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इस्लाम का ही अनुपालन क्यों ?

इस्लाम का ही अनुपालन क्यों ?

By Murshaf Ali

  
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इस्लाम का ही अनुपालन क्यों ?

सभी धर्म मूल रूप से अपने मानने वालों को अच्छी और भली बातकों की शिक्षा देते हैं, लेकिन इस्लाम इससे बढ़कर अपने मानने वालों को अच्छाई अपनाने और बुराइयों से दूर रहने का व्यावहारिक तरीक़ा बताता है। इस्लामी सिद्धांत और नियम मानव स्वभाव के अनुकूल भी है और यह बौद्धिक स्तर पर भी खरे उतरे हैं। आइए हम निष्पक्ष होकर देकें कि इस्लाम में क्या-क्या आकर्षण है!


                                                         इस्लाम की ओर आकर्षित करने वाले दस कारणः
1.स्पष्ट आस्था एवं अवधारणाः
इस्लाम की ओर आकर्षित करने वाला पहला कारण यह है कि इस्लामी आस्था एवं अवधारणा बिल्कुल स्पष्ट और आसानी से समझ में आने वाली है। इनमें किसी तरह की कोई पेचीदगी या उलझाव नहीं है। इन्हें समझने के लिए वह ज्ञान काफ़ी है जो प्रत्येक मनुष्य को स्वाभाविक रूप से प्राप्त है। जैसेः

(i)एकेश्वरवाद- एकेश्वरवाद के बारे में इस्लाम की मान्यता यह हैः
"अल्लाह यकता (प्रत्येक दृष्टि से एक, जिसमें किसी प्रकार की कोई अनेकता न हो) है। अल्लाह सबसे निर्पेक्ष है और सब उशके मुहताज हैं। न उसकी कोई संतान है और न वह किसी की संतान है। और कोई उसका समकक्ष नहीं।" (क़ुरआन; 112: 1-4)

इस्लाम की आधारशिला जिन मान्यताओं पर है उनमें सबसले ऊपर और सबसे महत्वपूर्ण ‘एक अल्लाह पर ईमान' है। केवल इस पर नहीं कि अल्लाह मौजूद है और केवल इस पर भी नहीं कि वह एक है, बल्कि इस पर भीन कि वही अकेला इस जगत पर रचयिता, स्वामी, शासक और पालनहार है उसली के बनाए रखने से यह सृष्टि बनी हुई है उसी के चलाने से यह चल रही है और इसकी हर चीज़ को अपने अस्तित्व के लिए जिस निर्वाह शक्ति या पोषण की आवश्यकता है उसले देने वाला भी वहू है। संप्रभुता के सारे गुण केवल उसी में पाए जाते हैं और उन गुणों में कोई लेशमात्र भी उसका साझी नहीं। उपास्य भी केवल वही है उपास्य का कोई भी गुण उसके सिवा किसी में नहीं पाया जाता। समंलस्त सृष्टि को और उसकी एक-एक चीज़ को वह एक दृष्टि से देख रहा है। सृष्टि और इसकी हर चीज़ को वह प्रत्यक्ष रूप से जानता है, न केवल उलसके वर्तमान को बल्कि उसके अतीत और भविष्य से भी वह अवगत है। यह व्यापक ज्ञान उसके सिवा किसी को प्राप्त नहीं।

 


(II) उपास्य के गुण- क़ुरआन में उपास्य (अल्लाह) के गुणों का उल्लेख करते हुए एक जगहब कहा गया हैः
"अल्लाह वह जीवंत शाशवत सत्ता है, जो संपूर्ण जगत को संभालते हुए उसके सिवा कतोई उपास्य नहीं है। वह न सोता है और न उसे ऊंघ लगती है। ज़मीन और आसमानों में जो कुछ है उसी का है। कौन है जो उसके सामने उसकी अनुमति के बिना किसी की कोई सिफ़ारिश भी कर सके। जो कुछ बन्दों के सामने है उसे वह जानता है और जो कुछ उनसे ओझल है उसे भी वह जानता है और उसलके (अल्लाह के) ज्ञान में से कोई चीज़ उनके (बन्दों के) ज्ञान की पकड़ में नहीं आ सकती। यह और बात है कि किसी चीज़ का ज्ञान वह ख़ुद ही उऩको देना चाहे। उसका सिंहासन आकाशों और धरती पर छाया हुआ है और उऩकी देख-रेख उनके लिए कोई थका देने वाला काम नहीं है। बस वही एक महान और सर्वोपरि सत्ता है।" (क़ुरआन; 2: 255)

क़ुरआन की इस आयत में ईश्वर के गुणों का वर्णन किया गया है कि उपास्य वह है जिसकी हस्ती कभी मिटने वाली नहीं है, जो किसी दूसरे के दिए हुए जीवन से नहीं बल्कि स्वयं अपने जीवन से जीवित है और उसके बल बूते पर समस्त जगत की व्यवस्था बनी हुई है। प्रभुता पूरी की पूरी किसी दूसरे की लेशमात्र भी साझेदारी के बिना उसी की है। सत्ता से समस्त अधिकारों का मालिक वह ख़ुद है कोई दूसरा न उसके गुणों में साझी है और न उसके अधिकारों में। वह हर तरह की इंसानी कमज़ोरियों से बहुत ऊंचा है। नींद आना तो दूर उसे कभी ऊंघ भी नहीं आती और वह हर समय अपनी सृष्टि की निगरानी करता है और हर समय हर किसी की ज़रूरत पूरी करने के लिए तैयार मौजूद होता है। धऱती और आकाशों में जो कुछ है उसी का है। आकाश कितना विस्तृत है इसका हम अनुमान नहीं लगा सकते। हां वैज्ञानिकों ने जो खोज की है उसके अनुसार हमारी पृथ्वी एक सौर मंडल का हिस्सा है और सौर मंडल आकाश गंगा का हिस्सा है। इस आकाश गंगा में अनुमानित दो लाख सौर मंडल हो सकते हैं और वैज्ञानिकों की खोज के अनुसार ऐसी दो लाख आकाश गंगाएं हैं। यह तो हुआ एक आकाश का अपूर्ण वर्णन और क़ुरआन में सात आकाशों का उल्लेख है हम अनुमान भी नहीं लगा सकते कि ईश्वर की सत्ता कितनी विस्तृत है। और इस विस्तृत सत्ता में जो कुछ भी है वह उसकी सृष्टि है और उसकी शासित है, उसके आदेशों का पालन करने वाली हैं, उसकी साक्षी या उसके समक्ष नहीं है। अर्थात ऐसा कोई भी नहीं जो उससे अपनी बात मनवा सके, बल्कि मनवाना तो दूर उसकी अनुमति के बिना उसके सामने सिफ़ारिश के लिए मुंह खोलने की हिम्मत भी कोई नहीं कर सकता, चाहे वह बड़े से बड़ा वली, पैग़म्बर या फ़रिश्ता ही क्यों न हो।

इस आयत में इसके बाद बताया गया है कि ईश्वर की असीम संप्रभुता और अबाध अधिकारों की तरह उसका ज्ञान भी सीमा से परे है। वह खुले, छिपे, भूत, वर्तमान, भविष्य सबका जानने वाला है। इसके विपरित इंसान, जिन्न, फ़रिश्ते या ईश्वर की कोई भी सृष्टि हो सबका ज्ञान सीमित है। इंसानों का हाल तो यह है कि उसे ख़ुद अपने भले-बुरे की समझ नहीं है। उसकी ज़रूरतों को भी सृष्टि का पालनहार ईश्वर ही जानता है और समझता है और उन्हें पूरा करने की व्यवस्था भी वही करता है। इंसान के पास तो उतना ही ज्ञान है जो अल्लाह ने अपनी कृपा से उसे दे रखा है।

आयत में एक बार फिर बताया गया है कि उसका सिंहासन धरती और आकाशों में छाया हुआ है अतः सात आकाशों जिनके विस्तार की कल्पना करने में भी हम असमर्थ हैं। और धरती के अन्तर्गत जो कुछ भी है ईश्वरीय सत्ता के अधीन है और इस विस्तृत जगत की व्यवस्था चलाने और उसकी देख-रेख करने में ईश्वर को कोई थकावट नहीं होती, जैसा कि अपने सीमित ज्ञान के कारण हम अक्सर सोचने लगते हैं।

इस्लामी अवधारणा के अनुसार उपास्य केवल वही हो सकता है, जो इस आयत में बनाई गई सारी शर्तें पूरी करता हो। अर्थात जिसमें यह सारे गुण मौजूद हों। अगर कोई एक गुण भी उसमें नहीं हो तो वह उपास्य नहीं हो सकता। दूसरे किसी भी धर्म में यह स्पष्ट नहीं है। कहीं त्रेश्वरवाद (Trinity) की कल्पना है, जो बिल्कुल स्पष्ट नहीं है ईश्वर एक भी है और तीन भी है। यह इतना गूढ़ विषय है कि उस धर्म के बड़े से बड़े ज्ञानी भी इसकी व्याख्या करने में असमर्थ हैं। कहीं सर्वशक्तिमान ईश्वर के अलग-अलग गुणों को भी अलग-अलग भगवान मान लिया गया है और उन्हें उपास्य बना लिया गया है। यहां भी ईश्वर की कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं है।

 

(iii)परलोक की स्पष्ट अवधारणा- ईश्वर और उपास्य की स्पष्ट मान्यता के अलावा इस्लाम में दूसरी अवधारणा भी बिल्कुल स्पष्ट है। इस्लाम मनुष्य को एक संपूर्ण जीवन व्यवस्था देता है। जो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में मनुष्य का मार्ग दर्शन करती है। मानव जीवन का कोई भी विभाग ईश्वरीय मार्ग दर्शन से ख़ाली नहीं है। इस्लामी आस्था के अनुसार मनुष्य धऱती पर अल्लाह का ख़लीफ़ा अर्थात प्रतिनिधि है। उसे यहां अल्लाह के बताए गए तरीक़े के अनुसार ज़िंदगी गुज़ारनी है। और फिर दुनिया में मरने के बाद अल्लाह के सामने हाज़िर होना है। और दुनिया में किए गए अपने सभी कर्मों का हिसाब देना है। इन्हीं कर्मों के आधार पर मनुष्य को पुरस्कार या दंड मिलेगा। पुरस्कार के रूप में उसे स्वर्ग मिलेगा और दृंड के रूप में नरक। स्वर्ग और नरक दोनों ही शाश्वत ठिकाने हैं अर्थात ईश्वर की आज्ञा का पालन करने वाले स्वर्ग में जाएंगे जहां वे हमेशा रहेंगे और ईश्वर की आज्ञा का पालन न करने वाले, संसार में मनमानी ज़िंदगी गुज़ारने वाले नरक में जाएंगे, जहां वे हमेशा रहेंगे।

 

(iv)ईशदूतत्व की अवघारणा- इस्लाम यह भी बताता है कि अल्लाह ने अपने आदेश मनुष्य तक पहुंचाने के लिए ख़ुद ज़मीन पर अवतार नहीं लिया, बल्कि इंसानों में से ही किसी को चुना और उसे अपना संदेशवाहक (रसूल या पैग़म्बर) बनाया। फिर ऐसी व्यवस्था की कि अल्लाह फ़रिश्ते के माध्यम से पैग़म्बर तक अपना संदेश भेजता और पैग़म्बर की यह ज़िम्मेदारी होती कि वे लोगों तक ईश्वर का पैग़ाम पहुंचा दे और उनके अनुसार जीवन गुज़ार कर नमूना भी लोगों को दिखा दे। नबी का काम केवल इतना ही नहीं है कि वह सच्चाई का ज्ञान लोगों तक पहुंचा दे बल्कि उसका काम यह बताना भी है कि इस ज्ञान के अनुसार मनुष्य और ईश्वर और मनुष्य और मनुष्य के बीच क्या संबंध व्यावहारिक रूप से होना चाहिए। यह संबंध किन आस्थाओं और मान्यताओं, किन इबादतों और उपासनाओं, किन नैतिक मूल्यों और सभ्यता के किन नियमों पर आधारित है और उस ज्ञान के अनुसार सामाजिक, आर्थिक, वित्तीय, राजनैतिक, न्यायिक, सामरिक, अंतर्राष्ट्रीय संबंध अर्थात जीवन के प्रत्येक विभाग की रचना किन नियमों पर होनी चाहिए। नबी केवल एक पूजा प्रणाली लेकर नहीं आता बल्कि एक पूरी जीवन व्यवस्था लेकर आता है। अल्लाह ने जिस सबसे पहले मनुष्य, हज़रत आदम, को दुनिया में भेजा उसे अपना पैग़म्बर चुना ताकि वे अपने संतान तक ईश्वर का आदेश पहुंचाएं और कोई भी मनुष्य उससे वंचित न रह जाए। अल्लाह ने संसार में हर जगह हर क्षेत्र में, हर क़ौम में और हर भाषा में अपने पैग़म्बर भेजे और अंत में हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) को भेजा। हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) के समय दुनिया इतनी विकसित हो चुकी थी कि उनकी शिक्षाओं को सुरक्षित रखा जा सका। अतः यह शिक्षाएं रहती दुनिया तक के लिए हैं अब अल्लाह का कोई भी पैग़म्बर दुनिया में आने वाला नहीं। हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) अल्लाह के आख़िरी पैग़म्बर हैं।
यह एक सर्वमान्य सच्चाई है कि नबी (सल्ल.) के बाद पिछले साढ़े चौदह सौ साल में कोई ऐसा व्यक्तित्व सामने नहीं आया जो अल्लाह का नबी (ईश्वर का भेजा हुआ दूत) होने का दावा करे और जो अपने आचरण और कर्म में ईशदूतों में कोई तुच्छ सी भी समानता रखता हो, जिसने ऐसा दावा किया हो कि उस पर आकाशवाणी होती है और उसने कोई ऐसी किताब भी प्रस्तुत की हो जो ईशवाणी से नाम मात्र की भी समानता रखती हो।
इस्लाम में यह अवधारणाएं इतनी स्पष्ट हैं कि जो भी इन्हें समझना चाहे वह बड़ी आसानी से समझ सकता है। साथ ही इस्लाम में ऐसी व्यवस्था भी है कि यह बातें समय-समय पर ताज़ा होती रहती हैं।


2.ईश्वर निर्मित एवं सुरक्षित नियमः
यह दूसरा कारण है जो इस्लाम की ओर आकर्षित करता है। इस्लाम केवल कुछ इबादतों का संग्रह नहीं है, बल्कि यह जीवन की संपूर्ण व्यवस्था है। इंसान के निजी, व्यक्तिक एवं सामूहिक जीवन से संबंधित जितने भी नियम हो सकते हैं वे सब क़ुरआन और हदीस में मौजूद हैं। सबसे ख़ास बात यह है कि यह सारे के सारे नियम किसी मनुष्य के बनाए हुए नहीं हैं, अर्थात यह हर दौर, हर ज़माने, हर समय और हर जगह के लिए समान रूप से लागू किए जाने योग्य हैं। चूंकि इन्हें सृष्टि के रचयिता ने स्वयं बनाया है, इसलिए इनमें किसी संशोधऩ एवं नवीनीकरण की भी आवश्यकता नहीं है। दुनिया चाहे कितनी भी उन्नति कर ले, हालात कुछ भी हो जाएं, इस्लाम के नियम ऐसे हैं कि उनकी उपयोगिता हर हाल में बनी रहेगी।
"आज मैने तुम्हारे लिए तुम्हारा दीन (धर्म) पूरा कर दिया है और तुम पर अपनी नेमत (अनुकम्पा) पूरी कर दी है और इस्लाम को तुम्हारे धर्म के रूप में स्वीकार कर लिया है। अतः (हराम और हलाल की जो पाबंदियां तुम पर लगाई गई हैं उनका पालन करो।)" (क़ुरआन- 5: 3)

 

यह केवल इस्लाम के अनुयायियों की आस्था मात्र नहीं है, बल्कि इतिहास साक्षी है कि ईश्वरीय ग्रन्थ क़ुरआन ईश्वर के आख़िरी पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) पर उतारा गया। यह बात भी प्रमाणित है कि मुहम्मद (सल्ल.) लिखना पढ़ना नहीं जानेते थे बल्कि उस समय के अरब समाज में जो लोग पढ़े-लिखे थे उन्हें उंगलियों पर गिना जा सकता था। अल्लाह के फ़रिश्ते हज़रत जिबरील (अलै.) अल्लाह के आदेश पर क़ुरआन की आयतें लेकर आते और उन्हें मुहम्मद (सल्ल.) को याद करा देते। फिर मुहम्मद (सल्ल.) यह आयतें अपने सहाबियों (साथियों) को याद करा देते। सहाबियों में से जो लोग लिखना पढ़ना जानते उनमें से किसी को अल्लाह के रसूल (सल्ल.) आदेश देते कि वे इन्हें लिख लें। फिर जब दूसरी आयत आती तो आदेश देते कि इसे उक्त आयत के पहले और उक्त के बाद लिख लें। प्रति वर्ष रमज़ान के महीने में हज़रत जिबरील (अलै) उस समय तक आ चुके क़ुरआन को अल्लाह के रसूल (सल्ल.) के साथ सुन लेते। इस तरह 23 वर्षों में पूरा क़ुरआन नाज़िल हुआ। इसे लिखने और याद करने का क्रम भी साथ-साथ चलता रहा। चूंकि इसे स्वयं उसी व्यक्ति ने संकलित किया है, जिस पर इसका अवतरण हुआ है, इससे प्रमाणित होता है ये वही शब्द हैं जो ईश्वर की ओर से आए हैं। दूसरे किसी भी ग्रन्थ के साथ ये बात नहीं है। क़ुरआन के ठीक पहले के अवतरण तौरात और इंजील को भी क्रमशः हज़रत मूसा (अलै.) और हज़रत ईसा (अलै.) के 300-350 वर्षों बाद दूसरे लोगों ने संकलित किया है, जिनकी भाषा भी अवतरण की भाषा नहीं थी।

 

इसके अतिरिक्त क़ुरआन का विषय वस्तु ख़ुद इस बात का प्रमाण है कि वह किसी मनुष्य की रचना नहीं बल्कि इसका रचयिता वही है जो सर्व जगत का रचनाकार है। इसमें जैसी ज्ञान एवं तत्वदर्शिता की बातें कही गई हैं वे किसी मनुष्य के ज्ञान की सीमा में नहीं आ सकती। बहुत सी बातें तो विज्ञान में अब मालूम की हैं, जबकि वे साढ़े चौदह सौ साल पहले ही क़ुरआन में लिख दी गई थीं। उदाहरण के रूप में हम देख सकते हैं क़ुरआन में गर्भाशय के भीतर भ्रूण के विकास में जो विभिन्न चरण बताए गए हैं, उनकी खोज विज्ञान ने अभी हाल में ही 1980 के आस पास की है। और बहुत से क्षेत्रों में विज्ञान अभी वहां नहीं पहुंच सका है जिसकी ओर क़ुरआन में इशारे किए गए हैं।
क़ुरआन के ईश्वरीय ग्रन्थ होने का एक प्रमाण उसकी साहित्यिक शैली भी है। उस स्तर की रचना मनुष्य के सामर्थ्य के बाहर है यह भी एक कारण है कि क़ुरआन में किसी शब्द का हेर-फेर नहीं किया जा सका। क़ुरआन की भाषा शैली मनुष्य द्वारा किए गए किसी भी हेर-फेर को स्वीकार ही नहीं कर सकती। इसके अलावा क़ुरआन में ईश्वर ने इसे ईश्वर की वाणी न मानने वालों को कई जगह चुनौती भी दी है कि अगर वे इसे ईश्वर की ओर से आया हुआ नहीं मानते हैं तो वे इसके जोड़ की एक पंक्ति ही तैयार कर लाएं और इसके लिए अपने सारे सहयोगियों से मदद ले लें।


"और (देखो !) यदि तुम्हें इस (वाणी) की सच्चाई में संदेह है जो हमने अपने बन्दे पर (यानि इस्लाम के संदेशवाहक पर) अवतरित की है तो (इसका फ़ैसला बहुत आसान है यदि वह केवल एक मानवीय बुद्धि की रचना है तो तुम भी मानव हो, कम नहीं) इसके जैसी एक सूरह (अध्याय) ही बना लाओ, और अल्लाह के अतिरिक्त जिन (शक्तियों) को तुमने अपना कार्य-साधक समझ रखा है उन सब को भी अपनी सहायता के लिए बुला लो, अगर तुम सच्चे हो। फिर यदि तुम ऐसा न कर सको (वास्तविक्ता यह है कि) कभी न कर सकोगे, तो उस आग की यातना से डरो (जो लकड़ी के स्थान पर) मानव और पत्थरों के ईंधन से सुलगती है (और) सत्य के इनकार करने वालों के लिए तैयार की गई है।" (क़ुरआन 2: 23-24)

 

इस तरह की चुनौतियां क़ुरआन में और भी कई जगहों पर दी गई हैं। साढ़े चौदह सौ साल से क़ुरआन की यह चुनौतियां आज भी बरक़रार हैं।
दूसरी ओर अल्लाह ने ऐसी व्यवस्था की है कि क़ुरआन की शिक्षाएं शत् प्रतिशत सुरक्षित हैं। एक तो इसकी भाषा शैली ऐसी है कि इसमें कोई फेरबदल नहीं किया जा सकता दूसरे इस किताब का चमत्कार यह है कि इसके हाफ़िज़ अर्थात इसे कंठस्त करने वाले दुनिया में हर जगह मौजूद हैं और हर दौर में रहे हैं। हालांकि इसकी भाषा अरब वासियों के अलावा सबके लिए अजनबी है, लेकिन इसके बावजूद यह किसी भी भाषा बोलने वालों की ज़ुबान पर बड़ी आसानी से जारी हो जाती है। एक आदमी चाहे उसकी भाषा जूलू हो, चीनी हो, तमिल हो या कोई और हो। चाहे वह मातृभाषा के अलावा किसी भी भाषा को बोलने में असमर्थ हो, लेकिन जब वह मन लगाकर क़ुरआन पढ़ता है तो उच्चारण की कोई ग़लती नहीं करता और छोटे-छोटे बच्चे इस मोटी किताब को ज़ुबानी याद कर लेते हैं। क़ुरआन के अलावा दूसरी किसी किताब में यह विशेषता नहीं है कि उसे ज़ुबानी याद किया जा सके। यहां तक कि दूसरे धर्मों के बड़े-बड़े पंडितों को भी उसके धर्म ग्रन्थ ज़ुबानी याद नहीं होते। क़ुरआन को ज़ुबानी याद करने वाले (हाफ़िज़) लाखों करोड़ों की संख्या में दुनिया के कोने-कोने में मौजूद हैं और क़ुरआन उनके सीनों में सुरक्षित है। इस लिए इसमें किसी शब्द या अक्षर तो क्या किसी मात्रा को भी बदला नहीं जा सकता।


3.उपास्य और उपासक का सीधा सम्बंधः
इस्लाम की बहुत बड़ी विशेषता जो इस्लाम को एक स्वाभाविक धर्म प्रमाणित करती है यह है कि इसमें उपासक का उपास्य से सीधा सम्बंध होता है, बीच में कोई वाया मीडिया नहीं होता। दूसरे सभी धर्मों ने उपास्य और उपासक के बीच माध्यम खड़े कर रखे हैं। यहूदियत, ईसाइयत हो या हमारे देशबंधुओं का हिन्दु धर्म हो, आम आदमी अपने उपास्य से सीधा संपर्क नहीं कर सकता उसे काहिन, पादरी या पुजारी का सहारा लेना पड़ेगा। इसके बिना कोई इबादत नहीं होती। लेकिन इस्लाम में ऐसे किसी माध्यम का वजूद नहीं है। उपासक अपने उपास्य से, बन्दा अपने आक़ा से, सृष्टि अपने स्रष्टा से सीधा संपर्क करती है। उपास्य और उपासक की उपासना के बीच किसी ग़ैर का हस्तक्षेप नहीं है। बन्दे ने अगर गुनाह किया है तो उसे किसी पादरी के सामने Confession करने की ज़रूरत नहीं है वह सीधे अल्लाह के सामने तौबा करे। उससे माफ़ी मांगे। रोए गिड़गिड़ाए और आगे ऐसा न करने का वादा करे, तो अल्लाह की ओर से खुली घोषणा है कि वह उसे माफ़ कर देगा। अल्लाह इस बात को पसंद करता है कि बन्दा अपनी ग़लतियों के लिए उससे माफ़ी मांगे और वह उसे माफ़ करे। क़ुरआन में अल्लाह बन्दों से कहता हैः
"तुम मुझे पुकारो मैं तुम्हारी पुकार को सुनूंगा।" (क़ुरआन- 40:60)

"उसी (ईश्वर) को पुकारना सच्चा पुकारना है। जो लोग उसके सिवा दूसरों को पुकारते हैं, वे पुकारने वालों की कुछ नहीं सुनते। उनकी उपमा ऐसी है जैसे एक आदमी (प्यास की तीव्रता से) दोनों हाथ पानी की ओर फैलाएं कि बस (इस प्रकार करने से) पानी उसके मुंह तक पहुंच जाएगा, हालांकि वह उस तक पहुंचने वाला नहीं, और (विश्वास करो !) सत्य के इनकार की पुकार इसके अतिरिक्त कुछ नहीं कि टेढ़े रास्ते में भटकना है।" (क़ुरआनृ 13:14)

इतना ही नहीं इस्लाम में ख़ुदा बार-बार अपने बन्दों को संबोधित करता है। कहीं उसे, ऐ मेरे बन्दों! "ऐ मेरे बन्दा ! जो मुझ पर ईमान लाए हो, विश्वास करो कि मेरी धरती बहुत विस्तृत है (और टुकड़ों में विभाजित नहीं है) अतः (मेरे ही आगे झुको और) मेरी ही बन्दगी करो। प्रत्येक जीव को मृत्यु का स्वाद चखना है। फिर तुमको हमारी ओर लौटाया जाएगा। और जो लोग ईमान लाए होंगे और अच्छे कर्म करते रहे होंगे उन्हें हम अवश्य जन्नत में ऐसे उच्च कक्षों में ठिकाने देंगे, जिनके नीचे नहरें बह रही होंगी वे उनमें सदैव रहेंगे। यह कर्म करने वालों के लिए कितना उत्तम बदला होगा ! जिन्होंने धैर्य से काम लिया और अपने पालनहार पर भरोसा रखते रहें और कितने ही पशु (अर्थात जीवधारी) हैं जो अपनी आजीविका उठाए नहीं फिरते। अल्लाह उन्हें भी रोज़ी देता है और तुम्हें भी। वही अच्छी तरह सुनने और जानने वाला है।" (क़ुरआन- 29:56-60)

कहीं ऐ आदम के बेटों- "ऐ आदम की संतान ! हमने तुम्हारे लिए ऐसा परिधान उत्पन्न कर दिया है जो शरीर को ढकता है और ऐसी चीज़ भी जो बनाव-श्रंगार का साधन है तथा तुम्हें परहेज़गारी (संयम) का मार्ग दिखा दिया कि वह समस्त परिधानों से उत्तम परिधान है। यह अल्लाह (के अनुग्रह एवं अनुकम्पा) की निशानियों में से एक निशानी है ताकि लोग सदोपदेश ग्रहण करें।" (क़ुरआन- 7:26)

कहीं ऐ लोगों- "ऐ लोगों ! उपासना करो अपने पालनहार की (उस पालनहार की) जिसने तुम्हें पैदा किया और उन सब को भी पैदा किया, जो तुमसे पहले गुज़र चुके हैं। अतः उसकी अवज्ञा से बचो।" (क़ुरआन- 2:21)

कहीं ऐ ईमान लाने वालों- "ऐ लोगों जो ईमान लाए हो ! ब्याज की कमाई से अपना पेट न भरो जो (मूलधन से मिलकर) दोगुनी, चौगुनी हो जाती है अल्लाह से डरो (और उसकी अवज्ञा से बचो।) ताकि अपने उद्देश्य में सफल हो सको।" (क़ुरआन- 3:130)

यहां तक की कहीं ऐ मेरा इनकार करने वालों- "ऐ इनकार करने वालों ! आज बहाने न बनाओ, तुम्हें उसी का बदला मिलेगा जो तुम करते रहे हो।" (क़ुरआन- 66:7)

इस तरह अल्लाह बार-बार इंसानों को संबोधित करता है और जीवन बिताने का तरीक़ा सिखाता है।
हर तरह के धार्मिक कर्मों की अदाएगी इस्लाम का मानने वाला ख़ुद कर सकता है। उसे बीच में किसी को लाने की ज़रूरत नहीं। यह बहुत बड़ी आज़ादी है जो इस्लाम के मानने वालों को प्राप्त है। यानि धर्म के मामले में इस्लाम इंसानों को इंसानों की ग़ुलामी से छुटकारा दिलाता है। इस्लाम का मानने वाला हर आदमी अपना आप काहिन, प्रीस्ट, पोप और ब्रह्मण है।

4.संतुलनः
इस्लाम के नियमों का संतुलित होना इस्लाम के अनुपालन के लिए प्रेरित करने का एक बड़ा कारण है। इस्लाम के नियम बहुत ही संतुलित हैं। इसमें किसी भी प्रकार की अति नहीं पाई जाती। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में संतुलन अपनाने की शिक्षा दी गई है। क़ुरआन ख़ुद कहता है कि दीन आसान है, मुश्किल नहीं। इस्लाम अपने मानने वालों को कभी भी मुश्किल में नहीं डालता। यह आदमी पर उतना ही बोझ डालता है, जितना वह सहन कर सकेः
"अल्लाह किसी प्राणी पर उसकी सहन शक्ति से बढ़कर ज़िम्मेदारी का बोझ नहीं डालता।" (क़ुरआन- 2:28)

इस्लामी आदेश मानव स्वभाव के ठीक अनकूल है। क़ुरआन के अनुसारः
"जहां तक तुम्हारे बस में हो अल्लाह से डरते रहे।" (क़ुरआन- 64:16)

मोटे तौर पर इस्लाम के दो विभाग हैं - अल्लाह का हक़ और अल्लाह की सृष्टि का हक़। इस्लाम के अनुयायियों के लिए यह दोनों ही हक़ अदा करना ज़रूरी है। इन दोनों ही तरह के हक़ की अदायगी में संतुलन का बड़ा महत्व है। अल्लाह का हक़ अदा करना है, मगर ऐसा न हो कि अल्लाह का हक़ अदा करने में अल्लाह के बन्दों का हक़ मारा जाए। माता-पिता के अधिकार हैं। पत्नी एवं बच्चों के अधिकार हैं, मित्रों एवं पड़ोसियों के अधिकार हैं, रिश्तेदारों के अधिकार हैं, यहां तक की अजनबी लोगों और दुश्मनों के भी अधिकार हैं और इन सब में संतुलन बना के चलना है, पेड़ पौधों के अधिकार हैं पशु पक्षियों के अधिकार हैं, नदी एवं पहाड़ों के भी अधिकार हैं। ऐसा न हो कि एक ओर झुकाव हो जाए और दूसरे पक्ष का अधिकार हनन होने लगे।


अल्लाह की इबादत करनी है, उसके आदेशों का पालन होना ही चाहिए, सामान्य स्थिति में किसी को इसमें कोई छूट नहीं दी गई है लेकिन यह भी अपेक्षित नहीं है कि आदमी संसार और उसकी सुख सुविधाओं को त्याग दे। बर्फ़ीले पहाड़ों पर धौनी रमा दे या जंगलों में कुटिया बना ले। शरीर को कष्ट में डाले और दिन-रात पूजा अराधना में लीन रहे। इस्लाम इससे सख़्ती से रोकता है और बताता है कि- "इस्लाम में सन्यास नहीं" (हदीस)

 

लोगों पर उनके शरीर का भी अधिकार है। उसे कष्ट में डालने की अनुमति नहीं। समाज का भी अधिकार है। सुसमाज के निर्माण में प्रत्येक व्यक्ति का योगदान होना चाहिए। समाज का प्रत्येक सदस्य एक दूसरे से उसी प्रकार जुड़ा है जिस प्रकार किसी दीवार की ईंटे आपस में जुड़ी होती हैं। इस लिए इस्लाम अपने मानने वालों से अपेक्षा करता है कि वे समाज में रहते हुए सारी सामाजिक ज़िम्मेदारियों को पूरा करते हुए अल्लाह की इबादत करे। बल्कि अल्लाह के आदेशों के अनुसार निजी और सामूहिक जीवन बिताना भी इवादत है। अपनी बीवी बच्चों के लिए हलाल कमाई के लिए मेहनत करना भी इबादत है यहां तक कि पत्नी के साथ रहना भी इबादत है अगर इसमें ईश्वरीय आदेशों का पालन किया जाए। इबादत का यह वृहद अर्थ इस्लाम के सिवा कहीं देखने को नहीं मिलता है। दोनों अतियों से बचते हुए इस्लाम संतुलन की शिक्षा देता है। अल्लाह ने क़ुरआन में अपने संदेशवाहक मुहम्मद (सल्ल.) से कहा-
"आप कह दीजिए कि मेरे पालनहार स्वामी ने संतुलन का मार्ग अपनाने का आदेश दिया है।" (क़ुरआन- 7:29)

 

अल्लाह ने समस्त जगत की रचना ही संतुलन के आधार पर की है। आकाश, आकाशीय, पिंड, तारों और ग्रहों की रचना की और उनमें संतुलन स्थापित किया और उसी संतुलन के कारण यह सिस्टम बना हुआ है, इनका संतुलन अगर थोड़ा भी बिगड़ जाए तो सारी सृष्टि अस्त-व्यस्त हो जाए। इस लिए अल्लाह ने क़ुरआन में कई जगह इस संतुलन को न बिगाड़ने का आदेश दिया है-
"अल्लाह ने आकाश को ऊंचा किया और संतुलन स्थापित कर दिया फिर तुम इस संतुलन में बिगाड़ न पैदा करो।" (क़ुरआन- 54:7-8)

लेकिन मनुष्य ने ईश्वर के आदेशों का पालन नहीं किया और पर्यावरण संतुलन बिगाड़ कर रख दिया।
"थल और जल में लोगों के कर्मों के कारण बिगाड़ फैल गया है, ताकि अल्लाह उन्हें उनके कर्मों का कुछ स्वाद चखाए, संभव है कि वे (कुमार्ग से) रुक जाएं।" (क़ुरआन- 30:41)

 

आर्थिक मामलों में संतुलन की शिक्षा देते हुए इस्लाम कहता है कि बीच का संतुलित मार्ग अपनाओ न ही कंजूस और जमाख़ोर बनकर धन के बहाव को रोको और न ही फ़िज़ूलखर्ची कर के अपनी आर्थिक स्थिति को चौपट कर लो-
"न ही अपना हाथ गर्दन से बांध कर रखो और न उसे बिल्कुल भी खुला छोड़ दो।" (क़ुरआन- 17:29)

बल्कि अल्लाह ईमान वाले बन्दों की विशेषता बताते हुए कहता है-
"और वे लोग जब व्यय करते हैं तो न अपव्यय करते हैं और न कंजूसी करते हैं, बल्कि उनका ख़र्च (व्यय करना) दोनों के मध्य संतुलित होता है।" (क़ुरआन- 25:67)

 

समाज की आर्थिक दशा को संतुलित बनाए रखने के लिए इस्लाम समाज के संपन्न वर्ग को बार-बार प्रेरित करता है कि वे समाज के कमज़ोर वर्गों की आर्थिक सहायता करें-
"नेकी और भलाई (का मार्ग) यह नहीं है कि तुमने (इबादत के समय) अपना मुख पूर्व की ओर फेर लिया या पश्चिम की ओर कर लिया (या इसी प्रकार की कोई बात प्रचलन और परंपरा की अपना ली) नेकी का मार्ग तो उन लोगों का मार्ग है, जो अल्लाह पर, परलोक (आख़िरत) के दिन पर, फ़रिश्तें पर, आकाशीय किताबों पर और अल्लाह के समस्त नबियों (सदेशवाहकों) पर ईमान लाते हैं। अल्लाह के प्रेम के मार्ग में अपना धन रिश्तेदारों, अनाथों, निर्धनों, यात्रियों और मांगने वालों को देते हैं और ग़ुलामों (दासों) को स्वतंत्र कराने के लिए ख़र्च करते हैं, नमाज़ स्थापित करते हैं, ज़कात अदा करते हैं, अपनी बात के पक्के होते हैं। जब वचन दे देते हैं तो उसे पूरा कर के रहते हैं। तंगी या मुसीबत की घड़ी हो या भय और आशंका का समय हो हर स्थिति में धैर्य रखने वाले (और अपने मार्ग पर जमे रहने वाले) होते हैं, तो निस्संदेह ऐसे ही लोग होते हैं जो भलाई के मार्ग में सच्चे हुए और यही हैं जो बुराइयों से बचने वाले लोग हैं।" (क़ुरआन- 2:177)

बल्कि अपनी वार्षिक आय का ढाई प्रतिशत दान करना तो इस्लाम ने सम्पन्न वर्ग पर अनिवार्य रखा है-
"ताकि दौलत तुम्हारे मालदारों के बीच ही सिमट कर न रह जाए।" (क़ुरआन- 59:7)

 

संतुलन को इस्लाम ने इतना महत्व दिया है कि हर हाल में संतुलित रहने पर ज़ोर दिया है। प्रेम और घृणा जो मनुष्य की स्वाभाविक भावनाएं हॆं और सामान्यतः मनुष्य इनमें सीमा से आगे बढ़ जाता है, इस्लाम इनमें भी संतुलित रहने की शिक्षा देता है बल्कि इसके व्यावहारिक नमूने नबी (सल्ल.) और सहाबा (रज़ि.) के जीवन में मौजूद है। दुश्मनी में भी इन्साफ़ का दामन न छोड़ने का आदेश देते हुए क़ुरआन कहता है-
"ऐ अल्लाह के समर्पित लोगों ! ऐसे हो जाओ कि अल्लाह (की सत्यता) हेतु दृढ़ता से जमे रहने वाले न्याय के लिए गवाही देने वाले बनो, और (देखो !) ऐसा कभी न हो कि किसी गिरोह की शत्रुता तुम्हें इस बात के लिए उभार दे कि (उसके साथ) न्याय न कर सको। (हर परिस्थिति में) न्याय करो, यही ईशपरायणता के अधिक निकट है। और अल्लाह (की अवज्ञा के परिणामों) से डरो। तुम जो कुछ करते हो वह उसकी ख़बर रखने वाला है।" (क़ुरआन- 5:8)

 

हिंसा अत्याचार और एक दूसरे का अधिकार हनन मानव समाज में किसी न किसी रूप में हमेशा मौजूद रहता है। इसे नियंत्रित करने के लिए इस्लाम ने पीड़ित को यह अधिकार दिया है कि वह अत्याचारी का हाथ पकड़े क़ानूनी प्रावधानों के अनुसार उनसे बदला ले, मगर बदले की शर्तें यह रखी की वह अत्याचार के अनुपात में हो। पीड़ित इतना भी बदला न ले कि ख़ुद अत्याचारी बन जाए। साथ ही यह बात भी कही गई कि क्षमा कर देना और उसके साथ समझौता कर लेना अल्लाह को ज़्यादा प्रिय है-
"बुराई का बदला वैसी ही बुराई है। किन्तु जो क्षमा कर दे और समझौता कर ले तो उसका प्रतिदान अल्लाह पर है। वह अत्याचारी और अन्यायी से प्रेम नहीं करता। और जो अपने उत्पीड़न के पश्चात अत्याचार का बदला ले तो उस पर कोई आरोप नहीं। आरोप तो उन पर है जो स्वयं लोगों पर अत्याचार करते हैं और धरती में बिगाड़ फैलाते हैं, यही लोग हैं जिनके लिए अत्यंत दुखद यातना है।" (क़ुरआन- 42:40-42)

 

इसी तरह सुख-दुख, खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने, चलने-फिरने अर्थात जीवन के प्रत्येक मामलों में संतुलन की शिक्षाएं क़ुरआन और हदीसों में मौजूद है और उसका व्यावहारिक नमूना भी हमारे सामने है।

 

महिला अधिकार के मामले में भी इस्लाम के नियम संतुलन पर आधारित हैं। इस्लाम औरत को औरत रख कर उसे पुरुषों की तरह ही मानवाधिकार देता है, जबकि दूसरी जगह यह बात नहीं है। पश्चिमी सभ्यता जिसकी आज कल हर कोई दुहाई देता दिखाई देता है, महिला को उस समय तक कोई सम्मान और कोई अधिकार नहीं देती जब तक वह एक कृत्रिम पुरुष बन कर पुरुषों का दायित्व उठाने को तैयार न हो जाएं। इस्लाम इसके विपरित महिला को सम्मान, प्रतिष्ठा और सारे मानवाधिकार महिला रख कर ही देता है और केवल उन्हीं ज़िम्मेदारियों का बोझ उस पर डालता है जो प्रकृति ने उस पर डाल रखा है। महिलाओं को पारिवारिक संपत्ति में अधिकार देते हुए क़ुरआन कहता है-
"मां-बाप और संबंधीजनो के तरका (उत्तराधिकार में मिली संपत्ति) में, थोड़ा हो या बहुत लड़कों का हिस्सा है और इसी प्रकार मां-बाप और संबंधीजनों के तरका (उत्तराधिकार में मिली संपत्ति) में लड़कियों का भी हिस्सा है (उत्तराधिकारी होने की दृष्टि से दोनों बराबर हैं)। और यह हिस्सा (अल्लाह का) ठहराया हुआ है।" (क़ुरआन- 4:7)

 

संतुलन पर आधारित इस्लाम के इन आदेशों का पालन कोई मुश्किल काम नहीं है, यह नियम मानव स्वभाव के अनुकूल है। लेकिन आज हालात और माहौल की वजह से कुछ चीज़े बहुत मुश्किल मालूम होती हैं, जबकि सच्चाई यह है कि ये बिल्कुल मुश्किल नहीं है। संतुलन बनाए रखना बहुत आसान है।


5.जीवित भाषाः
इस्लाम की ओर आकर्षित होने का एक महत्वपूर्ण कारण यह है कि इस जीवन व्यवस्था की शिक्षाएं जिस भाषा में है वह एक जीवित भाषा है।
"हमने इसे अरबी क़ुरआन के रूप में अवतरित किया है ताकि तुम समझो-बूझो।" (क़ुरआन- 12:2) 

इतना लंबा समय बीतने का कोई प्रतिकूल प्रभाव इस भाषा पर नहीं पड़ा। सामान्य रूप से भाषाओं का जीवन इतना लंबा नहीं हुआ करता है। दो-तीन सदियों में भाषाएं बदलते-बदलते कुछ की कुछ हो जाती हैं। 15 सदियों तक जीवित रहने का और अपने मूल रूप में जीवित रहने का श्रेय अरबी के अलावा किसी भाषा को प्राप्त नहीं। पूरे अरब क्षेत्र में आज भी वही भाषा बोली और समझी जाती है जो आज से 1500 वर्ष पहले प्रचलित थी अरब के विभिन्न भागों में कुछ शब्दों और उच्चारण का अंतर उस समय भी था और अब भी है। समय के साथ-साथ नए शब्द आ गए हैं, कुछ शब्द बदल गए हैं, लेकिन मूल रूप से भाषा वहीं है। क़ुरआन व हदीस आज भी वहां की मानक साहित्य रचना है। दूसरे ईशग्रन्थों के साथ ऐसा नहीं है। क़ुरआन से ठीक पहले के दो ईशग्रन्थों की अलग बात करें तो वे जिन भाषाओं में अवतरित हुई थीं वे कुछ सदियों बाद मिट गईं और दूसरी भाषाओं ने उनका स्थान ले लिया। 

 

क़ुरआन और हदीस का एक और अच्छा पहलू यह है कि वे दुनिया में जहां भी गईं अपनी मूल भाषा में गईं। हर भाषा जानने वालों को समझने के लिए इनका अनुवाद तो किया गया मगर मूल भाषा को भी साथ-साथ रखा गया। जिस भाषा में भी इसका अनुवाद हुआ मूल अरबी से हुआ, कहीं भी अनुवाद से अनुवाद नहीं हुआ इस लिए अर्थ के अलग होने का मामला इसके साथ नहीं हुआ जैसा कि दूसरे ग्रन्थों के साथ हुआ।
भाषा का इतने लंबे समय तक जीवित रहना, किसी भी भाषा-भाषी के लिए इसको सीखने में आसानी और हर जगह अनुवाद के साथ मूल भाषा का मौजूद होना स्पष्ट करता है कि यह सब ईश्वरीय योजना के तहत हो रहा है।


6.व्यावहारिक नमूनाः
इस्लाम के अनुपालन के लिए प्रेरित करने वाली इसकी एक बहुत बड़ी विशेषता यह है कि इसकी शिक्षाओं और इसके आदेशों का व्यावहारिक नमूना मौजूद है। निस्संदेह सभी धर्म अच्छी और भली बातें करते हैं। नैतिकता और आध्यात्म की शिक्षा देते हैं। समान रूप से धर्मों का यह विभाग समानता लिए हुए हैं। उपासना और अराधना के तरीक़े प्रत्येक धर्म में अलग-अलग हैं। धर्मों में जुड़ी परंपराओं और प्रचलनों में भी बड़ी विभिन्नता पाई जाती है, लेकिन नैतिक मूल्य सभी धर्मों में बराबर महत्व के हैं। सभी धर्म अच्छी और भली बातों की शिक्षा देते हैं। झूठ, चोरी, अन्याय, अत्याचार आदि को सभी धर्म बुरा समझते हैं और अपने अनुयायियों से अपेक्षा करते हैं कि उनका आचरण पवित्र हो। लेकिन अंतर यह है कि अन्य धर्मों में ये शिक्षाएं मात्र शिक्षाएं ही हैं, जबकि इस्लाम इसके अनुपालन का ठोस आधार प्रदान करता है। वह मानव जीवन पर पड़ने वाले इनके प्रभावों को बड़े ही तारकिक ढंग से प्रस्तुत करता है और इसे मृत्यु के बाद के जीवन से जोड़ता है। दुनिया में किए गए भले कामों के लिए परलोक में अच्छा बदला मिलने का यक़ीन दिलवाता है और बुराई के बदले बुरे परिणाम की चेतावनी देता है। इसके अलावा इस्लाम इन नैतिक नियमों के पालन का व्यावहारिक नमूना भी प्रस्तुत करता है।
अल्लाह ने अपनी किताब में मानवता की भलाई और सफलता के जो नियम बताए और जिन नियमों का उल्लेख अल्लाह के रसूल (सल्ल.) ने अपनी हदीसों में किया, उन सबको उन्होंने अपने जीवन में बरत कर दिखा दिया।


इस्लाम के पैग़म्बर (सल्ल.) के जीवन का प्रत्येक क्षण जन्म से लेकर मृत्यु तक उनके ज़माने के लोगों के सामने रहा और अब उन लोगों के बाद इतिहास के पात्रों में दर्ज है। मुहम्मद (सल्ल.) के जीवन की कोई संक्षिप्त से संक्षिप्त अवधि भी ऐसी नहीं है कि वे अपने आस-पास के लोगों की नज़रों से ओझल रहे हों। जन्म, बाल्यावस्था, बचपन, किशोरावस्था, व्यस्क होने का काल, जवानी, व्यापार, यात्राएं, विवाह, नबी बनने से पहले के संघी-साथी, सामाजिक कामों और समाज सेवा में अभिरुचि, संधि में शरीक रहना, धीरे-धीरे लोगों से मिलन-जुलना कम कर देना, अकेलापन पसंद करना, पूरे-पूरे दिन के लिए ‘हिरा' नामी गुफा में बैठ जाना, फिर ईश्वरीय प्रकाशना का आना, इस्लाम का उदय, इस्लाम का आह्वान, प्रचार-प्रसार, विरोध, मक्का से मदीना पलायन, युद्ध, संधि, पत्र लिखवा कर दुनिया भर में शासकों को इस्लाम की ओर बुलाना, दीन का पूर्ण होना, आख़िरी हज और मृत्युः यह सारे काम दुनिया के सामने हुए एक पल के लिए भी आप दुनिया की निगाहों से ओझल नहीं रहे।


नबी (सल्ल.) के पवित्र साथियों ने उनके जीवन के एक-एक पल को रिकार्ड कर लिया या लिखने वालों तक पहुंचा दिया। वे मस्जिद में हों, सहाबियों के बीच हों, यात्रा कर रहे हों, बाज़ार में हों या कहीं और, यहां तक की आपकी पवित्र पत्नियों ने अकेले में गुज़ारे हुए उनके समय का उल्लेख भी लोगों के सामने कर दिया। इस बात पर पूरी दुनिया सहमत है कि मुसलमानों ने अपने पैग़म्बर की और न केवल पैग़म्बर की बल्कि हर उस चीज़ की और हर उस व्यक्ति की जिसका थोड़ा सा भी संबंध रसूल (सल्ल.) के साथ था, जिस तरह सुरक्षा की है वह अपने आप में एक कारनामा है।


उन लोगों में जो नबीं (सल्ल.) के कथन, व्यवहार और जीवन से जुड़ी बातों का उल्लेख या लेखन करते थे, सहाबा, और उनके बाद की कई पीढ़ियां शामिल हैं। जब नबी (सल्ल.) के जीवन का पूरा वृतांत लिखित रूप में आ गया तो उन सभी उल्लेखकर्ताओं के नाम पते, उनका जीवन-काल, उनके चाल-चलन और उनके पेशों को भी लिखित रूप में लाया गया उनकी संख्या एक लाख के क़रीब है। यानि इस्लाम ने अपने पैग़म्बर के जीवन वृतांत को सुरक्षित रखने के लिए एक लाख लोगों को भी इतिहास के पन्नों में अमर कर दिया, ताकि जो कोई भी मुहम्मद (सल्ल.) की जीवनी पढ़े उसके सामने साढ़े चौदह सौ साल पहले का पूरा नक़्शा आ जाए।


हालांकि यह बहुत ही कठिन होता है। दुनिया में कहीं और इसकी कोई मिसाल नहीं मिलती है। बेहतरीन दृष्टिकोण और आदर्श सिद्धांत तो कई समाज सुधारकों और धर्मों के संस्थापकों ने प्रस्तुत किए, लेकिन उसका व्यावहारिक नमूना कोई प्रस्तुत न कर सका। वे मौलिक आदर्श, दृष्टिकोण या स्वर्णाक्षरों से लिखे जाने वाले कथन किस काम के अगर उनके साथ उनका व्यावहारिक नमूना मौजूद न हो, नबी (सल्ल.) ने न केवल यह कि अपने बिताए नियमों पर ख़ुद अमल किया, बल्कि सहाबा (रज़ि) से एक ऐसा समाज बनाकर दिखा दिया जो सामूहिक जीवन से ज़ुड़ी इस्लामी शिक्षाओं का जीवंत उदाहरण था। एक ऐसा समाज जो अल्लाह का अपेक्षित समाज था। एक ऐसा समाज जो न पहले कभी बना था और न उसके बाद कभी बन पाया।


इस्लामी शिक्षाओं ने वह आदर्श समाज एक ऐसी क़ौम से बनाया जो दुनिया की सबसे असभ्य और उजड क़ौम समझी जाती थी। यह सच्चाई है कि अरब समाज इस्लाम से पहले पूरी दुनिया में बदनाम था। सभ्यता और संस्कृति से दूर एक उजड और बर्बर क़ौम, जिससे सभ्य दुनिया की क़ौमें पनाह मांगती थीं। यहां तक कि उस ज़माने के विश्व विजेताओं ने भी अरब पर शासन करने का साहस नहीं किया। यही कारण है कि अरब पर कभी क़ानून का शासन नहीं रहा। हर क़बीला आज़ाद था (हां क़बीलों ने अपने स्तर पर कुछ नियम बना रखे थे)। छोटी-छोटी बातों पर युद्ध छिड़ जाता तो कई पीढ़ियों तक चलता। मगर जब यही लोग इस्लाम से परिचित हुए और इस्लामी नियमों के अन्तर्गत इनका प्रशिक्षण हुआ तो इनकी काया पलट गई। ये इतने सभ्य और शिष्ट हो गए कि दुनिया में सभ्यता का प्रतीक बन गए। वही दुनिया जो इनकी उजडता के कारण इनसे दूर भागती थी, इनसे सभ्यता और शालीनता सीखने लगी। इनके चाल-चलन और आचार-विचार से प्रभावित होकर एक बड़ी आबादी इस्लाम के क़रीब आ गई।


इस बारे में एक और ध्यान देने योग्य बात यह है कि चूंकि अल्लाह के रसूल (सल्ल.) पूरी दुनिया के लिए एक अनुकरणीय नमूना बनाकर भेजे गए थे इसलिए आपके जीवन में हर व्यक्ति के लिए नमूना मौजूद है। कोई व्यक्ति अगर व्यापारी है तो आपके व्यापार के तरीक़े को देखे, अगर पति है तो ख़दीजा और आइशा के पति से मिले, अगर सिपाही है तो बदर और उहद के सेनापति से शिक्षा ले, अगर शिष्य है तो मस्जिद नबवी के बाहर चबूतरे पर बैठे लोगों के गुरु की शरण में आ जाए। अगर पिता है तो ज़ैनब और फ़ातिमा के पिता से सीख ले, नाना है तो हसन और हुसैन के नाना का स्नेह देखे। अर्थात जीवन के जिस क्षेत्र से भी उसका संबंध है, नबी (सल्ल.) के जीवन में उसे अपने लिए एक नमूना मिल जाएगा।

7.नबी (सल्ल.) के सच्चे और बलिदानी साथीः
यह भी एक कारण है जो इस्लाम के ईश्वरीय धर्म होने का प्रमाण भी है और इसके अनुपालन के लिए प्रेरित भी करता है। इस्लाम की सत्यता को जन-जन तक पहुंचाने का काम अल्लाह के रसूल (सल्ल.) के देहांत के बाद रुक नहीं गया, बल्कि आपने इस्लाम से परिचित होने वाले हर व्यक्ति पर यह ज़िम्मेदारी डाल दी कि वह उसे उन लोगों तक पहुंचाए, जिन तक यह नहीं पहुंचा है। अपने अंतिम हज के अवसर पर जब अल्लाह के रसूल (सल्ल.) ने सवा लाख लोगों को संबोधित करते हुए कुछ उपदेश दिए तो यह भी कहा, "हमने अल्लाह का दीन तुम लोगों तक पहुंचा दिया अब वे लोग जो यहां मौजूद नहीं है, इसे उन लोगों तक पहुंचाएं जिन तक यह नहीं पहुंचा है।" अतः आपके साथियों (सहाबा) ने इसे दुनिया के कोने-कोने तक पहुंचाया। सहाबा (रज़ि.) इस्लाम की शिक्षाओं का ऐसा सच्चा जीवंत नमूना थे कि वे जहां भी गए, लोग उनके स्वभाव से प्रभावित होकर इस्लाम के निकट आए। यही कारण है कि ख़ुद अल्लाह ने क़ुरआन में सहाबा (रज़ि.) की प्रशंसा करते हुए कहा है-

                        और मुहाजिरों (मक्का से पलायन कर मदीना आने वाले) और अनसार (मुहाजिरों को शरण देने वाले) में जो लोग सबसे पहले आगे बढ़ने वाले, सबसे पहले ईमान लाने वाले और वे लोग जिन्होंने निष्ठा के साथ उनका अनुसरण किया, तो अल्लाह उनसे प्रसन्न हुआ और वे अल्लाह से प्रसन्न हुए और अल्लाह ने उनके लिए (शाशवत नेमत के) बाग़ तैयार कर दिए जिनके नीचे नहरें बह रही हैं (और इस लिए वे सूखने वाली नहीं) वे सदैव उस (अनुग्रह और आनंद के जीवन) में रहेंगे और यह है बहुत बड़ी सफलता। (क़ुरआन- 9:100)


एक दूसरा पहलू इसका यह भी है कि जो सहाबी आप (सल्ल.) के जितना निकट था वह उतना ही अधिक आप पर जान निछावर करता था। आम तौर पर किसी महापुरुष के बहुत नज़दीक रहने वाले लोग उसकी महानता को स्वाकार नहीं करते, क्योंकि उसके जीवन के नकारात्मक और कमज़ोर पहलूओं से भी वे अवगत होते हैं। लेकिन अल्लाह के रसूल (सल्ल.) जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ थे और मानवता के लिए नमूना थे इसलिए जो सहाबी (रज़ि.) आपको जितना ज़्यादा जानते थे वे उतना ही ज़्यादा आप पर जान देते थे और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में नबी (सल्ल.) के तरीक़े का पालन करते थे।


8.वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित शिक्षाएः
इस्लाम की ओर आकर्षित होने का एक बड़ा कारण यह है कि इसकी सारी की सारी शिक्षाएं, मान्यताएं और अवधारणाएं वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित हैं। वस्तु स्थिति से हट कर इसमें कोई बात नहीं कही गई है। जो बात भी है वह तारकिक है और बुद्धि को अपील करने वाली है।
अल्लाह के रसूल (सल्ल) पढ़ना लिखना नहीं जानते थे। अरब में पढ़े लिखे लोगों को उंगलियों पर गिना जा सकता था, लेकिन क़ुरआन और हदीस की शिक्षाओं को देख कर दुनिया हैरान है कि इतनी गहरी और गूढ़ जानकारियां इसमें कहां से आ गईं। ऐसा ज्ञान तो उस समय के सबसे आधूनिक और विकसित समाज के पास भी नहीं था, जो दुनिया के मार्गदर्शक कहे जाते थे और जिनका दुनिया अनुसरण करती थी। वे भी परंपराओं और अटकलों के सहारे ज़िंदगी गुज़ार रहे थे। निश्चित रूप से यह अल्लाह की किताब है और इसकी बातें अल्लाह की बातें हैं।


आज के वैज्ञानिक और अऩुसंधानकर्ता भी हैरान हैं कि वे बातें जिनकी खोज अभी हाल के वर्षों में हो सकी है, साढ़े चौदह शताब्दी पहले की किताब में इसके संकेत कैसे मौजूद हैं। बल्कि क़ुरआन में बहुत सी ऐसी बातें भी हैं जिनकी खोज अभी बाक़ी है। क़ुरआन व हदीस में ऐसी कोई भी बात नहीं है जो विज्ञान के प्रमाणित सिद्धांतों से टकराती हो। जैसे वाटर साइकिल, या प्रत्येक जीव के पानी से जन्म लेने की बातें जो क़ुरआन में बताई गई हैं, उऩसे वैज्ञामिक अभी हाल में ही अवगत हुई हैं। ये इस बात का प्रमाण है कि क़ुरआन सृष्टि के रचयिता की किताब है, जिसे सारे रहस्यों का पहले से ही ज्ञान है और जिसके ज्ञान की सीमा से बाहर कुछ भी नहीं है।


क़ुरआन कहता है कि यह संसार का जीवन एक दिन समाप्त हो जाएगा। अल्लाह मनुष्यों को दोबारा पैदा करेगा। फिर मनुष्य को अल्लाह के सामने हाज़िर होना पड़ेगा और दुनिया में किए अपने कर्मों का हिसाब देना होगा। मनुष्य का यह दोबारा जन्म उसी शरीर के साथ होगा जिस शरीर में वह दुनिया में था। दूसरे जन्म की यह बात बहुत से लोगों की समझ में नहीं आती हा लेकिन वैज्ञानिकों की नई खोज इसे प्रमाणित करती है-
"और (देखो !) उन्होंने कहा, "जब हम (मृत्यु के बाद) केवल कुछ हड्डियों के रूप में रह गए और सड़-गल गए तो फिर क्या ऐसा हो सकता है कि नए सिरे से उठा खड़े किए जाएं)" तुम कह दो, "हां तुम (मरने के बाद) कुछ ही क्यों न हो जाओ। पत्थर हो जाओ, लोहा हो जाओ, या कोई और चीज़ हो जो तुम्हारे विचार में (दोबारा जीवित होने के लिए) बहुत ही कठिन हो (किन्तु ईश्वरीय सामर्थ्य तुम्हें पुनः जीवित कर के रहेगा)," यह सुन कर वे कहेंगे, "किन्तु कौन है जो इस प्रकार हमें दोबारा जीवित करेगा?" तुम कहो, "वही, जिसने पहली बार तुम्हें पैदा किया !" (क़ुरआन- 17:49-51)


अल्लाह के अंतिम संदेशवाहक मुहम्मद (सल्ल.) ने कहा कि मनुष्य के शरीर में एक अंग ऐसा है जिसका विनाश नहीं होगा अर्थात मरने के बाद पूरा शरीर सड़ गल कर मिट्टी हो जाएगा मगर वह अंग वैसा ही रहेगा यहां तक की आग भी उसे जलाने में असमर्थ है।


विज्ञान भी स्वीकार करता है कि मनुष्य के शरीर का प्राथमिक अंग है Coxics जो रीढ़ की हड्डी का सबसे निचला भाग है और पांच छोटी छोटी हड्डियों से मिलकर बना है। इस Coxics में मानव शरीर के सारे तत्व मौजूद होते हैं। मां के गर्भ में सबसे पहले इसी की रचना होती है और यही सारे शरीर की संरचना करता है। मृत शरीर से निकाल कर वैज्ञानिकों ने Coxics का परीक्षण किया, इसे घंटों उबाल कर, तोड़ कर यहां तक की गैस गन में लगातार 10 मिनट तक जला कर देख लिया। इसके जैविक तत्व नष्ट नहीं हुए और यह ठीक वैसे ही शरीर की रचना करने में सक्षम पाया गया जैसे शरीर की रचना उसने पहली बार की थी या जैसे शरीर से उसे निकाला गया है।


क़ुरआन इससे आगे कहता है कि क़ियामत (महाप्रलय) में जब अल्लाह का आदेश होगा और एक विशेष प्रकार की वर्षा होगी तो धरती पर बिखरे हुए वे सारे Coxics फिर से उस शरीर की रचना करके एक जीता जागता इंसान खड़ा कर देंगे, जिस शरीर के वे अवशेष हैं।
"और तुम देखते हो कि भूमि सूखी पड़ी है, फिर जब उस पर पानी बरसा देते हॆं तो सहसा लहलहाने और उभरने लगती हैं। इस प्रकार की वनस्पतियों-घास में से शोभायमान दृष्य आ प्रकट होता है। यह इस बात का प्रमाण है कि ईश्वरीय सत्ता एक वास्तविकता है और वह निससंदेह मुर्दों को जीवित कर देती है और वह (अल्लाह) हर बात पर प्रभावी है। तथा इस बात की निश्चित घड़ी आने वाली है, इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं। और उसकी, कि अल्लाह अवश्य उन्हें उठा खड़ा करेगा, जो क़ब्रों में पड़ गए (अर्थात मर गए)।" (क़ुरआन- 22:5-7)


मां के गर्भ में शिशु की रचना छह चरणों में होती है क़ुरआन ने इसका विस्तार से उल्लेख किया है-
"और (देखो !) यह तथ्य है कि हमने मनुष्यों को मिट्टी की सतह से पैदा किया (अर्थात जीवन का आरंभ मिट्टी के सत से हुआ)। फिर हमने उसे ‘शुक्राणू' बनाया एक ठहर जाने और जमाव पाने की जगह में। फिर उस ‘शुक्राणु' को हमने ‘रक्त का लोथड़ा' बनाया, फिर ‘रक्त के लोथड़े' को एक मांस के टुकड़े की तरह कर दिया, फिर हमने हड्डियों का ढांचा पैदा किया, फिर हड्डियों पर मांस की परत चढ़ा दी, फिर देखो ! इस प्रकार उसे बिल्कुल एक अन्य ही प्रकार की सृष्टि बनाकर अस्तित्व में ला दिया। तो क्या ही बरकत वाली शक्ति है अल्लाह की, उत्पत्ति-कार्य करने वालों में सर्वोत्तम उत्पत्ति-कार्य करने वाला। फिर (देखो ! इस उत्पत्ति के पश्चात) तुम सब को अवश्य मरना है। और फिर (फिर मृत्यु के पश्चात) ऐसा होना है कि क़ियामत के दिन उठाए जाओ।" (क़ुरआन- 23:12-16)


1980 ई. में वैज्ञानिकों ने जब शिशू जन्म के इन्हीं चरणों की खोज की और उन्हें बताया गया कि ठीक इन्हीं चरणों का उल्लेख क़ुरआन में भी है तो पहले तो वैज्ञानिकों के मुखिया डॉ. कीथ मोर इसे मानने को तैयार नहीं हुए लेकिन जब उन्होंने स्वयं अरबी सीखी और क़ुरआन पढ़ा तो उन्हें विश्वास करना ही पड़ा। क़ुरआन और हदीस में जब उन्होंने गूढ़ वैज्ञानिक बातों के संकेत देखे तो उन्होंने अनुसंधान करने वाले वैज्ञानिकों को यह संदेश दिया कि यदि वे किसी विषय पर अनुसंधान करें तो बेहतर है कि पहले वे क़ुरआन और हदीस को पढ़ लें अगर उन्हें उक्त विषय में कोई संकेत मिलता है तो इस विश्वास के साथ अनुसंधान कार्य में लग जाएं कि परिणाम सकारात्मक होगा।
इसी प्रकार क़ियामत (महाप्रलय) के दृश्य का वर्णन करते हुए क़ुरआन कहता है-
"ज़मीन अपनी पूरी तीव्रता के साथ हिला डाली जाएगी।" (क़ुरआन- 99:1)
और "जब समुद्रों में आग भड़क उठेगी।" (क़ुरआन- 81:7)

 

क़ियामत से पहले घरती की गुरत्वाकर्षण शक्ति क्षीण हो जाएगी जिसके कारण भयानक भूकंप आएंगे और सबकुछ तलपट हो जाएगा। हम जानते हैं कि धरती के गर्भ में ज्वाला धधक रही है। भूगर्भशास्त्रियों के अनुसार भूगर्भ का तापमान 5500 डिग्री सेंटिग्रेड से भी अधिक है। यह उसी तापमान का परिणाम है कि ज्वालामुखी फटते हैं और धरती के भीतर का मैगमा निकल कर बाहर आ जाता है।
हम यह भी जानते हैं कि 100 डिग्री सेंटिग्रेड पर पानी उबलने लगता है। लेकिन यदि उसे 2000 डिग्री से. का तापमान मिल जाए तो वह टूट जाएगा और उसके अणु बिखर जाएंगे। ज्ञातव्य हो की पानी हाइडड्रोजन के दो और ऑक्सीजन के एक अणु के मिलने से बना है। 2000 डिग्री से. का तापमान मिलने पर ऑक्सीजन और हाइड्रोजन गैस रूप में अलग हो जाएंगे।

 

भयानक भूकम्प के कारण जब धरती की ऊपरी सतह टूट कर अस्त व्यस्त हो जाएगी तो समुद्र का पानी भूगर्भ में पहुंच जाएगा जहां का तापमान 5500 डिग्री से. है। जैसे ही पानी वहां पहुंचेगा कि उसके अणु अलग हो जाएंगे और सारा का सारा पानी ऑक्सीजन और हाइड्रोजन गैस में बदल जाएगा हम अच्छी तरह जानते हैं कि हाइड्रोजन जलने वाली गैस है और ऑक्सीजन जलने में सहायता करती है। पानी भूगर्भ में पहुंच चुका है जहां आग ही आग है। परिणाम यह होगा कि पलक झपकते ही आग भड़क उठेगी। वैज्ञानिक हमें यह भी बताते हैं कि यदि पानी में नमक डाल दिया जाए तो अणुओं के अलग होने की प्रक्रिया बहुत तेज़ हो जाती है। ईश्वर ने इसकी व्यवस्था समुद्रो के पानी को खारा करके पहले से ही कर रखी है।

9.हर हाल में उपयुक्त और व्यावहारिक नियमः
इस्लाम के नियमों एवं सिद्धांतो में इतनी लचक है कि वे हर तरह की स्थिति में फिट हो जाते हैं। आदमी किसी भी हाल में हो। उसके लिए इस्लामी नियमों का पालन करना बराबर आसान है। कोई अगर बीमार है खड़े होकर नमाज़ नहीं अदा कर सकता है तो बैठ कर पढ़ ले, बैठ कर पढ़ने की भी शक्ति नहीं है, लेट कर पढ़ ले, केवल इशारों में पढ़ ले। सफ़र में है या बीमार है तो रमज़ान के रोज़े छोड़ दे, बाद में रख ले। किसी ऐसी हालत में फंस गया है कि जान बचाने के लिए हराम भोजन खाने के अलावा कोई चारा नहीं है तो इसका भी प्रावधान मौजूद है। उत्तरी ध्रुव पर चला गया है और रमज़ान के रोज़े रखने हैं तो सूर्योदय और सूर्यास्त का इंतज़ार करने की ज़रूरत नहीं, मैदानी क्षेत्रों के समय के आधार पर रोज़े रखे।


महिलाओं को अपने मासिक धर्म के कारण कुछ विशेष छूट दी गई है। प्रति माह कुछ दिनों के लिए जब वे अपवित्र होती हैं तो उनकी नमाज़ माफ़ हो जाती है। इसी प्रकार शिशु जन्म के बाद भी जब वे कुछ (40) दिनों के लिए अपवित्र होती हैं तो भी उनकी नमाज़ माफ़ होती है। यही हाल बच्चों का है, जब तक वे समझदारी की अवस्था (लगभग 10 वर्ष की आयु) में न पहुंच जाए, उन पर नमाज़ अनिवार्य नहीं। अल्लाह के रसूल (सल्ल.) का आदेश है कि जब बच्चा 7 वर्ष का हो जाए तो उसे नमाज़ पढ़ने के लिए कहो और जब 10 वर्ष का हो जाए और नमाज़ न पढ़े तो उस पर सख़्ती करो।


इसी तरह इसमें हर उम्र के सोशल स्टेटस के लोगों का ध्यान रखा गया है और नियमों में इतनी लचक रखी गई है कि किसी को भी असुविधा न हो। धनवानों को ज़कात और सदक़े (दान) देने के लिए प्रतिबंधित और प्रेरित किया गया है तो ग़रीबों और ज़रूरतमंदों को यह छूट दी गई है कि वे दान ले सकते हैं। अर्थात इंसान दुनिया के किसी हिस्से में रहे, किसी भी उम्र का हो, कोई भी पेशा अपनाए, उसके साथ कोई अनोखा से अनोखा मामला क्यों न हो जाए, उसे इस्लाम से हर विषय में मार्गदर्शन अवश्य मिल जाएगा।
इस्लाम के नियम हर स्थिति के लिए मौजूद है, बस उन्हें लागू करने की ज़रूरत है। किसी भी हाल में इस्लाम के अंदर सुधार (Reform) की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि यह नियम एवं सिद्धांत अल्लाह के बनाए हुए हैं और मनुष्य किन-किन हालात से गुज़र सकता है, सबका ज्ञान अल्लाह को पहले से ही है। यही कारण है कि इस्लाम में कभी कोई धर्म सुधारक (Reformer) नहीं हुआ। मौजूद नियमों को वर्तमान हालात में लागू कैसे किया जाए इस पर तो बहुत काम हुआ है, लेकिन धर्म सुधारक की ज़रूरत कभी महसूस नहीं हुई।
इस्लामी नियम चूंकि अल्लाह के बनाए हुए हैं जिसने समस्त जगत को बनाया है, इसलिए यह नियम लागू करने में बहुत व्यावहारिक है, यानि बिना किसी असुविधा के कहीं भी कभी भी लागू किया जा सकता है। ऐसा नहीं है कि यह क़ानून अरब में एक निश्चित क़ौम को एक विशेष समय के लिए दिया गया था। और इसकी प्रायोज्यता वहीं तक सीमित थी, बल्कि यह हर तरह के लोगों के लिए समान रूप से प्रयोग में लाने योग्य (Applicable) है।


समय के साथ एक से एक नई समस्याएं पैदा हुईं, नए हालात का सामना हुआ, नए आविष्कार एवं अनुसंधान हुए लेकिन इस्लामी क़ानून हर हालात में व्यावहारिक रहे। कभी ऐसा नहीं हुआ कि इसने समय का साथ नहीं दिया हो और इसमें किसी संशोधन की आवश्यकता महसूस की गई हो। उदाहरण के लिए हम पर्यावरण की समस्याओं को लें। पर्यावरण की समस्याएं अभी हाल की चीज़े हैं। बल्कि यह शब्दावली ही नई है। 19वीं शताब्दी के आरंभ से पूर्व इसकी कल्पना भी नहीं थी, लेकिन आश्चर्य है कि क़ुरआन ने साढ़े चौदह शताब्दी पहले पर्यावरण की सुरक्षा की बात की और उसके बारे में निर्देश दिया। विभिन्न हदीसों में भी इस विषय पर प्रकाश डाला गया है। लोगों को पर्यावरण का संतुलन बनाए रखने की प्रेरणा दी गई है और संतुलन बिगाड़ने की स्थिति में ख़तरनाक परिणाम से सचेत किया गया है।


10.विश्व बंधुत्व का समर्थकः
इस्लाम सार्वभौमिक एवं विश्वव्यापी मानवता की बात करता है। यह मानवता को राष्ट्रों की सीमाओं में नहीं बांधता। इस्लाम एक ऐसे अल्लाह की कल्पना करता है जो सर्व जगत का पालनहार है और उसके बनाए हुए सारे इंसान समान हैं, चाहे वे धरती के किसी भी भाग में रहते हों। विश्व बंधुत्व इस्लाम का मूल मंत्र है। इस्लामी शिक्षाओं के अनुसार सारे मनुष्य एक माता-पिता की संतान हैं और आपस में भाई-भाई हैं और इसलिए हर एक के बराबर मानवाधिकार हैं।


क़ुरआन मजीद और अल्लाह के आख़िरी रसूल (सल्ल.) ने आरंभ से ही या तो समस्त मानवता को संबोधित किया या उन लोगों को जिन्होने इस ईश्वरीय विधान को स्वीकार कर लिया था और उसके अनुसार जीवन बिताने को तैयार थे। आप समस्त क़ुरआन को देख जाएं और मुहम्मद (सल्ल.) के उपदेशों और भाष्यों का पूरा रिकार्ड (जो सुरक्षित है) भी खंगाल डाले, आप कहीं यह नहीं देखेंगे कि इस किताब में या उनको लाने वाले ने किसी विशेष देश, क़ौम, वंश, वर्ग, क्षेत्रीयता या किसी विशेष भाषा से जुड़े लोगों को पुकारा हो। कभी नहीं कहा ‘ये इस्माईल की संतान‘ या 'ऐ अरब वासियों' बल्कि जब भी पुकारा तो "ऐ आदम की संतान !" या "ऐ लोगों !" कह कर इस्लाम की ओर बुलाया और इस्लाम स्वीकार कर लेने वालों को आदेश और निर्देश देने के लिए "ऐ लोगों जो ईमान लाए हो !" कह कर संबोधित किया।


इस्लाम का आह्वान एक विश्वव्यापी आह्वान है और जो भी इस्लाम की शीतल छाया में आ जाए उन सबके अधिकार बराबर हैं। क़ुरआन कहता है कि-"निस्संदेह ईमान लाने वाले आपस में भाई-भाई है।" (क़ुरआन, 49:10)


इससे भी अधिक विस्तार में नबीं (सल्ल.) ने कहा-
"सुनो ! तुम्हारा पालनहार भी एक है और तुम्हारा पिता (आदम अलैहि) भी एक। किसी अरब वासी को किसी ग़ैर अरब पर वरीयता नहीं और किसी बाहर वाले को अरब वाले पर वरीयता नहीं। न काला किसी गोरे से श्रेष्ठ से और न कोई गोरा किसी काले से। श्रेष्ठता का आधार तो ईशपरायणता है। तुममे सबसे श्रेष्ठ वह है जो सबसे ज़्यादा अल्लाह से डरने वाला हो।"


विश्व बंधुत्व की ये बाते केवल सैद्धांतिक बातें ही नहीं हैं, बल्कि इस्लामी जीवन व्यवस्था में इसके व्यवहारिक प्रदर्शन का भी प्रावधान है और हर स्तर पर है। अतः हम देखते हैं कि प्रतिदिन पांच बार हर मस्जिद में स्थानीय मुसलमान जमा होते हैं और एक साथ अल्लाह की इबादत करते हैं। नमाज़ के लिए छोटे-बड़े, ऊंच-नीच, काले-गोरे, अमीर-ग़रीब, शासक-शासित का भेदभाव किए बिना सारे मुसलमान कंधे से कंधा मिलाकर पंक्त्तिबद्ध हाथ बांधकर खडे हो जाते हैं और बीच में कोई अंतर या ख़ाली स्थान नहीं छोड़ते। अल्लाह के रसूल (सल्ल.) का आदेश है-
"नमाज़ में अपनी पंक्ति को टेढ़ा न होने दो नहीं तो तुम्हारे दिलों में टेढ़ आ जाएगी और बीच में कोई स्थान ख़ाली मत छोड़ो नहीं तो वहां से (मानव-मानव में विभिन्न आधारों पर अंतर का) शैतान प्रवेश कर जाएगा।"


विश्व बंधुत्व का सबसे बड़ा प्रदर्शन प्रत्येक वर्ष हज के अवसर पर मक्का में होता है। जहां दुनिया के कोने-कोने से एक अल्लाह को मानने वाले अपना सब कुछ पीछे छोड़ कर अल्लाह के आदेशों का पालन करने के लिए आते हैं। हज की विशेष बात यह है कि इस अवसर पर आपस के सारे अंतर मिट जाते हैं। यहां तक कि दुनिया भर से आए लाखों लोगों के शरीर पर कपड़े भी बिल्कुल एक जैसे ही होते हैं। 

 

इस्लाम के अलावा जितने भी धर्म हैं, चाहे वह छोटे हों या बड़े, उसके मानने वालों की संख्या कम हो या अधिक किसी न किसी राष्ट्रीयता और क्षेत्रीयता में सीमित है और उसी क्षेत्र विशेष के रहने वालों को ईश्वर का और मार्गदर्शन का पात्र समझते हैं। बल्कि संसार के कई बड़े धर्मों ने तो इस परिधि को और भी संकीर्ण करके इसे एक वंश के लोगों तक ही सीमित कर दिया है। यहूदी केवल इस्राइल की संतान को ही ईश्वरीय मार्गदर्शन और कृपा का अधिकारी मानते हैं और संसार का प्रत्येक मनुष्य जो इस्राइली वंश से नहीं है उसे सारे मानवाधिकारों से वंचित समझते हैं और उनका हर प्रकार से शोषण करना अपना जन्म सिद्ध अधिकार समझते हैं। हमारे देश में भी कुछ ऐसा ही हाल है यहां एक वर्ग विशेष ने ईश्वर को अपनी जागीर समझा हुआ है और उस वर्ग के बाहर जो भी है वह ईश्वर की दया और उसके मार्गदर्शन का पात्र नहीं हो सकता। ईसाई हो ज़रथ्रुष्ठी हो या और धर्म का अनुयायी सबने ईश्वर की सत्ता को दुनिया के एक क्षेत्र विशेष तक ही सीमित कर रखा है।


इन सबके विपरीत इस्लाम मानवता को राष्ट्रीयता एवं क्षेत्रीयता में विभाजित नहीं होने देता व समस्त मानव जाति को संसार में मौजूद सारे संसाधनों का बराबर भागीदार और ईश्वर की कृपा और मार्गदर्शन का पात्र समझता है। इस्लाम की मान्यता है कि सर्व शक्तिमान ईश्वर ने दुनिया में हर जगह और हर क़ौम में अपना मार्गदर्शन भेजा है-
"कोई समुदाय ऐसा नहीं हुआ है, जिसमें कोई चेतावनी देने वाला न आया हो।" (क़ुरआन- 35:24)


इतना ही नहीं उन सभी संदेशवाहकों पर, जो दुनिया के किसी भी भाग में ईश्वरीय मार्गदर्शन लेकर कभी भी आए हों, ईमान लाना इस्लाम के अनुयायियों के लिए अनिवार्य है। कोई व्यक्ति उस समय तक मुसलमान नहीं हो सकता जब तक वह अल्लाह के भेजे हुए सारे मार्गदर्शकों अर्थात पैग़म्बरों पर और उनकी शिक्षाओं पर ईमान न लाए।
निष्कर्षः निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि इस्लाम वह जीवन व्यवस्था है जो मानव स्वभाव के ठीक अनुकूल है बल्कि मानव स्वभाव का ही दूसरा नाम इस्लाम है। ईश्वर ने जब मनुष्य को धऱती पर भेजा तो साथ ही उसे यहां जीवन बिताने का पूरा तरीक़ा भी बताया और समय-समय पर अपने ईशदूत भेज कर उस तरीक़े का पुनरीक्षण भी करता रहा। अंत में अपने आख़िरी संदेशवाहक हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) के माध्यम से उसने क़ुरआन और हदीस के रूप में वह फ़ाइनल कोड ऑफ़ कन्डक्ट मनुष्य के हवाले कर दिया, जो रहती दुनिया तक के लिए मार्गदर्शक है। अपने अंतिम संदेश (क़ुरआन) में ईश्वर ने कह भी दिया है किः


"निस्संदेह अल्लाह के निकट मान्य जीवन व्यवस्था (अर्थात मूल धर्म) पूर्ण समर्पण (अर्थात इस्लाम) ही है। इस जीवन व्यवस्था से हट कर उन लोगों ने, जिन्हें किताब दी गई थी (अर्थात जिनके बीच ईश्वर के संदेशवाहक संदेश लेकर आए थे) जो आपस में मतभेद किया (और गिरोहबंदियां कर के अलग-अलग धर्म बना लिए) तो (यह इस लिए नहीं हुआ कि इस धर्म के अतिरिक्त उन्हें किसी अन्य धर्म का मार्ग दिखलाया गया था, या धर्म के मार्ग भिन्न हो सकते हैं, बल्कि) इस लिए कि ज्ञान पाने के बाद वे उस पर जमे नहीं रहे और आपस में हठ और शत्रुता के कारण अलग-अलग हो गए और (याद रखो !) जो कोई अल्लाह की निशानियों से इंकार करता है (और मार्दर्शन छोड़कर पथभ्रष्टता अपनाता है) तो अल्लाह (का बदलने का क़ानून) भी हिसाब लेने में मंदगति नहीं। फिर यदि ये लोग तुमसे झगड़ा करें, तो (ऐ पैग़म्बर !) तुम कह दोः मेरे और मेरे अनुयायियों का तरीक़ा यह है कि हमने अल्लाह के समक्ष आज्ञापालन का सिर झुका दिया है, (अर्थात हमारा रास्ता ईशपरायणता के अतिरिक्त और कुछ नहीं है)। और किताब वालों और (अरब के) अनपढ़ लोगों से पूछो ! तुम भी अल्लाह के समक्ष झुकते हो या नहीं? यदि वे झुक जाएं, तो उन्होंने मार्ग पा लिया और यदि वे विमुखता अपनाएं तो फिर ( जिन लोगों को ईशोपासना ही से इंकार हो और केवल गुटबंदी के वैमनस्य को धर्मपरायणता समझ रहे हों, उनके लिए तर्क और सदुपदेश क्या लाभदायक हो सकता है।) तुम्हारा उत्तरदायित्व जो कुछ है वह सत्य-संदेश पहुंचा देना है और अल्लाह अपने बंदों की दशा से अनभिज्ञ नहीं, वह सब कुछ देख रहा है। (क़ुरआन- 3:19-20)"