलिखित शब्दों में अनुवाद किया है-

‘‘विश्वरूप जाल का स्वामी अपनी प्रभु-सत्ता द्वारा संसार पर प्रभुत्व रखता है। वह सब लोकों का नियामक अकेला ही सृष्टि रचना करने और उसे विस्तृत करने में समर्थ है। उसे जो ज्ञानीजन ज्ञान लेते हैं, वे अमृत्व को प्राप्त होते हैं। जो अपनी शक्तियों में सब लोकों का प्रभुत्व रखता है वह रुद्र एक ही है, इसलिए अन्य का आश्रय ज्ञानियों ने नहीं लिया। यह सभी सृष्टि के लय काल (प्रलय) में सबको अपने भीतर समेट लेता है।

("108 उपनिषद",(ज्ञानखण्ड), पृ-302, 303, संस्कृति संस्थान, बरेली, संशोधित संस्करण-1990)

एक ही ईश्वर के अनेक नाम हैं। केवल्योपनिषद (8) में आया है।

 ब्रह्मा  शिवः सेन्द्र: सोडक्षरः परमः स्वराट्

 एव विष्णुः  प्राणः  कालोऽग्निः  चन्द्रमा ।।8।।

डॉ रणजीत सिंह शास्त्री ने इसका अनुवाद इस प्रकार किया है--

‘‘यह ईश्वर ही ब्रह्मा है, वही विष्णु है, वही रुद्र है, वही शिव है, वही अक्षर है, वही स्वराट् है, वही इन्द्र है, वही कालाग्नि है और वही चन्द्रमा है।

("ईश्वर की सत्ता और उसका स्वरूप", पृ-28, 29, मधुर प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण-1992)

ईश्वर एक है, वह अद्वितीय है (एकमेवाद्वितीयम्-छान्दोग्योपनिषद, 6-2-1)। उससे श्रेष्ठ कोई नहीं, (श्वेताश्वतरोपनिषद, 3-9)। उसके अनेक रूप नहीं। उसे जो अनेक रसों में मानते हैं, उनको सावधान करते हुए कठोपनिषद (द्वितीय अध्याय, प्रथम बल्ली) में कहा गया है-

‘‘यदेवेह तदमुत्र यदमुत्र तदन्वि 

मृत्योः  मृत्युमाप्नोति  इह नानेव पश्यति।।10।।

मनसैवेदमाप्तव्यं नेह नानास्ति किंचन।

मृत्योः  मृत्यु मच्छति  इह नानेव पश्यति।।11।।

पं0 श्रीराम शर्मा आचार्य के शब्दों में इन श्लोकों का अनुवाद इस प्रकार है-

‘‘जो मनुष्य इहलोक (संसार) में परमेश्वर को अनेक रूपों वाला देखता है, वह मृत्यु से मृत्यु को प्राप्त होता है........ यह सत्य मन के द्वारा ही प्राप्त हो सकता है। इस लोक में अनेकत्व किंचित नहीं है। जो मनुष्य अनेकत्व देखता है, वह मृत्यु से मृत्यु को प्राप्त होता है।''

("108 उपनिषद", (ज्ञानखण्ड), पृ-46, 47)

यजुर्वेद (40-9) में भी इसकी ओर संकेत है-

 

‘‘जो लोग परमेश्वर को छोड़कर अन्य की उपासना करते हैं, वे अज्ञान-अंधकार में प्रविष्ट होते हैं और जो व्यसनों में रत है, वे और भी अधिक अंधकार में पड़े हैं।''

(अनुवाद- राज बहादुर पाण्डेय, यजुर्वेद, (संक्षिप्त), पृ-159, डायमंड पाकेट बुक्स)

ईश्वर के वास्तविक स्वरूप, उसके गौरव और प्रताप के विषय में वेदों, उपनिषदों और श्रीमद् भगवद्गीता में जो चीज़ें, मिलती हैं, उनमें से कुछ को ही उपर्युक्त विवरणें में प्रस्तुत किया गया है।

अतएव हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि ईश्वर एक है, अकेला है, अद्वितीय और अविनाशी है। उसका कोई साझी नहीं। उसके अनेक नाम हैं, किन्तु उसका काई रूप नहीं। उसका न तो कोई शरीर है और न ही वह शरीर ग्रहण करता है। वह सारे ब्रह्माण्ड का स्वामी है, नियामक है, पालनकर्ता, स्रष्टा और संहारक भी है। वह प्रत्येक कार्य करने में समर्थ और सबसे अधिक शक्तिशाली है। वही संपूर्ण जगत् का सम्राट है। उस जैसा कोई नहीं।

कपोल-कल्पित अवधारण के दुष्परिणाम

ईश्वर के इन और अन्य गुणों एवं विशेषताओं के विरुद्ध जो बातें कही जाती हैं, उनकी हैसियत बस इतनी है कि वे वास्तविकता से परे और कल्पना पर आधारित है। शाश्वत सत्य अपने आप में सत्य होता है। उसे किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती।


अगर हम किसी प्रमाण की भी बात करें तो पूरी सृष्टि में जिधर भी नज़र डालें तो एक ईश्वर की धारणा के प्रमाण ही प्रमाण नज़र आएँगे। पूरा ब्रह्माण्ड और समग्र सृष्टि कितनी सुव्यवस्थित, क्रमबद्ध और सतुंलित है, हम सहज ही समझ व देख सकते हैं। इसकी नियमितता और विधेयात्मकता आश्चर्यचकित करनेवाली है। इसमें ज़रा भी स्वच्छंदता और प्रतिफलित होनेवाले परिवर्तन नहीं हैं। अतः हम देखते हैं कि अल्लाह द्वारा सभी स्रष्ट चीज़ों में तत्वदर्शिता, बुद्धिमत्ता, पूर्णता, सौन्दर्य उपयोगिता और नैतिक प्रयोजन सब कुछ विद्यमान है। सूर्य और चन्द्रमा की गतियों का भी यही हाल है। यदि ईश्वर अनेक हो जाए, तो प्रत्येक अपनी-अपनी प्रभुसत्ता और महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए सृष्टि में अव्यवस्था उत्पन्न कर दे और वह छिन्न-भिन्न हो जाए।


तार्किक और बौद्धिक सभी दृष्टियों से यदि हम विचार करते हैं, तो हम इस वास्तविकता और सच्चाई को स्वमेव पा जाते हैं कि ईश्वर का आस्तित्व है, वह एक है, उसका कोई साझी नहीं, उसी के पास सर्वाधिकार हैं, वह सर्वशक्ति सम्पन्न है। उसका और उसकी सत्ता का इनकार वास्तव में ईश्वर की महानता और शान में धृष्टता है।


एक ही ईश्वर को न मानना और उसका साझी ठहराना सर्वशक्ति सम्पन्न ईश्वर का अपमान और अनादर है। यह केवल मनुष्य की ईश्वर के प्रति धृष्टता ही नहीं, एक गंभीर प्रकार का विश्वासघात है। स्पष्ट है, जब मनुष्य उस सृजनकार-सत्ता के साथ विश्वासघात करेगा, जिसने उसे पैदा किया है, तो यह अपराध कितना गंभीर हो जाएगा इस तथ्य को सहज ही समझा जा सकता है। यह विश्वासघात चरित्र पर आघात करेगा और जीवन में भांति-भांति के विकार पैदा कर देगा। एकेश्वरवाद वह मज़बूत आश्रय है, जिससे वंचित होकर एवं ईश्वर से अपने नैसर्गिक व मधुरिम संबंध का विच्छेद करके मनुष्य भ्रम, संशय और दुर्बलता की स्थिति में आकर अपने जीवन को विभिन्न प्रकार के विकारों, व्याधियों, और झंझावातों में डाल देता है।

उसके जीवन में आशा, उत्साह, उमंग, साहस, कर्मठता और उत्तरदायित्व जैसे उत्तम गुण क्षीण हो जाते हैं और इनके विपरीत भाव जन्म लेकर बढ़ने लगते हैं, जो लौकिक जीवन को कष्टकर बनाते ही हैं, पारलौकिक जीवन को असफल बना देते हैं। तात्पर्य यह कि अनेकेश्वरवादी, बहुदेववादी व्यक्ति के व्यक्तित्व का वांछित विकास बाधित और खंडित हो जाता है। इस प्रकार वह मनुष्यत्व और पुरुषार्थ से अपना संबंध तोड़ डालता है, जो सही अर्थों में एक ईश्वर पर विश्वास के परिणामस्वरूप् जीवन में उद्भूत और पैदा होते हैं। एकेश्वरवाद के बिना मानव जगत् में वास्तविकता भाईचारे व एकत्व की बुनियाद नहीं क़ायम, की जा सकती। यह ऐसी धारणा है जो जब भी कमज़ोर पड़ेगी मानव एकत्व व भाईचारा खंडित होगा और इसके नतीजें में विषमतामूलक शोषणकारी समाज जन्म लेगा। यह भी मनुष्य पर ईश्वर का महान उपकार है कि उसने अपने अतिरिक्त अन्य के समक्ष उसका सिर झुकने से बचा लिया। इस प्रकार उसके आत्मसम्मान और उसकी गरिमा को सुरक्षित रखा और उसे अधमना व हीनता से बचा लिया।


अतः मनुष्य का परम कर्तव्य है कि वह एक ईश्वर की भक्ति और बन्दगी करे जो सर्वशक्तिमान, निराकार, न्यायकारी, क्षमाशील, दयावान, अजन्मा, अनुपम, अजर, अमर, निर्विकार, अनन्त, सर्वाधार, सर्वव्यापक, सर्वसत्ताधारी, सर्वान्तरयामी, पवित्र और सृष्टकर्ता है।


क़ुरआन में है-
‘‘अल्लाह वह जीवन्त शाश्वत सत्ता है, जो सम्पूर्ण जगत् को संभाले हुए है, उसके सिवा कोई प्रभु, पूज्य नहीं है। वह न सोता है और न उसे ऊंघ लगती है। ज़मीन और आसमानों में जो कुछ है, उसी का है। कौन है जो उसके सामने उसकी अनुमति के बिना सिफ़ारिश कर सके ? जो कुछ बन्दों के सामने है उसे भी वह जानता है और जो कुछ उनसे ओझल है उससे भी वह अवगत है और उसके ज्ञान में से कोई चीज़ उनके ज्ञान की पकड़ में नहीं आ सकती यह और बात है कि किसी चीज़ का ज्ञान वह ख़ुद ही उनको देना चाहे। उसका राज्य आसमानों और ज़मीन पर छाया हुआ है और उसकी देखरेख उसके लिए कोई थका देनेवाला काम नहीं है। बस वही एक महान और सर्वोपरि सत्ता है।'' (क़ुरआन, 2:255)

 


एकेश्वरवाद की मूल धारणा
डॉ0 फ़रहत हुसैन
ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकारना मात्र तर्क और बुद्धि का विषय नहीं है, बल्कि यह इनसान के दिल की आवाज़ है, मन की मांग है, अन्त:करण की पुकार है। ईश्वर में विश्वास मानव-प्रकृति को अभीष्ट है। इस विश्वास और आस्था का मानव-व्यक्तित्व से गहरा संबंध है। यह संबंध फूल और उसकी सुन्दरता, अग्नि और ज्वाला, जल और प्रवाह जैसा है। संपूर्ण जगत् ईश्वरीय प्रभाव के अन्तर्गत क्रियाशील है। स्वयं मानव-शरीर की आंतरिक क्रियाएँ स्वचलित रूप से ईश्वरीय विधान के अनुसार कार्य सपंन्न कर रही हैं। श्वास-क्रिया, पाचन-क्रिया, रुधिर-संचार आदि समस्त कार्य संचालित हैं। इसी प्रकार मनुष्य की आत्मा भी ईश-आज्ञापालन चाहती है। यही वह बिन्दु है जो धर्म और ईश्वरवाद की आधारशिला है। वास्तवकिता यह है कि ईश्वर जीवन की सबसे बड़ी सच्चाई है, जिसे अस्वीकार करने में जीवन की सार्थकता समाप्त हो जाती है। ईश्वर के प्रति अपनी धारणा को विशुद्ध बनाना हमारा कर्तव्य है। हमारे चेतना पद पर दुनिया कुछ इस प्रकार छाई रहती है कि हम स्वयं अपनी आत्मा की ओर ध्यान नहीं दे पाते, ईश्वर और उसके अस्तित्व पर चिंतन नहीं करते। उसको जानने की लालसा तो पायी जाती है, परन्तु गंभीरता से नहीं क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति कहीं न कहीं टिका है और उसी में मगन है। ईश्वर के समीप होने तथा उसे जानने के लिए उत्कृष्ट इच्छा तथा साहसिक प्रयास ज़रूरी है।


संसार में मनुष्य अपने चारों और विभिन्न प्रकार की लीलाएँ घटित होते देखता है। स्वयं उसका अपना अस्तित्व भी किसी चमत्कार के कम नहीं है। संसार की सभी चीज़ें एक व्यवस्था में बंधी दिखाई देती हैं। प्रातः सूर्य का उदय होना और सायंकाल को ओझल हो जाना। रात में आकाश का तारों से सुशोभित होना। महकते फूल, हरी भरी वनस्पति, पशु-पक्षी, नदी नाले, झरने, पर्वतमालाएँ, जिधर निगाह जाती है अद्भुत नज़ारा देखने को मिलता है। किसी महान कारीगर की कारीग़री दिखाई देती है। यह सारी सृष्टि उदेश्यपूर्ण है, उपयोगिता प्रदान करनेवाली है। इनसान को जिन जिन चीज़ों की आवश्यकता है, वे सभी यहाँ मौजूद हैं। आवश्यकता पूर्ति के साथ सौदंर्यबोध का भी पूरा ख़याल रखा गया है।


हम यह भी देखते हैं कि ब्रह्माण्ड की समस्त वस्तुओं और सारी शक्तियों में परस्पर समन्वय तथा सहयोग पाया जाता है, जिसे किसी संयोग का परिणाम नहीं कहा जा सकता। इस जगत् और मनुष्य का अस्तित्व सदा से नहीं है अर्थात् इसकी रचना छुपी है। क्या किसी रचना की कल्पना रचनाकार के बग़ैर संभव है ? यह प्रश्न क़ुरआन में है-
‘‘क्या ईश्वर के बारे में कोई संदेह है जो आकाश समूह और धरती का रचयिता है।'' (क़ुरआन, 14:10)


जब धरती और आकाश के अस्तित्व में हमें संदेह नहीं तो उनके सृष्टिकर्ता के विषय में हम क्यों संदेह में पड़े हुए हैं। स्वयं मनुष्य का अपना अस्तित्व किसी महान रचनात्मक की चामत्कारिक रचना की गवाही के लिए पर्याप्त है। अखिल जगत् की अन्य चीज़ें भी गवाही दे रही हैं।


इतना ही नहीं कि ईश्वर इस संपूर्ण जगत् का रचनाकार है, बल्कि इसका संचालन एवं प्रबंधन भी उसी के द्वारा संपन्न हो रहा है। करोड़ों वर्षों से उसी लगे-बंधे ढंग से यहाँ गतिविधियां चल रही हैं। सूर्य का प्रकाश वही है, ऊर्जा वही है, धरती के विभिन्न भागों पर किरणें पहुंचना वही है, चन्द्रमा का चक्र नहीं बदला, जल प्रबंधन वही है, पेड़-पौधों के उगाने का नियम भी अपरिवर्तित है, अर्थात् निर्माण के साथ-साथ प्रबंधन एवं संचालन उसी का है।

 

वही अकेला
और यह समस्त कार्य वह ‘अकेले' ही कर रहा है। इसका प्रमाण वह अति उत्तम समन्वय है जो प्रकृति में पाया जाता है। समुद्र के पानी का बादलों के रूप में उठना, इन बादलों का हवाओं द्वारा धरती के विभिन्न भागों तक पहुंचना, फिर वहाँ वर्षा होना और इसी प्रकार दूसरी अनेक प्रक्रियाएँ जिस समन्वित ढंग से संपन्न हो रही हैं वह ईश्वर के एक होने पर दलील हैं। कालेज के कई प्रधानचार्य, किसी फ़ैक्ट्री के कई मुख्य प्रबंधक यदि संभव नहीं हैं, तो इस सृष्टि के कई ईश्वर कैसे संभव हैं? ईश्वर के अस्तित्व में संदेह करना अथवा उसके अधिकारों में किसी दूसरे/दूसरों को साझी ठहराता न तो तर्कसंगत है और न ही न्यायसंगत।


एक प्रश्न
यहाँ यह प्रश्न किया जा सकता है कि यदि ईश्वर है तो अपने होने की सूचना क्यों नहीं देता ? इसके उत्तर में हम कहेंगे कि उसने सदैव सूचना दी अपने संदेशवाहकों के द्वारा। मानव इतिहास में ईशदूतों की लंबी श्रृंखला है। उस सब की मूल शिक्षाएँ समान रही हैं। सबने एक ईश्वर की उपासना, दासता और आज्ञापालन की ओर लोगों को बुलाया, जीवनयापन का वह मार्ग सुझाया जो ईशप्रदत्त था, जिस पर चलकर वह इस लोक और परलोक में सुख-शान्ति और आनन्द प्राप्त कर सकते थे। हर युग, हर क्षेत्र, हर समुदाय में ये महापुरुष आते रहे। जब मनुष्य ने सभ्यता के वैश्विक युग में प्रवेश किया तो ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) को विश्वव्यापी संदेश के साथ भेजा गया। यह संदेश दो रूपों में उपलब्ध है। एक ईशवाणी जो पवित्र क़ुरआन के रूप में पूर्ण रूप से सुरक्षित है, दूसरे हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) के कथन, आचरण, आदेश-निर्देश जिन्हें ‘हदीस‘ कहा जाता है। इस्लामी धारणा के अनुसार ईश्वर के सभी संदेशवाहकों में आस्था ज़रूरी है, हाँ वर्तमान व्यवहार के लिए हज़रत मुहम्मद का अनुसरण करना चाहिए, क्योंकि यह ईश्वरीय विधान का अंतिम ‘संस्करण' है।


ईशदूतों की शिक्षा का सार
ईशदूतों, पैगम्बरों की विशुद्ध शिक्षा वास्तव में ईश्वरवाद ही नहीं, एकेश्वरवाद पर आधारित है। उनकी शिक्षा का सार यही है कि हमारा और इस सृष्टि का रचयिता अल्लाह है इसलिए पूज्य केवल वही है। वह सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञानी है। इस सृष्टि की हर चीज़ उस पर आश्रित है, वह किसी पर आश्रित नहीं है। वह समस्त कमज़ोरियों से परे है। वह सर्वशक्ति संपन्न है। इसलिए इस विशाल जगत् का निर्माण, पोषण और प्रबंधन उसके लिए थका देने वाला कार्य नहीं है। वह किसी की संतान नहीं है, न उसकी कोई संतान है इसलिए वह निष्पक्ष निर्णय लेने में सक्षम है। दुनिया की हर चीज़ उसका आज्ञापालन कर रही है। ग्रह, तारे, सूर्य, चन्द्रमा, हवाएँ, पशु-पक्षी, वनस्पति सब उसी के क़ानून में जकड़े हए हैं। मनुष्य को विचार एवं कर्म की स्वत्रंता परीक्षा के उदेश्य से अवश्य दी गयी है फिर भी उसको भौतिक क्रियाएँ, उसकी इन्द्रियां उन्हीं नियमों के अंतर्गत क्रियाशील हैं। सत्ता, प्रभुसत्ता, शासन उसी का है। जीवन-मरण उसी के हाथ है, भाग्य विधाता वही है। मनुष्य के अच्छे-बुरे कर्मों पर पुरस्कार या दंड देने का वही अधिकारी है। ईश्वरत्व के इन समस्त गुणों में उसका कोई साझी नहीं, इसीलिए मनुष्य को उसके प्रति समर्पित होना चाहिए, उपासना उसी की करें, मदद उसी से मांगें, कृतज्ञता उसी के प्रति दर्शाएँ। वर्तमान जीवन की सुख-शान्ति और पारलौकिक जीवन की सफलता के लिए ईश्वर द्वारा भेजे गये नियमों का सिद्धांत का ईमानदारी से पालन करना चाहिए।


मानव-जीवन पर एकेश्वरवाद का प्रभाव
एकेश्वरवाद मानव-जीवन पर दूरगामी प्रभाव डालता है-
1-एक ईश्वर में आस्था रखने वाले व्यक्ति का दृष्टिकोण अतिव्यापक हो जाता है। वह एक ऐसी सत्ता को पूज्य प्रभु मानता है, जो धरती और आकाश को बनाने वाली और पोषण करनेवाली है। इस ईमान के बाद जगत् की कोई चीज़ भी उसे ‘पराई' नहीं लगती। उसकी हमदर्दी, प्रेमभाव और सेवाभाव संकुचित नहीं रहता।


2-एक ईश्वर को पाकर वह आत्म-सम्मान के शिखर पर पहुँच जाता है। वह उसी के आगे हाथ फैलाता है और उसी के प्रार्थना करता है।


3-उसे धैर्य और साहस प्राप्त होता है। कोई संकट उसे सन्मार्ग से विचलित नहीं कर सकता। वीरता, निडरता तथा त्याग की भावना से वह परिपूर्ण होता है। अहंकार और घमंड उसमें नहीं होता। लोभ-लालच ईर्ष्या, घृणा, ऊँच-नीच, छूत-छात के भेदभाव समाप्त हो जाते हैं, क्योंकि अब सभी मनुष्य एक ही ‘कुटुम्ब' के हैं।


4-ऐसा व्यक्ति जो ईश्वर में विश्वास रखता है और उसके भेजे हुए आदेशों को स्वीकार करता है और उन शुभ सूचनाओं और चेतावनियों से अनभिज्ञ नहीं होता जो ईश्वर ने अपने रसूलों के द्वारा प्रसारित की है, वही इस योग्य होता है कि उपने दायित्व को पूर्ण रूप से निभा सके। ऐसा व्यक्ति अपने शरीर और आत्मा दोनों पर ईश्वर का अधिकार स्वीकार करता है, फिर यह असंभव है कि वह अपने आंतरिक या बाह्य जीवन को अपवित्र रखे।


5-वास्तविक एकेश्वरवाद यह है कि मनुष्य स्वेच्छापूर्वक अपने आपको ईश्वर के आगे अर्पण कर दे। अपनी इच्छाओं को ईश्वर की पसन्द के अनुरूप ढाले। जातीय एवं राष्ट्रीय भावना उसकी दृष्टि को संकुचित न कर सके। एकेश्वरवादी व्यक्ति की केवल उपासना एवं चन्द्रमा ही ईश्वर के लिए नहीं होती, बल्कि उसका संपूर्ण जीवन उसी को समर्पित होता है। क़ुरआन में है--


‘‘कह दो मेरी उपासना, मेरी क़ुरबानी, मेरा जीना और मरना
अल्लाह के लिए है जो सारे संसार का पालनहार है।'' (क़ुरआन 6:162)
क़ुरआन एवं अन्य धर्मग्रंथों की शिक्षा
पवित्र क़ुरआन विशुद्ध एकेश्वरवाद की शिक्षा देता है। एक तिहाई से अधिक शिक्षाएँ इसी विषय को समर्पित हैं। अन्य प्रमुख धर्मग्रंथों-वेद तथा बाइबल की मूल एवं विशुद्ध शिक्षाएँ एकेश्वरवाद ही की घोषणा करती हैं। तीनों ग्रंथों के कुछ चयनित अंश नमूने के रूप में प्रस्तुत है-

पवित्र क़ुरआन

पवित्र क़ुरआन को एक छोटा-चार वाक्यों पर आधारित-अध्याय ईश्वर के बारे में अति सुन्दर शिक्षा देता है-
‘‘कहो, वह अल्लाह है, यकता। अल्लाह सबसे निरपेक्ष है और सब उसके मुहताज हैं। न उसकी कोई संतान है और न वह किसी की संतान। और कोई उसका समकक्ष नहीं है।'' (क़ुरआन 112:1-4)


ईश्वर और उसके गुणों का वर्णन इस प्रकार है -
‘‘अल्लाह, वह जीवंत शाश्वत सत्ता, जो संपूर्ण जगत् को संभाले हुए है उसके अतिरिक्त कोई पूज्य प्रभु नहीं है। वह न सोता है और न उसे ऊंघ लगती है। धरती और आकाशों में जो कुछ है उसी का है। कौन है जो उसके सामने उसकी अनुमति के बिना सिफ़ारिश कर सके ? जो कुछ बन्दों के सामने है उसे भी वह जानता है और जो कुछ उनसे ओझल है उसे भी वह जानता है, और उसके ज्ञान में से कोई चीज़ उनके ज्ञान की पकड़ में नहीं आ सकती यह और बात है कि किसी चीज़ का ज्ञान वह ख़ुद ही उनको देना चाहे। उसका राज्य आसमानों और ज़मीन पर छाया हुआ है और उनकी देख-रेख उसके लिए कोई थका देने वाला कार्य नहीं है, बस वही एक महान और सर्वोपरि सत्ता है।'' (क़ुरआन, 2:255)


एक और स्थान पर ईश्वर और उसके गुणों की चर्चा प्रभावशाली ढंग से की गयी है-
‘‘वह अल्लाह ही है जिसके अतिरिक्त कोई पूज्य नही, परोक्ष और प्रत्यक्ष का जाननेवाला, अत्यंत कृपाशील और दयावान। वह अल्लाह ही है जिसके अतिरिक्त कोई पूज्य नहीं। वह सर्वशासक, अत्यंत गुणवान, सलामती देनेवाला, शरणदाता, प्रभुत्वशाली, प्रभावशाली, अत्यंत महान! ईश्वर की महिमा के प्रतिकूल है वह सब शिर्क जो ये लोग कर रहे हैं। वह अल्लाह है-योजनाकार, अस्तित्व प्रदान करनेवाला, रूपकार, उसके सुन्दर नाम हैं। जो कुछ भी आकाशों और धरती में है उसी का गुणगान करती है और वह प्रभुत्वशाली और तत्वदर्शी है।'' (क़ुरआन, 59:22-24)

 

समस्त मानवजाति को संबोधन-
‘‘ऐ लोगो! बन्दगी करो अपने रब की जिसने तुम्हें और तुमसे पहले के लोगों को पैदा किया, ताकि तुम बच सको।'' (क़ुरआन 2:21)


पीड़ित की पुकार वही सुनता है-
‘‘वह कौन है जो विकल की दुआ सुनता है जबकि वह उसे पुकारे और वह संकट मोचक है।''(क़ुरआन 27:62)


मन की शान्ति कहाँ है?
‘‘जान लो! केवल अल्लाह के स्मरण से ही मन को शान्ति प्राप्त होती है।'' (क़ुरआन 13:28)

 

ईश्वर की निशानियाँ उपलब्ध हैं-
‘‘वह अल्लाह ही है जो हवाओं को भेजता है फिर वे बादल उठाती हैं फिर हम उसे एक निर्जीव भू-भाग की ओर ले चलते हैं और उससे धरती को उसके मुर्दा हो जाने के पश्चात् ज़िन्दा कर देते हैं।'' (क़ुरआन 35:9)


अर्थात् वर्षों से सूखी भूमि में वनस्पति उग आती है और अनेक कीड़े-मकोड़े पैदा हो जाते हैं--
‘‘निस्संदेह अल्लाह दाने और गुठली को फाड़ता है, जानदार को बेजान से निकालता है।'' (क़ुरआन 6:95)


‘‘निश्चय ही रात और दिन के उलट-फेर में और हर उस चीज़ में जो अल्लाह ने आकाशों (ईश्वर) और धरती में पैदा की है, डर रखनेवालों के लिए निशानियाँ हैं।'' (क़ुरआन 10:6 )


‘‘तुम ईश्वर को कैसे नहीं मानते जबकि तुम निर्जीव थे उसने तुम्हें जीवन प्रदान किया, फिर वही तुम्हें मृत्यु देगा, फिर वही तुम्हें जीवित करेगा, फिर उसी की ओर तुम लौटाए जाओगे।'' (क़ुरआन 2:28)


अर्थात् जब तुम ईश्वरीय चमत्कार इतने निकट से देख रहे हो कि स्वयं तुम्हारा अपना जीवन भी उसी की कृपा और सामर्थ्य का जीता जागता प्रमाण है, तो फिर उस ईश्वर से तुम्हारी विमुखता का कारण इसके सिवा और क्या हो सकता है कि तुम्हें न सत्य-असत्य की चिंता है और न किसी के उपकार के प्रति तुम संवेदनशील हो।
‘‘और वही जिसने तुम्हारे लिए, कान और आंखें और दिल बनाए। तुम कृतज्ञता थोड़ी ही दिखाते हो।'' (क़ुरआन क़ुरआन 23:78)
एक प्रश्न जिसमें उसका उत्तर भी मौजूद है--
‘‘क्या अनेक रब अच्छे हैं या अकेला अल्लाह जो प्रभुत्वशाली है ?''
वेद अत्यंत प्राचीन ग्रंथ माने जाते हैं, उनमें एकेश्वरवाद की शिक्षा मौजूद है। कुछ महत्वपूर्ण श्लोक प्रस्तुत हैं-


एको विश्वस्य भुवनस्य राजा -ऋग्वेद, 6/36/4
इस संपूर्ण ब्रह्माण्ड का राजा एक ही है।


एक एव नमस्यो विक्ष्वीड्यः। -अथर्वेद 2/2/1
एक ईश्वर ही स्तुति एवं नमस्कार करने योग्य है।


नत्वावां2 अन्यों दिव्यो न पार्थिवो न जातो वा जानिष्यते। -यजुर्वेद, 27/36
(हे ईश्वर!)तेरे जैसा अन्य कोई न तो द्युलोक में पाया जाता है और न पृथ्वी के पदार्थों में है। न तेरे जैसा कोई पैदा हुआ और न होगा।


मह्द यज्ञं भवनस्यं मध्ये तपसि कलान्तं सलिलस्य पृस्टे।
तस्मिन् श्रयन्ते ये के च देवा, वृक्षस्य स्कंध पारित इव शाखा।
-अथर्ववेद, 10/7/38


सारे विश्व में एक बड़ी पूज्य शक्ति वर्तमान है। जिसका ज्ञान अनन्त है। जो इस संपूर्ण प्रकृति की अधिष्ठाता है। जितनी भी दिव्य शक्तियां हैं वे सभी उस पर आश्रित हैं जैसे वृक्ष के तने के आश्रय से उसकी शाखाएँ रहती हैं। 
ईशावास्यमिंद सर्व यत्किंच जगत्यां जगत्। -यजुर्वेद, 40/1
इस चराचर जगत् में जो कुछ भी गति है, वह सब उस सर्वशक्ति संपन्न परमेश्वर से आच्छादित है।


इन्द्र मिंत्र वरुणमग्निमाहरथो दिव्यः स सुपर्णो गुरुत्मान्।
एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः।।
-ऋग्वेद, 1/164/46


विद्वान लोग उसी एक सत्ता को अनेक नामों से पुकारते हैं उसे अग्नि, यम, मातारिश्ता कहते हैं, उस ज्ञान स्वरूप को इन्द्र, मित्र, वरुण कहते हैं और वह दिव्य, सम्यग्ज्ञानवान् उत्कृष्ट पालनशक्तिमान और गौरववान है।''


न द्वितीय न तृतीयश्चतुर्थो नाप्युच्यते।
न पंचमो न षष्ठः सप्तमो नाप्युच्यते।।
नाष्टमो न नवमो दशमो नाप्युच्यते।
स सर्वस्स्मै विपश्यति यच्च प्राणिति यच्च न।।
तमिदं निगतं सरः स एष एक-एक वृदेक एवं।
सर्व अस्मिन् देवा एक वृत्तो भवन्ति।
-अथर्वेद, 13/4/16-21


वह ईश्वर न दूसरा है न तीसरा और न चैथा कहा जा सकता है। वह पांचवा, छठा और सांतवा भी नहीं कहा जा सकता है। वह आठवां, नवां और दसवां भी नहीं कहा जा सकता है। (अर्थात् ईश्वर एक है, ऐसा नहीं है कि ईश्वरों का छोटा या बड़ा कोई दल हो) वह उन सबको अलग-अलग देखता है जो सांस लेते या नहीं लेते। ये सारे बल उसी के हैं। बल से परिपूर्ण सम्पूर्ण संसार उसी के आश्रित है। वह एक है, अद्वितीय वर्तमान है और निश्चय ही वह एक ही है।

तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायु स्तदु चन्द्रमाः।
तदेव शुक्र तद ब्रह्म ता आप स प्रजापतिः।
-यजुर्वेद, 31/1


वह परमात्मा ही अग्नि, आदित्य, वायु, चन्द्रमा, शुक्र, ब्रह्म, आपः और प्रजापति आदि नामों को धारण करता है।


य एक इद् हवयश्चर्षणीता मिन्द्रं त गीभीर्रभ्यनों आभि यः
पत्यते वृष्णय वृष्णयावान्त्स त्यः सत्वा पुरुमायाः महस्वान्।
-ऋग्वेद, 6/22/1


जो ईश्वर संपूर्ण मानव संसार का एक ही उपास्य है उसी का इन वाणियों द्वारा भली-भांति अर्चन करो । वही सुख की वर्षा करनेवाला, सर्वशक्तिमान, सत्यस्वरूप, सर्वज्ञ और समस्त शक्तियों का अधिपति है।
अत्यमेक इत्थ पुरूरु चष्टे विविश्पति तस्य ब्रन्तान्यनु वश्चरामसि।
-ऋग्वेद, 8/25/16
वह एक ही ईश्वर सारी प्रजा का स्वामी है। वह सब का कुशल निरीक्षक है। हम अपने कल्याण के लिए उसकी आज्ञाओं का पालन करते हैं।
वेदाहमेंत परुषं महान्तमादित्य वर्णन्तमसः परस्तात्।
तवेव विवित्वत्ति मृत्युमेतिनान्यः पन्थाविद्यतेऽयनाय।।
-यजुर्वेद, 2/4/18
मैं उस महान प्रभु को जानता हूँ जो अंधकार से परे है और ज्योतिस्वरूप है। उसे जानकर ही मनुष्य मृत्यु को पार करता है और कोई मार्ग मुक्ति का नहीं है।

 


बाइबल की गवाही
बाइबल बहुत-सी प्राचीन धर्म-पुस्तकों का संग्रह है। इन पुस्तकों की प्रामाणिकता विभिन्न पहलुओं से संदिग्ध है, फिर भी एक ईश्वर की धारणा की पुष्टि के लिए आज भी इनमें बहुत कुछ सामग्री पाई जाती है।


कुछ उदाहरण प्रस्तुत किए जाते हैं-
मैं ही प्रथम हूं और मैं ही अंतिम हूं और मेरे सिवा कोई ईश्वर नहीं। (Isaiah, 46:6)


तुझको किसी दूसरे पूज्य की उपासना नहीं करनी होगी, इसलिए कि प्रभुवर जिसका नाम स्वाभिमानी है वह स्वाभिमानी ईश्वर है भी। (Exodus, 34:4)


सुन हे इसराईल का संतान! प्रभुवर हमारा ईश्वर एक ही प्रभुवर है। तू अपने संपूर्ण हृदय और संपूर्ण प्राण और संपूर्ण शक्ति से प्रभुवर अपने ईश्वर से प्रेम कर। और ये बातें जिनका आदेश आज मैं तुझे देता हूं तेरे हृदय पर अंकित रहें। और तू इनको अपनी संतान को हृदयंगम कराना और घर बैठे और राह चलते और लेटे और उठते समय इनकी चर्चा किया करना। (Deuteronomy, 6:4-7)

 

मेरे साथ कोई प्रभु नहीं! मैं ही मारता और मैं ही जिलाता हूं। मैं ही आहत करता और मै ही चंगा करता हूं। और कोई नहीं जो मेरे हाथ से छुड़ाए। (Deuteronomy, 32:39)

तू महान है और अद्भुत कार्यकर्ता है, तू ही अकेला ईश्वर है। (Psalm, 86:10)

तू ही अकेला सब राज्यों का ईश्वर हैं। तूने ही आकाशों और धरती को पैदा किया। (Isaiah, 37:16)

इंजील में है : ईसा ने उत्तर दिया कि सर्वप्रथम यह है कि इसराईल सुन। प्रभुवर हमारा ईश्वर एक ही प्रभुवर है। और तू प्रभुवर अपने ईश्वर से अपने संपूर्ण हृदय और अपने संपूर्ण प्राणों और अपनी संपूर्ण बुद्धि और संपूर्ण शक्ति से प्रेम कर। (Mark, 12:29)

और सदैव का जीवन (Life eternal) यह है कि वे तुझ अकेले और सच्चे ईश्वर को और ईसा मसीह को जिसे तूने भेजा है जाने। (John, 17:3)

ईश्वर एक है और ईश्वर और मानव के बीच में मध्यस्थ भी एक ईसा मसीह है जो मनुष्य है। (Timothy, 2:5)

 


निष्कर्ष
तर्क, बुद्धि और धार्मिक पुस्तकों की गवाही से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि एक ईश्वर की अवधारणा मानव जीवन की आधारशिला है जिसके अभाव में उसका जीवन एक कटी पंतग, एक टूटे हुए पते के समान है कि हवा के झोंके उसे कहाँ ले जाकर पटकते हैं। हमें केवल ईश्वर के अस्तित्व को ही स्वीकार नहीं करना है, बल्कि इसके साथ ही उसे अपने जीवन में सम्मिलित भी करना है। वर्तमान समाज की त्रासदी ईश्वर को व्यावहारिक जीवन से अलग कर देती है। इसी कारण समाज अनेकानेक समस्याओं से जूझ रहा है। जब हृदय में उसका भय और व्यवहार में ईश्वर की पसन्द-नापसन्द का ख़याल न हो तो समाज में नैतिकता स्थापित नहीं की जा सकती। जीवन में ईश्वरीय आदेश का पालन हो और उसकी मर्ज़ी को ही हर क्षेत्र में वरीयता प्राप्त हो, इसके अतिरिक्त मानव-जीवन की प्रतिष्ठा की रक्षा का कोई और उपाय नहीं है और व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन की शान्ति-स्थापना का कोई अन्य विकल्प नहीं है।


एकेश्वरवाद की वास्तविकता व अपेक्षाएँ
और मानव-जीवन पर उसके प्रभाव
 मुहम्मद जैनुल आबिदीन मंसूरी

मनुष्य की प्रकृति व प्रवृति और उसका अंतःकरण किसी परा-लौकिक शक्ति से उसके मानसिक, भावनात्मक एवं व्यावहारिक संबंध की मांग करता है। उसी शक्ति को इनसान चेतन व ज्ञान के स्तर पर ईश्वर, अल्लाह, ख़ुदा, गॉड आदि कहता है। यहाँ तक कि विश्व के कुछ भागों जैसे अफ़्रीक़ा व भारत के कुछ क्षेत्रों में कुछ असभ्य वनवासी आदिम जनजातियों (Aborigine tribes) में भी ईश्वर की एक धुंधली, अस्पष्ट परिकल्पना पाई जाती है। ज्ञात मानव-इतिहास में अनेश्वरवादी लोग कभी नहीं रहे। यही तथ्य परालौकिक शक्ति धर्म का मूलतत्व और धार्मिक मान्यताओं का मूल केन्द्र रहा है और यही ‘ईश्वर में विश्वास' अर्थात् ‘ईश्वरवाद' शाश्वत सत्य धर्म का मूलाधार रहा है।

 

एकेश्वरवाद (तौहीद Monotheism)की वास्तविकता
‘एक ईश्वर है और मनुष्य के जीवन से उसका अपरिहार्य संबंध है' यह धारणा अगर विश्वास बन जाए तो मनुष्य और उसके जीवन पर बहुत गहरा, व्यापक और जीवंत व जीवन-पर्यन्त सकारात्मक प्रभाव डालती है। लेकिन यह उसी समय संभव होता है जब एकेश्वरवाद की वास्तविकता भी भली-भांति मालूम हो तथा उसकी अपेक्षाएँ अधिकाधिक पूरी की जाएँ। वरना ऐसा हो सकता है और व्यावहारिक स्तर पर ऐसा होता भी है कि एक व्यक्ति ‘एक' ईश्वर को मानते हुए भी जानते बूझते या अनजाने में अनेकेश्वरवादी बन जाता है। तथा एकेश्वरवाद के फ़ायदों और सकारात्मक प्रभावों से वंचित रह जाता है। मानव जाति के इतिहास में यह एक बहुत बड़ी गंभीर और जघन्य विडंबना रही है कि लोग और कौमें एकेश्वरवाद की धारणा रखते हुए भी अनेकेश्वरवाद या बहुदेववाद (शिर्क) से ग्रस्त होती रही हैं। यह अनेकेश्वरवाद क्या है, इसे समझ लेना एकेश्वरवाद की वास्तविकता को समझने के लिए अनिवार्य है।

 


एकेश्वरवाद की विरोधोक्ति (Antithesis)

ईश्वर से सम्बन्ध सामान्यतः उसकी पूजा-उपासना तक सीमित माना जाता है। चूंकि ईश्वर अदृश्य होता है, निराकार होता है, इसलिए पूजा-उपासना में उस पर ध्यान केंद्रित करने के लिए उसके प्रतीक स्वरूप कुछ भौतिक प्रतिमाएँ बना ली जाती हैं। फिर ये प्रतिमाएँ ईश्वर का प्रतिनिधित्व करती मान ली जाती हैं। यहीं से अनेकेश्वरवाद का आरंभ हो जाता है। प्रतीक ही अस्ल हो जाते हैं। और ईश्वर के ईश्वरत्व में सभी शरीक-साझीदार बनकर स्वयं पूज्य-उपास्य बन जाते हैं। एकेश्वरवाद परिवर्तित व विकृत होकर नियमवत् अनेकेश्वरवाद का रूप धारण कर लेता है। सत्य-पथ से, इस ज़रा-से फिसलने और विचलित होने के बाद, फिर क़दम ठहरते नहीं और आदमी को न कहीं क़रार मिलता है न संतोष व संतुष्टि। अतः धर्मों और धर्मालम्बियों का इतिहास साझी है कि नबी, रसूल, ऋषि, मुनि, महापुरुष, पीर, औलिया सब पूज्य-उपास्य बना लिए जाते रहे हैं। फिर इनसानी क़दम और अधिक फिसलते, विचलित व पथभ्रष्ट होते हैं और इनसान, सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र, तारागण, अग्नि को फिर प्रेत-आत्माओं ज़िन्दा या मुर्दा इनसानों, समाजसुधारकों, क्रांतिकारी विभूतियों, माता-पिता, गुरुओं आदि को और फिर इससे भी आगे-वृक्षों, पर्वतों, नदियों, पशुओं यहाँ तक कि सांप की भी पूजने लगता है। फिर जन्मभूमि, राष्ट्र, धन-दौलत, पुरुष-शरीर-अंग तथा कारख़ानों में काम करने वाले औज़ार भी पूजे जाने लगते हैं। अनेकेश्वरवाद पूजा व अनेश्वर पूजा कहीं ठहरती नहीं और नित नये-नये पूज्यों की वृद्धि होती रहती है। इस प्रकार एकेश्वरवाद का वह भव्य दर्पण जिसमें मनुष्य अपनी और ईश्वर के बीच यथार्थ सम्बन्ध का प्रारूप स्वच्छ रूप में देख सकता और उसी के अनुकूल एक सत्यनिष्ठ, न्यायनिष्ठ, उत्तम, शान्तिमय तथा ईशपरायण व्यक्तिगत, सामाजिक व सामूहिक जीवन व्यतीत कर सकता था, चकनाचूर होकर रह गया। ‘एक ईश्वर' के बजाय बहुसंख्य अनेकेश्वरों के आगे शीष नवाते-नवाते मनुष्य की गरिमा और उसका गौरव टूट-फूट कर, चकनाचूर होकर रह गया। इनसान के अन्दर समाज के अन्दर तथा सामूहिक व्यवस्था में ऐसी जो छोटी-बड़ी अनेक ख़राबियाँ पाई जाती हैं जिनके सुधार की कोई भी कोशिश कामयाब नहीं हो पाती, उनके प्रत्यक्ष कारण व कारक जो भी हों सच यह है कि परोक्षतः उनकी जड़ में अनकेश्वरवाद मूल कारक के तौर पर काम करता रहता है। यहाँ से मानवीय मूल्यों की महत्वहीनता, मानव-चरित्र का पतन तथा मानव-सम्मान के विघटन व बिखराब की उत्पति होती है। मानव जाति पर छायी हुई इस त्रासदी के परिप्रेक्ष्य में यह बात अत्यंत महत्वपूर्ण है कि सही विकल्प तलाश किया जाए। संजीदगी और सत्य निष्ठा के साथ ग़ौर करने पर यह विकल्प विशुद्ध ऐकेश्वरवाद के रूप में सामने आता है।

 


विशुद्ध एकेश्वरवाद
इनसान की मूल प्रवृत्ति उसे अशुद्ध, भ्रमित, मिलावटी, खोटी और प्रदूषित वस्तुओं के बजाय, विशुद्ध और खरी चीज़ें हासिल करने तथा इसके लिए प्रयासरत होने का इच्छुक व प्रयत्नशील बनाती है। मनुष्य जब अपनी भौतिक व शारीरिक जीवन-सामग्री के प्रति इस दिशा में भरसक प्रयत्न करता है तो उसे आत्मिक व आध्यात्मिक जीवन-क्षेत्र में ‘विशुद्ध' की प्राप्ति के लिए और अधिक प्रयत्नशील होना चाहिए, क्योंकि यही वह आयाम है जो मनुष्य को सृष्टि के अन्य जीवों से श्रेष्ठ व महान बनाता है। जिन सौभाग्यशाली लोगों को भौतिकता-ग्रस्त जीवन प्रणाली की चकाचौंध-हंगामों, भाग-दौड़ और आपाधापी से कुछ अलग होकर इस दिशा में प्रयास रत होने की फ़िक्र होती है, अक्सर ऐसा हुआ है कि वे अनेक व विभिन्न दर्शनों में उलझकर, एक मानसिक व बौद्धिक चक्रव्यूह में खोकर, भटककर रह जाते हैं। अगर यह तथ्व और शाश्वत सत्य सामने रहे कि अत्यंत दयावान ईश्वर अपने बन्दों को दिशा हीनता व भटकाव की ऐसी परिस्थिति में बेसहारा व विवश नहीं छोड़ सकता और उसने ईशदूतों व ईशवाणी के माध्यम से इनसानों की इस महत्वपूर्ण व बुनियादी आवश्यकता की पूर्ति का प्रयोजन व प्रबन्ध अवश्यावश्य किया होगा तो एकेश्वरवाद की उलझी हुई डोर का सिरा--विशुद्ध एकेश्वरवाद-इनसान के हाथ लग सकता है। यह मात्र एक कोरी कल्पना नहीं है बल्कि इतिहास के हर चरण में और वर्तमान युग में भी, इनसानों को ‘‘ईशदूत तथा ईशग्रंथ'' के माध्यम से इस अभीष्ट विशुद्ध एकेश्वरवाद का ज्ञान तथा इसकी अनुभूति व प्राप्ति होती रही है। इसे अलग-अलग युगों, भूखण्डों व क़ौमों और भाषाओं में जो कुछ भी अलग-अलग नाम दिए गए हों यह वर्तमान युग में इस्लाम के नाम से जाना जाता है।

विशुद्ध एकेश्वरवाद और इस्लाम

इस्लाम विशुद्ध एकेश्वरवाद की व्याख्या को उलझाव, भ्रामकता, अस्पष्टता, अपारदर्शिता से बचाने के लिए, इसे दार्शनिकों, विद्धानों , धर्माचारियों, स्कॉलर्थ और उलमा के सिपुर्द नहीं करता जहाँ मूल रूप से स्वयं ईश्वर ने ही अपने गंथ में जो कि ईशदूत, हज़रत मुहम्म्द (सल्ल0) पर सन् 610 ई0 से 632 ई0 की अवधि में अवतरति हुआ, विशुद्ध एकेश्वरवाद की व्याख्या कर दी है। क़ुरआन का अधिकांश भाग प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में ऐसी ही शिक्षाओं से भरा हुआ है। यहाँ ऐसी सिर्फ़ दो व्याख्याओं के भावार्थ का अनुवाद दिया जा रहा है-

 

‘‘.....वह अल्लाह एक, यकता है। और अल्लाह स्वाधारित व स्वाश्रित है। वह ना जनिता है, न जन्य। और कोई उसके समान, समकक्ष नहीं।''(क़ुरआन 112:1-4 )
‘‘अल्लाह वह जीवन्त शाश्वत सत्ता है जो संपूर्ण जगत् को संभाले हुए है। उसके सिवाय कोई पूज्य-उपास्य (इलाह) नहीं है। वह न सोता है न उसे ऊंध लगती है। ज़मीन और आसमानों मे जो कुछ है उसी का है। कौन है जो उसके सामने उसकी अनुमति के बिना (किसी की)सिफ़ारिश कर सके ? जो कुछ इनसानों के सामने है उसे और जो कुछ उनसे ओझल है। उसे भी वह ख़ूब जानता है और वे उसके (अपार व असीम)ज्ञान में से किसी चीज़ पर हावी नहीं हो सकते सिवाय उस(ज्ञान) के जिसे वह ख़ुद (इंसानों को) देना चाहे। उसका राज्य, उसका प्रभुत्व आकाशों और धरती पर छाया हुआ है। और उस (राज्य) की देख-रेख व सुरक्षा का काम उसके लिए कुछ भी भारी, कठिन नहीं। बस वही एक महान और सर्वोपरि सत्ता है।'' (क़ुरआन 2:255)


क़ुरआन की उपरोक्त आयतों में विशुद्ध एकेश्वरवाद का जो संक्षिप्त चित्रण किया गया है, यद्यपि पूरे क़ुरआन में जगह-जगह उसे विस्तार के साथ, उदाहरणों, तर्क तथा सुबूत व प्रभाव के साथ वर्णित किया गया है। फिर भी, उपरोक्त संक्षिप्त व्याख्या भी बुद्धिमानों तथा विवेकशीलों के लिए अनेकेश्वरवाद की तुलना में, या भ्रमित व अस्पष्ट एकेश्वरवाद के परिदृश्य में विशुद्ध एकेश्वरवाद की साफ़-सुथरी, स्पष्ट तथा सरल, सहज व पारदर्शी तसवीर पेश करती है। इस तसवीर को देखकर कोई भी सत्यनिष्ठ और पूर्वग्रहित इनसान, एकेश्वरवाद की वास्तविकता पा जाने से वंचित या असमर्थ नहीं रह सकता।


ईश्वर के गुण (सिफ़ात, Attributes )

ईश्वर के गुणों के सम्बन्ध में दार्शनिकों और धर्मविदों ने अपने मस्तिष्क को काफ़ी थकाया है। अपने स्वतंत्र व स्वछन्द चिंतन-मनन से वे जब ध्यान ज्ञान की प्रकिया से गुज़रे तो इस निष्कर्ष पर पंहुचे कि ईश्वर गुण हीन है। अर्थात ‘निर्गुण' है। इस निष्कर्ष से यह बात अब अवश्यंभावी हो जाती है कि ईश्वर वास्तव में एक निष्क्रिय (idle, inert, non-potent) अस्तित्व है। इस विचार धारा के अनुसार ईश्वर और सृष्ट (His creations)-- मुख्यतः ‘मानव'-- के बीच किसी जीवंत सम्बन्ध की परिकल्पना विलीन और समाप्त हो जाती है। फिर मनुष्य ईश्वर पूरी तरह कटकर रह जाता है। तथा समाज व सामूहिक व्यवस्था की भी ऐसी स्थिति हो जाती है। मानवता तथा मानवजाति को बड़े-बड़े आघात और नैतिक व आध्यात्मिक क्षति इसी कारण पहुँची है, क्योंकि ईश्वर और मनुष्यों के बीच चेतना के स्तर पर सम्बन्ध-विच्छेद ‘मानविक' नहीं अपितु ‘पाश्विक' है।


इस्लाम की विशुद्ध एकेश्वरवाद की अवधारणा ने उपरोक्त सदियों की बिगड़ी हुई विचारधारा का शुद्धीकरण करके गुणवान ईश्वर की परिकल्पना को इस प्रकार से पुनः स्थापित किया कि इनसान का ईश्वर से टूटा हुआ या खोया हुआ रिश्ता फिर से क़ायम हो गया। जहाँ ईश्वर अपने गुणों और सामर्थ्य के साथ, हरपल, हर अवस्था में, हर जगह अपने बन्दों के साथ है। ईश्वर अद्वितीय है अर्थात् किसी भी प्रकार के शिर्क से परे वह मनुष्यों (तथा अन्य प्राणियों) के प्रति दयावान, कृपाशील है। वह बुरे कामों पर क्रोधित होता है। और नेक कामों पर प्रसन्न होता है। वह स्वामित्व वाला प्रभुत्व वाला है, अतः मात्र उसी के प्रति दास्ताभाव व आज्ञापालन में जीवन बिताना चाहिए। वह न्यायप्रिय है। अतः मनुष्यों को न्यायप्रिय, न्यायी व न्यायनिष्ठ होना चाहिए। वह न्यायप्रद है। अतः जिन लोगों के साथ इस सीमित जीवन और त्रुटिपूर्ण सांसारिक न्याय-क़ानून-व्यवस्था में पूरा न्याय (या आधा-अधूरा न्याय या कुछ भी न्याय) नहीं मिल सका उन्हें वह परलोक में न्याय प्रदान कर देगा। वह इनसानों के हर छोटे-बड़े काम, हर गतिविधि, हर क्रिया-कलाप का निगरां व निरीक्षक है। अतः कोई इनसान अपने बुरे कामों के दुष्परिणाम (नरक) से ईश्वर के समक्ष परलोक में बच न सकेगा, न सत्कर्मों के पुरस्कार (स्वर्ग) में वंचित रहेगा। वह हर चीज़ का जानने वाला, हर बात की पूरी ख़बर रखने वाला है। अतः उसकी पकड़ तथा उसके सामने उत्तरदायित्व से परलोक में कोई भी व्यक्ति बच न सकेगा। वह अकेला पूज्य-उपास्य है। अतः वह शिर्क को बरदाश्त नहीं करेगा और परलोक में दण्ड देगा। वह सर्वसामर्थ्यवान, सर्व सक्षम है अतः कोई दूसरा उसके कर्मों, फ़ैसलों और अधिकारों में उसका साझीदार नहीं इत्यादि।


इस प्रकार ईश्वर के अनेक गुणों के साथ इस्लाम की एकेश्वरवाद की धारणा इनसानी ज़िन्दगी और मानव-समाज को नेकी, नैतिकता, सत्यनिष्ठा, न्याय, उतसर्ग, परोपकार, नि:स्वार्थता, अनुशासन और उत्तरदायित्व-भाव के आधार पर निर्मित व सुनयोजित करने में महत्वपूर्ण व प्रभावी भूमिका निभाई है।


ईश्वर के अधिकार, एकेश्वरवाद की अपेक्षाएँ

इस्लाम में एकेश्वरवाद की धारणा के साथ ईश्वर के प्रति इनसानों के कर्तव्य, अविभाज्य रूप से जुड़े हुए हैं। यह कर्तव्य परायणता ईश्वर और इनसान के बीच एक जीवान्त सम्बन्ध का आधार बनाती है। तथा इनसानी ज़िन्दगी में ईश्वर की भूमिका शिथिल, निष्क्रिय नहीं मानी जाती। अपनी जीवन-चर्या के हर क्षण, हर पल, इनसान को यह आभास, एहसास और विश्वास रहता है कि ईश्वर से उसका व्यावहारिक सम्बन्ध घनिष्ठ है। ईश्वर हर पल उसके साथ है, ईश्वर उसके हर कर्म, कथन, आचार, व्यवहार की निगरानी व निरीक्षण कर रहा, उसे अंधेरे और एकांतवास में भी देख रहा है। वह एक स्वतंत्र प्राणी नहीं बल्कि ईश्वर के समक्ष अपने कर्मों का उत्तरदायी है और परलोक में ईश्वर उससे उसके हर अच्छे-बुरे काम का हिसाब करेगा फिर या तो उसे स्वर्ग प्रदान करेगा या नरक में डाल देगा।


ईश्वर के प्रति मनुष्य के कर्तव्य क्या हैं ? ईश्वर के अधिकारों का अदा करना। इन अधिकारों का सार कुछ इस प्रकार है -


ईश्वर की पूजा-उपासना और इबादत की जाए


पूजा-उपासना सिर्फ़ ईश्वर ही की जाए, किसी और की हरगिज़ नहीं। यह पूजा उपासना क्या हो, कैसी हो, कैसे की जाए ? यह मनुष्य स्वच्छन्द रूप से अपनी पसन्द व नपसन्द और अपनी आसानी के अनुसार तय न करे, बल्कि वह स्वयं ईश्वरीय आदेशों के अन्तर्गत (जो क़ुरआन में वर्णित हैं)और इशदूत हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) ने इसकी जिस प्रकार व्याख्या कर दी है (जो ‘हदीसों' में उल्लिखित है) उसके अनुसार की जाए, ताकि पूजा-उपासना और उसकी पद्धति व सीमा में निश्चितता (Certainty) और अनुशासन (Discipline) रहे, उसमें भा्मकता (ambiguity) का समावेश न हो और एक व्यावहारिक आदर्श (Role Mdel) सदा सामने रहे। 


ज़िन्दगी के छोट-बड़े हर मामले में ईश्वर का आज्ञापालन किया जाए [तथा ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) का भी आज्ञापालन (क़ुरआन, 3:32, 132; 4:59; 8:1, 20, 46; 24:54, 56; 47:33; 58:13; 64:12, 16 इत्यादि)]। इस आज्ञापालन का तात्पर्य यह है कि जीवन-सम्बन्धी जितने भी नियम-क़ानून और आदेश-निर्देश क़ुरआन और हदीस तथा हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) के आदर्श में मौजूद हैं उनका अनुपालन किया जाए। ये आदेश-निर्देश जहाँ ईश्वर तथा ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) के प्रति कर्तव्य से समबन्धित हैं वहाँ मानव-अधिकार और जन-सेवा से भी सम्बन्धित हैं। 


ईश्वर के अधिकारों की अनिवार्यता इसलिए नहीं है कि इसमें ईश्वर का अपना कोई हित, कोई स्वार्थ, काई फ़ायदा है। क़ुरआन (112:2) में स्पष्ट कर दिया गया है कि ईश्वर की हस्ती अपने आप में स्वाश्रित व स्वाधारित है, किसी की मुहताज या किसी के आज्ञापालन व पूजा-उपासना की ज़रूत मंद हरगिज़ नहीं है। ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) के एक कथन के अनुसार ‘समस्त संसार के सारे इनसान ईश्वर की इबादत और उसका आज्ञापालन करें, तो भी उसका कोई अपना व्यक्तिगत लाभ नहीं है, उसकी महानता, गौरव में तनिक भी वृद्धि न होगी। और पूरे विश्व के सारे इनसान उसकी इबादत और आज्ञापालन छोड़ दें तो भी उसकी महानता, भैभव, गौरव और सत्ता में कोई कमी न आएगी।' वास्तव में ईश्वर की पूजा-उपासना और आज्ञापालन में स्वयं मनुष्य और मानवजाति का ही हित है। यह विचारधारा और विश्वास मनुष्य के लिए, इस्लामी एकेश्वरवाद का ऐसा अनुपम व अद्वितीय पहलू है जो ग़ैर-इस्लाम में कहीं भी नहीं पाया जाता। इसमें मानव-कल्याणकारिता की पराकाष्ठा निहित है।  


एकेश्वरवाद का मानव-जीवन का प्रभाव
एकेश्वरवाद की वास्तविकता, ईश्वर के गुणों और ईश्वर के अधिकारों के सामंजस्य व समावेश से जो स्थिति बनती है, उसका अवश्यंभावी परिणाम यह होना चाहिए कि विशुद्ध एकेश्वरवाद की अवधारणा मानव-जीवन पर अपना ऐसा प्रभाव डाले जो समाज के स्तर पर जीवन-व्यवस्था की ठोस ज़मीन पर स्पष्ट और कांतिकारी प्रभाव डाले (न कि इनसानों के मन-मस्तिष्क, आत्मा, भावनाओं, श्रद्धाओं, विचारों और आधात्मिकता की दुनिया में ही सिमटी-सुकड़ी पड़ी रहे)। यह इस्लामी अवधारणा मानव-जीवन पर जो अनेक और वृहद् व व्यापक प्रभाव डालती है उनमें से कुछ, सक्षेप में निम्नलिखित हैं--

 

चरित्र निर्माण (Character-building): विशुद्ध एकेश्वरवाद की इस्लामी अवधारणा, इनसान को उस नैतिकता से सुसज्जित करती और आध्यात्मिक बल व आत्मिक शक्ति प्रदान करती है, जो प्रतिकूल परिस्थितियों में भी कमज़ोर और क्षतिग्रस्त नहीं होती क्योंकि इसके पीछे ईश्वरीय शक्ति का सहयोग (Support) काम कर रहा होता है। इस आत्मिक शक्ति से इनसान को जो आत्म-बल और आत्म-विश्वास प्राप्त होता है। वह उसके चरित्र निर्माण में प्रभावी भूमिका निभाता है। 


मानवीय मूल्य (Human values): प्राकृतिक रूप से जो शाश्वत मानवीय मूल्य इनसान की प्रवृत्ति का अंश तथा उसके व्यक्तिव में रचे-बसे होते हैं लेकिन अनेक आंतरिक व बाह्य कारणों से क्षीण, जर्जर होकर विघटित व दोषयुक्त होने लगते हैं, ईश्वर के सम्बन्ध की घनिष्टता उन्हें लगातार बहाल करती रहती है।


उत्तरदायित्व (Accountability): विकृत आंशिकता और त्रुटिपूर्ण सोच (लोभ-लालच, ईर्ष्या, द्वेष, हिर्स-हवस और स्वार्थ आदि के प्रभाव से इनसान जब कोई ग़लत काम, पाप-कर्म और अपराध करने का इरादा करता है तो समाज और क़ानून-व्यवस्था के समक्ष-उत्तरदायी (Accountable) और जबावदेह (Answerable) होने का एहसास उसे दुष्कर्म करने से रोक देता है। लेकिन समाज व क़ानून-व्यवस्था की पहुंच व पकड़ की सीमा व सामर्थ्य जहाँ समाप्त हो जाती है उससे आगे बढ़ जाने के बाद इनसान किसी पकड़ से, जबावदेही से, उत्तरदायित्व से या सज़ा के ख़ौफ़ से ख़ुद को परे और मुक्त पाता है तो बड़े-बड़े पाप, दुष्कर्म और अपराध कर गुज़रता है। यह दिन-प्रतिदिन का अनुभव है। इस चरण में पहुंचकर इनसान को बुरे कामों से रोकने का काम ‘विशुद्ध एकेश्वरवाद' की अवधारणा इस तरह करती है कि उसे परलोक में ईश्वर के समक्ष जवावदेह और उत्तरदायी होने का, ईश्वर की पकड़ और सज़ा का ख़ौफ़ दिलाती है।


मावन-सम्मान (Human dignity): इनसान प्रायः अपनी ही पहचान को भूल जाता है कि ब्रह्माण्ड में उसकी हैसियत व मक़ाम क्या है। वह पूरी सृष्टि में कितनी उच्च, श्रेणी व सम्मानित कृति है। फिर वह ख़ुद भी बहुत निम्न स्तर तक गिर जाता और जाति, नस्ल, वर्ण, वर्ग सम्प्रदाय, रंग, भाषा और राष्ट्रीयता आदि के आधार पर दूसरे इनसानों के सम्मान पर डाके डालता, उन्हें अपमानित करता, उन्हें अछूत और त्याज्य (Condemnable) क़रार दे देता है।मानव-इतिहास मानव-सम्मान के ऐसे हनन से भरा हुआ है। इस्लाम की विशुद्ध एकेश्वरवादी अवधारणा में इस घोर त्रासदी का समाधान निहित है। क़ुरआन के अनुसार ईश्वर ने हज़रत आदम (अलैहि0)की संतान (इनसानों) को श्रेष्ठ व सम्मानपूर्वक बनाय। इतना सम्मानित बनाया कि क़ुरआन ही के अनुसार (2:34, 7:11, 17:6, 18:50) प्रथम मानव ‘आदम' का सृजन करने के बाद ईश्वर ने, कुछ पहलुओं से इनसान से भी श्रेष्ठ ‘फ़रिश्तों' को हज़रत आदम (अलैहि0) के समक्ष नत-मस्तक हो जाने का आदेश दिया था।


मानव-समानता (Human equality): कहने लिखने और एलान व दावा करने की हद तक तो देशों के संविधानों में, अन्तर्राष्ट्रीय उद्घोषणाओं (Declaration and charters) में और आधुनिक समाजशास्त्र में सारे इनसान बराबर हैं। लेकिन यह एक सर्वविदित सत्य है कि पूरी मानवजाति व्यावहारिक स्तर पर करोड़ों इनसान असमानता (In-eqality, discrimination), शोषण (Exploitation), अन्याय (Injustice) और अत्याचार (Persecution) की चक्की में पिस रहे, असमानता की मार खा रहे हैं। इस्लाम की एकेश्वरवादी अवधारणा ही है जो मानव-‘समानता की सही व्याख्या करती, उच्चतम मापदंड भी देती है।


धैर्य व संयम (Steadfastness): प्रतिकूल परिस्थिति में, समस्याओं और चुनौतियों में, मुसीबत की घड़ियो में, सत्य मार्ग से विचलित कर देने वाले (Provocating) हालात में जब इनसान मायूस, हताश (Frustrated) हो जाने, बाग़ी व उपद्रवी बन जाने, आत्महत्या कर लेने की स्थिति में आ जाता है और कोई चीज़ उसे सहारा देने वाली नहीं रह जाती तब उसे वह सहारा मिलता है जिसे विशुद्ध एकेश्वरवाद में अडिग विश्वास उसे प्रदान करता है (क़ुरआन, 94:5, 6; 39:53)।


उपसंहार
उपर्युक्त विवेचना व परीक्षण से यह बात स्पष्ट रूप से सिद्ध हो जाती है कि एकेश्वरवाद के यथार्थ एवं शुद्धतम प्रारूप-विशुद्ध एकेश्वरवाद- की इस्लामी अवधारणा का हमारे जीवन के हर क्षेत्र, हर विभाग, हर अंश से कितना घनिष्ठ, जीवंत, सर्वांगीण संबंध है। चाहे- वह आत्मिक क्षेत्र हो या भौतिक, आध्यात्मिक हो या सांसारिक, वैयक्तिक हो या सामाजिक व सामूहिक। इस्लाम, मानवजाति के रू-ब-रू इसी का आह्वाहक है। यही इस्लाम का केन्द्र-बिन्दु है, इस्लामी आचार संहिता व जीवन-प्रणाली की धुरी (Axle), इस्लामी जीवन-व्यवस्था की आधाशिला (Foundation stone) इस्लाम की (Spirit) आत्मा है।

 

 

एकेश्वरवाद का मानव चरित्र-जीवन पर प्रभाव
डॉ सैयद शाहिव अली
ख़ुदा की एक ओर अकेला मानना
एकेश्वरवाद के मानने का मतलब निम्नलिखित बातों का मानना है-
मनुष्य और सृष्टि का बनानेवाला और चलानेवाला एक ख़ुदा है। वह अत्यन्त शक्तिशाली है, सब उसके सामने मजबूर और मुहताज हैं, उसकी मर्ज़ी के बिना कोई कुछ नहीं कर सकता।
वह किसी पर निर्भर नहीं है, सब उसपर निर्भर रहते हैं।
उसकी न कोई औलाद है और न वह ख़ुद किसी की औलाद है।
वह अकेला और यकता है, कोई उसका साझी नही। उसका न कोई आदि और न कोई अंत। जब कुछ नहीं था, तो वह था। वह हमेशा से था, हमेशा रहेगा। वह सबका पालनहार है उपास्य है। सब उसके दास हैं।
वह सब कुछ जानने वाला है। वह कुछ भी कर सकता है। उसके लिए कुछ असम्भव नहीं।
वह अत्यंत कृपा करने वाला और दया करने वाला है। वह न्याय और इनसाफ़ करने वाला है।
जो कुछ है सब उसी का पैदा किया हुआ है।
उस जैसा कोई नहीं। वह बिल्कुल आज़ाद है। सब उसके सामने मजबूर हैं।
वह तमाम ताक़त का मालिक, सबसे ज़्यादा-शक्तिशाली व ताक़तवर है।
ख़ुदा सब कुछ जानता है। वह हर जगह मौजूद है। कोई भी चीज़ उसके कंट्रोल से बाहर नहीं।
वह हमें देखता है, सुनता है, वह हमसे क़रीब है। मगर हम उसे नहीं देख सकते।
वह निस्पृह है। उसे किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं। मगर इनसान को उसकी ज़रूरत है।
वही और सिर्फ़ वही इबादत (उपासना) के लायक़ है। कोई उस जैसा नहीं। वह हमें ज़िन्दगी देता है और वही हमें मौत देता है।
सफलता और असफलता, सम्मान और अपमान, अमीरी और ग़रीबी ख़ुशी व दुख, स्वास्थ्य और रोग, सबका देनेवाला या न देनेवाला या देकर वापस लेनेवाला वही एक ख़ुदा है।
व्यक्ति और समाज की सभी बुराइयों की जड़ सिर्फ़ और सिर्फ़ एक है और वह है एकेश्वरवाद को न मानना अर्थात् यह नहीं मानना कि ख़ुदा है, देख रहा है और सबको उसका सामना करना है। एकेश्वरवाद के सिलसिले में समाज में चार तरह के लोग पाए जाते हैं-
1-पहला वर्ग उन लोगों का है, जो एक ख़ुदा का इनकार करते हैं।
2-दूसरा वर्ग उन लोगों का है जो एक ख़ुदा का ज़बान से इक़रार करते हैं, मगर दिल में यक़ीन नहीं रखते।  
3-तीसरा वर्ग उन लोगों का है जो ज़बान से एक ख़ुदा का इक़रार करते हे और दिल में यक़ीन भी रखते हैं, मगर उसके आदेशों को नहीं मानते।
4-चौथा वर्ग उन लोगों का है जो ज़बान में एक ख़ुदा का इक़रार करते हैं और दिल में यक़ीन भी रखते हैं और उसके आदेशों को भी मानते हैं। एकेश्वरवादी को मानने का लाभ तब होता है, जब सिर्फ़ और सिर्फ़ एक ख़ुदा को माना जाए। इस बात को हम एक उदाहरण से समझ सकते हैं। मान लीजिए, हमारे पास ज़मीन का एक टुकड़ा है जो झाड़-झंकार, कंकड़-पत्थर से भरा हुआ है और हम वहाँ गेहूँ उगाना चाहते हैं। अगर हम ज़मीन तैयार किए बिना उसमें बहुत उत्तम क़िस्म का बीज डाल दें, तो हमें अच्छी फ़सल की उम्मीद नहीं करनी चाहिए।
हमें सबसे पहले झांड़-झंकार और कंकड़-पत्थर से ज़मीन को साफ़-सुथरा करना चाहिए, तब हम अच्छी फ़सल की उम्मीद कर सकते हैं।
यही मामला इनसान के मन, मस्तिष्क का भी है। अगर उसमें एक ख़ुदा के अलावा दूसरे ख़ुदा भी मौजूद हों, तो फिर एकेश्वरवाद का पूरा लाभ नहीं मिलता और उसके पूरे प्रभाव इनसान की ज़िन्दगी पर नहीं पड़ते। एकेश्वरवाद का मानना इनसान की ज़िन्दगी में केन्द्रीयता लाता है, न कि संकट और बिखराव।

 

 मानव जीवन पर एकेश्वरवाद के प्रभाव

इस्लाम के अनुसार, इनसान एक इकाई (Unit) है। उसकी ज़िन्दगी के सभी पहलू एक-दूसरे से मिले हुए और परस्पर एक-दूसरे से जुड़े हुए (Interrelated) हैं। इनसान के सामाजिक जीवन का आर्थिक जीवन पर, आर्थिक का राजनैतिक पर, राजनैतिक का सामाजिक पर, सामाजिक का मनौवैज्ञानिक पर, मौवैज्ञानिक का नैतिक जीवन पर प्रभाव पड़ता है। केवल किसी एक पहलू के सही होने से इनसान का सही होना सम्भव नहीं।


इनसान जब एकेश्वरवाद अर्थात् एक और यकता ख़ुदा को मानता है, तो उसकी ज़िन्दगी के सभी पहलू प्रभावित होते हैं। एकेश्वरवाद के प्रभाव इनसान के जीवन के सामाजिक पहलू, व्यक्तिगत पहलू, आर्थिक पहलू, नैतिक पहलू, राजनैतिक पहलू, मनोवैज्ञानिक पहलू अर्थात् की ज़िन्दगी के हर पहलू पर पड़ते हैं।

 

इनसान के ध्यान का एक बिन्दू पर केन्द्रित होना
एकेश्वरवाद का मानना इनसान को एकाग्रचित (Single minded) बनाता है। इस तरह इनसान की सभी योग्यताएँ बढ़ जाती हैं। जैसे सूरज की किरणें बिखरी होती हैं, मगर जब वे एक उन्नतोदर दर्पण या मुहद्दब शीशे (Sunglass) में से पास होती है, तो एक बिन्दु पर केन्द्रित होकर आग लगा देती हैं, या इसे दूसरे उदाहरण द्वारा इस तरह समझ सकते हैं कि पानी का एक जहाज़ (Ship) हो, जिसका कोई कप्तान न हो और एक दूसरा जहाज़ हो, जिसका कोई कप्तान हो। नतीजा यह होता है कि बिना कप्तान का जहाज़ समुद्र की लहरों और हवा के थपेड़ों पर हिचकोले लेता रहता है और अपनी मंज़िल से भटक जाता है, जबकि वह जहाज़ जिसका कप्तान हो, अपनी मंज़िल तक पहुंच जाता है। एकेश्वरवाद एक पतवार वाले नाव के समान है, जो एकेश्वरवादी इनसान को अपने गन्तव्य और अन्तिम लक्ष्य तक पहुंचा देता है।

सम्पूर्ण सृष्टि के साथ एकता का एहसास

इनसान और सृष्टि का एक बनाने और चलानेवाला है। इस बात से इनसान में एकत्व का एहसास पैदा होता है। वह सब चीज़ों को अपनी ही तरह एक मालिक की मिल्कियत या एक स्रष्टा की सृष्टि मानकर सबके साथ अच्छा व्यवहार करता है। एकेश्वरवाद इनसान को व्यापक दृष्टि वाला और विशाल एवं उदार हृदय वाला बनाता है। ऐसा इनसान अपने लिए जो पसन्द करता है, वही दूसरों के लिए भी पसन्द करता है। वह सबको बराबर समझता है। वह सभी को इज़्ज़त और मुहब्बत का हक़दार समझता है, और किसी को तुच्छ या हक़ीर नहीं समझता।


आत्मविश्वास और आत्मसम्मान
एकेश्वरवाद अर्थात् यह मानना कि सब ख़ुदा पर निर्भर है और ख़ुदा किसी पर निर्भर (Depend) नहीं, इनसान को आज़ादी, और इज़्ज़त दिलाता है और खुद्दार बनाता है।


पैदा करने वाले से सीधे तौर पर सम्पर्क
यह मानना कि ख़ुदा हर इनसान के क़रीब है, उसे देखता और सुनता है, इनसान को इनसान की दासता से आज़ाद करता है और बिचौलिए (Middleman) की अवधारणा या कल्पना से आज़ादी देता है। इनसान हर तरह के अंधविश्वास से आज़ाद हो जाता है।


ख़ुदा का डर
डर दो तरह के होते हैं -
1.ख़ुदा का डर (Fear of God)
2.ग़ैर-ख़ुदा का डर (Fear of non-God)
अर्थात् अन्धेरा, भूत, जानवर, हानि, दुर्घटना और मौत इत्यादि का डर। ग़ैर-ख़ुदा का डर (Fear of non-God) इनसान पर नकारात्मक प्रभाव (Negative effects) डालता हे और उसे डरपोक और कमज़ोर बनाता है और ख़ुदा का डर इनसान पर सकारात्मक प्रभाव (Positive effects) डालता है और उसे बहादुर तथा ताक़तवर बनाता है। जब इनसान यह मानता है कि सफलता और असफलता, दुख और सुख, अमीरी और ग़रीबी, ज़िन्दगी और मौत, सम्मान और अपमान, हानि और लाभ, स्वास्थ्य और रोग, बल और निर्बलता सबका देने या न देने या देकर वापस लेनेवाला एक ख़ुदा है, तो इनसान एक बहादुर सिपाही, हिम्मतवाला व्यापारी, ईमानदार टीचर, सही डॉक्टर, भला इंजीनियर बनता है।


विनम्रता और सज्जनता
एक बेहद ताक़तवर और हमेशा रहनेवाले (Premanent) ख़ुदा को मानने का नतीजा यह होता है कि इनसान अपनी ताक़त को उसकी ताक़त के सामने कम और अस्थायी (Temporary) समझने लगता है। इसका असर यह होता है कि ऐसा इनसान जान लेता है कि ख़ुदा कमज़ोर का भी साथी है। इसका नतीजा यह निकलता है कि हक़ के रास्ते में वह कमज़ोर को ताक़तवर और ताक़तवर को कमज़ोर समझने लगता है और न्याय और इनसाफ़ की दृष्टि से काम करता है। इस तरह समाज से अत्याचार घटता है, बल्कि अत्याचार का ख़ातिमा हो जाता है और इनसान में विनम्रता पैदा होती है। लोग अत्याचार इसलिए करते हैं कि वे ख़ुद को बहुत ताक़तवर और अपनी ताक़त को हमेशा रहेनवाली (Permanent) समझने लगते हैं।


घमंड न करना
एकेश्वरवाद का मानना यह है कि इनसान समझे कि ख़ुदा ही देने, न देने और देकर वापस लेनेवाला है। इस बात का प्रभाव इनसान पर यह पड़ता है कि वह अपनी दौलत, ताक़त, योग्यता, क्षमता, और औलाद पर घमंड नहीं करता, बल्कि शुक्र करता है, अल्लाह का शुक्रगुज़ार बन्दा बनकर रहता है और सारे इनसानों का हितैषी बनने की हर संभव कोशिश करता है।


ख़ुदा इनसान को उसके अपने घर में ही अपमानित कर सकता है। उसके अपने बिस्तर और शरीर में क़ैद कर सकता है। उसके अपनों को ही उसका दुश्मन बना सकता है। इनसान को ख़ुद उसकी अपनी ताक़त को ही उसके लिए मुसीबत बना सकता है। इस बात का मानना इनसान को घमंडी होने से रोक देता है।
एकेश्वरवाद को मानते हुए इनसान जब सजदा करता है और अपनी नाक ज़मीन पर रखता है, तो व्यावहारिक रूप से ख़ुदा की बड़ाई के सामने अपनी तुच्छता या कमतरी का इज़हार करता है।


बेहद उम्मीदें
दुनिया की सारी तरक़्क़ियों और आविष्कारों (Discoveries) के पीछे एक चीज़ होती है और वह है उम्मीद (Hope), कामयाबी की उम्मीद। प्रत्येक वैज्ञानिक उम्मीद के सहारे अपनी खोज, एवं शोध की शुरुआत करता है, जान-तोड़, कोशिश करता है, जो उसे कामयाबी तक ले जाती है।  जितनी ज़्यादा उम्मीद, उतनी ज़्यादा जान-तोड़ कोशिश और उतनी ज़्यादा कामयाबी।


उम्मीद इनसान को काम करने के लिए प्रेरित करती है-किसान को फ़सल की उम्मीद, रोगी को सेहत या स्वास्थ्य की उम्मीद, व्यापारी को लाभ की उम्मीद, विद्यार्थी को सफलता की उम्मीद, और सैनिक को जीत की उम्मीद ही जान-तोड़ कोशिश के लिए उभारती है।


इनसान जब एकेश्वरवाद को मानता है, तो फिर वह एक ऐसे ख़ुदा को मानता है जिसके कंट्रोल में हर चीज़ है। कोई भी उसके क़ाबू से बाहर नहीं। वह जब चाहे और जो चाहे कर सकता है। वह कभी और किसी भी असफलता को सफलता में, दुख को ख़ुशी में और ग़रीबी को अमीरी में बदल सकता है। इस तरह एकेश्वरवाद का माननेवाला इनसान कभी निराश नहीं होता, निराशा का शिकार नहीं होता। वह हमेशा आशावान (Hopeful) रहता है, आशा एवं उत्साह से भरा (Optimistic) रहता है, निराशा, उदासी और विषाद (Depression) से सुरक्षित रहता है और आत्महत्या कभी नहीं करता।


एकेश्वरवाद को माननेवाला व्यक्ति अपनी सभी सफलताओं और असफलताओं का श्रेय (Credit) ख़ुदा को देता है। नतीजा यह होता है कि वह सफलता पर घमंड नहीं करता और असफलता पर निराश नहीं होता, बल्कि सफलता पर ख़ुदा शुक्र अदा करता और असफलता पर धीरज रखता है।


ख़ुदा की चेतना
एकेश्वरवाद का माननेवाला यह मानता है कि ख़ुदा है और वह सब कुछ देख और सुन रहा है। वह एहसास उसे सारी बुराइयों से बचा लेता है और उसे हर तरह की अच्छाइयां करने के लिए उभारता है। ऐसा इनसान अपने हर वादे को ख़ुदा से किया हुआ वादा (Promise) जानता और मानता है ऐसा इनसान अपनी कथनी और करनी में पूरा उतरने की कोशिश करता है, ऐसा इनसान लोगों का पूरा-पूरा हक़ अदा करनेवाला बनता है, जिससे समाज में आपसी विश्वास (Mutual trust) और सामाजिक न्याय (Social justice) और शुभेच्छा (Well-wishing) पैदा होती है।

 

ख़ुदा के साथ होने का एहसास (Presense of God) इनसान को हर समय होशियार (Alert) रखता है।
ख़ुदा हर चीज़ को जानता है, यह एहसास इनसान के मामलों को बदल देता है। आज दुनिया में जो संकट या समस्या (Crisis) नज़र आती है, उसका कारण कहीं अत्याचार है और कहीं अत्याचार की प्रतिक्रिया--कभी ताक़तवर की तरफ़ से और कभी कमज़ोर की तरफ़ से।

 

ख़ुदा के होने का एहसास इनसान को न्याय और अन्याय के वर्गो में सोचना सिखाता है अर्थात् न्याय क्या है और अन्याय क्या, इसमें इनसान को एक एहसास अच्छी तरह वाक़िफ़ कराता है, न कि मेरा लाभ मेरी हानि, मेरी पसन्द और मेरी नापसन्द के वर्गो में।


आज दुनिया शान्ति और सलामती की बात करती है, त्याग और इनसाफ़ की नहीं, जबकि शान्ति और सलामती नतीजा है न्याय और इनसाफ़ का। सिर्फ़ एकेश्वरवाद (तौहीद) का एहसास ही इनसान को न्याय और इनसाफ़ करने वाला बनाए रखता है और हमेशा बनाए रख सकता है।


सच्चाई
एकेश्वरवाद को मानकर इनसान सच्चाई को पसन्द करने वाला (Truth-loving person) बन जाता है। वह हमेशा सच बोलता है, क्योंकि उसका ख़ुदा सच्चाई को पसन्द करता है। सच्चा इनसान सही बात कहता है चाहे वह उसके अपने माँ-बाप के ख़िलाफ़ ही क्यों न हो। सच्चाई इनसान को उसूली या सिद्धान्तप्रिय (Man of principle) इनसान बनाती है। इस तरह व्यक्ति और फिर समाज कपटाचार या मुनाफ़क़त (Hypocrisy, Double standard)से मुक्त हो जाता है।


इच्छाओं को काबू में करना

इनसान और उसकी इच्छाओं के बीच दो में से एक ही रिश्ता हो सकता है-या तो इनसान इच्छाओं को कंट्रोल करे या इच्छाएँ इनसान को कंट्रोल करें। जब इनसान एकेश्वरवाद अर्थात् एक और सिर्फ़ एक-ख़ुदा को मानता है तो ख़ुदा की मर्ज़ी के सामने अपनी मर्ज़ी और इच्छाओं को त्याग देता है। इस तरह उसकी इच्छाएँ उसके क़ाबू में रहती है।


ग़ुस्से को क़ाबू में करना
इनसान और उसके ग़ुस्से के बीच दो में से एक ही रिश्ता होता है--इनसान ग़ुस्से को कंट्रोल करे या ग़ुस्सा इनसान को कंट्रोल करे। जब इनसान ऐकेश्वरवाद को मानता है, तो ख़ुदा केआदेश को मानता है।

ख़ुदा भले और अच्छो बन्दों के बारे में कहता है
‘‘जब उन्हें गुस्सा आता है, तो माफ़ कर देते हैं।'' (क़ुरआन, 42:37)
अन्तिम ईशादूत हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) ने कहा-
‘‘जिस किसी ने अपने ग़ुस्से को रोका, अल्लाह क़ियामत के दिन उससे अपनी 
यातना को रोक लेगा।'' (बैहक़ी : शोबुल-ईमान)
समाज के ग़ुस्से के कारण बहुत हानि पहुंचती है। भरे हुए जेलख़ाने, अदालतें
अस्पताल इसके उदाहरण हैं।


मानसिक स्वास्थ्य
इनसान की सोच का उसके आचारण और काम पर पभाव पड़ता है। सोच और आचरण का रिश्ता ऐसा है, जैसे बैल और बैलगाड़ी काः जिधर बैल जाएगा, उधर गाड़ी भी जाएगी।
दिमाग़ एक बाग़ की तरह होता है। जब उसकी देख-भाल नहीं की जाती तो उसमें बिगाड़ पैदा हो जाता है। नकारात्मक सोचों (Negative Thoughts) के साथ रचनात्मक ओर सकारात्मक काम नहीं हो सकता।


जब हम एकेश्वरवाद को मानते हैं, तो हमारा मानसिक स्वास्थ्य (Mental Health) भी अच्छा रहता है और हम मानसिक प्रदूषण (Mental Polution) भी नहीं फैलातेः क्योंकि ख़ुदा चुग़ली, दोषारोपण और लम्बी-लम्बी छोड़ने को नापसन्द करता है। ख़ुदा किसी के प्रति अच्छा विचार रखने को पसन्द करता है। टोह, लेने, भ्रम, ग़लत धारणा आदि बुरी बातों को ख़ुदा नापसन्द करता है। हम इनसे बचते हैं और सेहतमन्द रहते हैं


विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा दी गई स्वास्थ्य की परिभाषा
‘‘शारीरिक, मानसिक, मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक (धार्मिक) दृष्टि से सही होने की संतुलित सतह का नाम स्वास्थ्य है, न कि बीमारी के न होने का।''


विश्वास का संकट
आज की दुनिया में बुराई का अनुपात अच्छाई के मुक़ाबले में लगातार बढ़ रहा है और समाज में विश्वास का संकट पैदा हो रहा है।
बाप ने अपने बच्चे से कहा, ‘‘ झूठ मत बोलो।'' फिर अगर कोई मिलने आता है, तो ख़ुद कहता है कि कह दो, ‘‘घर पर नहीं है।'' शिक्षक कहता है, ‘‘ईमानदार बनो।'' मगर ख़ुद क्लास नहीं लेता। नेता कहता है, ‘‘अपने देश के लिए क़ुरबानी दो।'' और वह ख़ुद देश को अपने ऊपर क़ुरबान कर रहा है। इन परिस्थितियों में नई पीढ़ी के सामने कोई ‘आदर्श प्रतिरूप' (Role Model) या ‘आदर्श' लक्ष्य नहीं है। नतीजा यह होता है कि वह भोग-विलास और मनोरंजन (Entertainment and Fun) को ही अपना आदर्श बना लेती है।


कथनी और करनी का यह विरोधाभास विश्वास के संकट का कारण बन गया है। लेकिन एकेश्वरवाद ही एक ऐसी विचारधारा है जो इस बीमारी को ख़त्म कर सकती है, क्योंकि एकेश्वरवाद का माननेवाला जानता है कि ख़ुदा उससे कहता है-


‘‘वह बात कयों कहते हो, जो करते नहीं ?'' (क़ुरआन, 61:3)


धरती पर स्वर्ग 
दुनिया में बहुत-सी विचारधाराएँ पैदा हुईं और उनके अनुसार अनगिनत व्यवस्थाएँ (Systems) अस्तित्व में आईं और अनेक प्रकार के दर्शन पैदा हुए। जैसे- साम्यवाद (Communism), पूंजीवाद (Capitalism), समाजवाद (Socialism) इत्यादि। इन सबका लक्ष्य ‘संसार में स्वर्ग स्थापित करना' अर्थात् एक ऐसा समाज बनाना था, जिसमें पूर्ण न्याय हो, शान्ति हो, ख़ुशी हो, ख़ुशहाली हो, मगर आज तक ये सारी कोशिशें असफल रही है, यहाँ तक कि आज दुनिया में एक विचारधारा-सम्बन्धी शून्य (Ideological Vaccum) पैदा हो गया है। इसका कारण क्या है ? इसका कारण एकेश्वरवाद से लोगों की दूरी है, क्योंकि सिर्फ़ और सिर्फ़ एकेश्वरवाद ही एकमात्र विचारधारा है जिसे मानकर और जिसपर चलकर संसार को स्वर्ग बनाया जा सकता है। इनसान जितना ज़्यादा एकेश्वरवाद को मानेगा, उतनी ज़्यादा बुराई दुनिया से ख़त्म होगी।


एकेश्वरवादद को माननेवाले का उदेश्य ख़ुदा की ख़ुशी हासिल करना होता है और ख़ुदा की राज़ी करने के लिए इनसान को झूठ बोलना छोड़ना होगा, दुनिया से झूठ कम होगा, ख़ुदा को राज़ी करने के लिए इनसान को घूस लेना छोड़ना होगा, दुनिया से घूस कम होगा, ख़ुदा को राज़ी करने के लिए इनसान को अन्याय और अत्याचार बन्द करना होगा, दुनिया से अन्याय और अत्याचार कम होगा। ख़ुदा को राज़ी करने के लिए इनसान को भ्रष्टाचार (Corruption) छोड़ना होगा, दुनिया से भ्रष्टाचार कम होगा।


जबावदेही और जिम्मेदारी का एहसास

एकेश्वरवाद को मानने का मतलब यह है कि यह माना जाए कि ख़ुदा ने इनसान को पैदा किया और उसकी ज़िन्दगी को दो हिस्सों में बाँटा--मौत से पहले की ज़िन्दगी (Pre-death Life) और मौत के बाद की ज़िन्दगी (Post-death Life) और इनके बीच में मौत (Death) को रखा। पहली ज़िन्दगी परीक्षा के लिए है और यह अस्थायी और क्षण-भंगुर है और दूसरी ज़िन्दगी सज़ा या इनाम के लिए है और वह हमेशा रहने वाली है और दोनों के बीच मौत एक स्थानान्तरण (Transfer) है।


ख़ुदा है, देख रहा है और उसका सामना करना है। वह इनसान के विचारों को अवचेतन में, इनसान की बातों को आवाज़ की लहरों में और इनसान के कामों को उर्जा की लहरों के रूप में रिकॉर्ड कर रहा है।
यह मानना इनसान में ज़िम्मेदारी और जवाबदेही का एहसास पैदा करता है और वह दूसरों का भला चाहने और हक़ और अधिकार देने वाला और अन्याय और अत्याचार न करने वाला बनता है।
अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) ने कहा-
‘‘परलोक (आख़िरत) में हर आदमी को चार सवालों का जवाब देना होगा: ज़िन्दगी कहाँ गुज़ारी ? जवानी कहाँ गुज़ारी ? दौलत कैसे कमाई ? दौलत कहाँ ख़र्च की ?''


उम्मीद और डर
एकेश्वरवाद का मानना अर्थात् यह मानना है कि ख़ुदा अत्यन्त दयावान है, माफ़ करनेवाला है, मगर न्याय और इनसाफ़ करनेवाला और कठोर सज़ा देने वाला भी है। यह बात इनसान को उम्मीद और डर के बीच रखती है, क्योंकि अगर केवल उम्मीद ही उम्मीद हो, तो इनसान ढीठ हो सकता है और बेझिझक गुनाह कर सकता है, लेकिन अगर केवल डर ही डर हो तो इनसान निराशा का शिकार हो सकता है।
उम्मीद और डर के बीच वाली स्थिति हज़रत अबूबक्र सिदीक़ (रज़ि0) के कथन से पूरी तरह स्पष्ट हो जाती है, जिसमें उन्होंने कहा है-
‘‘अगर आसमान से आवाज़ आए कि एक आदमी दुनिया में से नरक में जाएगा, तो मैं, समझूँगा कि वह मैं हूँ और अगर आसामन से आवाज़ आए कि एक आदमी दुनिया में से स्वर्ग में जाएगा, तो मैं समझूँगा कि वह मैं हूँ।''


हर समय सतर्क
एकेश्वरवाद का मानने वाला यह मानता है कि ख़ुदा मालिक (Lord) है और मैं दास (Slave)। तब उसकी पूरी ज़िन्दगी इबादत अर्थात् दासता (Slavery) बन जाती है। इस तरह वह हर समय (Full Time) ख़ुदा के सम्पर्क (Contact) में रहता है। इस्लाम इनसान के लिए कोई पार्ट टाइम (Part Time) चीज़ नहीं है, बल्कि यह इनसान की पूरी ज़िन्दगी पर छाया हुआ है। ऐसा आदमी हमेशा सतर्क और सावधान रहता हैं।


इनसानों का सुधार
इनसान का दो तरीक़ों से सुधार किया जा सकता है-अंदर से बाहर की तरफ़ और बाहर से अन्दर की तरफ़।
एक तरीक़ा यह है कि क़ानून, ताक़त या सज़ा का डर पैदा करके इनसान को बुराई करने से रोका जाए और दूसरा तरीक़ा यह है कि अन्दर अर्थात् अक़ीदा (धर्म के प्रति आस्था एवं विश्वास) के द्वारा (ख़ुदा है, देख सकता है और उसका सामना करना है)। इस्लाम इसी दूसरे तरीक़े को अपनाता है, क्योंकि समाज में ऐसे भी लोग होते हैं जो बेहद ताक़तवर हैं, जिन्हें क़ानून और ताक़त आदि किसी चीज़ का डर नहीं होता। उन्हें केवल एकेश्वरवाद की धारणा ही ठीक रख सकती है। यह धारणा अथवा आस्था सामाजिक चेतना पैदा करती है। एकेश्वरवाद का मानने वाला एक ज़िन्दा ख़ुदा को मानता है। इसलिए वह कभी लाल बत्ती नहीं तोड़ता, सरकारी सम्पत्ति को बरबाद नहीं करता। एकेश्वरवाद का मानने वाला एक अच्छा पिता, एक अच्छा पति, एक अच्छा मैनेजर, अच्छा नेता, अच्छा व्यापारी, अच्छा सैनिक, अच्छा शिक्षक, अच्छा डॉक्टर, अथवा इंजीनियार और अच्छा क्लर्क साबित होता है।