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इस्लाम का आरम्भ

नाम : इस्लाम का आरम्भ
लेखक : अबुल आला मौदूदी

  
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बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम।
          ‘‘ईश्वर के नाम से जो अत्यन्त कृपाशील, बड़ा ही दयावान है।'' 
इस्लाम का आरम्भ 
 
इस्लाम की शुरुआत उसी वक़्त से है, जब से इंसान की शुरुआत हुई है। इस्लाम के मायने हैं, ‘‘ख़ुदा के हुक्म का पालन''। और इस तरह यह इंसान का पैदाइशी धर्म है। क्योंकि ख़ुदा ही इंसान का पैदा करने वाला और पालने वाला है इंसान का अस्ल काम यही है कि वह अपने पैदा करने वाले के हुक्म का पालन करे।
 

जिस दिन ख़ुदा ने सब से पहले इंसान यानी हज़रत आदम और उन की बीवी, हज़रत हव्वा को ज़मीन पर उतारा उसी दिन उसने उन्हें बता दिया कि देखो:  ‘‘तुम मेरे बन्दे हो और मैं तुम्हारा मालिक हूँ। तुम्हारे लिए सही तरीक़ा यह है कि तुम मेरे बताये हुए रास्ते पर चलो। जिस चीज़ का मैं हुक्म दूँ उसे मानो और जिस चीज़ से मैं मना करूँ, उससे रुक जाओ। अगर तुम ऐसा करोगे तो मैं तुम से राज़ी और खुश रहूँगा और तुम्हें इनाम दूंगा। लेकिन अगर तुम मेरे हुक्म को नहीं मानोगे तो मैं तुम से नाराज हूँगा और तुम्हें सज़ा दूंगा।‘‘बस यही इस्लाम की शुरुआत थी।


बावा आदम और अम्मा हव्वा ने यही बात अपनी औलाद को सिखाई। कुछ दिन तक तो सब लोग इस तरीक़े पर चलते रहे। फिर उन में ऐसे लोग पैदा होने लगे, जिन्होंने अपने पैदा करने वाले का हुक्म मानना छोड़ दिया। किसी ने दूसरों को ख़ुदा बना लिया, कोई ख़ुद ख़ुदा बन बैठा, और किसी ने कहा कि मैं आज़ाद हूँ। जो कुछ मन में आएगा करूंगा, चाहे ख़ुदा का हुक्म कुछ भी हो। इस तरह दुनिया में कुफ़्र की शुरुआत हुई और कुफ़्र का मतलब होता है।

 

‘‘ख़ुदा का हुक्म मानने से इंकार करना।''
जब इंसानों में कुफ़्र बढ़ता ही चला गया और इस की वजह से ज़ुल्म, अत्याचार, बिगाड़ और बुराइयाँ बहुत बढ़ने लगीं तो अल्लाह तआला ने अपने नेक बन्दों को इस काम पर लगाया कि वे इन बिगड़े हुए लोगों को समझायें और उन को फिर से अल्लाह तआला का फ़रमाँबरदार बनाने की कोशिश करें। ये नेक बन्दे नबी और पैग़म्बर कहलाते हैं। ये पैग़म्बर कभी थोड़े और कभी ज़्यादा दिनों के बाद दुनिया के अलग-अलग देशों और क़ौमों में आते रहे। ये सब बड़े सच्चे, ईमानदार और पाकीज़ा लोग थे। इन सबने एक ही मज़हब की तालीम दी। और वह यही इस्लाम था। आप ने हज़रत नूह , हज़रत इब्राहीम, हज़रत मूसा (अलैहि0) के नाम तो ज़रूर सुने होंगे, ये सब ख़ुदा के पैग़म्बर थे और इनके अलावा हज़ारों पैग़म्बर और भी दुनिया में आये हैं।


पिछले कई हज़ार साल की तारीख़ में हमेशा यही होता रहा कि जब कुफ़्र ज़्यादा बढ़ा, तो किसी बुज़ुर्ग और महापुरुष को पैग़म्बर बना कर भेजा गया। उन्होंने आकर लोगों को कुफ़्र और नास्तिकता से रोकने और इस्लाम की तरफ़ बुलाने की कोशिश की। कुछ लोग उनके समझाने से मान गये और कुछ अपने कुफ़्र पर अड़े रहे। जिन लोगों ने मान लिया वह मुसलमान कहलाये और उन्होंने अपने पैग़म्बर से बेहतरीन अख़्लाक़ और अच्छे आचार सीख कर दुनिया में नेकी और भलाई फैलानी शुरू की। फिर इन मुसलमानों की औलाद धीरे-धीरे ख़ुद इस्लाम को भूल कर कुफ़्र के चक्कर में फंसती चली गई और किसी दूसरे पैग़म्बर ने आकर नये सिरे से इस्लाम को ताज़ा किया। यह सिलसिल जब हज़ारों साल तक चलता रहा और इस्लाम को बार-बार ताज़ा करने के बावुजूद फिर भुला दिया गया तो अल्लाह तआला ने सबसे आख़िर में हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को पैग़म्बर बना कर भेजा। आप ने इस्लाम को ऐसा ताज़ा किया कि आज तक वह क़ायम है और क़ियामत तक क़ायम रहेगा। 


हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) आज से 1452 वर्ष पहले अरब के मशहूर शहर मक्का में पैदा हुए थे। उस वक़्त सिर्फ़ अरब ही नहीं, दुनिया के किसी भी देश में इस्लाम बाक़ी नहीं रहा था। हालाँकि पिछले पैगम्बरों की तालीम और शिक्षा का थोड़ा बहुत असर तो नेक लोगों में अवश्य मौजूद था।, लेकिन ख़ुदा के हुक्मों का ऐसा पालन जिसमें किसी दूसरे का आज्ञापालन न हो, पूरी दुनिया में कही भी न पाया जाता था। इसी वजह से लोगों के अख़्लाक़ और स्वभाव भी बिगाड़ गये थे। लोग ख़ुदा को भूल कर तरह-तरह की बुराइयों में फंस गये थे। इन हालात में हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) ने दुनिया में आँखें खोलीं। चालीस साल की उम्र तक वे अपने शहर में एक चुप इंसान की तरह ज़िन्दगी गुज़ारते रहे।


  सारा शहर आप की सच्चाई और ईमानदारी की वजह से आप की इज़्ज़त करता था, मगर किसी को यह नहीं मालूम था। कि यही शख़्स आगे चलकर दुनिया का सबसे पहान पथ प्रदर्शक और सबसे बड़ा रहनुमा बनने वाला है। आप (सल्ल0) भी दुनिया की बुराइयों को देख-देख कर दिल ही दिल में कुढ़ते थे मगर इसलिए चुप थे कि आप को वह तरीक़ा मालूम न था, जिस से इस बिगड़ी हुई दुनिया को ठीक कर दें। जब आप चालीस साल के हो गये तो ख़ुदा ने आप को अपना पैग़म्बर बनाया और यह काम आप के सिपुर्द किया कि पहले अपनी क़ौम को और फिर दुनिया भर के इंसानों को कुफ़्र छोड़ देने और इस्लाम अपना लेने के लिए समझायें। 


इस काम पर लग जाने के बाद आप (सल्ल0) ने अपने शहर के लोगों से खुल्लम-खुल्ला कहना शरू किया कि तुम ख़ुदा को छोड़कर दूसरों की बन्दगी और पूजा न करो। तुम्हारा मालिक और पैदा करने वाला सिर्फ़ ख़ुदा है। तुम को उसी की इबादत करनी चाहिए। तुम्हें उसी का हुक्म मानना चाहिए। ज़्यादातर लोग आप की यह बात सुनकर आप का विरोध करने लगे। उन्होंने हर तरह से हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) की ज़ुबान बन्द करनी चाही। लेकिन क़ौम के जितने भी सच्चे और अच्छे लोग थे, वे धीरे-धीरे आप के साथी बनते चले गये। फिर मक्का से बाहर अरब के दूसरे इलाक़ों में भी आप का पैग़ाम पहुँचने लगा। और वहाँ भी यही हुआ कि जाहिल और नासमझ लोग तो विरोध और मुख़ालफ़त करने लग गये, मगर जो लोग समझदार और नेक थे, वे आप की सच्ची बातों को मानते और उन पर ईमान लाते चले गये। तेरह साल तक यह सिलसिला इसी तरह चलता रहा। एक ओर मुहम्मद (सल्ल0) की दावत देश में फैल रही थी और हर जगह नेक और अच्छे लोग इस्लाम क़ुबूल करते और अपनाते जा रहे थे। दूसरी ओर नासमझों का विरोध दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा था और इसी तरह से मुसलमानों पर अत्याचार बढ़ते जा रहे थे। आख़िरकार मक्का के सरदारों ने आपस में साज़िश रची कि एक रात अचानक मुहम्मद (सल्ल0) पर हमला करके उनकी हत्या कर दें और उस के बाद मुसलमानो को नामो-निशान दुनिया से मिटा दें। 


जब नौबत यहाँ तक पहुँच गई तो ख़ुदा ने हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) को हुक्म दिया कि आप और सारे मुसलमान मक्का छोड़कर मदीना चले जायें। उस वक़्त मदीना में बहुत से लोग मुसलमान हो चुके थे और वे इस्लाम का बोलबाला करने के लिए अपनी जान और माल निछावर करने के लिए तैयार थे। चुनांचे हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) ठीक उसी रात को मक्का से मदीना की तरफ़ रवाना हो गये, जिस में आप की हत्या कर देने का फ़ैसला किया गया था। यही वह मशहूर घटना है जिस को हिजरत कहा जाता है और इसी वाक़िए की याद में सन् हिजरी शुरू हुआ है। 

हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) के मदीना पहुँचते ही मुसलमान भी अरब के हर कोने से सिमट-सिमट कर मदीना में इकट्ठा होने लगे और इस शहर में इस्लाम की बाक़ायदा हुकूमत क़ायम हो गई।


अब इस्लाम के मुख़ालिफ़ और विरोधी और भी ज़्यादा परेशान होने लगे। उन्होंने सोचा  कि पहले तो ये मुसलमान बिखरे हुए और बे-बस थे, उनको मिटा देना आसान था, मगर अब ये एक जगह जमा होते जा रहे हैं और उनकी अपनी हुकूमत बन गई है। अब अगर उनको ज़रा-सी छूट और ढील मिल गई तो फिर यह एक बड़ी ताक़त बन जायेंगे। इसलिए जल्द से जल्द कोशिश करनी चाहिए कि उन पर हमला करके, उन्हें हमेशा के लिए ख़त्म कर दिया जाये। इस ख़याल से मक्का के सरदारों ने हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) के ख़िलाफ़ लड़ाई छेड़ दी और सारे अरब की ताक़तों को इस्लाम के मुक़ाबले में जमा कर लिया। 


लेकिन वे न तो लड़ाइयों में हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) को हरा सके और न इस्लाम के प्रचार को किसी तरह रोक सके। उनकी सारी कोशिशों के बावुजूद इस्लाम अरब में फैलता चला गया । ख़ुद मुख़ालिफ़ों और विरोधियों में से अच्छे-अच्छे लोग टूट-टूट कर इस्लाम की तरफ़ आते चले गये। और पूरे आठ साल भी न होने पाये थे कि हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) ने ख़ुद मक्का हासिल कर लिया। मक्का पर विजय मिलनी थी कि सारे अरब में कुफ़्र की कमर टूट गयी। उसके बाद एक साल के अन्दर-अन्दर पूरे देश ने इस्लाम क़ुबूल कर लिया और बारह लाख वर्ग मील के इलाक़े में इस्लाम की एक ताक़तवर और शक्तिशाली हुकूमत क़ायम हो गई, जिसमें बादशाही ख़ुदा की थी, क़ानून शरीअत का था और इंतिज़ाम व व्यवस्था ख़ुदा के नेक बन्दों के हाथ में थी। इस हुकूमत में ज़ुल्म व अत्याचार, बद-सलूकी और बदकिरदारी का कहीं नाम व निशान तक न था। हर तरफ़ अमन व शान्ति थी, न्याय व इंसाफ़ था। सच्चाई थी।

 

ईमानदारी का राज था। और ख़ुदा के हुक्मों का पालन करने वाले बन जाने की वजह से लोगों में अच्छे अख़्लाक़ और बेहतरीन आदतें पैदा हो गयी थी। 
इस तरह हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) ने 23 साल के थोड़े से समय में अरब की पूरी क़ौम को बदल डाला और उस में ऐसी जान डाल दी कि वह न केवल ख़ुद मुसलमान बन गई बल्कि सारी दुनिया में इस्लाम का झण्डा बुलंद करने के लिए उठ खड़ी हुई। हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) यह अज़ीमुश्शान कारनामा अंजाम देने के बाद 63 साल की उम्र में दुनिया से रुख़सत हो गये। हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) के बाद उस काम को उनके अनुयायी यानी सहाबा ने संभाला, जिसके लिए आप (सल्ल0) इस दुनिया में आये थे। उन बुज़ुर्गों ने इस्लाम की तालीम अरब के बाहर दूसरे देशों में फैलानी शुरू की। और जो ताक़तें सच्चाई के रास्ते में स्कावट बनीं, उन को मुँह की खानी पड़ी। उन का रेला ऐसा ज़बरदस्त था कि किसी के रोकने से न रुक सका। कुछ ही सालो में वे सिंध से स्पेन तक फैल गये। उन के असर और प्रभाव से बड़ी-बड़ी कौमें मुसलमान हो गयीं। उन के क़दम जहाँ पहुँच गये, वहाँ से बे-इंसाफ़ी को फिर से ख़ुदा का ताबेदार बना दिया। अज्ञानता और जहालत में पड़े हुए लोगों को इल्म की रौशनी दी। इंसानियत से गिरे हुए लोगों को उठा कर अख़्लाक़ की बुलन्दी पर पहुँचाया। और अत्याचारियों को ज़ोर-तोड़ कर दुनिया में ऐसा इंसाफ़ क़ायम किया, जिस की मिसाल इंसानी तारीख़ में नहीं मिलती। 


हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) के बाद आप के सहाबा (रज़ि0) ने दूसरा बड़ा काम यह किया कि ख़ुदा की तरफ़ से हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) जो किताब लेकर आये थे, उसका उन्होंने एक-एक शब्द याद भी कर लिया और लिखकर भी हमेशा के लिए महफ़ूज़ कर दिया। यह उन्हीं बुज़ुर्गों की कोशिशों का नतीजा है कि आज हमारे पास क़ुरआन ठीक वैसा ही, उसी ज़ुबान में और उन्हीं शब्दों में मौजूद है, जैसा हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) ने चैदह सौ साल पहले ख़ुदा की ओर से पहुँचाया था। 


एक और काम सहाबा (रज़ि0) ने यह किया कि मुहम्मद (सल्ल0) की ज़िन्दगी के हालात, आप की तक़रीरें, आपके फ़रमान, आपकी बातें, आप के अख़्लाक़ व आदतें, यानी हर तरह की जानकारियाँ बाद में आने वाली नस्लों तक पहुँचा दीं। इससे दुनिया को यह फ़ायदा हुआ कि पैग़म्बर के जाने के बाद भी हर ज़माने के लोग पैग़म्बर को उसी तरह देख सकते हैं, जिस तरह ख़ुद पैग़म्बर की ज़िन्दगी में देख सकते थे। चैदह सौ साल बीत जाने के बाद भी आज हमें हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) की सीरत और जीवनी पढ़ कर यह पता चल जाता है कि ख़ुदा के हुक्मों पर चलने वाला बन्दा कैसा होना चाहिए और ख़ुदा किस तरह के आदमी को पसन्द करता है। 


यह दो चीज़ें यानी क़ुरआन और हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) की सीरत महफ़ूज़ हो जाने की वजह से इस्लाम दुनिया में हमेशा-हमेशा के लिए महफ़ूज़ हो गया है। पहले दुनिया में इस्लाम बार-बार ताज़ा होकर भी इस लिए भुलाया जाता रहा कि जो लोग पैग़म्बरों पर ईमान लाकर मुसलमान होते थे वे ख़ुदा की किताबों और उस के पैग़म्बरों की जीवनियों को सुरक्षित रखने की कोई ख़ास कोशिश नहीं करते थे। इस वजह से थोड़े-थोड़े समय बाद मुसलमानों की औलाद ख़ुद ही बिगड़ जाती थी लेकिन अब ख़ुदा की किताब और पैग़म्बर की सीरत दोनों सुरिक्षत हैं और इसी वजह से इस्लाम सदा के लिए क़ायम हो गया है। कभी ख़ुदा न करे इसकी ताज़गी में कुछ कमी आ भी जाये तो क़ुरआन और सीरते-मुहम्मदी की मदद से उस को फिर ताज़ा किया जा सकता है। यही वजह है कि अब दुनिया को किसी नये पैग़म्बर की ज़रूरत नहीं रही। अब इस्लाम को ताज़ा करने के लिए सिर्फ़ ऐसे लोग काफ़ी हैं जो क़ुरआन और सीरते-मुहम्मदी को अच्छी तरह जानें, उस पर अमल करें और दूसरों से उस पर अमल कराने की कोशिश करें।