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इस्लाम की सार्वभौमिक शिक्षाएं

  
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इस्लाम की सार्वभौमिक शिक्षाएं

भूमिका
प्रिय पाठकों! जीवन भरोसे (Trust) पर चलता है। संसार में जन्म लेते ही हमारी सबसे विश्वास पात्र हस्ती हमारी मां होती है। उसके भरोसे हम सब कुछ सीखते हैं, यहां तक की हमारे पिता कौन हैं यह भी हमें वही बताती है। शिक्षा के मामले में हम अपने शिक्षक पर भरोसा करते हैं। इलाज के लिए डॉक्टर पर और मुक़दमे के लिए वकील पर। हम पूरे विश्वास से बताना चाहते हैं कि मानव समस्याओं, संसार की अनसुलझी गुत्थियों, इंसान की दुनिया में हैसियत, मरने के बाद के जीवन आदि के बारे में मार्गदर्शन के लिए एक अति विश्वासपात्र हस्ती है जो मां, टीचर और फ़ैमिली डॉक्टर से भी कहीं अधिक भरोसे योग्य है वह है ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सल्लo) की हस्ती। भरोसे योग्य इसलिए कि दुनिया गवाह है उनके दोस्त भी और विरोधी भी कि उन्होंने कभी झूठ नहीं बोला, किसी को धोखा नहीं दिया, अपनी स्वयं की पूजा से कड़ाई से रोका, दान-पूण्य (ज़कात) की धन राशि अपने और अपनी भावी पीढ़ियों के लिए वर्जित रखी, पूरा सामर्थ्य पूरा अधिकार प्राप्त होने के बाद भी कट्टर दुश्मनों को जिनमें से एक ने उनके चहीते चाचा की हत्या कराने के बाद उनका कलेजा चबाया था क्षमा दान दे दिया। ऐसे महानतम व्यक्ति पर भरोसा न करना किसी प्रकार भी बुद्धि सम्मत नहीं कहा जा सकता।

हज़रत मुहम्मद (सल्लo) आपको अपने धर्म में नहीं लाते, बल्कि वे बताते हैं कि यह आपका धर्म है। मानवता के पूर्व सुधारक जो कुछ बताते थे वही यह भी हैं। उन सुधारकों या ईशदूतों की मूल शिक्षाएं समय के प्रभाव से या भाषा के बदलाव से या सुरक्षा के उचित प्रबंधों के अभाव में या कुछ स्वार्थी लोगों द्वारा फेरबदल के कारण विशुद्ध रूप में अर्थात उस रूप में जिसमें ईश्वर ने भेजी थी उपलब्ध नहीं है। हज़रत मुहम्मद (सल्लo) उस विशुद्ध शिक्षा को पहुंचाने वाले हैं। यह तो आपका अपना ख़ज़ाना है, आपकी धरोहर है जिसे आप हज़रत मुहम्मद (सल्लo) के माध्यम से पुनः प्राप्त कर रहे हैं। यही कारण है कि भारतीय धर्म ग्रन्थ ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सल्लo) के अंतिम ऋषि के रूप में आगमन की सूचना से भरे पड़े हैं। मुहम्मद का संस्कृत रूपांतर ‘नराशंस' है। चारों वेदों में स्पष्ट निशानियों के साथ नराशंस ऋषि के आगमन की पूर्ण सूचनाएं उल्लेखित हैं। कुछ श्लोकों में मामहे ऋषि और कल्की अवतार भी कहा गया है। भविष्य पुराण और संग्राम पुराण में भी भविष्यवाणियां मौजूद हैं। बौद्ध धर्म के ग्रन्थों में भी सूचना दी गई है। (देखिए पुस्तकः हज़रत मुहम्मद और भारतीय धर्मग्रन्थ-डॉ. एम.ए श्रीवास्तव) इससे स्पष्ट है कि हज़रत मुहम्मद (सल्लo) मुसलमानों ही के नहीं बल्कि सारे इंसानों के भी हैं।
मानवता के परम हितैषी हज़रत मुहम्मद (सल्लo) ने जिस जीवन पद्धति का आह्वान किया और उनको एक भू-भाग में व्यवहारतः चलाकर भी दिखाया, दुनिया ने उस क्रांति को अपनी आंखों से देखा और सुन्दर व सुखमय बदलाव को महसूस किया। उसी जीवन पद्धति अर्थात इस्लाम का परिचय संक्षेप में आपके समक्ष प्रस्तुत किया जा रहा है।

हम पहले इस विषय पर चर्चा करेंगे कि मनुष्य को एक जीवन पद्धति की आवश्यकता क्यों है? यह पद्धति कौन निर्धारित करेगा? तथा उनके व्यवहारिक स्वरूप के लिए किस व्यक्ति को आदर्श मानकर अनुसरण करना चाहिए।


जीवन प्रणाली की आवश्यकता

धरती पर मनुष्य ही वह प्राणी है जिसे विचार तथा कर्म की स्वतंत्रता प्राप्त है, इसलिए उसे संसार में जीवन-यापन हेतु एक जीवन प्रणाली की आवश्यकता है। मनुष्य नदी नहीं है जिसका मार्ग पृथ्वी की ऊंचाई-नीचाई से स्वयं निश्चित हो जाता है। मनुष्य निरा पशु-पक्षी भी नहीं है कि पथ-प्रदर्शन के लिए प्राकृति ही प्रयाप्त हो। अपने जीवन के एक बड़े भाग में प्राकृतिक नियमों का दास होते हुए भी मनुष्य जीवन के ऐसे अनेक पहलू रखता है जहां कोई लगा-बंधा मार्ग नहीं मिलता, बल्कि उसे अपनी इच्छा से मार्ग का चयन करना पड़ता है। उसे विचार का एक मार्ग चाहिए जिसे वह अपनी और सृष्टि की समस्याओं का समाधान कर सके। उसको व्यक्तिगत व्यवहार की पद्धति चाहिए, जिनका अनुसरण करके वह सभ्य और शालीन जीवन जी सके। उसको घरेलू जीवन, पारिवारिक रिश्तों, आजीविकी संबंधि क्रियाकलापों, सामाजिक व्यवस्था हेतु मार्ग चाहिए जिस पर वह एक व्यक्ति की हैसियत से ही नहीं, एक समाज एक राष्ट्र एक जाति के रूप में अग्रसर हो सके। संसार में अपने जीवन-उद्देश्य और जीवन के अपने परम लक्ष्य का ज्ञान प्राप्त हो सके।

जीवन प्रणाली रचयिता ही निराधारित करता है

यह बड़ी तर्क संगत एवं विवेकपूर्ण बात है कि किसी चीज़ का निर्माता ही उसका कार्यविधि तय करता है। छोटी से छोटी मशीन के साथ भी उसका ‘मैनुअल' दिया जाता है। इंसान तो धरती पर ईश्वर की सर्वोत्तम कृति है। उसका रचयिता ही उसके लिए ‘मैनुअल' या जीवन व्यतीत करने की प्रणाली बनाते तथा उसके जीवन के उद्देश्य तथा परम लक्ष्य को इंगित कराने का अधिकारी है। इसके लिए स्वयं अपने विवेक पर अथवा अपने जैसे दूसरे लोगों पर भरोसा करना नादानी होगी।

इंसान और इस विशालकाय सृष्टि के रचयिता ‘अल्लाह' ने धरती पर मनुष्य की समस्त भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति की पूर्ण एवं संतुलित व्यवस्था की। खाने-पीने, रहने-बसने आदि के समस्त साधन उपलब्ध कराए। उसकी आध्यात्मिक आवश्यकता, जीवन उद्देशय एवं जीवन-यापन के ढंग बताने के लिए अपने दूतों को पूर्ण ज्ञान देकर भजा। यह ईशदूत अपने-अपने देशों में अपनी कार्य अवधि और कार्य के क्षेत्र में इंसानों का मार्गदर्शन करते रहे। जब संसार ने प्रगति के वैश्विक दौर में प्रवेश किया, तो ईश्वर ने अपने अंतिम संदेष्टा हज़रत मुहम्मद (सल्लo) को अंतिम ईशग्रन्थ पवित्र क़ुरआन के साथ सम्पूर्ण मानव जाति के मार्ग दर्शन हेतु नियुक्त किया। हज़रत मुहम्मद (सल्लo) समस्त ईशदूतों के प्रतिनिधि और क़ुरआन सभी ईश्वरीय आदेशों और ग्रन्थों का प्रतिनिधि एवं सार है। हमारा विश्वास है कि यही जीवन प्रणाली अर्थात ‘इस्लाम' ईश्वर प्रदत्त है और मनुष्य की सभी जटिलतम समस्याओं का त्रुटिरहित शाश्वत समाधान है। इस जीवन प्रणाली को अपनाकर व्यक्ति मानसिक शांति और पारलौकिक सफलता दोनों को प्राप्त कर सकता है। यही वह ज्योति है जिसके प्रकाश में मनुष्य सत्यमार्ग का अनुसरण करता है और जिसके अभाव में वह अंधेरे में भटकता रहेगा और केवल परेशानी से दो-चार रहेगा।

नामकरण
आइए अब हम इस जीवन पद्धति के नामकरण पर विचार करें। संसार में जितने भी धर्म हैं वे या तो किसी व्यक्ति विशेष के नाम पर हैं या उस जाति के नाम पर जिसमें उस धर्म का उदय हुआ हो। परन्तु इस्लाम किसी व्यक्ति या जाति से संबद्ध नहीं है। उसका नाम एक विशेष गुण को प्रकट करता है जो शब्द ‘इस्लाम' के अर्थ में निहित है, जिससे स्पष्ट है कि यह किसी व्यक्ति के दिमाग़ कि उपज नहीं है और न ही किसी जाति विशेष तक सीमित है।

इस्लाम अरबी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है सलामती, अमन, शांति, आज्ञापालन, समर्पण। इस्लाम वह जीवन पद्धति है, जिसमें इंसान अपने प्रभु और पालनहार के प्रति पूर्ण समर्पित होकर उसकी आज्ञाओं का पालन करता है, उसके आदेशों के अनुसार जीवन व्यतीत करता है। ऐसे ही जीवन से मनुष्य दुनिया में अमन-शांति और चैन से रहता है और परलोक में परम सुख प्राप्त करता है। इस्लाम में आस्था रखने वालों को मुस्लिम या मुसलमान कहते हैं।

मूलभूत आस्थाएं
इस्लाम की तीन मूलभूत आस्थाएं हैं, जो इस प्रकार हैं-
1. एकेश्वरवाद (तौहीद): इस्लाम की बुनियाद (मूलभूत) आस्थाओं में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है एक ईश्वर में आस्था। इंसान और सम्पूर्ण सृष्टि का रचयिता वास्तविक स्वामी, शासक और प्रबंधक एक अकेला ‘अल्लाह' है। उसी ने यह सृष्टि बनाई और वही इसे चला रहा है। हर चीज़ को अस्तित्व में रहने के लिए जिस ऊर्जा की जितनी मात्रा में आवश्यकता है, वह अल्लाह ही उसे प्रदान कर रहा है। प्रभुसत्ता के समस्त गुण उसी में पाए जाते हैं कोई दूसरा लेशमात्र भी उसका साझी नहीं है। वह सदैव से है और सदा रहेगा अन्य सबकुछ नाशवान हैं। वह न किसी की संतान है और न ही उसकी कोई संतान है। वह समस्त कमज़ोरियों से पाक है। प्रत्यक्ष और परोक्ष का पूर्ण ज्ञान उसी को है। वही अकेला मनुष्य का वास्तविक उपास्य है। उसकी भक्ति, उपासना और बन्दगी में किसी और को शरीक करना न तो विवेकपूर्ण है और न ही न्यायसंगत। आज्ञापालन उसी का होना चाहिए। मार्गदर्शन उसी का स्वीकार हो। अपनी मनोकामना उसी के समक्ष प्रस्तुत की जाए। शुक्रगुज़ारी और कृतज्ञता का वही अधिकारी है, क्योंकि उसी ने हमें अस्तित्व प्रदान किया, जीने के सभी साधन उपलब्ध कराए और अपने पैग़म्बरों को भेज कर सत्य मार्ग दिखाया।

2. ईशदूतत्व (रिसालत): इंसानों के व्यवहारिक मार्गदर्शन के लिए ईशवर हर युग में आवश्यकता अनुसार संदेशवाहक भेजता रहा, जो ईशवर प्रदत्त ज्ञान की ज्योति द्वारा अपने कार्यक्षेत्र में मनुष्यों का मार्गदर्शन करते रहे और उन्हें ईश्वर का सदेश अपनी वाणी और अपने व्यवहार में पहुंचाते रहे। समाज को भलाईयों की ओर अग्रसर करने, बुराइयों को दूर करने तथा मुक्ति मार्ग दिखाने का कठिन कार्य करते रहें। जब मनुष्य ने सभ्यता के वैश्विक दौर में क़दम रखा तो हज़रत मुहम्मद (सल्लo) को एक विश्वव्यापी संदेश के साथ भेजा गया। यह संदेश दो रूपों में उपलब्ध है। एक ईशवाणी जो पवित्र क़ुरआन के रूप में अक्षरशः सुरक्षित है, दूसरे हज़रत मुहम्मद (सल्लo) के कथन, आचरण, आदेश-निर्देश जिन्हें ‘हदीस' कहा जाता है। इस्लामी आस्था के अनुसार ईशवर के सभी संदेष्टताओ पर ईमान ज़रूरी है, परन्तु व्यवहारिक मार्गदर्शन के लिए हज़रत मुहम्मद (सल्लo) का अनुसरण करना होगा, क्योंकि उनकी शिक्षा ही ईश्वरीय विधान का अंतिम संस्करण है।
डॉ. वेद प्रकाश उपाध्याय तथा अनेक विद्वानों के अनुसार सनातन धर्म की प्रमाणिक पुस्तकों वेदों तथा पुराणों में जिन ‘नराशंस ऋषि' ‘मामहे ऋषि' ‘महामद' और अंतिम अवतार ‘कल्कि अवतार' की भविष्यवाणी बड़े स्पष्ट शब्दों में उल्लेखित है, वे हज़रत मुहम्मद (सल्लo) ही हैं। इससे स्पष्ट है कि हज़रत मुहम्मद (सल्लo) भारत के लिए भी पूर्ण रूप से प्रासंगिक हैं।

3. परलोकवाद (आख़िरत): आस्था का तीसरा बिन्दु है आख़िरत पर ईमान। संसार में मनुष्य अनुत्तरदायी बनाकर नहीं छोड़ा गया है। वह ईश्वर के सामने जवाबदेह है। वर्तमान सांसारिक जीवन के अतिरिक्त पारलौकिक जीवन भी है। एक समय आएगा जब ईश्वर इस सृष्टि को मिटा देगा अर्थात ‘प्रलय' या क़ियामत आएगी। फिर सभी अगले-पिछले लोगों को जीवित किया जाएगा यह फ़ैसले का दिन होगा और अल्लाह की अदालत क़ायम होगी जिसमें सब लोगों के सांसारिक क्रियाकलापों, उनकी गतिविधियों का पूरा रिकार्ड सबूतों और गवाहों सहित पेश होगा। इस अदालत में रिश्वत, सिफ़ारिश और सांसारिक रूतबे का कोई स्थान नहीं होगा। ईश्वर प्रत्येक व्यक्ति के लिए अच्छे और बुरे कर्मों का हिसाब-किताब रखेगा। निर्णय इस बात का होगा कि मनुष्य ने ईश्वर प्रदत्त आदेशों को मान कर उनके पैग़म्बर की पैरवी कर के जीवन-यापन किया अथवा अपनी इच्छानुसार मनमाने ढंग से कार्य किए। जिनके अच्छे कर्म अधिक होंगे उन्हें सफल घोषित किय़ा जाएगा और स्वर्ग का आनंद उन्हें प्राप्त होगा, जहां वे हमेशा रहेंगे। जिनके रिकार्ड में अवज्ञा, उद्दण्डता, अत्याचार अधिक होंगे, वे दंड के अधिकारी होंगे और नर्क की यातना सहेंगे।

मनुष्य के अंतःकरण की मांग है कि ऐसी कोई व्यवस्था कोई प्रक्रिया हो जहां निष्पक्ष रूप से न्याय हो। दुराचारियों और अत्याचारियों को, जो अपनी ताक़त के घमण्ड में निर्बल और कमज़ोरों पर अत्याचार करते रहे, लोगों को सत्य मार्ग से रोकते रहे, धरती में फ़साद व उपद्रव फैलाते रहे, उन्हें सार्वजनिक रूप से दण्ड दिया जाए। जो लोग कष्ट झेल कर भी सत्य मार्ग पर डटे रहे, अत्याचारियों से लोहा लेते रहे, अपनी जान और अपने माल से दीन-दुखियों की मदद करते रहे, समाज में अच्छाइयों को बढ़ावा देने तथा बुराइयों को मिटाने के कार्य में लगे रहे, उन्हें सार्वजनिक रूप से इसका ईनाम मिलना चाहिए। आख़िरत की अवधारणा इसी स्वाभाविक मांग का जवाब है।

इबादत या उपासना
इस्लाम, इबादत को पूजा अर्चना या कर्मकाण्ड तक सीमित नहीं मानता। उनके अनुसार प्रत्येक कार्य चाहे सांसारिक हो या आध्यात्मिक, जो ईश्वर के आदेशों का अनुसरण करते हुए किया जाए इबादत में गिना जाता है। घर परिवार चलाना, कारोबार करना, सामाजिक क्रियाकलाप यदि ईश्वर के बताए हुए तरीक़े से हो तो इबादत ही है। मुस्लमान वास्तव में चौबिस घंटे का दास और उपासक है। इसी तैयारी और याददिहानी के लिए चार अनिवार्य उपासनाएं निर्धारित की गईं जो इस्लाम के स्तंभ कहे जाते हैं।


(1)नमाज़
नमाज़ ईश-भक्ति की सर्वश्रेष्ठ विधि है, जिसमें स्तुति, उपासना, वंदना, अराधना, स्मरण, चिंतन, प्रार्थना-याचना सब कुछ है। इस्लाम पर आस्था रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति पर दिन-रात में पांच बार नमाज़ पढ़ना फ़र्ज़ (अनिवार्य) है। उसका मूल उद्देश्य है कि मनुष्य अपने मालिक के एहसान को प्रकट करने के लिए उनके समक्ष शारीरिक और आत्मिक रूप से उपस्थित हो, उसका गुणगान करे उनके आगे नतमस्तक हो, उनके आदेशों-निर्देशों पर जो नमाज़ में पढ़े जाते हैं ध्यान केंद्रीत करे। इसके द्वारा उसमें कर्तव्य बोध का गुण पैदा होता है तथा ईश्वरीय आदेशों की पुनरावृत्ति चरित्र निर्माण में सहायक होती है। सामूहिक रूप से मस्जिद में नमाज़ पढ़ने पर सामाजिक समरसता और भाईचारा पैदा होता है। अमीर-ग़रीब, छोटे-बड़े, अधिकारी-कर्मचारी सब कंधे से कंधा मिलाकर नमाज़ पढ़ते हैं इससे ऊंच-नीच के सभी भेदभाव मिट जाते हैं। नैतिकता के पाठ के साथ-साथ नमाज़ के द्वारा स्वास्थ्य संबंधी लाभ बोनस स्वरूप प्राप्त होते हैं।


(2)ज़कात (अनिवार्य दान-पुण्य)
ज़कात समाज के आर्थिक रूप से पिछड़े व्यक्तियों की सहायतार्थ अनिवार्य दान है। यह दान प्रत्येक मुस्लिम को (जो इसकी सामर्थ्य रखता हो) अपने जमा धन में से ढाई प्रतिशत देना होता है। इस्लाम इसे भीख या टैक्स के रूप में नहीं, बल्कि सम्पन्न व्यक्ति के माल में ग़रीब और वंचित के हक़ के रूप में देखता है। आर्थिक दौर में जो लोग किसी कारणवश पिछड़ जाएं या किसी आपदा या मुसीबत का शिकार हो जाएं या कमाने वाला चल बसे और पीछे विधवा और अनाथ असहाय रह जाएं उनकी बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति का यह एक सामाजिक बीमा है। इसका दूसरा बड़ा लाभ यह है कि ईश्वर की प्रसन्नता के लिए अपनी कमाई में से इस व्यय द्वारा मनुष्य में बलिदान और त्याग का गुण पैदा होता है। तंगदिली और धन लोलुपता दूर होती है। दीन-दुखियों के प्रति हमदर्दी और सहानुभूति पैदा होती है।
इस्लाम में यह एक इबादत है, मगर आर्थिक जगत के लिए ऑक्सीजन स्वरूप है। इसके माध्यम से बाज़ार में धन का प्रवाह होता है। असम्पन्न के हाथ में जो धन पहुंचता है उससे बाज़ार में वस्तुओं और सेवाओं की मांग उत्पन्न होती है, इससे उत्पादन तथा रोज़गार में वृदधि होती है और समाज आर्थिक ख़ुशहाली की ओर अग्रसर होता है। प्रति वर्ष मालदार के धन से कम-से-कम ढाई प्रतिशत भाग का प्रवाह जब ग़रीब की ओर होता है, तो अमीर-ग़रीब के बीच का अंतर या आर्थिक असमानता धीरे-धीरे घटने लगती है। याद रहे कि धन का असमान वितरण या नाबराबरी वर्तमान युग की आर्थिक समस्याओं में बहुत बड़ी समस्या मानी जाती है।


(3) रोज़ा
मनुष्य को संयमी और सदाचारी बनने के उद्देश्य से प्रत्येक वर्ष इस्लामी कलेंडर के रमज़ान मास के पूरे एक महीने के रोज़े फ़र्ज़ (अनिवार्य) किए गए। इसमें पौ फटने से लेकर सूर्यास्त तक खान-पान तथा सहवास वर्जित है। बुराइयों से बचने की हिदायत है। नेकी के कामों पर उभारा गया है। कितनी भी भूख-प्यास लगी हो आदमी कुछ भी खाए-पिएगा नहीं। अकेले में भी नहीं, क्योंकि रोज़ेदार को अहसास है कि अल्लाह से कुछ छिपा नहीं है। ईश्वर के सर्वव्यापी होने और उसकी अदालत पर ईमान है, रसूल (ईशदूत) का आज्ञापालन है, धैर्य और संकटों के मुक़ाबले का अभ्यास है। ईश्वर की प्रसन्न्ता के लिए मन की इच्छाओं को दबाने की शक्ति है। रोज़ा इंसान को भूख के कष्ट का अनुभव कराता है। जिससे उसमें भूखों के प्रति हमदर्दी का भाव पैदा होता है। सारे विश्व में एक ही महीने में रोज़े फ़र्ज़ होने के कारण सामाजिक एकता पैदा होती है। स्वास्थ्य की दृष्टि से रोज़े के अनगिनत लाभ भी रोज़ेदार प्राप्त करता है। रमज़ान माह के रोज़े वास्तव में एक ऐसा रिफ़्रेशर कोर्स या प्रशिक्षण है, जो व्यक्ति को हर वर्ष सन्मार्ग पर डटे रहने की नई ऊर्जा प्रदान करता है, उसे और अधिक आस्थावान, संयमी तथा चरित्रवान बनाता है।


(4) हज
चौथी अनिवार्य चीज़ हज यात्रा है। जीवन भर में केवल एक बार इसका पालन आवश्यक है और वह भी उसेक लिए जो मक्का तक आने-जाने का खर्च रखते हों। जहां अब मक्का बसा हुआ है वहां अब से हज़ारों वर्ष पहले ईश्वर के दूत हज़रत इब्राहीम (अलैहि.) ने एक छोटा सा घर (काबा) अल्लाह की इबादत के लिए बनाया था, जिसे अल्लाह ने इस्लाम का केंद्र बना दिया। नमाज़ के लिए उसी की ओर मुंह करने और सामर्थ्य होने पर उसका दर्शन तथा परिक्रमा करने का आदेश दिया। यह भी आदेश दिया कि इस घर की ओर आओ तो मन को शुद्ध कर के आओ, वासनाओं को रोको, रक्तपात, दुष्कर्म और कटुवचन से बचो।
                                                                         इस्लामी कलेंडर के ज़िलहिज्जा मास में पूरी दुनिया के मुस्लमान हज के लिए इकट्ठे होते हैं। सब एक ही लिबास में दो सफ़ेद चादरें ओढ़े एकेश्वरवाद के केंद्र की ओर खिंचे चले आते हैं। अब ना कोई गोरा है ना काला, ना राजा, ना प्रजा, ना अमेरिकी, ना अफ़्रीक़ी, सब एक समान हैं। वैश्विक भाईचारे का इससे बढ़कर कोई उदाहरण नहीं। यहां आकर उसके ईमान में ताज़गी आती है। इस्लाम का इतिहास उसकी आंखों के सामने आता है। यहीं से इस्लाम के अंतिम पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) ने अपना मिशन शुरु किया था। विरोधियों ने इसी नगर से उन्हें हिजरत करने पर मजबूर किया था। फिर एक दशक में ही वह विजयी होकर इस नगर में पधारे तो इतिहास हैरान है कि सारे विरोधियों को आम माफ़ी की घोषणा कर दी गई। यह सारी चीज़ें मानो आदमी अपने सामने देखता है जिसका गहरा भाव लेकर वापस आता है।

क़ुरआन मानवता के लिए वरदान
                               इस्लामी शिक्षाओं का मूल स्रोत पवित्र क़ुरआन है, जो ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) पर थोड़ा-थोड़ा कर के 23 वर्ष में अवतरित किया गया और अपनी मूल भाषा में अक्षरशः सुरक्षित है। उसके अवतरण के समय से ही हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) ने उसे लिखवाना शुरु कर दिया था। आपके बाद इस्लामी जगत के पहले ख़लीफ़ा (शासक) हज़रत अबुबक्र (रज़ि.) ने ग्रन्थ के रूप में प्रमाणिक प्रति तैयार करा कर सुरक्षित रखवा दी, फिर तीसरे ख़लीफ़ा हज़रत उस्मान (रज़ि.) ने उसकी नक़लें इस्लामी जगत के सभी केंद्रों को भेज दीं। उनमें से दो प्रतियां आज भी दुनिया में मौजूद है। एक ताशकंद की लाइब्रेरी में और एक इस्तंबोल (तुर्की) के म्यूज़ियम में। इसके अलावा अनगिनत मुसलमान प्रारंभिक काल से आज तक क़ुरआन को अक्षरशः ज़ुबानी याद करते हैं। प्रतिदिन नमाज़ में पढ़ने के अतिरिक्त रमज़ान के महीने में हर मस्जिद में पूरा क़ुरआन सुनाया जाता है। इस प्रकार लिखित व ज़ुबानी दोनों तरीक़ों से क़ुरआन की सुरक्षा का पूर्ण प्रबंध किया गया। क़ुरआन अरबी भाषा में है जो जन-सामान्य में प्रचलित है। दुनिया के करोड़ों लोग उसे समझते हैं। डेढ़ हज़ार साल से उसकी व्याकरण व शब्द रचना में बदलाव नहीं आया, इसलिए उसके अर्थ और अभिप्राय को समझने में कोई कठिनाई नहीं है।
क़ुरआन की वर्णन शैली अद्भुत है, जिसे पढ़ते हुए दिल कह उठता है कि यह किसी इंसान की वाणी नहीं है। क़ुरआन का चमत्कार है कि मानव-जीवन के प्रत्येक विषय पर विवेचना करते हुए भी उसमें कहीं कोई टकराव या विरोधाभास नहीं। पिछले डेढ़ हज़ार वर्षों में कितना कुछ बदल गया मगर उसके नियम व सिद्धांत कभी ग़लत साबित नहीं हुए। अरब के रेगिस्तानी नागरिकों से लेकर बाद के अफ़्रीक़ी, एशियाई और यूरोपीय देशो और आज के प्रगतिशील समाज के मार्गदर्शन में क़ुरआनी सिद्दांत कभी पीछे नहीं रहे। हमॆं विश्वास है कि विश्व की वर्तमान जटिल समस्याओं का समाधान भी क़ुरआनी मार्गदर्शन से ही संभव है। क़ुरआन वास्तव में ईश्वर की ओर से मानव जाति के लिए सर्वश्रेष्ठ उपहार है। यह किसी देश या जाति की सम्पत्ति नहीं यह मानवता की साझी धरोहर है।

हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) विश्वनायक

                                  जादू वह जो सर पर चढ़ कर बोले। एक प्रतिष्ठित लेखक और विद्वान माइकल हार्ट (Michael. H. Hart) जब निष्पक्ष होकर ग़ौर करता है, तो ईसाई होने के बावजूद अपनी पुस्तक The 100 में दुनिया की सौ प्रभावशाली हस्तियों में हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) को पहले नम्बर पर रखता है और पूरी ईम्नदारी से स्वीकार करता है कि- "He was the only man in history who was supremely successfu8l on both religious and secular levels"
"इतिहास में वह (हज़रत मुहम्मद सल्ल.) एकमात्र व्यक्ति थे, जो धार्मिक और सांसारिक दोनों स्तरों पर सर्वोच्च सफल रहे।"

हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) का जीवनकाल ऐतिहासिक युग का है। उस समय इतिहास लिखने का चलन था, मुस्लिम भी लिख रहे थे और दूसरे समुदाय के लोग भी लिख रहे थे। आप का जीवन, मिशन और कारनामे सबसे सामने आज भी मौजूद हैं। ख़ुद मुसलमानों ने आप की जीवन शैली, उपदेश, कथन, भाषण, कार्यकलाप, आश्चर्यजनक प्रामाणिकता के साथ रिकार्ड किए हैं, जिसका कोई दूसरा उदाहरण कहीं और नहीं मिलता। आपका सम्पूर्ण जीवन मानवता के हितार्थ समर्पित है। अरब के बिगड़े लोगों के बीच जो केवल मारना और मरना जानते थे, मूर्तिपूजक थे, अपने पूर्वजों हज़रत इब्राहीम (अलैहि.) और हज़रत इस्माईल (अलैहि.) का एकेश्वरवाद भुला बैठे थे, यहां तक की अपनी बेटियों को ज़िन्दा गाड़ देते थे, आप जो क्रान्ति दुनिया में लाए उनसे पूरा विश्व चकित है। इस दौर में अरब के उम्मी (निरक्षर) हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) ने ईश्वरीय आदेश पाकर समाज में ज़बरदस्त संघर्ष आरंभ किया और दो दशकों में सब कुछ बदल कर रख दिया। जहां कष्टों की चरम सीमा सहन की, पत्थरों से स्वागत हुआ। पूरे ख़ानदान को ढाई साल तक सामाजिक बहिष्कार के कारण मक्के की घाटी में नज़रबन्दी झेलनी पड़ी, जहां कभी-कभी रोटी के बजाय पेड़ों के पत्ते खाने की नौबत आई, यहां तक की अपनी मातृभूमि त्याग कर मदीना हिजरत करनी पड़ी। विरोधी वहां भी लड़ने पहुंच गए। अनुयायी आ रहे थे क़ाफ़िला बढ़ रहा था, विरोधी भी बढ़ रहा था। हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) को सत्य-स्थापना के लिए युद्ध भी करना पड़ा। एक समय आया कि उसी मक्का नगर में विजय पताका के साथ दाख़िल हुए। दुनिया आप के और आप के साथियों के रवैये पर हैरान थी कि इस विजय में न रक्तपात था न बदले की भावना। कट्टर विरोधी हथियार डाल कर सिर झुकाए खड़े थे, और विजयी फ़ौज के कमांडर का एलान था कि आज सबको माफ़ कर दिया गया। यह था वह किरदार जिसने सब कुछ बदल डाला। दुश्मन, दोस्त ही नहीं अनुयायी बन गए। यही लोग जब उस क्रांतिकारी संदेश को लेकर अरब भू-भाग से बाहर निकले तो सत्तासीन तानाशाहों ने मोर्चा संभाल लिया, मगर जनता की हमदर्दी उनके साथ थी, क्योंकि हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) का पैग़ाम दबे-कुचलों का हिमायती (सहायक) था। उनके यहां काले-गोरे, अरब व ग़ैर-अरब, अमीर-ग़रीब, आक़ा-ग़ुलाम, सब बराबर थे। वह इंसानों को इंसानी ग़ुलामी से मुक्त कराकर केवल एक अकेले अल्लाह की ग़ुलामी में लाना चाहते थे। कितना सीधा-सादा मगर क्रांतिकारी आह्वान था यह। हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) ने रोम के सम्राट को पत्र भेजकर इस्लाम का न्योता दिया, ईरान के शक्तिशाली मगर घमंडी बादशाह के पास अपने दूत के हाथ पत्र भेजा। विश्व के अन्य सभी सत्तासीन लोगों को चेताया और इतिहास साक्षी है कि अंततः हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) की बात ही सही साबित हुई।
फिर उस क्रांति को देखिए जो हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) के मिशन से फैली। अमन-चैन का वातावरण, ऊंच-नीच, छूत-छात, भेदभाव का अंत, बेटी के पैदा होने पर ख़ुशी क्योंकि उनके पालन-पोषण पर स्वर्ग की ख़ुशख़बरी, नारी का सम्मान की मां के क़दमों में स्वर्ग, शादी के समय लड़की की सहमति का नियम और महर के रूप में रक़म का प्रावधान, पति-पिता और पुत्र तीनों की संपत्ति में विरासत में हिस्सेदारी। धीरे-धीरे ग़ुलामों का आज़ाद कराने की अनूठी प्रक्रिया लागू करना। शासन चलाने के लिए इस्लामी लोकतंत्र जिसमें ख़लीफ़ा का चयन जनता की आम सहमति (बैअत प्रक्रिया) द्वारा किया जाना। आर्थिक क्षेत्र में ब्याज पर पूर्ण प्रतिबंध तथा मालदारों से अनिवार्य ज़कात द्वारा समाज की ग़रीबी दूर करना। जमाख़ोरी, मुनाफ़ाख़ोरी, मिलावट आदि आर्थिक अपराधों की रोकथाम। शराब-जुआ सट्टा वर्जित। चोरी-डकैती जालसाज़ी नाप तौल में हेराफेरी पर दंड। वैश्यावृत्ति तथा अवैध संबंधों की मनाही और कठोर सज़ा का प्रावधान। सुदृढ़, शीघ्र और बेलाग न्याय व्यवस्था। इन बिंदुओं पर विचार कीजिए, क्या यह आदर्श समाज के निर्माण का रास्ता नहीं है? और क्या हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) के अतिरिक्त कोई विश्वनायक दिखाई पड़ता है? क्या आज के भ्रष्ट, अपराधयुक्त, पक्षपातपूर्ण, उद्दण्ड समाज के सुधार के लिए ऐसे विश्वनायक द्वारा सुझाई तथा दुनिया में व्यवहारिक रूप से सफलता पूर्वक संचालित की गई व्यवस्था की मांग हमारा अंतःकरण नहीं कर रहा है?

इस्लाम की जीवन व्यवस्था (Islamic System of Life)
इस्लाम धर्म की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह एक पूर्ण जीवन व्यवस्था (Complete System of Life) रखता है। मनुष्य जीवन के जितने भी अंग और अनुभाग हो सकते हैं उनके संबंध में उचित सिद्धांत नियम, उपनियम बनाता है। पवित्र क़रआन और फिर हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) द्वारा उसकी आधिकारिक व्याख्या और इन दोनों को आधार बनाकर व्यावहारिक क्रियान्वयन इस धरती पर स्वयं हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) द्वारा किया जाना, मानवता के लिए वरदान है। यह जीवन-व्यवस्था मानव स्वभाव के लिए अनुकूल है, अत्यंत संतुलित एवं मध्यमार्गी है। इन्सान की आत्मा और उसके भौतिक जीवन दोनों को एकसाथ संतुष्ट करती है और प्रकृति में समंवित होकर कार्य करती है। यहां अत्यंत संक्षेप में उसकी नैतिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और आध्यात्मिक व्यवस्था पर प्रकाश डाला जा रहा है।

 

1.इस्लाम की नैतिक व्यवस्था (Moral System of Islam)
सभी धर्मों और पंथों में नेकी-बदी, अच्छाई-बुराई का विचार पाया जाता है। इस्लाम भी उन्हीं को मान्यता देता है। सत्य, न्याय, वचन पालन, कर्तव्यपरायणता को अच्छे गुणों में सम्मिलित किया गया है। आपसी सहयोग, अनुशासन, संयम, धैर्य, बहादुरी, प्रशंसनीय माने गए हैं। झूठ, धोखेबाज़ी, चोरी, डकैती, अत्याचार, व्याभिचार, घूस, दोषारोपण आदि की मनाही की गई है। मगर नैतिकता के क्षेत्र में इस्लाम का विशिष्ट योगदान चार बिन्दुओं में व्यक्त किया जा सकता है-
1. इस्लाम ने जीवन के प्रत्येक भाग में नैतिकता को अनिवार्य किया। व्यक्तिगत क्रियाकलाप, पारिवारिक गतिविधियां, सामाजिक व्यवस्था, लेन-देन के मामले शासन-प्रशासन और राजनीति यहां तक की रणभूमि में भी सच्चाई, ईमानदारी, न्याय और उदारता को हाथ से न जाने देने के निर्देश दिए।
2.नैतिकता पर चलना आसान कार्य नहीं है। इसके लिए ईश प्रसन्नता और आख़िरत का ईनाम या यातना को लोगों के मन मस्तिष्क में बैठाया। इस भय और परलोकवाद के कारण ही किसी बाहरी दबाव की अनुपस्थिति में भी मनुष्य नैतिकता के कठिन रास्ते पर चल सकता है। अगर परलोक की जवाबदेही पर ईमान न हो तो आदमी अधिक समय तक सच्चाई के उसूलों व सिद्धांतो पर नहीं चल सकता, किसी न किसी मोड़ पर वह हिम्मत हार जाता है।
3.मुस्लिम समुदाय पर दायित्व डाला गया कि वह संगठित प्रयास कर के नेकी को फैलाएं और बुराई को रकें, क्योंकि नैतिकता किसी का निजी मामला नहीं है। यह समाज के सामान्य वातावरण के बनने या बिगड़ने से जुडा है।
4. समाज के ऐसे तत्व जो अधिक बिगड़े हुए हों और शराफ़त की भाषा उन पर बेअसर हो तो समाज को उनकी गंदगी से बचाने के लिए और उन्हें सही रास्ते पर लाने के लिए दण्डसंहिता (Penal Code)मौजूद है, जो अंतिम अस्त्र के रूप में ही इस्तेमाल होगी।

 

2.इस्लाम की राजनैतिक व्यवस्था (Political System Of Islam)
इस्लाम के अनुसार अस्ल सत्ता अल्लाह की है। मनुष्य धरती पर उसका प्रतिनिधि है, इस लिए ईश-प्रदत्त नियमों के अन्तर्गत जनता के विश्वासपात्र ख़लीफ़ा (इस्लामी शासक) जनता ही के विश्वासपात्र सलाहकार परिषद के परामर्श से व्यवस्था देखेंगे। यह व्यवस्था निष्पक्षता से काम करेगी, सभी नागरिक समान होंगे, न्यायपालिका राजनीतिक व्यवस्था के अधीन नहीं बल्कि आज़ाद होगी। एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना की जाएगी। राज्य के कोषागार से ग़रीब, विधवा, अपंग और असहाय की पूरी देखभाल की जाएगी। जनता के अविश्वास मत पर ख़लीफ़ा को हट जाना होगा। ख़लीफ़ा, सलाहकार परिषद और जनता सब ईश्वर के समक्ष जदवाबदेह हैं। क़ुरआन और हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) की शिक्षाओँ के विपरित कोई क़ानून बनाने का अधिकार नहीं है। (उदाहरण स्वरूप सर्वसम्मति से भी शराब जायज़ करने का क़ानून नहीं बन सकता क्योंकि यह क़ुरआन द्वारा वर्जित है।) हां वर्तमान नए प्रकरणों में जिनका पहले से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रावधान नहीं है इस्लामी स्प्रिट के मद्देनज़र क़ानून बनाए जा सकते हैं। यह व्यवस्था भ्रष्टाचार, पक्षपात, अन्याय, शोषण से पाक होगी। मानवाधिकारों का पूर्ण संरक्षण होगा। दूसरे धर्मों के मामने वालों के जान-माल की रक्षा की जाएगी। उनके पर्सनल लॉ में हस्तक्षेप नहीं होगा। इस व्यवस्था का व्यावहारिक आदर्श रूप इतिहास के पन्नों में हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) और प्रथम चार ख़लीफ़ाओं हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ (रज़ि.), हज़रत उमर (रज़ि.), हज़रत उस्मान (रज़ि.) और हज़रत अली (रज़ि) के काल में देखा जा सकता है।

 

3. इस्लाम की पारिवारिक व्यवस्था (Family System of Islam)
इस्लाम परिवार को बहुत महत्व देता है क्योंकि यह समाज रूपी इमारत की ईंट है। परिवार स्त्री-पुरुष के समाज द्वारा मान्यता प्राप्त रिश्ते अर्थात् विधिवत विवाह द्वारा बनेगा। अवैध संबंध या व्याभिचार सिद्ध होने पर कड़ा दंड दिया जाएगा। परिवार का मुखिया पुरुष होगा, क्योंकि यह अनुशासन के लिए ज़रूरी है। स्त्री परिवार में बहुत सम्मानित और आदर योग्य है। संतान का कर्तव्य है कि वह मां-बाप का आज्ञापालन करें उनकी सेवा करें। सेवा में माता को वरीयता दी जाएगी, क्योंकि यह बच्चों को पैदा करने और उनका पालन-पोषण करने में कष्ट सहती है। बेटों को बेटियों पर वरीयता नहीं दी जाएगी। बेटियों के पालन-पोषण पर उसे जन्नत की ख़ुशख़बरी है। निकाह के समय लड़की की सहमति ली जाएगी, उसे महर की रक़म प्राप्त करने का अधिकार होगा। माता-पिता पर संतान में अच्छे संस्कार डालने और उनकी शिक्षा-दीक्षा के प्रबंध का उत्तरदायित्व सौंपा गया, ताकि आने वाली पीढ़ी अच्छे समाज का निर्माण कर सके। वे अच्छे नागरिक, अच्छे इंसान और अच्छे मुसलमान बन कर जीवन व्यतीत करें। पति-पत्नी के संबंध इतने बिगड़ जाएं कि समझौते के सभी प्रयास असफल हो जाए तो तलाक़ की इजाज़त दी गई है।

 

4. इस्लाम की सामाजिक व्यवस्था (Social System of Islam)
इंसान सामूहिक जीवन बिताने पर विवश है, इसलिए समाज में हमदर्दी, भाईचारा, एक-दूसरे पर विश्वास, अमन-चैन का वातावरण ज़रूरी है। इस्लाम के अनुसार सभी इंसान आपस में भाई-भाई हैं, क्योंकि वे एक ही जोड़े की संतान हैं। उनमें रंग, नस्ल, भाषा, जाति और धन-संपत्ति के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता। इसलिए नमाज़ में सब को कंधे से कंधा मिलाकर खड़े होने का निर्देश है। हज में सब एकसमान वस्त्र में पूरी दुनिया के लोग अल्लाह की इबादत करते हैं। स्त्री-पुरुष का रिश्ता केवल विवाह से माना गया है। आज़ाद यौन संबंधों के कारण परिवार टूटते हैं समाज दूषित होता है, इसलिए इस्लाम में इन पर कड़े दंड का प्रावधान है चाहे यह संबंध आपसी रज़ामंदी से ही क्यों न हो। पड़ोसी से चाहे वह जिस वर्ग या धर्म का हो उसके साथ अच्छा व्यवहार करना अनिवार्य है। समाज के अच्चे कामों मॆं मुसलमान को सहयोग पर उभारा गया। जुर्म और अत्याचार के विरुद्ध आवाज़ उठाना तथा न्याय-स्थापना का प्रयास करना ज़रूरी है। अपना समुदाय यदि अन्याय पर हो तो उसका साथ देने से रोका गया है। इस्लाम सभी नैतिक सिद्धांतों को समाज में प्रचलित देखना चाहता है। 

 

5.इस्लाम की आर्थिक व्यवस्था (Economical System of Islam)
इस्लाम आर्थिक जगत में भी नैतिकता का पक्षधर है। अर्थ व्यवस्था के अच्छे होने का मापदंड उत्पादन या प्रति व्यक्ति आय नहीं बल्कि यह है कि समाज में आख़िरी आदमी (Marginal Citizen) की मूलभूत आवश्यकताएं पूरी हो। इस व्यवस्था में हर प्रकार का ब्याज वर्जित है क्योंकि यह मानवता विरोधी और अन्याय पूर्वक है। जो लोग अपने धन का निवेष (Investment) चाहते हैं वे लाभ और हानि दोनो में सम्मिलित हो अर्थात जोखिम वहन करें। जब संसार में किसी भी चीज़ का पूर्वानुमान शत प्रतिशत संभव नहीं तो पूंजीपति के धन पर ब्याज दर के पूर्व निर्धारण का क्या औचित्य है। यह और कई अन्य कारणों से इस्लाम ब्याज को पूर्वरुपेण वर्जित घोषित करता है। जुआ, लॉटरी, सट्टा और समाज को बिगाड़ने वाले सभी कारोबार जैसे शराब, अश्लीलता फैलाने वाले मनोरंजन प्रतिबंधित हैं। मालदार से उनके जमा धन पर ढाई प्रतिशत ज़कात (अनिवार्य दान) वसूल कर के उनसे ग़रीब की आवश्यकता पूरी करने का अनुपम प्रबंध किया गया है। अनिवार्य योगदान (ज़कात) के अतिरिक्त धनवान मुसलमानों को प्रेरित किया गया है कि वे स्वेच्छा से दान-पुण्य के द्वारा समाज में कमजोर वर्ग की सहायता में सतत प्रयत्नशील रहे। फ़िज़ूलख़र्ची अनावश्यक दिखावे पर पाबंदी है ताकि धर्म के अपव्यय को रोक कर समाज के वंचित वर्ग की मदद की जाए। आर्थिक अपराध जैसे जमाख़ोरी, ब्लैक मार्केटिंग (कालाबाज़ारी), मिलावट, नाप-तौल में हेराफेरी पर कड़ी सज़ा का प्रावधान है। मरने के बाद जायदाद पुत्र, पुत्रियों तथा अन्य उत्तराधिकारियों में वितरित की जाएगी जिससे धन के केंद्रीकरण में कमी आएगी। इस्लामी शिक्षाओं के अनुसार मज़दूर की मज़दूरी और कर्मचारी का वेतन पहले तय कर के समय से भुगतान करना होगा।


6. इस्लाम की क़ानूनी व्यवस्था (Legal System of Islam)
इस्लाम ने हर क्षेत्र के क़ानून की रूप रेखाएं निर्धारित की हैं जो क़ुरआन और ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) की शिक्षा और व्यवहार से उद्धृत है। इन सीमाओं के अन्तर्गत नई चुनौतियों के प्रस्तुत होने पर विस्तृत नियम बनाए जा सकते हैं। यह नियम, क़ानून सदा के लिए और स्थान के लिए प्रासंगिक है। इस क़ानून का लोगों के मन में सम्मान होता है क्योंकि यह ईश प्रदत्त प्रणाली का अंग है। इस क़ानून के मुख्य प्रकार ये हैं।
दंड संहिता : चोरी, व्याभिचार, दोषारोपण, झूठी गवाही, शराब, रिश्वत पर कड़े दंड का प्रावधान, जिससे बिगड़े हुए लोग भी अपराध करते हुए डरें।
पारिवारिक : निकाह, तलाक़, विरासत संबंधि नियम
नागरिक : माल, इज़्ज़त, आबरु की रक्षा, किसी को हीन समझ कर मज़ाक न उड़ाना, किसी को बुरे नाम से न पुकारना, पीठ पीछे किसी की बुराई न करना, बदगुमानी (कुधारणा) न करना आदि के नियम।
श्रम : मज़दूरी पहले तय करना, पसीना सूखने से पहले (अर्थात शीघ्र) मज़दूरी देना, मज़दूर पर उसके सामर्थ्य से अधिक काम न डालना, मज़दूर तथा कर्मचारी अमानत में ख़यानत नहीं करेगा और काम चोरी नहीं करेगॊ।
आर्थिक : सभी अनुबंध लिखित या गवाही से होंगे। ब्याज की मनाही, जुआ, सट्टा, लॉटरी भी प्रतिबंधित। मिलावट, जमाख़ोरी, नापतौल में हेराफेरी पर सज़ा। क्रय-विक्रय संबंधि नियम, किसी भूमि के उपज की बटाई, साझेदारी के सिद्धांत, उधार लेन-देन के तरीक़े आदि। इसके अतिरिक्त युद्ध, संधि और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के नियम क़ानून भी उपलब्ध हैं।

 

7.इस्लाम की आध्यात्मिक व्यवस्था (Spiritual System of Islam)
इस्लाम जीवन को आध्यात्मिक और सांसारिक विभागों में नहीं बांटता, बल्कि उसके अनुसार इंसान की रूहानी (आध्यात्मिक) उन्नति का मार्ग संसार से होकर गुज़रता है, इस लिए संसार त्यागने की अनुमति नहीं। पालनहार की दासता स्वीकारना आत्मा की मांग है। इस के लिए नमाज़, रोज़ा, ज़कात और हज इबादत व उपासनाएं हैं। मगर अस्ल काम तो यह परीक्षा पास करना है कि बाज़ार में, ऑफ़िस में, घर परिवार में, अदालत में आप ईश्वर के आज्ञापालक हैं, वहां ईमानदारी, कर्तव्यपरायणता से कार्य करते हैं? यदि हां तो आप आध्यात्मिक प्रगति के मार्ग पर अग्रसर हैं अन्यथा नहीं। मस्जिद में आज्ञाकारी और बाहर आकर अवज्ञा, इस दोग़लेपन की इजाज़त इस्लाम नहीं देता। आप ईश्वर के प्रति आस्थावान हों, उनके बताए मार्ग पर व्यावहारतः चलें। अपने आप को ईश्वर के समक्ष विचार में भी और आचरण में भी जितना अधिक समर्पित करते चले जाएंगे उतने ही आध्यात्मिक प्रगति में आगे बढ़ते जाएंगे।
उपरोक्त संक्षिप्त चर्चा में स्पष्ट है कि इस्लाम जीवन के प्रत्येक क्षेत्र के लिए नियम-क़ानून रखता है। मूलाधारों को अपरिवर्तित रखते हुए नई चुनौतियों के लिए उऩमें पर्याप्त लचीलापन (Flexibility) पाया जाता है। दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि अन्य जीवन व्यवस्थाओं के नियम-क़ानून की तुलना में इस्लामी व्यवस्था का आधार अत्यंत मज़बूत है। अन्य क़ानूनों के पीछे सामाजिक दबाव या शासन, प्रशासन के भय के अतिरिक्त कोई शक्ति नहीं होती, जबकि इस्लाम इन नियमों के पालन पर ईश-प्रशन्नता और पारलौकिक पुरस्कार तथा इन्हें तोड़ने पर आख़िरत (परलोक) की पकड़ के विश्वास द्वारा एक सुदृढ़ क्रियान्वयन शक्ति प्रदान करता है जो इस व्यवस्था का सबसे बड़ा गुण है।

इस्लाम और ग़ैर-मुस्लिम
इस्लाम सारी मानवता के लिए अल्लाह की ओर से भेजी गई जीवन व्यवस्था है। इसी के साथ-साथ यह भी तथ्य है कि हर युग में इसको मानने और न मानने वाले अर्थात मुस्लिम और ग़ैर-मुस्लिम के दो गिरोह रहे हैं। न मामने वालों के प्रति इस्लाम क्या रुख़ अपनाता है? हम इस प्रश्न का उत्तर जानने का प्रयास करेंगे।
इंसान को इस धरती पर पूरी आज़ादी के साथ भेजा गया है। इसके सामने सारी सच्चाइयां रख दी गई हैं और उसे पूरी आज़ादी दी गई है कि वह चाहे तो इस्लाम को स्वीकार करे और चाहे तो अस्वीकार कर दे। अल्लाह ने बलपूर्वक हिदायत का तरीक़ा नहीं अपनाया। सही और ग़लत रास्ता उन पर चलने का फल लोगों के सामेन रख दिया गया और फिर उन्हें चयन की आज़ादी दे दी गई। इस्लाम की बातें लोगों के सामने रखी जाएं, लेकिन जो लोग उसे न माने उनसे कोई झगड़ा न किया जाए, संबंध ख़राब न किए जाएं, वह जिनको पूजते हैं, उन्हें बुरा न कहा जाए, उनका दिल न दुखाया जाए, यह है इस्लाम की शिक्षा। क़ुरआन कहता है : "स्पष्ट कह दो कि यह सत्य है तुम्हारे रब की ओर से, अब जिसका जी चाहे मान ले और जिसका जी चाहे इंकार कर दे" (18:29)। "यह लोग अल्लाह के सिवा जिनको पुकारते हैं, उन्हें बुरा न कहो" (6:108)। "दीन (धर्म) के मामले में कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं" (2:256)। यदि किसी देश में इस्लामी सरकार हो तो उनका कर्तव्य है कि वह इस्लाम को न मानने वालों को भी देश का सम्मानजनक नागरिक मानें, उन्हें सारे अधिकार मिले, उनके जान-माल और पूजा स्थलों की सुरक्षा का प्रबंध हो।

 

इस्लाम और जिहाद
पश्चिम साम्राज्य ने अपने औपनिवेशिक युग में जिहाद के विरुद्ध कुप्रचार किया और जिहाद की भयानक तस्वीर पेश करने में कोई क़सर नहीं छोड़ी और यह सब कुछ उस समय हुआ, जब स्वयं उनके अत्याचारों से आधी दुनिया पीड़ित थी। आज भी यूरोप और अमेरिका अपने आर्थिक और राजनैतिक फ़ायदों के लिए तोपों, टैंकों, मिज़ाइलों, युद्धपोतों और आधूनिकतम हथियारों से जिस देश पर चाहें चढ़ दौड़ते हैं। ‘जिहाद' अरबी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है-अनथक प्रयास। ऐसा प्रयास जिसमें कोई कसर न रह जाए, यहां तक की यदि जान लड़ानी पड़े तो उसमें भी पीछे न हटा जाए। जिहाद केवल युद्ध के मैदान में ही नहीं होता, बल्कि जिहाद वास्तव में उस सतत प्रयास का दूसरा नाम है, जो अल्लाह के दीन को फैलाने और अल्लाह की ख़ुशी के लिए एक आदर्श समाज बनाने के लिए किया जाए। इस प्रयास में कभी हथियार उठाने की ज़रूरत भी पड़ सकती है। परन्तु मूलतः जिहाद केवल जंग के हथियारों से नहीं होता। क़ुरआन ने कई बार जिहाद की अपील की है, केवल जान से नहीं, बल्कि माल से भी जिहाद करने को कहा है। इस्लाम जब अपने मानने वालों से जिहाद के लिए कहता है तो उसका अर्थ होता है कि ज़मीन से फ़साद, उपद्रव और अन्याय को मिटाने के लिए ज़ोरदार प्रयास किया जाए और जो कुछ है सब दांव पर लगा दिया जाए। यहां यह बात भी जान लेने की है ताकि सशस्त्र जिहाद शासक की अनुमति से और उनके नेतृत्व ही में हो सकता है। तथा इस्लामी जिहाद के लिए फ़ौज और शासक (नेतृत्व) को कुछ नैतिक मूल्यों और शिक्षाओं का पाबंद बनाया गया। जैसे महिलाओं, बूढ़ों-बच्चों सन्यासियों आदि पर हाथ न उठाया जाए। फ़स्ल आदि को नुकसान न पहुंचाया जाए आदि। जिहाद के संबंध में विसतृत जानकारी अन्य पुस्तकों से ली जा सकती है।


इस्लाम और औरतें
इस्लाम से जुड़ा एक बहुचर्चित विषय महिलाओं का भी है। यह आरोप लगाया जाता है कि इस्लाम औरतों के साथ पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाता है। ऐसे आरोपों को स्वर मूलतः पश्चिम में दिया जाता है। यदि ये लोग यह चाहते हों कि इस्लाम भी महिलाओं के साथ उस व्यवहार की पुष्टि करे, जो पश्चिम में उनके साथ हो रहा है तो उसका जवाब साफ़ शब्दों में ‘नहीं' है। दोनों का आदर्श एकदूसरे से उल्टा है। इस्लाम महिलाओं को जो शालीनता, गौरव, सम्मान और संरक्षण देता है, उसका कोई जोड़ उस सभ्यता से कैसे संभव है, जहां उसे कॉलगर्ल बनाया जाता हो, उसे नंगा किया जाता हो और उसे पुरुषों की इच्छाओं की पूर्ती की एक सामग्री मान लिया गया हो। पश्चिमी मापदंड पर इस्लामी महिला भला कैसे फिट हो सकती हैं। हां यह बात अपनी जगह किसी हद तक सही है कि मुस्लिम समाज में कहीं-कहीं महिलाओं को वे अधिकार प्राप्त नहीं, जो इस्लाम उन्हें देता है और उनके कारण उन्हें कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। महिलाएं और पुरुष अपने इस्लामी अधिकारों और कर्तव्यों से पूरी तरह परिचित नहीं और उसे पूरी तरह कार्यान्वित नहीं करते। जहां तक इस्लामी क़ानून का संबंध है उसके अनुसार महिला और पुरुष दोनों को समान अधिकार प्राप्त है। यह तथ्य है कि ईश्वर ने हमारे ही हित में दोनों में शारीरिक और मनोवैज्ञानिक अंतर रखा है। इस्लाम उनको ध्यान में रखते हुए दोनों के कार्य क्षेत्र तथा ज़िम्मेदारियां तय करता है। नारी के सम्मान तथा उनके संरक्षण की पूर्ण व्यवस्था करता है।

 

इस्लाम और मानवाधिकार
अपने अंतिम हज के अवसर पर ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) ने अपने सवा लाख अनुयायियों के समक्ष जो महत्वपूर्ण भाषण दिया था, वह हदीस की पुस्तकों में पूर्ण रूप से सुरक्षित है। यह आदेश-निर्देश मानावधिकारों का ऐसा चार्टर है जिसका उदाहरण पहले तो क्या आज भी प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। इसकी विशेषता यह है कि यह समाज में पूरे तौर पर लागू हुआ। इस महत्वपूर्ण भाषण का सार प्रस्तुत है, पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल.) ने कहा-
                                                                        "लोगों ! मेरी बात ध्यान से सुनो, हो सकता है कि इस वर्ष के बाद इस स्थान पर मैं तुम से कभी न मिल पाउं। अज्ञानकाल की समस्त नीतियां मेरे पैर के नीचे हैं (अर्थात् निरस्त कर दी गई हैं), लोगों! तुम सब का प्रभु एक है और बाप भी एक है। किसी अरब वालों को किसी ग़ैर-अरब पर बड़ाई नहीं, न किसी गोरे को काले पर, बड़ाई केवल परहेज़गारी के आधार पर है।
                                                                      हर मुसलमान दूसरे का भाई है, लोगों! तुम्हारी जान और माल एक-दूसरे पर हराम है। जिस प्रकार यह (हज का) दिन है, यह महीना है और यह नगर (मक्का) है। (अर्थात् जान माल को हानि पहुंचाना निषिद्ध है) अपराधी अपने अपराध के लिए स्वंय ज़िम्मेदार है, उसके पिता या पुत्र से बदला नहीं लिया जाएगा। तुम्हारो ग़ुलाम-तुम जो स्वयं खाओ वही उनको खिलाओ, जो स्वयं पहनो वही उनको पहनाओ। अज्ञानकाल के हत्या के समस्त प्रकरण (जिसमें बदला लेने का चक्र चलता था) निरस्त किए जाते हैं। ब्याज के सभी अनुबंध समाप्त किए जाते हैं, हां अपना मूलधन प्राप्त करने के तुम अधिकारी हो। सबसे पहले मैं अपने ही परिवार के अब्बास-बिन-अब्दुल मुत्तलिब का सूद ख़त्म करता हूं।
                             ऐ लोगों! तुम अपनी पत्नियों पर अधिकार रखते हो और वे भी तुम पर अधिकार रखती हैं। तुम्हारी ओर से उनकी ज़िम्मेदारी है कि वे तुम्हारे बेडरूम (शयनकक्ष) में किसी ग़ैर को न आने दें, क्योंकि यह तुम्हें सहन नहीं है और उन पर स्वयं भी अनिवार्य है कि वे अश्लीलता का कोई कार्य न करें। मैं औरतों के बारे में वसीयत करता हूं कि उनके साथ भला व्यवहार करो।
                              ऐ लोगों! मेरे बाद कोई संदेष्टा नहीं और ना ही तुम्हारे बाद कोई नई उम्मत (समुदाय) पैदा होगी, इसलिए अपने प्रभु पालनहार की उपासना करो, पांचों समय की नमाज़ पढ़ो, रमज़ान मास के रोज़े रखो, अपने माल में से शुद्ध मन से ज़कात दो, अपने प्रभु के घर का दर्शन (हज) करो और अपने अमीर (इस्लामी शासक) का आज्ञापालन करो ताकि तुम्हें स्वर्ग प्राप्त हो। यदि कोई नकटा हब्शी अमीर हो और वह ईश्वर के ग्रंथ (क़ुरआन) के अनुसार चले तो उनकी बात सुनो और आज्ञापालन करो।
मैं तुम्हारे बीच ऐसी चीज़ छोड़ रहा हूं कि यदि तुम उसे मज़बूती से पकड़े रहोगे तो कभी गुमराह नहीं हो सकते-वह है अल्लाह की किताब (क़ुरआन) और मेरी सुन्नत (हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) का व्यवहार जो हदीस के रूप में सुरक्षित है)"
अंत में निर्देश दिया गया कि उपस्थित जन इन उपदेशों को उन लोगों तक पहुंचा दें जो यहां उपस्थित नहीं हैं।

 

उपसंहार
उपरोक्त संक्षिप्त चर्चा में स्पष्ट है कि इस्लाम केवल मुसलमानों का ही धर्म नहीं है, बल्कि यह पूरी मानवता के लिए ईश्वर की प्रदान की हुई जीवन प्रणाली है। इसको समझने के लिए मुसलमानों के व्यवहार या किसी इतिहासकार या किसी लेखक के विचारों को आधार बनाने के बजाय स्वयं इस्लाम के मूल स्रोतों-पवित्र क़ुरआन तथा हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) की शिक्षाओं को आधार बनाना चाहिए। यदि हमें लगे कि यह प्रणाली तर्कसंगत है, मन को अपील कर रही है, सुख-शांति दे सकती है, हमारे कष्टों और तनाव का निवारण कर सकती है तथा इसके द्वारा हम अपने प्रभु की अनुकंपा प्राप्त कर सकते हैं, तो इस संबंध में हमें पूरी गंभीरता से विचार करना चाहिए।