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जीवन, मृत्यु के पश्चात्

लेखक - सैयद अबुल आला मौदूदी
अनुवादक - नसीम ग़ाज़ी फ़लाही

मर्कज़ी मक्तबा इस्लामी पब्लिशर्स नर्इ दिल्ली- 110025

  
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अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील, अत्यन्त दयावान है।

 जीवनमृत्यु के पश्चात्
 

मरने के बाद कोर्इ दूसरी ज़िन्दगी है या नहीं? और है तो कैसी है? यह सवाल हक़ीक़त में हमारे इल्म की पहुँच से दूर है। इसलिए कि हमारे पास वे आँखें नहीं जिनसे हम मौत की सीमा के उस पार झाँक कर देख सकें कि वहाँ क्या है और क्या नहीं है। हमारे पास वे कान, नहीं, जिन से हम उधर की कोर्इ आवाज़ सुन सकें। हम कोर्इ ऐसी मशीन भी नहीं रखते जिसके ज़रिए यह यक़ीन के साथ मालूम किया जा सके कि उधर कुछ है या नहीं। इसलिए जहाँ तक साइंस का ताल्लुक़ है, यह सवाल उसकी कार्य सीमा से बिलकुल बाहर है। जो आदमी साइंस का नाम लेकर कहता है कि मरने के बाद कोर्इ ज़िन्दगी नहीं है, वह बिल्कुल एक ग़ैर साइंटिफ़िक बात कहता है। साइंस की दृष्टि से न तो यह कहा जा सकता है कि कोर्इ ज़िन्दगी है और न यह कि कोर्इ ज़िन्दगी नहीं है। जब तक हमें इल्म का कोर्इ यक़ीनी और पक्का ज़रिया हासिल नहीं होता, कम से कम उस वक़्त तक तो सही साइंटिफ़िक बात यही हो सकती है कि हम मरने के बाद ज़िन्दगी का न इनकार करें, न इक़रार।

 

मगर क्या अमली और व्यावहारिक ज़िन्दगी में हम इस साइंटिफ़िक रीति को निभा सकते हैं? शायद नहीं, बल्कि वास्तव में नहीं। अक़ली हैसियत से तो यह मुमकिन है कि जब एक चीज़ को जानने के ज़रिये और साधन हमारे पास न हों तो उसके सिलसिले में हम इनकार और इक़रार दोनों से बचें, लेकिन जब किसी चीज़ का संबंध हमारी अमली और व्यावहारिक ज़िन्दगी से हो तो हमारे लिए इसके सिवा कोर्इ रास्ता नहीं रहता कि या तो उसके इनकार पर अपने काम के तरीक़े को क़ायम करें या इक़रार पर । मिसाल के तौर पर एक व्यक्ति है जिसको आप नहीं जानते, अगर उसके साथ आपको कोर्इ मामला न करना हो तो आपके लिए यह मुमकिन है कि उसके र्इमानदार होने या न होने के बारे में कोर्इ फ़ैसला न करें। लेकिन जब आपको उससे मामला करना हो तो आप मजबूर हैं कि या तो उसे र्इमानदार समझकर मामला करें या बेर्इमान समझकर। आप अपने दिल में ज़रूर यह सोच सकते हैं कि जब तक उसका र्इमानदार होना साबित न हो जाए उस वक़्त हम शक के साथ मामला करेंगे। लेकिन उसकी र्इमानदारी पर शक करते हुए जो मामला आप उससे करेंगे अमली तौर पर उसकी सूरत वही तो होगी जो उसकी र्इमानदारी का इनकार की शक्ल में हो सकती थी। अत: हक़ीक़त में इनकार और इक़रार के बीच शक की हालत सिर्फ़ दिल और दिमाग़ ही में हो सकती है। अमली तौर-तरीक़ा कभी शक पर क़ायम नहीं हो सकता, इसके लिए तो इनकार या इक़रार हर हाल में ज़रूरी है।

 

यह बात थोड़े-से सोच-विचार से आपकी समझ में आ सकती है कि मरने के बाद ज़िन्दगी का सवाल सिर्फ़ एक फ़लसफ़ियाना (दार्शनिक) सवाल नहीं है, बल्कि हमारी अमली ज़िन्दगी से इसका बहुत गहरा संबंध है। हमारा अख़लाक़ी और नैतिक व्यवहार क्या होगा, वास्तव में यह इसी सवाल पर निर्भर करता है। अगर मेरा यह ख़याल हो कि ज़िन्दगी जो कुछ है सिर्फ़ यही दुनिया की ज़िन्दगी है और इसके बाद कोर्इ दूसरी ज़िन्दगी नहीं है तो मेरा अख़लाक़ी ढंग और नैतिक व्यवहार एक ख़ास तरह का होगा। अगर मैं यह ख़याल रखता हूँ कि इसके बाद एक दूसरी ज़िन्दगी भी है, जिसमें मुझे अपनी मौजूदा ज़िन्दगी का हिसाब देना होगा और वहाँ मेरा अच्छा या बुरा अंजाम मेरे यहाँ के अच्छे या बुरे कामों के कारण होगा तो इस सूरत में यक़ीनन मेरा अख़लाक़ी रवैया और नैतिक व्यवहार बिलकुल एक दूसरी ही तरह का होगा, जो पहले से बिलकुल भिन्न होगा। इसकी मिसाल यूँ समझिए जैसे एक व्यक्ति यह समझते हुए सफ़र कर रहा है कि उसे बस यहाँ से बम्बर्इ तक जाना है, और बम्बर्इ पहुँचकर न सिर्फ़ यह कि उसका सफ़र हमेशा के लिए ख़त्म हो जाएगा, बल्कि वहाँ वह पुलिस और अदालत और हर उस ताक़त की पकड़ से बाहर होगा, जो उससे किसी क़िस्म की पूछ-ताछ कर सकती हो। इसके विपरीत एक दूसरा व्यक्ति यह समझता है कि यहाँ से बम्बर्इ तक तो उसके सफ़र की सिर्फ़ एक मंज़िल ही है। इसके बाद उसे समुद्र पार एक ऐसे देश में जाना होगा जहाँ का बादशाह वही है, जो हिन्दुस्तान का बादशाह है और उस बादशाह के दफ़तर में मेरे तमाम कामों का गुप्त रिकार्ड मौजूद है जो मैंने हिन्दुस्तान में किए हैं, और वहाँ मेरे रिकार्ड को जाँचकर फ़ैसला किया जाएगा कि मै अपने कामों के लिहाज से किस दर्जे के लायकं हूँ। आप आसानी से अन्दाज़ा कर सकते हैं कि इन दोनों व्यक्तियों का व्यवहार और अमल कितना ज़्यादा एक दूसरे से भिन्न होगा। पहला आदमी यहाँ से बम्बर्इ तक के सफ़र की तैयारी करेगा लेकिन दूसरे की तैयारी बाद की लम्बी मंज़िलों के लिए भी होगी। पहला आदमी यह समझेगा कि नफ़ा या नुक़सान जो कुछ भी है, बम्बर्इ पहँचने तक है, आगे कुछ नहीं और दूसरा यह ख़याल करेगा कि असल नफ़ा या नुक़सान सफ़र के पहले मरहले (चरण) में नहीं है, बल्कि आख़िरी मरहले में है। पहला आदमी अपने कर्मों के सिर्फ़ उन्हीं नतीजों पर नज़र रखेगा जो बम्बर्इ तक के सफ़र में निकल सकते हैं, लेकिन दूसरे आदमी की निगाह उन नतीजों पर होगी जो समुद्र पार दूसरे देश में पहुँचकर सामने आएँगे। ज़ाहिर है कि इन दोनों व्यक्तियों के रवैये का यह फ़र्क़ उनकी राय का प्रत्यक्ष और खुला नतीजा है जो वे अपने सफ़र के बारे में रखते हैं। ठीक इसी तरह हमारी अख़लाक़ी ज़िन्दगी में भी वह अक़ीदा या धारणा फ़ैसलाकुन असर रखती है, जो हम मरने के बाद की ज़िन्दगी के बारे में रखते हैं। अमल के मैदान में जो क़दम भी हम उठाएँगे उसकी दिशा का निर्धारण इस बात पर निर्भर करेगा कि क्या हम इस ज़िन्दगी को पहली और आख़िरी ज़िन्दगी समझकर काम कर रहे हैं, या किसी बाद की ज़िन्दगी और उसके नतीजों को सामने रखते हैं। पहली सूरत में उसकी दिशा बिलकुल दूसरी होगी।

 

इससे मालूम हुआ कि मरने के बाद की ज़िन्दगी का सवाल एक अक़ली और फ़लसफ़ियाना सवाल नहीं है, बल्कि यह हमारी अमली ज़िन्दगी का सवाल है। और जब बात यह है तो हमारे लिए इस मामले में शक और संकोच की हालत में रहने का कोर्इ मौक़ा नहीं। शक और संकोच के साथ जो नीति और रवैया हम इस ज़िन्दगी में अपनाएँगे वह लाज़िमी तौर पर इनकार ही की नीति जैसा होगा, उससे भिन्न नहीं। इसलिए हम बहरहाल इस बात का फ़ैसला करने पर मजबूर हैं कि क्या मरने के बाद कोर्इ और ज़िन्दगी है या नहीं। अगर साइंस इसके सिलसिले में हमारी मदद नहीं करती तो हमें अक़ली और बौद्धिक दलीलों से मदद लेनी चाहिए।

 

अच्छा, तो अक़ली दलीलों के लिए हमारे पास क्या कुछ सामान है? हमारे सामने एक तो ख़ुद इनसान है और दूसरी चीज़ है जगत् की यह विशाल व्यवस्था। हम इनसान को इस जगत् व्यवस्था (निजामे-कायनात) के अन्दर रखकर देखेंगे कि जो कुछ चीजें इनसान के अन्दर पार्इ जाती हैं, क्या उसकी सारी माँगें जगत् की इस वर्तमान व्यवस्था में पूरी हो जाती हैं या कोर्इ चीज़ ऐसी बची रह जाती है जिसके लिए किसी दूसरी तरह की व्यवस्था की ज़रूरत हो। देखिए, इनसान एक तो जिस्म रखता है जो बहुत-सी धातुओं, क्षारों, पानी और गैसों से बना से बना है। इसके मुक़ाबले में कायनात के अन्दर भी मिट्टी, पत्थर, धातुएँ, नमक, गैसें, पानी और इसी प्रकार की दूसरी चीजें मौजूद हैं। इन चीज़ों को काम करने के लिए जिन नियमों और क़ानूनों की ज़रूरत है, वे सब कायनात के अन्दर क्रियाशील हैं। और जिस तरह वे बाहर के वातावरण में पहाड़ों, दरियाओं और हवाओं को अपने हिस्से का काम पूरा करने का मौक़ा दे रही हैं, उसी तरह इनसानी जिस्म को भी इन नियमों के अन्तर्गत काम करने का मौक़ा हासिल है।

 

फिर इनसान एक ऐसा अस्तित्व है जो आसपास की चीज़ों से ख़ुराक लेकर बढ़ता और परवान चढ़ता है। इसी तरह के पेड़-पौधों और घास-फूस कायनात में भी मौजूद हैं और वे नियम भी यहाँ पाए जाते हैं जो बढ़ते और परवान चढ़नेवाले जिस्मों के लिए ज़रूरी हैं।

 

फिर इनसान एक ज़िन्दा वुजूद है, जो अपने इरादे से हरकत करता है, अपनी ख़ुराक ख़ुद अपनी कोशिशों से हासिल करता है। अपनी हिफ़ाज़त आप करता है और अपनी जाति और वंश को बाक़ी रखने का प्रबंध करता है। कायनात में इस तरह के दूसरे बहुत-से जीव भी मौजूद हैं। ज़मीन पर पानी और हवा में बेशुमार प्राणी पाए जाते हैं और वे नियम भी पूरे-पूरे तौर पर यहाँ अपना काम कर रहे हैं जो इन जानदारों के सारे कार्यों पर हावी होने के लिए काफ़ी हैं। 

इन सबसे उपर इनसान एक और क़िस्म का वुजूद भी रखता है जिसे हम अख़लाक़ी वुजूद (नैतिक अस्तित्व) कहते हैं। इनसान के अन्दर भलार्इ और बुरार्इ का एहसास है, भले और बुरे की पहचान है, भलार्इ और बुरार्इ करने की ताक़त है और उसकी फ़ितरत यह चाहती है कि भलार्इ का अच्छा और बुरार्इ का बुरा नतीजा समाने आए।

 

इनसान ज़ुल्म और इनसाफ़, सच्चार्इ और झूठ, सत्य और असत्य, रहम और बेरहमी, एहसान और एहसान-फ़रामोशी, दानशीलता और कंजूसी, अमानत और ख़ियानत और ऐसे ही विभिन्न नैतिक गुणों के बीच फ़र्क़ करता है। ये गुण अमली तौर पर उसकी ज़िन्दगी में पाए जाते हैं और ये केवल ख़याली और काल्पनिक चीजें नहीं हैं, बल्कि अमली तौर पर इनके प्रभाव इनसानी सभ्यता और संस्कृति पर पड़ते हैं। इसलिए इनसान की फ़ितरत जिसको लेकर वह पैदा हुआ है, यह चाहती है कि जिस तरह उसके कर्मों के भौतिक नतीजे सामने आते हैं, उसी तरह नैतिक परिणाम भी सामने आएँ। लेकिन जगत् की व्यवस्था पर गहरी निगाह डालकर देखिए, क्या इस व्यवस्था में इनसानी कर्मों के नैतिक परिणाम पूरी तरह प्रकट हो सकते हैं? मैं आपको यक़ीन दिलाता हूँ कि यहाँ इसकी संभावना नहीं है, इसलिए कि यहाँ कम से कम हमारी जानकारी की हद कोर्इ दूसरी ऐसी मख़लूक़ नहीं पार्इ जाती जो अख़लाक़ी वुजूद रखती हो। जगत् की सारी व्यवस्था भौतिक क़ानूनों के तहत चल रही है, अख़लाक़ी क़ानून किसी तरह काम करता नज़र नहीं आता । यहाँ रूपये में वज़न और क़ीमत है मगर सच्चार्इ में न वजन है न क़ीमत। यहाँ आम की गुठली से हमेशा आम पैदा होता है, मगर हक़ और सत्य का बीज बोनेवाले पर कभी फूलों की बारिश होती है और कभी, बल्कि अक्सर, जूतियों की । यहाँ भौतिक तत्वों के लिए निश्चित और तयशुदा क़ानून है, जिनके मुताबिक़ हमेशा निश्चित नतीजे निकलते हैं, मगर नैतिक तत्वों के लिए कोर्इ निश्चित क़ानून नहीं है कि उनके कार्यशील होने से हमेशा निश्चित नतीजा निकल सके। भौतिक क़ानून के क्रियाशील होने की वजह से नैतिक परिणाम कभी तो निकल ही नहीं सकते, कभी निकलते हैं तो सिर्फ़ उस हद तक जिसकी इजाज़त भौतिक क़ानून दे दें, और अक्सर ऐसा भी होता है कि अख़लाक़ एक कार्य से एक ख़ास नतीजा निकलने का तक़ाज़ा करता है मगर भौतिक क़ानून की दख़लअन्दाज़ी से नतीजा बिलकुल उलटा निकल आता है। इनसान ने ख़ुद अपनी सांस्कृतिक और राजनैतिक व्यवस्था के ज़रिए से थोड़ी-सी कोशिश इसकी की है कि इनसानी कर्मों के अख़लाक़ी नतीजे एक तयशुदा ज़ाबते के मुताबिक़ सामने आ सकें। मगर यह कोशिश बहुत सीमित पैमाने पर है और बेहद अधूरी है। एक तरफ़ भौतिक क़ानून उसको सीमित और अपूर्ण बनाते हैं और दूसरी तरफ़ इनसान की अपनी बहुत-सी कमज़ोरियाँ इस प्रबंध की त्रुटियों को और अधिक बढ़ा देती हैं।

 

मैं अपनी बात को कुछ मिसालों से स्पष्ट करूँगा। देखिए, एक व्यक्ति अगर किसी दूसरे व्यक्ति का दुश्मन हो और उसके घर में आग लगा दे तो उसका घर जल जाएगा। यह उसके कर्म का भौतिक नतीजा है। उसका अख़लाक़ी नतीजा यह होना चाहिए कि उस व्यक्ति को उतनी ही सज़ा मिले, जितना उसने एक ख़ानदान को नुक़सान पहुँचाया है। मगर इस नतीजे का ज़ाहिर होना इस बात पर निर्भर करता है कि आग लगानेवाले का सुराग़ मिले। वह पुलिस के हाथ आ सके, उसपर जुर्म साबित हो, अदालत पूरी तरह अन्दाज़ा कर सके कि आग लगने से उस ख़ानदान को और उसकी आइन्दा नस्लों को ठीक-ठीक कितना नुक़सान पहुँचा है। और फिर इनसाफ़ के साथ उस अपराधी को उतनी ही सज़ा दे। अगर इन शर्तों में से कोर्इ शर्त भी पूरी न हो, तो अख़लाक़ी नतीजा या तो बिलकुल ही ज़ाहिर न होगा या उसका सिर्फ़ एक थोड़ा-सा हिस्सा ज़ाहिर होकर रह जाएगा। और यह भी संभव है कि अपने दुश्मन को बर्बाद करके वह व्यक्ति दुनिया में मज़े से फूलता-फलता रहे।

 

इससे बड़े पैमाने पर एक और मिसाल लीजिए। कुछ लोग अपनी क़ौम में असर पैदा कर लेते हैं और सारी क़ौम उनके कहे पर चलने लगती है। इस स्थिति से फ़ायदा उठाकर वे लोगों में जातिवाद को भड़का देते हैं और उनमें देश विजय करने की भावना पैदा कर देते हैं। फिर वे आसपास की क़ौमों और देशों से लड़ार्इ छेड़ देते हैं। इस तरह लाखों इनसानों को मौत के घाट उतार देते हैं। देश के देश तबाह कर डालते हैं। करोड़ो इनसानों को पस्त और ज़लील ज़िन्दगी गुज़ारने पर मजबूर कर देते हैं और मानव-इतिहास पर इन कार्यवाइयों का इतना ज़बरदस्त असर पड़ता है, जिसका सिलसिला आइन्दा सैकड़ों साल तक कितनी ही पीढ़ियों और नस्लों में फैलता जाएगा। क्या आप समझते हैं कि इन कुछ लोगों ने जो अपराध किया है, उसकी उचित और न्यायपूर्ण सज़ा उनको कभी इस दुनिया में मिल सकती है। ज़ाहिर है कि अगर उनकी बोटियाँ भी नोच डाली जाएँ, अगर उनको ज़िन्दा डाला जाए, या कोर्इ ऐसी सज़ा दी जाए जो इनसान के बस में है, तब भी किसी तरह वे उस नुक़सान के बराबर सज़ा नहीं पा सकते, जो उन्होंने करोड़ों इनसानों को और उनकी आइन्दा बेशुमार नस्लों को पहुँचाया है। मौजूदा जगत्-व्यवस्था जिन भौतिक क़ानूनों पर चल रही है, उनके तहत किसी तरह यह संभव नहीं है कि वे अपने जुर्म के बराबर सज़ा पा सकें।

इसी तरह उन भले और नेक इनसानों को लीजिए, जिन्होंने मानव-जाति को हक़ और सच्चार्इ की तालीम दी और हिदायत की रौशनी दिखार्इ, जिनकी वजह से बेशुमार इनसानी नस्लें सदियों से फ़ायदा उठा रही हैं और न मालूम आइन्दा कितनी सदियों तक उठाती चली जाएँगी। क्या यह संभव है कि ऐसे लोगों की सेवाओं और ख़िदमतों का पूरा बदला उनको इसी दुनिया में मिल सके?

 

क्या आप सोच सकते हैं कि मौजूदा भौतिक क़ानून की सीमाओं के अन्दर एक व्यक्ति अपने उस अमल का पूरा बदला हासिल कर सकता है, जिसका असर उसके मरने के बाद हज़ारों साल तक और बेशुमार इनसानों तक फैल गया हो?

 

जैसा कि मैं अभी बयान कर चुका हूँ, एक तो जगत् की मौजूदा व्यवस्था जिन नियमों पर चल रही है, उनके अन्दर इतनी गुंजाइश ही नहीं है कि इनसानी कर्मों के नैतिक नतीजे पूरी तरह निकल सकें। दूसरे यहाँ कुछ साल की ज़िन्दगी में इनसान जो अमल करता है, उसके असर का सिलसिला इतना फैला हुआ होता है और इतनी मुददत तक जारी रहता है कि सिर्फ़ उसी के पूरे नतीजे हासिल करने के लिए हज़ारों, बल्कि लाखों साल की ज़िन्दगी चाहिए। और क़ुदरत के मौजूदा क़ानूनों के तहत इनसान को इतनी लम्बी ज़िन्दगी मिलनी नामुमकिन है। इससे मालूम हुआ कि इनसानी अस्तित्व के ख़ाकी (पार्थिव), उज़्वी (अवयवी) और हैवानी (जैव) तत्वों के लिए तो मौजूदा भौतिक जगत् (Physical world) और उसके भौतिक क़ानून काफ़ी हैं, लेकिन उसके नैतिक तत्व के लिए यह दुनिया बिलकुल नाकाफ़ी है। इसके लिए तो एक अन्य जगत्-व्यवस्था चाहिए, जिसमें शासकीय क़ानून (Governing law) अख़लाक़ का क़ानून हो और भौतिक क़ानून उसके मातहत केवल मददगार की हैसियत से काम करें, जिससे ज़िन्दगी सीमित न हो, बल्कि असीमित हो। जिसमें वे तमाम अख़लाक़ी नतीजे जो यहाँ नहीं निकल सके हैं या उलटे निकले हैं, अपनी सही सूरत में पूरी तरह सामने आ सकें। जहाँ सोने और चाँदी के बजाय नेकी और सच्चार्इ में वज़न और क़ीमत हो। जहाँ आग सिर्फ़ उस चीज़ को जलाए जो नैतिक दृष्टि से जलने के लायक़ हो, जहाँ ऐश और आराम उसको मिले जो नेक और भला हो और मुसीबत उसके हिस्से में आए जो बुरा हो। अक़्ल चाहती है और फ़ितरत मुतालबा करती है कि एक ऐसी जगत्-व्यवस्था ज़रूर होनी चाहिए।

 

जहाँ तक अक़ली दलील और तर्क का सम्बन्ध है, वह हमको सिर्फ़, ‘‘होना चाहिए'' की हद तक ले जाकर छोड़ देता है। अब रहा यह सवाल कि क्या वास्तव में कोर्इ ऐसी दुनिया है भी, तो हमारी अक़्ल और हमारा इल्म दोनों इसका फ़ैसला करने में असमर्थ हैं। यहाँ कुरआन हमारी मदद करता है। वह कहता है कि तुम्हारी अक़्ल और तुम्हारी फ़ितरत जिस का मुतालबा करती है, हक़ीक़त में वह होकर रहेगी। मौजूदा जगत्-व्यवस्था जो कि भौतिक क़ानूनों पर बनी है, एक वक़्त में तोड़ डाली जाएगी। उसके बाद एक दूसरी व्यवस्था का निर्माण होगा, जिसमें ज़मीन और आसमान और सारी चीज़ें एक दूसरे ढंग पर होंगी। फिर अल्लाह तआला तमाम इनसानों को जो शुरू दुनिया से क़ियामत तक पैदा हुए थे, दोबारा पैदा कर देगा और एक साथ उन सबको अपने सामने जमा करेगा। वहाँ एक-एक व्यक्ति का, एक-एक जाति का और पूरी इनसानियत का रिकार्ड किसी ग़लती और और कमी-बेशी के बग़ैर सुरक्षित होगा। हर व्यक्ति के एक-एक अमल का जितना असर दुनिया में हुआ है, उसकी पूरी तफ़सील मौजूद होगी। वे तमाम नस्लें गवाहों में खड़ी होंगी, जो उस असर से प्रभावित हुर्इं।

 

एक-एक कण (ज़र्रा) जिसपर इनसान की बातों और कामों के चिह्न अंकित होंगे अपनी दास्तान स्वयं सुनाएगा। ख़ुद इनसान के हाथ, पाँव, आँख, ज़बान और सारे अंग गवाही देंगे कि उनसे उसने किस तरह काम लिया। फिर इस तफ़सील और विवरण पर वह सब से बड़ा हाकिम पूरे इनसाफ़ के साथ फ़ैसला करेगा कि कौन कितने इनाम के योग्य है और कौन कितनी सज़ा के। यह इनाम और यह सज़ा दोनों चीज़ें इतने बड़े पैमाने पर होंगी जिसका कोर्इ अन्दाज़ा मौजूदा दुनिया के सीमित पैमाने के लिहाज़ से नहीं किया जा सकता। वहाँ वक़्त और जगह के मेयार (माप-दण्ड) कुछ और होंगे। वहाँ के मान और माप कुछ और होंगे। वहाँ के क़ुदरत के क़ानून किसी और ही प्रकार के होंगे। इनसान की जिन नेकियों और भलाइयों से दुनिया हज़ारों साल तक प्रभावित रही है, वहाँ वह उन नेकियों का भरपूर बदला वुसूल कर सकेगा, बग़ैर इसके कि मौत, बीमारी और बुढ़ापा उसके ऐश और आराम का सिलसिला तोड़ सकें। और इनसान की जिन बुराइयों के असरात दुनिया में हज़ार साल तक और बेशुमार इनसानों तक फैलते रहे हैं, वह उनकी पूरी सज़ा भुगतेगा बग़ैर इसके कि मौत और बेहोशी आकर उसे तकलीफ़ से बचा सके।

 

ऐसी एक ज़िन्दगी और ऐसी एक दुनिया को जो लोग असंभव समझते हैं, मुझे उनके ज़ेहन की तंगी पर तरस आता है। अगर हमारी मौजूद जगत्-व्यवस्था का मौजूदा प्राकृतिक नियमों के साथ मौजूद होना सम्भव है तो आख़िर एक दूसरी जगत्-व्यवस्था का दूसरे क़ानूनों के साथ वुजूद में आना क्यों असंभव है? हाँ यह बात कि सचमुच ऐसा ज़रूर होगा तो इसका फ़ैसला न दलील से हो सकता है और न इल्मी सुबूत से, इसके लिए तो ‘र्इमान बिल ग़ैब' (परोक्ष पर विश्वास) की ज़रूरत है।