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मानव जीवन और परलोक

लेखक:- मुहम्मद जैनुल आबिदीन मन्सूरी
डा0 मुहम्मद अहमद
डा0 सैयद शाहिद

  
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मानव जीवन और परलोक

 दो शब्द
मौत एक ऐसी सच्चाई है, जिसको झुठलाया नहीं जा सकता।  इंसान अपने क़रीबी, अपने रिश्तेदारों और दोस्तों को मौत के गाल में समाते हुए देखता है, लेकिन उन्हें मौत से बचा नहीं सकता।  उसे यह ख़याल भी आता है कि एक दिन उसे भी मरना है और सदैव के लिए इन संसार से चले जाना है।


इंसान के समाने कुछ प्रश्न ऐसे हैं, जिनका सही उत्तर मिलना अत्यंत आवश्यक है।  जैसे-जीवन क्या है, ज़िन्दगी का स्रष्टा कौन है, हमसे वह क्या चाहता है, मौत क्या है, मौत के पश्चात् जीवन है या नहीं, अगर जीवन है, तो परलोक में सफल व कामयाब होने के लिए इस सांसारिक जीवन में क्या करना होगा।  अगर जीवन नहीं है, तो क्या मौत के पश्चात् जीवन समाप्त हो जाता है।


इन प्रश्नों पर दार्शनिकों और विद्वानों ने हमेशा ही चिन्तन-मनन किया है, विशेष रूप से इस जीवन के बाद आने वाली मौत के बारे में तथा कुछ धर्मो में भी इसके बारे में प्रकाश डाला है, जो इस तरह है-


1-जीवन अस्ल और आख़िरी है। मरने के बाद कोई जीवन नहीं है, इसलिए इंसान जीवन को हर तरह से सफल बनाये।  जीवन का उद्देश्य बस ऐसो-आराम और भोगविलास है।
2-कुछ लोगों का विचार है कि मौत के बाद जीवन है।  इसे परलोक का जीवन कह सकते हैं।  स्वर्ग और नरक भी एक सच्चाई है। पारलौकिक जीवन में स्वर्ग पाने के लिए इंसान उस ईश्वर के बेटे पर अपनी आस्था रखें और यह स्वीकार करे कि हर इंसान पैदाइशी गुनाहगार है अर्थात जन्मजात पापी है।  उसके बेटे ने सूली पर जान देकर इंसानों के गुनाहों और पापों का कफ़्फ़ारा (प्रायश्चित) अदा कर दिया।
3-कुछ दूसरें लोगों का विचार है कि मरने के बाद जीवन का अंत नहीं होता।  इंसान अपने भले और बुरे कर्मों का फल भोगने के लिए बार-बार इस संसार में जन्म लेता है कभी कीड़े-मकोड़े, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे और कभी इंसान के रूप में।  यहाँ तक कि 84 लाख योनियों में भ्रमण करने के पश्चात् इंसान को मुक्ति मिलती है।
4-एक धारणा यह है कि यह सांसारिक जीवन हर इंसान के लिए एक इम्तिहान है।  इंसान और समस्त जीव-जन्तु, पशु-पक्षी, चल-अचल सब चीज़ों का स्रष्टा एक है।  ईश्वर के इंसान को बुद्धि-विवेक प्रदान की है, ताकि वह सोच-विचार करके अपना जीवन-व्यतीत करे कि मौत के बाद एक हमेशा का जीवन है।  जिसने ईश्वर को एक मालिक, पालनहार, स्रष्टा मानकर उसके बताये हुए मार्ग पर चलकर अपना जीवन निर्वाह किया, वह मरने के बाद स्वर्ग का अधिकारी होगा, यह उसके लिए बहुत ही बड़ी सफलता है।  जिसने ईश्वर को नहीं माना और उसके बताये गए मार्ग पर न चला और अपना जीवन ईश्वरीय  इच्छा के विपरीत गुज़ारा, वह नरक का भागी होगा।  उसे नरक की दहकती हुई आग में सदैव के लिए जलना होगा।  यह उसके लिए बहुत नाकामी व असफलता होगी।  इंसान अपने सांसारिक कर्मों के लिए ईश्वर के समक्ष जबावदेह और हर कर्म के बारे में अल्लाह इंसान से पूछेगा।


ये विचार व धारणाए एक ही समस्या के बारे में एक-दूसरें से विपरीत ही नहीं, बल्कि एक-दूसरें के विरुद्ध हैं।  एक ही समय में सब सही कैसे हो सकते हैं, उनमें से कौन-सा विचार सही और सच्चाई के क़रीब है ? इसकी जानकारी प्राप्त करके इसकी कमियों को पूरा करने की ज़िम्मेदारी इंसान की है।  


मौत के बाद जीवन के बारे में इस किताब में कुछ लेख जमा किए गए हैं, ताकि उन लेखों के द्वारा सही परिणाम तक पहुँचा जा सके।  इस संसार में मानव को एक ही बार जीवन मिला है।  पारलौकिक जीवन या मृत्यु पश्चात् जीवन के बारे में हमें बहुत सोच-समझ कर निर्णय करना है।  आज के ग़लत फ़ैसले का परिणाम कल नरक की आग और भयानक प्रकोप के रूप में सामने आये तो यह कितना भयानक परिणाम है। 


जो लोग मौत के बाद जीवन को आंखों से देखे बिना मानने के लिए तैयार नहीं हैं, वे विश्वास के साथ केवल इतनी बात कह सकते हैं कि हम नहीं जानते कि मरने के बाद कोई जीवन है या नहीं, लेकिन वे यह बात नहीं कह सकते कि हम जानते हैं कि मरने के बाद कोई जीवन नहीं है। इसी सच्चाई को मालूम करने के लिए आंखों देखना ही एक मात्र रास्ता नहीं है।  आज तक कोई मरने वाला वापस लौटकर यह नहीं बताता कि मौत के बाद जीवन है, स्वर्ग और नरक सब कुछ है और न ही उसने यह बताया कि मौत के बाद कोई  और जीवन नहीं है।  स्वर्ग और नरक की धारणा सब झूठ है, मैंनें स्वयं अपनी आंखों से देखा है कि वहाँ कुछ नहीं है।  जब जीवन के इतने अहम मसले में ऐसी सूरते हाल से हम दो-चार हों तो फिर सच्चाई तक पहुँचने का मार्ग क्या हो सकता है ? 


मौत के बाद जीवन के बारे में आंखो देखी असफलता के बाद सच्चाई तक पहुँचने का दूसरा मार्ग वह है कि अपनी पैदाइश कायनात (ब्रह्माण्ड) की निशानियों और सुबूतों पर सोच-विचार करके इसके सत्य व असत्य होने के बारे में अपना मत प्रकट करे। 


धार्मिक व पौराणिक किताबों, वेद और बाइबल से मालूम होता है कि मौत के बाद जीवन है।  स्वर्ग और नरक एक हक़ीक़त है।  महाप्रलय के बाद मरे हुए इंसान जीवित होकर स्वर्ग और नरक को अपनी आंखों से देखंगे, यह बात बिल्कुल यथार्थ है।  क़ुरआन आज से 1450 वर्ष पूर्व ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) पर अवतरित हुआ था।  यह अन्तिम ईश ग्रंथ है।  इसमें समस्त मानव के लिए हिदायत आदेश-निर्देश तथा मार्ग दर्शन है।  इसके बाद कोई और किताब मानव के मार्ग दर्शन हेतु नहीं आएगी।  हमारी आंखों से अदृश्य सच्चाई को जानने के लिए और स्वीकार करने के लिए पवित्र क़ुरआन इस ब्रह्माण्ड में फैली हुई क़ुदरत की निशानियों और प्रमाणों पर चिंतन-मनन करने की दावत (आह्वान) देता है और उनकी आवश्कताओं और मांगों के बारे में भी बताता है।


इन सच्चइयों का इनकार करने का जो नुक़सान होगा क़ुरआन उससे भी मानव को अवगत करता है इसी लिए बुद्धि और विवेक तथा चिंतन-मनन करने की योग्यता ईश्वर ने केवल मनुष्य को दी है।  इंसान के लिए यह बहुत बड़ी परीक्षा की घड़ी है कि वह बुद्धि विवेक व योग्यता के द्वारा केवल अपनी अमानुषिक आवश्यकताओं को पूरा करता है, जैसे खाना-पीना, रहना-सहना इत्यादि। वह अपनी ज़िन्दगी के बुनियादी सवालात और अंजाम के बारे में चिन्तन-मनन करके सही नतीजे तक पहुँचता है।  इन लेखों का अध्ययन करने वाले  पाठकगण से मेरी अपील है कि वे अपने दिल-दिमाग़ को पुराने विचारों, किसी क़िस्म के ईर्ष्याभाव से परे होकर उदासीन व निष्पक्ष रूप से चिंतन-मनन करे।  ये अवश्य सोचें कि मौत के बाद हमेशा का जीवन, स्वर्ग-नरक सब सत्य हों और मैंने सांसारिक जीवन, पारलौकिक जीवन का इनकार करके व्यतीत किया, तो मेरा परिणाम क्या होगा ? 


इन लेखों का अध्ययन करने के बाद कोई पाठक इससे सहमत हो, तो जीवन पश्चात् मृत्यु और कर्मों का ईश्वर के समक्ष जबावदेही (उत्तरदायित्व) की धारणा को स्वीकार करने में किसी चीज़ को रुकावट नहीं बनने देना चाहिए।  क्योंकि किसी यथार्थ को अस्वीकार करने से सच्चाई नहीं बदलती और इनकार का परिणाम किसी भयावह नुक़सान के रूप में सामने आएगा। 


एक ईश्वर निराकार सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी अल्लाह को मानने और उसके सामने पारलौकिक जीवन में कर्मों की जबावदेही का दृढ़ विश्वास के अमली तकाज़े हैं।  इनको जानना और व्यक्तिगत तथा सामूहिक जीवन में पूरा करना ज़रूरी है।  यदि यह न हो, तो मानना या ना मानना बेकार व व्यर्थ होगा।  विशेषकर ईश्वर ने अपना सन्देश और संपूर्ण जीवन के लिए मार्गदर्शन जिन ईशदूतों और महापुरुषों पर अवतरित किया उनको, अन्तिम ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) को और उन पर अवतरित ईशग्रंथ क़ुरआन को मानना ज़रूरी है। 
हमें आशा है कि पाठकगण को इस किताब के अध्ययन से जीवन के इस मूल और अहम मसले की सच्चाई को समझने और स्वीकार करने तथा उसके बारे में निर्णय करने में सहायता मिलेगी।

 

इस जीवन के बाद क्या ?
 मुहम्मद ज़ैनुल आबिदीन मंसूरी

 

हमारा देश, एक धर्म प्रधान देश है।  यहाँ प्राचीन काल से ही धर्म अपने विभिन्न रूपों में मौजूद रहा है।  दूसरे शब्दों में, धार्मिकता इस समाज की उभरी हुई विशेषता रही है। इसने देश के जन-मानस को काफ़ी प्रभावित किया है।  इस प्रकार यह स्वयंसिद्ध वास्तविकता है कि धार्मिक मूल्यों की मानव-जीवन को सदैव आवश्यकता रही है, लेकिन इस तथ्य को भी नहीं भूलना चाहिए कि समाज में धार्मिक मानसिकता और धार्मिक विचारधाराओं की मात्र मौजूदगी ही काफ़ी नहीं है, बल्कि उनकी मौलिकता का प्रश्न प्रमुख होता है।  धार्मिक मूल्य जितने मौलिक होंगे, उतने ही प्रभावकारी भी होंगें और इंसान की नैतिकता और उसके शील-स्वभाव व चरित्र को उत्तम बनाएगी।


भारतीय समाज विभिन्न गंभीर समस्याओं से दो-चार रहा है।  आज इन समस्याओं में और वृद्धि होती जा रही है इसका प्रमुख कारण मौलिक धार्मिक मूल्यों का ह्रास और भौतिकवादी संस्कृति का खुला आक्रमण है।  कुछ अति स्वार्थी लोगों ने अपने घृणित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए आमजन में विभिन्न प्रकार की कृत्रिम समस्याएं पैदा कर दी है, जो भयावह रूप धारण कर रही हैं।  इन्होंने लोगों के मन-मस्तिष्क को इतना प्रभावित कर डाला है कि उनके जीवन में स्वेच्छाचार, कुमार्गगमन, और स्वच्छंदता का फैलाव हो रहा है, जिसके नतीजे में लोगों में ईश्वर के प्रति जैसी निष्ठा और भक्ति व बन्दगी होनी चाहिए, उसका अभाव हो गया है।  यह बाहरी दिखावों तक सीमित हो गई है और मनुष्य विभिन्न प्रकार की संकीर्णताओं का शिकार होता जा रहा है।  वह भौतिकता की चलती-फिरती मशीन बन चुका है।  उसकी सारी गतिविधियाँ दुनिया की प्राप्ति और भौतिकवाद तक सीमित हो गई हैं। वह सही या ग़लत ढंग से हर हाल में दुनिया कमा लेना चाहता है।  उसमें पारलौकिक जीवन की कल्पना नहीं पायी जाती और न ही वह दायित्व-बोध उसमें पाया जाता है, जो इंसान का अपने पैदा करने वाले के प्रति होना चाहिए।  पारलौकिक जीवन की जो कल्पना कहीं दिखती भी है वह अवास्तविक, कृत्रिम एवं काल्पनिक होने के कारण प्रभावोत्पादक नहीं बन पाती।  


पारलौकिक जीवन को नकारने के दुष्परिणाम

इस जीवन के पश्चात् के जीवन की धारणा को नज़रअंदाज करने से अनेक प्रकार के चारित्रिक विकार इंसान में जन्म लेते हैं।  उसका व्यक्तित्व सकुंचित और विकृत हो जाता है।  वह मूल्य, मर्यादा और नैतिकता की परवाह नहीं करता।  अतः वह सामान्यतः नेकी और भलाई के कामों के लिए अमादा नहीं होता। उसका हर काम व्यक्तिगत लाभ-हानि पर केन्द्रित हो जाता है। उसे बुराई, बदकारी और भ्रष्ट तौर-तरीक़े अपनाने में कोई संकोच नहीं होता।  इस प्रकार समाज विभिन्न प्रकार की बुराइयों, समस्याओं और विकारों से पट जाता है। वर्तमान समाज की यह दुर्दशा का यही कारण है।  


आज इंसानों की एक बड़ी संख्या अपने कर्मों के प्रति लापरवाह और दायित्वहीन हो गई है।  वह इस वास्तविकता से अपरिचित है कि इस जीवन के पश्चात् आने वाले जीवन में उसको अपने सारे कर्मों का हिसाब जगत् के स्वामी सर्वशक्तिमान ईश्वर को देना पड़ेगा।  यदि उसके कर्म अच्छे हुए, तो उसे पुरस्कार मिलेगा और वह स्वर्ग (जन्नत) का पात्र होगा और यदि वह इस दुनिया के बुराइयाँ समेट कर ले गया, तो दंडित होगा और नरक (जहन्नम) का भागी बनेगा।  पारलौकिक जीवन की मौलिक धारणा न केवल इंसान का मार्गदर्शन करती है, उसमें अच्छे आचरण और चरित्र पैदा करती है, बल्कि यह सृष्टि-रचना के उद्देश्य, वास्तविक न्याय और ईश्वर की तत्वदर्शिता का तकाज़ा भी यही है कि हर कर्म का यथोचित परिणाम अवश्य मिले।

 
जब इंसान अपने पैदा करने वाले के प्रति ही कृतिज्ञ नहीं होगा, उसके प्रति अपने कर्मों के सिलसिले में जबावदेही से बेख़बर एवं असावधान होगा, तो स्पष्ट है कि वह नेकी, भलाई और कल्याण के कामों से दूर हो जाएगा और वह जो भी कर्म करेगा उससे दूसरों के लिए कष्टकर और अलाभकारी होगा! साथ ही स्वयं के लिए भी दुखदायी, हानिकारक और अमंगलकारी होगा।


मानव-जीवन के विकार
परलोक के जीवन की सही, मौलिक वास्तविक और सुदृढ़ धारणा के अभाव के कारण इंसान का जीवन अनेकानेक समस्याओं और विकारों से ग्रस्त हो जाता है।  जब इंसान के दिल में यह भावना नहीं रहती कि उसे कर्मों के बारे में सर्वशक्तिमान प्रभु के समक्ष जबावदेह होना है, उसमें अपने कर्मों और आचार-विचार के सिलसिले में ईशभय नहीं पाया जाता तो वह स्वच्छंद और आज़ाद हो कर जो जी में आता है, करता है।  वह वैध-अवैध, उचित-अनुचित और मर्यादित-अमर्यादित की भी परवाह नहीं करता, यहाँ तक कि उसे इंसान के जान-माल के साथ खिलवाड़ करने में भी कोई संकोच नहीं होता।


ईशपरायणता और परलोकवाद व कर्म-फल की सही धारणा के अभाव के कारण वह अपने कुत्सित स्वार्थ में अंधा होकर बेगुनाह और निर्दोष लोगों एवं नवजात बच्चियों की हत्याएं तक कर डालता है, उनके माल-असबाब को लूट लेता और बर्बाद कर डालता है। महिलाओं और बच्चियों को अपनी हवस का शिकार बनाता है और उन पर तरह-तरह के ज़ुल्म ढाकर अपनी निष्ठुरता का प्रदर्शन करता है।  वह लोगों का हक़ मारता है।  शराब सूद (ब्याज) अश्लीलता नग्नता और बेहयायी के कारोबार फैलाकर लोगों की शारीरिक और मानसिक क्षमताएं कुंठित करता है और उन्हें ग़लत दिशा देता है।  अपने से कमज़ोर लोगों का शोषण करता है और करवाता है।  उनका मान-मर्दन करके अपने अहं को तुष्ट करता है और ख़ुश होता है।  उनके साथ न्यायपूर्ण व उचित व्यवहार नहीं करता।  


इस प्रकार उन्हें दलित दमित रहने के लिए बाध्य करता है।  उनके दर्द, दुखः और चीख़-पुकार और बेबसी की हालत पर वह तरस नहीं खाता और न ही सहानुभूति जताता है। इस प्रकार हिंसा उपद्रव, अत्याचार, अनाचार और अन्याय का क्रम चलता रहता है।  इन सबको उचित साबित करने और विरोध-आपत्ति को किसी हद तक नकारात्मक बनाने के लिए यह अफ़सोसनाक बात भी कही जाती है कि वह सब नियति और पूर्ण कर्मों की यह सज़ा मिल रही है।  फिर समाज कितना कल्याणकारी और अमानवीय हो जाता है!


पारलौकिक जीवन को मानने के फ़ायदे
इसके विपरीत परलोक को मौलिक रूप में मानने से इंसान का चरित्र निखरता और संवरता है, वह भले और नेक काम करता है, किसी का हक़ नहीं मारता और न किसी पर ज़ुल्म-ज़्यादती करता है। वह सबका हित, लाभ और कल्याण चाहता है और जो अपने लिए  पंसद करता है वही दूसरों के लिए भी करता है।  वह वर्तमान जीवन की मौलिक सुख-सामग्री का लालसी नहीं बनता, और न ही दुनिया को अपना सब कुछ समझता है। उसकी दृष्टि व्यापक हो जाती है।  अतः वह सामायिक और तात्कालिक फ़ायदों को ही सब कुछ न मानकर इस जीवन के बाद के जीवन की स्थायी सुख-शांति, ख़ुशी और सफलता का अभिलाषी होता है।  इसके लिए वह भले और नेक काम करता है, बुराई अत्याचार, अनाचार, अन्याय और अश्लीलता से दूर रहता है


परलोक पर विश्वास रखने वाले इंसान में साहस और उत्साह विकसित होता है।  उसके नज़दीक निराशा और कायरता नहीं फटकती।  उसका ईश्वर पर पूरा विश्वास होता है।  वह परलोक की सफलता और उसकी स्थायी ख़ुशी प्राप्त करने के लिए दुनिया के संकटों और उसकी समस्याओं का सहजता एवं सुगमता के साथ मुक़ाबला करता है।  वह इस जीवन की समस्याओं में इतना नहीं उलझता कि कर्तव्य-पथ से डिगने लगे, बल्कि वह हर परेशानी और हर परिस्थिति का उत्साह पूर्वक सामना करता है।  वह हिम्मत नहीं हारता।  दुनिया की असफलताएँ  उसे हताश नहीं करतीं, वह समस्याओं से घबराकर, हताश व निराश होकर, ज़िन्दगी से निराश होकर आत्महत्या नहीं करता, बल्कि वह सत्यनिष्ठ होकर अपने कर्तव्यों के पालन में लगा रहता है क्योंकि उसे विश्वास होता है कि ये प्रतिकूल परिस्थितियाँ इस सांसारिक जीवन की भांति इसी जीवन तक समय बद्ध, अस्थायी और सीमित हैं।  सत्यनिष्ठ जीवन के आनन्द में स्थायीफल और शाश्वत और परिणाम तो परलोक (स्वर्ग) में मिलेंगे ही।


उसे भली-भांति मालूम है कि पारलौकिक जीवन की सफलता इस पर निर्भर करती है कि दुनिया में बिगाड़ के बदले बनाव पैदा करे, अशांति और अत्याचार की जगह शांति और सलामती का वातावरण बनाए एवं दुनिया की बुराइयों एवं विकारों से मुक्त करने में मुख्य भुमिका निभाये।  निर्धन, कमज़ोर और असहाय जनों के काम आए, उनकी सहायता करे, चाहे वे किसी भी धर्म, मत और जाति से सम्बंध रखते हों। परलोक पर सच्चा ईमान रखने वाला इंसान प्रत्येक अत्याचार, विकार और अनाचार को समाप्त करने हेतु प्रयासरत रहता है।  साथ ही नेकी और भलाई के कामों में अग्रसर रहता है।  इसके लिए वह आवश्यकता पड़ने पर अपनी जान और माल की क़ुर्बानी भी दे सकता है।  इस प्रकार सद्गुणों और सद्विचारों पर आधारित जो समाज बनेगा वह सहज रूप से बुराइयों और ज़ुल्म-ज़्यादती से मुक्म होगा।  उसके लोगों में एक-दूसरे के प्रति सहानुभूति, दया और सहयोग की भावना होगी, बल्कि वे दूसरों की आवश्यकतापूर्ति को अपने पर प्राथमिकता देंगे।  उनमें घमण्ड, दंभ और अंहकार नहीं होगा।  उसके लोगों में ईशभय होगा, जिसके कारण दूसरे सभी अनुचित भय और डर दिलों से निकल जाएँगे।  इस प्रकार वे निर्भीक होकर ईश्वरीय मार्ग पर चलते जाएँगे। यह सब इस लिए होगा, क्योंकि वे समझते हैं कि परलोक का जीवन ईश्वर के हाथ में है। इस प्रकार इंसान अंधकार से प्रकाश में आ जाता है और नेकियों व भलाइयों के कामों में लगे रहकर अपने लोक-परलोक को सफल बना लेता है।

इस्लाम में पारलौकिक जीवन की धारणा
इस्लाम में परलोक (आख़िरत) की धारणा उसके आधार-स्तंभों में से एक है। परलोक का इस लोक (दुनिया) से गहरा सम्बंध है।  परलोक इस दुनिया का विकसित रूप है।  हमें यहाँ जो कमी दिखायी देती है, वह वहाँ पूरी कर दी जाएगी।  जो चीज़ें यहाँ छिपी हुई हैं, वहाँ से छिपी न रहेंगी।  इंसान को दुनिया में अपने अच्छे-बुरे कर्मों का पूरा-पूरा पुरस्कार या दण्ड नहीं मिल सकता।  इंसान के भले-बुरे कर्मों के प्रभाव उसके जीवन के साथ समाप्त नहीं हो जाते, बल्कि सदियों तक उसके कर्मों का भला या बुरा प्रभाव पड़ता रहता है।


एक व्यक्ति ने मानवता को शिक्षित और संस्कारित किया, तो उसका प्रभाव दीर्धकाल तक होगा।  इसी तरह एक व्यक्ति ने मानवता को ग़लत दिशा दी और अत्याचार किया, तो उसका कुप्रभाव भी दीर्घकाल तक बना रह सकता है।  अतः अच्छे कर्मों के मुल्यांकन और बुरे कर्मों की बुराई को आंकने के लिए आवश्यक है कि कर्मों के सभी प्रभावों को देखा जाए और उनके प्रमाण जुटाए जायें और अपराधियों को उन सारे लोगों के सामने दण्ड का आदेश सुनाया जाए जिनको उनके कर्मों के कारण किसी प्रकार का नुक़सान पहुँचा हो।  ऐसा पूर्ण न्याय इसी संसार और इसी सीमित व नश्वर जीवन में मिलना संभव नहीं है अतः ऐसे पूर्ण व निष्पक्ष न्याय के लिए भी परलोक की आवश्यकता है।


इस्लाम की धारणा है कि इंसान का यह जीवन उसकी परीक्षा की घड़ी है।  यह नशवर जगत् है, जिसका एक दिन विनाश होना निश्चित है।  शाश्वत जीवन तो परलोक का जीवन (आख़िरत) है।  यदि इंसान ऐकेश्वरवाद (तौहीद) ईशदूतत्व (रिसालत), पारलौकिक जीवन (आख़िरत) आदि मौलिक धारणाओं को मानता है और जीवन में ईश्वरीय आदेशों का पालन करता है, नेकी और भलाई के कामों में लगा रहता है तो उसके लिए परलोक में अच्छा बदला है, उसे जन्नत प्राप्त होगी, जहाँ उसे शाश्वत जीवन मिलेगा, जो सुख शांति और समृद्धि से परिपूर्ण होगा।  इसके विपरीत बुरे कर्म करने वाले नरक की यातना से दो-चार होंगे।  वास्तविकता यह है कि इंसान का जैसा कुछ प्रयास होगा,  जैसा कुछ उसका चरित्र और कर्म होगा, वह अपना प्रतिफल लाकर रहेगा।  परलोक में इंसान अपने कर्म को छिपा न सकेगा।  उसका किया-धरा सब सामने आएगा।  उस दिन इंसान के कान , आँखें, खालें, ज़ुबान और हाथ-पांव तक उसके कर्मों के गवाह होंगे।  ईश्वरीय न्यायालय में अपराधी स्वयं अपने अपराध स्वीकार करेंगे और उन्हें अपने किए पर पछतावा होगा।  वे चाहेंगे कि उन्हें दुनिया में फिर भेज दिया जाए और वे अच्छे कर्म करके आएँ। लेकिन इसका अवसर ही नहीं रहेगा,  क्योंकि परीक्षाकाल (सांसारिक जीवन) सदा के लिए समाप्त हो चुका होगा और पारलौकिक जीवन के ईश्वरीय न्यायालय में कोई भी उनकी सहायता नहीं कर सकेगा।  कोई रिश्ते-नाते काम न आएँगे, कोई दोस्त किसी के काम न आएगा।  वे किसी की कुछ भी सहायता न कर सकेंगे, उन्हें दुनिया में ईश्वर का साझी ठहराया गया था और उनसे तरह-तरह की उम्मीदें बांधी गई थीं।  कोई  किसी का बोझ न उठाएगा।  हरेक को अपनी ही चिंता होगी।  उस दिन प्रत्येक व्यक्ति के समक्ष उसके कर्मों का लेखा-जोखा पेश किया जाएगा। क़ुरआन स्पष्ट रूप से कहता है कि इंसान के कर्मों की निगरानी अल्लाह के आदेशों से हो रही है।


ईश्वरीय न्यायालय में हरेक के बारे में जो फ़ैसला होगा वह अत्यंत न्यायानुकूल होगा।  किसी पर ज़्यादती न होगी।  उस दिन किसी का कोई हक़ मारा नहीं जाएगा।  हरेक को वैसा ही बदला मिलेगा जैसे उसने काम किए होंगे।  उस दिन न्याय की तराज़ू बड़ी होगी। जिसकी नेकी के पलड़े भारी होंगे, वह सफल होगा और स्वर्ग में जाएगा और जिसके पलड़े हल्के होंगे, वह नरक में जाएगा।  


इंसान अपना अहित और नुक़सान नहीं चाहता।  उसके मूल स्वभाव में है कि वह ईश्वर का आज्ञाकारी बने, सत्य मार्ग पर चले, लेकिन जब वह इस स्वभाव को अपनी मनेच्छाओं कुत्सित स्वार्थों और बाह्य प्रभावों के अधीन कर लेता है, तो वह अपने अहित और नुक़सान की ओर सहज ही बढ़ता चला जाता है।  उसका दिल मौलिक गुणों, नैतिक व धार्मिक मूल्यों और मर्यादाओं से धीरे-धीरे ख़ाली हो जाता है और तरह-तरह की बुराइयाँ और विकृतियाँ इनकी जगह ले लेती हैं।


आज इंसान के जीवन और समाज में जो बुराइयाँ और विकृतियाँ पाई जाती हैं, जिनका उल्लेख इस आलेख के शुरू में किया गया है, उनका बड़ा कारण ईशभय और पारलौकिक जीवन की सही धारणा के प्रति बेपरवाही असावधानी और निश्चिन्तता है। आइए हम अपने जीवन में धर्म की मौलिक धारणाओं को अपनाकर उसे सुधारें-संवारें।  इस प्रकार लोक-परलोक में सफलता एवं सम्मान के साथ-साथ वर्तमान में भी हमारे समाज और देश का नव-निर्माण भी होगा और मानवता का मान-सम्मान भी बढ़ेगा।

 

कर्म, पुनर्जीवन और इस्लाम
 डॉ0 मुहम्मद अहमद

 

मीडिया के विभिन्न माध्यमों में आये दिन इस आशय की चीज़ें आती रहती हैं कि अमुक लड़का-लड़की अर्थात् विभिन्न आयु-वर्ग के स्त्री-पुरुष अपने पूर्व जन्म की घटनाओं वृत्तांतों से परिचित हैं।  एक टीवी चैनल भावी प्रणामों की अनदेखी करते हुए व्यावसायिकता में पगकर पूर्व जन्म और मृत्योपरांत जन्म तक के बारे में जानकारी का दावा करके अपने दर्शकों की संख्या बढ़ाने में लगा रहा।  यह दावा भी किया जाता है कि अमुक व्यक्ति अमुक व्यक्तित्व का ‘पुर्नजन्म' है।  और इस आधार पर ऐसा भी हुआ है कि संपत्ति में हिस्सा मांगा गया।

 यह ‘आयोजन' स्वप्रचार का माध्यम भी बनता रहा है, लेकिन यह अवधारणा जीवनोत्थान में गतिरोध और समस्याएँ पैदा करती रही है।  यह भी प्रचारित किया जाता है कि अमुक व्यक्ति की दुरावस्था उसके पूर्व जन्म का फल है, अतः उसे भोगना चाहिए।  वेदों में जन्म-जन्मान्तरवाद और आवागमनीय पुनर्जन्म का उल्लेख नहीं मिलता।  इस अवधारणा का प्रवेश हिन्दू धर्म-दर्शन में परवर्ती युग में हुआ है।  महापंडित राहुल सांकृत्यायन इसके औचित्य पर सवालिया निशान लगाते हैं और लिखते हैं कि इसका अस्तित्व सामाजिक अत्याचार पर परदा डालने के लिए हुआ है-


‘‘इसी लोक में आकर फिर जन्मना (पुनर्जन्म) तो पीड़ित वर्ग के लिए और भी ख़तरनाक चीज़ है।  इसमें यही नहीं है कि आज के दुखों को भूल जाओ बल्कि साथ ही यह भी बतलाया गया है कि यहीं की सामाजिक विषमताएं न्याच्य हैं, क्योंकि तुम्हारी ही पिछले जन्म की ‘तपस्याओं' (दुखों, अत्याचारपूर्ण वेदनाओं) के कारण संसार ऐसा बना है।  इस विषमता के बिना तुम अपने आज के कष्टों का पारितोषक नहीं पा सकते'' (‘दर्शन-दिग्दर्शन' ,किताब महल, संस्करण 1992 ई0, पृ0- 403)।


ख्यातलब्ध संत स्वामी पदमन जी और स्वामी महेश स्वरानंद ने 84 लाख योनियों में कर्माधार पर परिभ्रमण को मिथ्या ठहराया है और लिखा है कि इसका कोई तार्किक उत्तर नहीं है।  सुख्यात चिंतक डॉ0 एम0 एन0 राय का विचार है कि ‘‘पुनर्जन्म का सिद्धांत समाज में नियतिवाद को जन्म देता है और इंसान को निष्क्रिय एवं पौरुषहीन बना देता है'' (Indian message, Page-14,151)।  पं0 मंगलदेव (तड़ितकान्त) वेदालंकार ने ‘यम और पितर' नामक अपनी पुस्तक में प्रचलित पुनर्जन्म की मान्यता का खंडन किया है।  अन्य विद्वानों (डॉ0 राधाकृष्णन, सत्यकाम विद्यालंकार आदि) ने जब भी इस अवधारणा को बुद्धि और विवेक की कसौटी पर परखा, तो इसे खरा नहीं पाया।  पुनर्जन्म का दावा करने वाले अनेक मामलों की गहरी पड़ताल करने वाले अमेरिका के वरिष्ठ अध्येता डॉ0 आईन स्टीवेनसन (वर्जीनिया विश्वविद्यालय) ‘Children who remember previous lives' नामक जो मशहूर पुस्तक लिखी, उसमें वे किसी ऐसे निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सके कि अमुक केस तर्क, बुद्धि और विवेक की कसौटी पर खरा उतरा है और इससे आत्मा और आवागमनीय पुनर्जन्म की मान्यता पुष्ट हुई है।  


जब इसे परखा गया 
हमारे देश भारत में अबतक कई विद्वानों ने इस विषय पर बौद्धिक रूप से कुछ कथित पुनर्जन्मित कथा के सहारे अध्ययन किया है। राय बहादुर श्याम सुंदर लाला के. के. एन सहाय ताराचन्द, माथुर, डॉ0 एम.सी.बोस. लाला देशबन्धु गुप्त, प्रोफ़ेसर आज्ञेय, डॉ0 केदार, डॉ0 कीर्ति स्वरूप रावत डॉ0 एल,पी मेहरोत्रा, पं0 नेकीराम शर्मा आदि विद्वानों ने इस विषय पर लेखनीय चलाई है, लेकिन इनके विवेचनों से जो प्रश्न खड़े होते हैं, वे स्वयं इन्हें बुद्धि-विवेक की कसौटी से परे कर देते हैं।  


आत्मा और आवागामनीय पुनर्जन्म की यह मान्यता इस्लाम, इसाई, बौद्ध और दूसरे अन्य धर्मों व मतों में नहीं पाई जाती है।  यह हिन्दू धर्म और कुछ मतों की मान्यता है इसके प्रति जनमानस को विवश करने की कोशिश लम्बे समय से की जाती रही है।  यहाँ यह तथ्व भी नहीं भूलना चाहिए कि इसके लिए ‘क़ायल व विवश' करने की जितनी भी कोशिशें की गईं, सबमें असफलता ही सामने आयी।  इस मान्यता की वैज्ञानिक सत्यता को जांचने अर्थात् पुष्ट करने के लिए 1965 ई0 के आसपास राजस्थान विश्वविद्यालय में परामनोविज्ञान विभाग खोला गया।  वरिष्ठ परामनोवैज्ञानिक डॉ0 एच. एन. बैनर्जी इसके अध्यक्षत बनाए गए थे।


डॉ0 बैनर्जी बड़े प्रतिभावान और सत्यधारित अनुसंधान के प्रबल पक्षधर थे।  उन्होंने सौ से अधिक ‘पुनर्जन्मित' कहे जाने वाले उन केसों को जांच-पड़ताल के लिए अपने हाथ में लिया जिसका उल्लेख परामनोविज्ञानी अपनी पुस्तकों में बार-बार कर रहे थे।  अनुसंधान के लिए उन्होंने टीमें बना दीं इन टीमों में On the spot (घटनास्थल पर) जाकर अनुसंधान कार्य पूर्ण किया।  कई स्थानों पर डॉ0 बैनर्जी ख़ुद गए।  उदाहरणत डॉ0 एक बड़ी टीम के साथ तुर्की गए।  इस टीम में वरिष्ठ डॉक्टर और मनोवैज्ञानिक भी शामिल थे।  बड़ी तैयारी के साथ यह टीम तुर्की रवाना हई थी।  वहाँ के अड़ाना ज़िले में 1956 में इस्माइल के कथित पुनर्जन्म की घटना को पुनर्जन्म के पक्ष में ख़ूब प्रचारित किया जा रहा था।  कुछ लोग इसे मज़बूत मानते थे।  जिस गांव का इस्माईल के निवासी होने की बात कही जा रही थी, डॉ0 बैनर्जी को न तो वह गांव ही मिल सका न ही इस्माईल से भेंट हो सकी, जबकि घटना कुछ ही वर्ष पहले की बताई जा रही थी।  


डॉ0 बैनर्जी ने काफ़ी प्रयास किया पर असफलता ही हाथ लगी।  उन्होंने इस घटना का उल्लेख विस्तार के साथ अपने शोध-कार्य में किया है।  अब आइए यह भी जान लें कि पुनर्जन्म के जिन सौ से अधिक केसों की उन्होंने जांच-पड़ताल कराई, उनका निष्कर्ष क्या रहा ?  पूरा आवागमनीय पुनर्जन्म खंड-खंड हो गया।  एक भी केस सही नहीं पाया गया।  डॉ0 बैनर्जी की कुछ पक्षों द्वारा आलोचना की जाने लगी, उन्हें पद से हटा दिया गया और 1968 में रहस्मयी ढंग से उनके विभाग को बंद कर दिया गया।  


वैज्ञानिकता का अभाव
पुनर्जन्म के मामले की पुष्टि अभी तक संभव नहीं हो सकी है।  इसका वैज्ञानिक आधार अप्राप्य है।  इसका एकमात्र कारण पुनर्जन्म का न होना है।  7 अक्तूबर 1968  को प्रकाशित एक समाचार के अनुसार, ‘‘मनोविज्ञान के विशेषज्ञों (Psychologists) ने कुछ केसों की जांच-पड़ताल करने के बाद यह मत प्रकट किया कि कुछ लोग जो अपने पूर्व जन्म की बातें बयान करते हैं, वे अधिकतर मानसिक हिस्टीरिया (Psychic Hysteria) रोग से ग्रसित होते हैं और ये बातें इसी का परिणाम होती हैं।  जयपुर के मानसिक चिकित्सालय के डॉ0 बी0 के0 व्यास और एक विशेषज्ञ श्री रत्न सिंह का दावा है कि उन्होंने कुछ केसों का इलाज किया है, जिसमें उन्हें सफलता मिली है। डॉ0 व्यास ने यूनाइटेट न्यूज़, आफ़ इंडिया को साक्षात्कार देते हुए कहा कि जो लोग पूर्वजन्म की घटनाएं बयान करते हैं, उनकी मानसिक स्थिति साधारणतया संतुलित नहीं होती। ये अधिकतर व्यक्तिगत समस्याओं के केस होते हैं।  ये लोग मानसिक असुन्तलन के कारण कुछ और बनने के इच्छुक रहते हैं। इस प्रकार मनगंढ़त क़िस्से बयान करने से कुछ दूसरे लाभ प्राप्त हो जाते हैं।''


डॉ0 व्यास ने अपने पक्ष-समर्थन के लिए कुछ केसों के विवरण भी दिए।  


देश में पुनर्जन्म का दावा करने वाली जो भी घटनाएं सामने आई है, उनके पात्र या तो मानसिक रोग से ग्रसित रहे या किसी लाभ के निमित्त मनगंढ़त क़िस्सा बनाया गया या काल्पनिक रूप से लिख दिया कि पुनर्जन्म की घटना अमुक स्थान पर घटी ऐसी एक घटना का उल्लेख करते हुए डॉ0 एल0 पी0 मेहरोत्रा लिखते हैं-यह घटना एक ऐसे बालक से संबधित है, जिसकी बहन को पूर्वजन्म की स्मृतियाँ थीं और जिसमें उसकी अपनी बहन से डाह हो गई और वह अपने को महात्मा गांधी का मृतात्मा बताने लगा।  इस बालक ने गांधी की जीवनी के विषय में एक पुस्तक में पढ़ा था और उसी का सहारा लेकर उनके विषय में बताने लगा।  जब लोगों को यह पता चला कि गांधी जी का पुर्नजन्म हो गया है तो लोग बड़ी संख्या में उससे मिलने पहुँचने लगे।  कांग्रेस के बड़े-बड़े नेता  भी वहाँ गए यहाँ तक कि सुशीला नैय्यर भी गईं।  इस सबसे उस बालक को बड़ी शुहरत मिली, पर अन्त में उसकी पोल खुल गई और उसका झूठ सामने आ गया।


न्यायालय का ऐतिहासिक निर्णय
आत्मा के पुनर्जन्म और जन्म-जन्मान्तरवाद पर प्रतिष्ठित लेखिका सोमा सबलोक ने 1978 में ‘आत्मा और पुर्नजन्म' पर एक आलेख लिखा, जिसमे उन्होंने आवागमनीय पुनर्जन्म की वैधता को तर्क और विज्ञान की कसौटी पर परखकर रदद् कर दिया था।


याचिकाकर्ता ने दिल्ली की तीस हज़ारी अदालत में यहा कहा था कि उक्त आलेख धर्म-विशेष की आस्था पर प्रहार करता है और जनभावनाओं को आहत करता है। न्यायालय ने इस मामले के विभिन्न पहलुओं का जायज़ा लेकर 2 दिसम्बर 1983 को इसे ख़ारिज करते हुए अपने फ़ैसले में कहा कि ‘‘विज्ञान के इस युग में आत्मा के अस्तित्व और पुनर्जन्म के सिद्धांत पर शंका और आपत्ति करने का प्रत्येक का अधिकार है, क्योंकि ऐसा करना वैज्ञानिक और सुधारवादी विचारधारा पैदा करने की दिशा में आगे क़दम बढ़ाना है, जिसके लिए भारतीय संविधान की धारा 51(अ) में निर्देश दिया गया है।  इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर लेखिका ने इस लेख के द्वारा पाठकों को ज्ञानवान बनाने का प्रयास किया है। यह बात बड़े दुख के साथ कहनी पड़ रही है कि ऐसा प्रयास करने पर लेखिका पर हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने का दोष लगाया गया है और उसे कई वर्षों तक मुक़द्दमे का सामना करने का कष्ट झेलना पड़ा। यह लेख सच्चाई को खोजने की दिशा में एक यत्न है और वह नहीं कहा जा सकता कि इसे लिखकर हिन्दुओं की धार्मिक भावना को जान-बूझकर ठेस पहुँचाने का काम किया गया है।  ईसाई, इस्लाम, बौद्ध और दूसरे अनेक धार्मिक मत हैं जो आत्मा और पुनर्जन्म (जन्म-जन्मान्तरवाद) के सिद्धांत में विश्वास नहीं करते।


कुछ सहज प्रश्न
अतः जन्म-जन्मान्तरवाद और आवासीय पुनर्जन्म के पक्ष में कोई वैज्ञानिक, बौद्धिक और व्यावहारिक तथ्य नहीं होते हैं।  इसके विपरीत सहत रूप से कुछ प्रश्न उत्पन्न होते हैं-
 इंसान के सुकर्मों-दुष्कर्मो पर पुरस्कार और दंड प्रकृति की मांग है, जिसकी पूर्ति किसी जीव-जन्तु में रूपान्तरित होने से असंभव है। फिर इस प्रचलित मान्यता में यह पता नहीं चलता कि वह किस सुकर्म-दुष्कर्म का फल भोग रहा है।  इसलिए ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि इंसान को पुर्नजीवन प्राप्त हो, जो आवागमन से मुक्त हो,  बल्कि उसके कर्मों का उसकी जानकारी व बोध में उचित फल मिले।  इस्लाम की पारलौकिक धारणा में इसका प्रावधान है। 

 सच्चे न्याय के लिए पारलौकिक जीवन अनिवार्य है। 
 आवागमनीय पुनर्जन्म की मान्यता के अनुसार पशु, पक्षी, वनस्पतियाँ आदि पाप कर्म का परिणम हैं।  तो क्या इसका मतलब यह हुआ कि मानव जीवन के लिए लाभकारी इन चीज़ों को बढ़ाने के लिए पाप-कर्म ख़ूब किए जाएं।
 इंसान के कर्मों के प्रभाव उनकी मृत्यु के बाद भी पढ़ते हैं। अतः बुद्धि विवेक को आपेक्षित है कि उसके अच्छे-बुरे कर्मों के भावी पीड़ियों पर पढ़ने वाले प्रभावों का अंकलन मुल्यांकन हो, फिर उसे दंडित किया जाए। इसके आभाव में समुचित दण्ड या पुरस्कार इस लोक में संभव नहीं है।
 यह स्वाभाविक तथ्य है कि जब व्यक्ति यह समझता है कि वह अपने पूर्व जन्म के कर्मों की सज़ा भुगतने के लिए पैदा किया गया है, तो सहज रूप से मनुष्वत्व प्रभावित होगा। उसमें आत्मसम्मान, स्वाभिमान और पुरुषार्थ की भावना नहीं पैदा होगी, बल्कि वह ग्लानि, क्षोब, कुंठा और प्रायश्चित व हीन भावना से ग्रस्त जीवन गुज़ारेगा। इसकी उन्नति प्रभावित होगी।  

 लोगों का अंहकार बढ़ेगा। सम्पन्न लोग विसपन्न और निर्धन जनों के साथ उपेक्षापूर्ण व्यवहार और निम्न-भाव से पेश आएँगे और इस प्रकार मानवता ऊँच-नींच, छूत-छात में विखंडित होगी।  

पुनर्जीवन की इस्लामी धारणा
इस्लाम संपूर्ण जीवन-व्यवस्था है।  इसकी शिक्षाये इंसान के लिए सर्वथा कल्याण कारी और मोक्ष दाहिनी है। यह खुली हुई सच्चाई और वास्तविकता है।  कि इंसान को इस लोक में अपने अच्छे-बुरे कर्मों का पूरा-पूरा पुरस्कार एवं दण्ड नहीं मिल सकता।  इसके लिए परलोक का होना अनिवार्य है।  विश्व के सभी बड़े धर्मो में परलोक की धारणा पायी जाती हैं।  इस्लाम की शब्दावली में पारलौकिक जीवन को ‘आख़िरत' कहते हैं। 


इस्लाम की यह धारणा है कि मनुष्य का यह जीवन उसकी परीक्षा की घड़ी है।  यह नश्वर जगत् है।  जिसका एक दिन विनाश होना निश्चित है।  साश्वत जीवन तो ‘आख़िरत'
(परलोक का जीवन) है।  मनुष्य का यह जीवन शाश्वत जीवन के लिए तैयारी का अवसर जुटाता है।  यदि मनुष्य अपने जीवन को ईश्वरीय आदेशों के अनुरूप बनाता है, ऐकेश्वरवाद, ईशदूतत्व, पालौकिक जीवन आदि मौलिक धारणाओं को स्वीकार करता है एवं सतकर्मों में लगा रहकर जीवन व्यतीत करता है, तो उसके लिए अच्छा बदला है और वह जन्नत (स्वर्ग) का पात्र होगा।  वहाँ उसे वास्तविक जीवन सुख-शांति और अमरता प्राप्त होगी। वह इस लोक का अत्यंत विकसित रूप होगा, वहाँ कोई अल्पता और कमी न होगी।  सत्कर्मी इसमें सदैव रहेगा।  इसके विपरीत मिथ्याचार में लगे दुष्कर्मों को जहन्नम (नरक) की दहकती आग में डाल दिया जाएगा, जिसमें वह सदैव जलेगा।  दुष्कर्मी विभिन्न यातनाओं से भी दो-चार होगा।
इस्लाम पुनर्जन्म नहीं पुनरुज्जीवन को मान्यता देता है।  वह मनुष्य के बार-बार जन्म लेने को नहीं मानता वह मानव-आत्मा के जीव-जन्तु, वनस्पति आदि में परिभ्रमण के विचार को पूर्णतः निरस्त करता है। उसके अनुसार सारे मनुष्य जो मानव जीवन के आरम्भ से लेकर क़ियामत (महाप्रलय) के आने से पूर्व तक के होंगे, सभी दोबारा पैदा किए जाएंगे और अल्लाह उनसे उनके कर्मों का हिसाब लेगा एवं कर्मानुसार पुरस्कार या दण्ड देगा:


"क़ियामत (महाप्रलय) का आना यक़ीनी है।" (कुरान 15:85)।
"इस दिन अल्लाह सबको इकट्ठा करेगा।" (कुरान 15:25)।


‘‘ ........और (उस समय परलोक में) कर्म-पत्र सामने रख दिया जाएगा।  उस समय तुम देख लोगे कि अपराधी लोग अपनी ज़िन्दगी की किताब में अंकित बातों से डर रहे होंगे और कह रहे होंगे, ‘‘हाय हमारा दुर्भागय! यह कैसी किताब है कि हमारी कोई छोटी-बड़ी हरकत ऐसी नहीं रही जो इसमें अंकित न हो गयी हो।  जो-जो उन्होंने किया था वह सब अपने सामने मौजूद पाएँगे और तुम्हारा रब किसी पर तनिक ज़ुल्म न करेगा।" (क़ुरआन, 18:49)


‘‘चिंता उस दिन की होनी चाहिए जब कि हम पहाड़ों को चलाएगें और तुम ज़मीन को बिल्कुल नंगी पाओंगे, और हम सारे इंसानों को इस तरह घेरकर इकट्ठा करेंगे कि (अगले-पिछलो में से) एक भी न छूटेगा और सब के सब तुम्हारे रब के सामने पक्तियों में पेश किए जाएंगे-लो देख लो!  आ गए न तुम हमारे पास उसी प्रकार जैसा हमने तुमको पहली बार पैदा किया था।''
हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) ने क़ियामत के ये लक्ष्ण बताये हैं:  ज्ञान उठा लिया जाएगा, अज्ञान अधिक होगा, व्यभिचार की अधिकता होगी, शराब बहुत पी जाने लगेगी।  पुरुष कम स्त्रियाँ ज़्यादा हो जाएंगी यहाँ तक कि पचास स्त्रियों का सिरधरा एक (पुरुष) होगा। (बुख़ारी, मुस्लिम, अहमद, तिरमिज़ी)।


"जब सूर (नरसिंघा) में फूक मारी जाएगी, तो सब अपनी क़ब्रों से निकलकर अपने पालनहार की ओर चल पड़ेंगे।" (क़ुरआन, 36:51)।


क़ियामत के दिन आकाश फट जाएगा, तारे झड़ जाएँगे, सूर्य लपेट दिया जाएगा, पर्वत धुने हुए ऊन की तरह हो जाएंगे, धरती कूट-कूट कर चूर्ण-विचूर्ण कर समतल कर दी जाएगी और जो कुछ उसके भीतर है उसे बाहर डालकर ख़ाली हो जाएगी।  मुर्दे क़ब्रों से उठाये जाएंगे और दिलों के भेद प्रकट हो जाएँगे।  जिस दिन लोग बिखरे हुए पंतगों के सदृश्य हो जाएंगे। (क़ुरआन, 82:1, 82:2, 81:1, 89:21, 84:4, 100:9,10, 101:4)।


पुनरुज्जीवन के दिन प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्मों का पूरा-पूरा फल पाएगा।  क़ुरआन में है-
‘‘फिर जब ‘सूर' में फूँक मारी जाएगी तो उस दिन उनके बीच रिश्ते-नाते शेष न रहेंगे और ने वे एक-दूसरे को पूछेंगे।  फिर जिनके अच्छे कर्म भारी हुए तो वही हैं जो सफल होंगे।  रहे वे लोग जिनके अच्छे कर्म हल्के हुए तो वही हैं जिन्होंने अपने आप को घाटे में डाला।  वे सदैव जहन्नम में होंगे।  आग उनके चहरों को झुलसा देगी और उसमें उनके मुंह विकृत हो रहे होंगे।"  


ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) में फ़रमाया-
‘‘ मरने वाले के साथ तीन चीज़ें चलती हैं उसके घर वाले, उसका माल और उसका कर्म।  फिर दो चीज़ें तो पलट आती हैं और एक साथ रह जाती है।  उसके घरवाले और माल तो वापस आ जाते हैं और उसका कर्म साथ रह जाता है।'' (बुख़ारी, मुस्लिम)।


क़ुरआन में है - ‘‘आख़िकार प्रत्येक व्यक्ति को मरना है  और तुम सब अपना पूरा-पूरा बदला क़ियामत के दिन पाने वाले हो।  कामयाब बास्तव में वे हैं जो वहाँ जहन्नम की आग से बच जाए और जन्नत में पहुँचा दिया जाए।  रहा यह संसार, तो यह केवल महा धोखे की चीज़ है।" (क़ुरआन 3:185,)।
डस दिन हर व्यक्ति को कमाई का बदला पूरा-पूरा दे दिया जाएगा और किसी के साथ अन्याय न होगा।  (क़ुरआन 3:25)।
डस दिन प्रत्येक व्यक्ति अपने भले कर्म को सामने मौजूद पाएगा और बुरे को भी।  जो कुछ उसने कमाया होगा, पूरा-पूरा मिल जाएगा और उसके साथ कोई अन्याय न होगा। (क़ुरआन 3:25, 30)।  उस दिन उसके न माल काम आएगा और न संतान (क़ुरआन 26:88)।  ख़ुद इंसान के हाथ, पैर, आंख, जिव्हा और सारे अंग गवाही देंगे कि उनसे किस प्रकार काम लिया गया। (क़ुरआन 36:65, 41:20-24)।


अल्लाह कहता है-
‘‘ और क़ियामत के दिन हम न्याय-तुला रखेंगे, फिर किसी व्यक्ति पर तनिक ज़ुल्म न किया जाएगा, यद्यपि वह (कर्म) राई के दाने ही के बराबर हो हम उसे ला उपस्थित करेंगे।  और हिसाब करने के लिए हम काफ़ी है।'' (क़ुरआन 21:47)


वह दिन सतकर्मी के लिए सुगम और दुष्कर्मी के लिए कठिन होगा।  क़ुरआन में है-
‘‘जो कोई सुचरित लेकर आया उसको उसमें भी अच्छा प्राप्त होगा और ऐसे लोग घबराहट से उस दिन निश्चिंत होंगे और जो कुचरित लेकर आया तो ऐसे लोगों के मुंह आग में अंधे होंगे।''  (क़ुरआन 27:89, 90)


‘‘कोई शब्द उसके मुख से नहीं निकलता जिसे सुरक्षित करने के लिए एक उपस्थित रहने वाला निरिक्षक (फ़रिश्ता) मौजूद न हो।'' (50:18) वह (अल्लाह) छिपे और खुले हर चीज़ को जानता है। ....... तुम में से कोई व्यक्तिचाहे जो से बात करे या धीरे से, और कोई रात के अधेंरे में छिपा हुआ हो या दिन के उजाले में चल रहा हो, उसके लिए सब समान हैं।  (क़ुरआन 13:9,10)।

 

‘‘फिर इस किसी को उसका कर्म-पत्र उसके दाहिने हाथ में दिया गया, जिससे आसान सरसरी हिसाब लिया जाएगा और वह अपने लोगों की ओर ख़ुश-ख़ुश पलटेगा।  और रहा वह व्यक्ति जिसका कर्म-पत्र (उसके बाएँ हाथ में) दिया गया जिसको (उसने) पीठ पीछे डाल रखा था तो वह विनाश को पुकारेगा और दहकती आग में जा पड़ेगा।''  (क़ुरआन 84:7-12)।
‘‘वास्तव में घाटे में पड़ने वाले तो वही हैं जिन्होंने अपने आप को और अपने लोगों को क़ियामत के दिन घाटे में डाल दिया।  जान रखो यही खुला घाटा है।‘‘ (क़ुरआन 39:15)।


जन्नत (स्वर्ग)

जन्नत के पात्र वही व्यक्ति होंगे, जिन्होनें जीवन भर अल्लाह की बन्दगी (उपासना) करते हुए अच्छे कार्य किए होंगे।  अल्लाह का यह वादा है-‘‘वे लोग जो ईमान लाए और अच्छे कर्म किए, उन्हें हम जल्द ही ऐसे बाग़ों में दाख़िल, करेंगे, जिनके नीचे नहरें बह रही होगीं, जहाँ वे सदैव रहेंगे।  अल्लाह का वादा सच्चा है और अल्लाह से बढ़कर बात का सच्चा कौन हो सकता है?"


"जो लोग ईमान लाए अर्थात मुस्लिम हुए और अच्छे कर्म किए, तो उनके लिए कभी न समाप्त होने वाला बदला है।"  (क़ुरआन 95:6)।  "उसे कोई नहीं जानता जो आंखो की ठंडक उसके लिए छिपा रखी गई है।  उसके बदले में देने के ध्येय से जो सुकर्म वे करते रहे होंगे।" (क़ुरआन 32:17)।


ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) का कथन है-
"क़ियामत के दिन बन्दा एक क़दम भी आगे न बढ़ सकेगा, जब तक कि उससे पाँच बातों का जबाव न ले लिया जाए- अपनी आयु किस प्रकार व्यतीत की, अपनी जवनी किस प्रकार बितायी, माल कहाँ से कमाया ? माल कहाँ ख़र्च किया ? और जो सद्ज्ञान उसने अर्जित किया उस पर कितना अमल किया।" (तिरमिज़ी)


एक और हदीस में इस तरह है-
हज़रत जाबिर से रिवायत (उल्लिखित) है कि नबी ने कहा कि जबकि जन्नत वाले जन्नत की नेमतों में होंगे सहसा उनके लिए एक नूर रौशन होगा सो वे अपने सिर उठायेंगे तो क्या देखेंगे कि उनका रब (पालनकर्ता प्रभु) उनके ऊपर प्रगट है।  अल्लाह कहेगा: तुम पर सलाम हो ऐ जन्नत वालो! आप ने कहा कि अल्लाह तआला उनकी तरफ़ देखेगा और वे उनकी तरफ़ देखेंगे। फिर वे जब तक अल्लाह की तरफ़ देखते रहेंगे जन्नत की किसी नेमत की ओर ध्यान नहीं देंगे, यहाँ  तक कि अल्लाह उनसे परदे में हो जाएगा और बाक़ी रह जाएगा उसका नूर।"  (इब्ने-माजा) 


पवित्र क़ुरआन में जन्नत का चित्रण है-
अल्लाह के परायण और उससे डर रखने वाले सुगन्धित फूल और नेमत भरे उद्धान में होंगे, उनके लिए फ़िरदौस के बाग़ होंगे (क़ुरआन 56:89, 18:107)।  उनके लिए ऊपरी मंज़िल पर कक्ष होंगे, जिनके ऊपर भी निर्मित कक्ष होंगे।  उनके नीचें नहरें बह रही होंगी (39:20, 29:58)।  वे जो चाहेंगे मिलेगा उसमें वे सदैव रहेंगे (क़ुरआन 25:16)।  उन्हें वास्तिक शांति और निश्चिंतता प्राप्त होगी।  वे बाग़ों और स्रोतों में बारीक और गाढ़े रेशम के वस्त्र पहने हुए एक-दूसरे के आमने-सामने उपस्थित होंगे (क़ुरआन 44:51,53)।  उनके लिए सुख वैभव की चीज़ें होंगी।  वे और उनकी पत्नियाँ छायों में मसहरियों पर तकिया लगाए बैठे होंगे (क़ुरआन 36:55, 56)।  उन्हें सोने के कंगनों और मोती से आभूषित किया जाएगा (क़ुरआन 35:33, 76:21)।  उनके लिए सोने और चांदी के बर्तन होंगे (क़ुरआन 43:71, 76:15, 16)।  अल्लाह ने अपने बंदों के लिए वह कुछ जुटा रखा है जिसको न किसी आँख ने देखा न किसी कान ने सुना और न किसी मनुष्य के मन में उसका विचार आया।  


जन्नत में न तो सख़्त धूप होगी और न सख़्त ठंड (क़ुरआन 76:13)।  फलों के लदे हुए पेड़ होंगे, अगूंरों के बाग़ होंगे , मन चाहे मेवे होंगे (क़ुरआन 76:13, 14, 78:32, 77:42)।  साफ़ गोरी बड़ी नेत्रों वाली स्त्रियों से उनका विवाह होगा। (क़ुरआन 44:54) उनके लिए हरे रेशमी गद्दे और उत्कृष्ट एवं असाधारण क़ालीन होंगे, क़ालीनें हर और बिछी होंगी (क़ुरआन 55:76:88:16)।  उन्हें वहाँ इच्छित मेवे और पेय मिलेंगे, उनके बीच विशुद्ध पेय का पात्र फिराया जाएगा, बिल्कुल साफ़ उज्जवल पीने वालों के लिए सुस्वाद छलकता जाम होगा,  उसमें न कोई ख़ुमार होगा और न वे उससे निढाल और मदहोश होंगे (क़ुरआन 38:51, 37:45-47)।  


जन्नत वालों के चेहरे प्रफुल्लित और सौम्य होंगे।  उनसे नेमतों की ताज़गी और आभा का बोध हो रहा होगा (क़ुरआन 88:8, 83:24)।  वे कोई व्यर्थ बात न सुनेंगे और न कोई झुठलाने की बात (क़ुरआन 78:35, 88:11) वे भली प्रकार सदैव स्वस्थ और आनन्दित होंगे।  हदीस में है-


‘‘यहाँ वह स्वास्थ्य है कि बीमार न पड़ोगे, वह जीवन है कि मृत्यु न आएगी, वह जवानी है कि वृद्ध न होगे, और वह आराम है कि फिर तकलीफ़ न पाओगे।  लोगों के चेहरे अपने-अपने कर्मों के अनुसार चमकेंगे, कोई सितारे की तरह, कोई पूर्णिमा के चाँद की तरह।" (मुस्लिम)


जन्नत के संबध में ऊपर जो विवरण वर्णित हुए हैं वे स्वाभाविक रूप से प्रत्येक समझदार और विवेकशील व्यक्ति के दिल और अंतरमन में इसके प्रति ललक पैदा करने के लिए काफ़ी हैं।  हमें अपने आप को जन्नत का पात्र बनाने हेतु गंभीर प्रयास करना चाहिए।  दुनिया में हमें जो अवसर उपलब्ध हुए हैं, ईश्वर का आज्ञाकारी बनकर एवं सुकर्म कर उसका समुचित सदुपयोग किया जा सकता है और लोक-परलोक दोनों में सफलता प्राप्त की जा सकती है।  


जहन्नम (नरक)
जहन्नम को नरक और दोज़ख़ भी कहा जाता है, जो दुष्कर्मियों और पापाचारियों का ठिकाना है।  इसमें वे अत्यंत कठिन दुख दायिनी यातना से दो-चार होंगे।
क़ुरआन में है-
‘‘कहो: क्या हम तुम्हे उन लोगों की खबरे दे, जो अपने कर्मों की दृष्टि से सबसे बढ़कर घाटा उठाने वाले हैं ? ये वे लोग हैं जिनका प्रयास सांसारिक जीवन में अकारथ गया और वे यही समझते हैं कि वे बहुत अच्छा कर्म कर रहे है।  यही वे लोग हैं जिन्होंने अपने पालनकर्ता प्रभु की आयतों (क़ुरआन के वाक्य) का और उससे मिलन का इनकार किया।  अतः उनके कर्म जान को लागू हुए, तो हम क़ियामत के दिन उन्हें कोई वज़न न देंगे।  उनका बदला वही जहन्नम है।  इसलिए कि उन्होंने कुफ़्र की नीति अपनाई और मेरी आयतों एवं मेरे रसूलों (ईशदूतों) का उपहास किया।" (क़ुरआन 18:103-106)।  
जिन लोगों ने इहलोक में सत्य के इनकार की नीति अपनाई, उनको आग के वस्त्र पहनाए जाएँगे उनके सिरों पर खौलता हुआ पानी डाला जाएगा,  जिससे जो कुछ उनके पेटों में है, वह पिघल जाएगा और खौलेगा भी, उनके दण्ड देने के लिए लोहे के गुर्ज़, होंगे।  जब कभी भी वे घबराकर उससे निकलना चाहेंगे तो उसी में लौटा दिए जाएंगे और कहा जाएगा चखो, दहकती आग की यातना का मज़ा (क़ुरआन 22:19-22, 44:48, 32:20)।  
जहन्नम की आग बुझने न पाएगी और अपराधियों को घेरे रहेगी (क़ुरआन 17:97, 18:29)।  
आग उनके चेहरे को झुलस देगी, जिससे वे कुरूप हो जाएंगे (क़ुरआन 23:104)।  
उनके लिए आग ही ओढ़ना-बिछौना होगा (क़ुरआन 7:41)।
उन्हें खौलता हुआ पानी पिलाया जाएगा जो उनकी आँतों को टुकड़े-टुकड़े करके रख देगा (क़ुरआन 47:15, 10:4)।  ऐसा पानी मिलेगा जो तेल की तलछट जैसा होगा जो उनके मुँह भून डालेगा (क़ुरआन 18:29)।  निसंदेह ज़क़्क़ूम का वृक्ष गुनाहगार का भोजन होगा, तेल की तलछट जैसा, वह पेटों में खौलता होगा जैसे गर्म पानी खौलता है।  (क़ुरआन, 44:43-46)


जहन्नम एक घात-स्थल है।  सरकश लोग उसमें न किसी शीतलता का मज़ा चखेंगे और न किसी पेय का सिवाय खौलते पानी और बहती पीप-रक्त के (क़ुरआन 78:21, 24, 25)।  वहाँ वे चिल्लाएंगे, आर्तनाद करेंगे, बिफरेंगे, सांस खींचेगे और फुँकार मारेंगे, वहाँ वे सदैव रहेंगे।  जब वे किसी तंग जगह जकड़े हुए डाले जाएँगे तो वहाँ विनाश को पुकारेंगे।  (कहा जाएगाः) आज एक विनाश को मत पुकारो, बल्कि बहुत से विनाशों को पुकारो।"  (क़ुरआन 11:106, 107,25:12-14)।


‘‘पलटो अपने रब (पालनकर्ता प्रभु) की ओर और आज्ञाकारी बन जाओ इससे पहले कि तुम पर यातना आ जाए।  फिर तुम्हारी सहायता न की जाएगी।  और अनुसरण करो उस सर्वोत्तम चीख़ का जो तुम्हारे रब की ओर से अवतरित हुई है। इससे पहले कि तुम पर अचानक यातना आ जाए और तुम्हें पता भी न हो।"
कहीं ऐसा न हो कि कोई व्यक्ति कहने लगे: ‘‘हाय अफ़सोस मुझ पर।  जो कोताही अल्लाह के हक़ में मैंने की।  और में तो परिहास करने वालों में ही शामिल रहा।"  (क़ुरआन 29:56)।

मौत के बाद क्या ?
 डॉ0 सैयद शाहिद अली

   ‘‘तुम तो सांसारिक जीवन को प्राथमिकता देते हो, हालांकि आख़िरत अधिक उत्तम व बाक़ी रहने वाली है। वे सांसारिक जीवन के केवल वाह्य रूप को जानते हैं, किन्तु आख़िरत की ओर से वे बिलकुल असावधान हैं।  क्या उन्होंने अपने आप में सोच-विचार नहीं किया ? अल्लाह ने  आकाशों और धरती को और जो कुछ उनके बीच है, सत्य के साथ और एक नियत अवधि ही के लिए पैदा किया है किन्तु बहुत से लोग तो अप्रने प्रभु के मिलन का इनकार करते हैं।''


इस दुनिया में पूरा इंसाफ़ (Perfect Justice) नहीं हो सकता।  एक आदमी ने दस लोगों का क़त्ल किया, उसे पकड़ा गया और एक बार फांसी पर लटका दिया गया।  यह पूरा न्याय नहीं है। पूरा न्याय तब होता, जब क़ातिल को दस बार मारा जाता और दस बार जीवित किया जाता।  इसके अलावा मरनेवालों को भी जीवित किया जाता और उनके सामने, उनके क़ातिल को मारा जाता, ताकि वे ख़ुश होते और मानते कि हाँ हमें न्याय मिला।  क्या ऐसी दुनिया है, जहाँ ऐसा हो सके ?


 एक आदमी ने चोरी की, उसे सज़ा मिली, क़ैद कर दिया गया। चोर को तकलीफ हुई, मगर जब तक वह क़ैद में रहा, उसकी मां को भी तकलीफ़ होती रही। अपराध तो बेटे ने किया था, सज़ा माँ को क्यों मिल रही है?  माँ को तकलीफ़ इसलिए होती रही, क्योंकि माँ और बेटे के बीच एक भावनात्मक सम्बन्ध (Emotional Link) होता है। यह लिंक, अगर काट दिया जाता, तो बचपन बच्चे की परवरिश व देख-भाल कैसे होती।  सर्दी की रात में तीन बजे जब बच्चा सूसू करता है और रोता तो माँ क्यों उठती, बच्चे को नमोनिया हो जाता और वह मर जाता। पूरे इंसाफ के लिए ज़रूरी है कि एक ऐसी दुनिया हो जहाँ माँ-बेटे दोनों जवान हों और दोनों के बीच भावात्मक संबध न हो, ताकि सज़ा की तकलीफ़ केवल अपराधी को हो, किसी और का न हो।  क्या ऐसी दुनिया है ?


एक बहुत अच्छा इंसान जिसके अच्छे कर्मों से लाखों लोगों को लाभ पहुँचा।  इसी तरह एक बहुत बुरा इंसान जिसने अपनी बुराई  से लाखों लोगों को हानि पहुँचायी।  इस छोटे से जीवन में इन दोनों को उनके अच्छे या बुरे कर्मों का पूरा-पूरा अच्छा या बुरा बदला नहीं दिया जा सकता।  ऐसा क्यों है ?


 दुनिया में हर काम (Action) की प्रतिक्रिया (Reaction) नज़र आती है। एक आदमी ने दूसरे आदमी को मारा, वह बेहोश हो गया।  भूखे आदमी ने खाना खाया,  उसकी भूख ख़त्म हो गई।  बीमार ने दवा खाई, वह ठीक हो  गया।  मगर दुनिया में कुछ काम ऐसे भी हैं जिनकी प्रतिक्रिया नज़र नहीं आती।  आपने किसी अंधे को सड़क पार करा दी।  रास्ते से केले का छिलका हटा दिया।  ख़ुद भुखे रहकर भूखे को  खाना खिला दिया। ऐसे कामों की प्रतिक्रिया कहाँ है।


इस जीवन में इंसान को जो भी नेमत मिलती है वह अपने साथ ज़िम्मेदारी और जबावदेही ज़रूर लाती है।  इसके अतिरिक्त मिली हुई हर नेमत के  साथ डर  और दुख ज़रूर लगा होता है।  जितनी बड़ी नेमत उतना ही बड़ा उसके छिन जाने का डर और उतना ही बड़ा उसके जाने का दुख।  ऐसा क्यों होता है ?

सभी रिश्तों में एक मिलने की जगह भी होती है।  डाक्टर और मरीज़ का रिश्ता, मीटिंग प्लेस  है, क्लीनिक।  वकील और मुवक्किल का रिश्ता, मींटिग प्लेस है, कोर्ट।  टीचर और  छात्र का रिश्ता, मीटिंग प्लेस है, क्लास रूम।  माता-पिता और संतान का रिश्ता, मींटिग प्लेस है।  घर।  ईश्वर और इंसान का रिश्ता, मीटिंग प्लेस कहाँ है ?


संपूर्ण ख़ुशी पाने के लिए इंसान को चाहिए कि उसकी सभी आवश्यकताएं पूरी हों।  उसकी सभी इच्छाएं  पूरी हों।  वर्तमान और भविष्य में  उसे सुरक्षा मिले।  उसके सभी रिश्तेदार  मौजूद हों, मेरे बाप के बाप ख़ुश नहीं हो सकते, जब तक उनके बाप मौजूद न हों। सभी तन्दुरुस्त हों, सभी के पास दौलत  हो, कोई बीमार न हो,  कोई बूढ़ा न हो, कोई किसी दुर्घटना का  शिकार न हो, कोई मरे न, इत्यादि।  मगर दुनिया में ऐसा नहीं होता।  इंसान को दुनिया में सम्पूर्ण ख़ुशी क्यों नहीं मिलती ?


सोचो! अगर इस धरती से सभी इंसानों को हटा दिया जाए, तो क्या होगा? कुछ भी अन्तर नहीं पड़ेगा।  सूरज निकलेगा, उसकी गर्मी से समुद्र में भाप बनेगी, भाप से बादल बनेंगे जिनसे बारिश होगी, इसी तरह चलता रहेगा।


सोचो!  अगर  इस धरती में इंसान तो हों मगर सूरज या हवा व पानी में से किसी भी एक चीज़ को निकाल दिया जाए, तो क्या क्या होगा?  धरती का पूरा निज़ाम ख़त्म हो जाएगा।  इससे प्रमाणित होता है कि इंसान इस  निज़ाम से ज़्यादातर फ़ायदा उठाने वाला है, न कि फ़ायदा पहुँचाने वाला।  जबकि दूसरी सभी चीज़ें  इंसान को केवल फ़ायदा पहुँचा रही हैं।  मालूम होता है कि धरती का यह ढांचा इंसान के लिए है, फिर इंसान ढांचे के लिए है।


एक ज़िंदा और मुर्दा इंसान में अन्तर होता है।  ज़िन्दा इंसान के दिमाग़ में विचार आ रहे होते हैं।  वह बात कर सकता है।  वह हरकत कर सकता है।
मनोविज्ञान के अनुसार, इंसानी दिमाग़ के दो हिस्से होते हैं:  चेतन और अचेतन।  अचेतन, इंसानी दिमाग़ का गोदाम होता है।  इसमें इंसान की छोटी-बड़ी सभी सोचें जमा होती रहती हैं।  एक इंसान की  याददाश्त खो गई, वह सब  कुछ भूल गया।  जब उसकी याददाश्त वापस आई, उसे सब कुछ याद आ गया।  या कभी-कभी  सपनों में बचपन की बातें नज़र आती हैं।  इससे प्रमाणित होता है कि इंसान की  सभी सोचें कहीं सुरक्षित होती रहती हैं, तभी तो  वापस आती हैं। इंसान की छोटी-बड़ी सभी सोचें उसके अचेतन  मस्तिष्क में दर्ज हो रही हैं।  सोचो की यह रिकार्डिग क्यों हो रही है।
भौतिक विज्ञान के अनुसार, इंसान जो आवाज़ निकालता है या जो कुछ बातचीत करता है, वह कभी ख़त्म नहीं होती, बल्कि एक लाख, छियासी हज़ार मील फ्री सैकंड की रफ़्तार से  हवा में घुसती रहती है।  साइंस ने इतनी तरक़्क़ी कर ली है कि गुज़रे हुए समय की आवाज़ों को रिकार्ड कर सके, सुन सके।  मगर ये सब आवाज़ें मिली-जुली हैं,  अभी इन्हें अलग नहीं किया जा सका है।  साइंस कोशिश कर रही है, इन आवाज़ों को अलग-अलग करके सुने।  मालूम होता है कि इंसान की छोटी-बड़ी सभी आवाज़ें रिकार्ड की जा रही हैं।  आवाज़ की  यह रिकार्डिग क्यों हो रही है?


इंसान के शरीर से लहरें निकलती हैं।  यह इंसान की हर-हर हरकत का फ़ोटो  बनाती हैं।  नवम्बर, 1960 ई0 की Readers Digest नामक पत्रिका में लिखा था  कि अमेरिका के ऊपर से एक हवाई जहाज़ गुज़रा।  दो घंटे बाद उस ख़ाली जगह से, जहाज़ में बैठे मुसाफ़िरों के फ़ोटो ले लिए गए।  वह कैमरा, जो इंसान के जाने के बाद, ख़ाली जगह से, उस इंसान का फ़ोटो ले सके, "Evaporagraph" कहलाया। साइंस में बहस इस बात पर है कि किसी इंसान के हटने के बाद, उस ख़ाली जगह, उस इंसान का फ़ोटो चंद घंटे बाक़ी रहता है, या हमेशा-हमेशा।  संभव है, यह फ़ोटो हमेशा रहता हो।  अभी साइंस ने इतनी तरक़्क़ी नहीं की है।  कई साल बाद भी ख़ाली जगह से फ़ोटो ले सके, मगर ऐसा संभव है।  मालूम हुआ कि इंसान की एक-एक हरकत रिकार्ड हो रही है, इंसान की हरकतों की यह रिकार्डिग क्यों हो रही है ?


इंसान की सोचों, बातों और कामों की यह रिकार्डिग क्यों हो रही है ? क्या किसी अदालत के लिए, जहाँ  यह पेश की जाएंगी और इसके  आधार पर कोई फ़ैसला होगा ?
इंसान के  इन सभी सवालों  का जवाब ख़ुदा ने दिया है।  ख़ुदा ने बताया कि इंसान को कभी न ख़त्म होने अर्थात हमेशा-हमेशा के लिए पैदा किया गया है।  इंसान की ज़िन्दगी के दो हिस्से हैं।  एक, मरने से पहले वाली ज़िन्दगी जो बहुत थोड़े समय और इम्तिहान के लिए है।  दूसरे, मरने के बाद वाली ज़िन्दगी जो हमेशा-हमेशा के लिए  है।  जिसमें मरने के पहले वाली ज़िन्दगी में किए गए कामों के  आधार पर, सज़ा या इनाम मिलेगा।  मरने के बाद कभी न ख़त्म होने वाली ज़िन्दगी को ख़ुदा ने आख़िरत का नाम दिया  है।  आख़िरत को  मानना इंसान के सभी सवालों का  जवाब है।


ज़िन्दगी की कहानी मौत के साथ ख़त्म नहीं होती बिल्कुल इसी तरह जैसे टीवी पर एक फ़िल्म चल रही हो और अचानक बीच में यह कह दिया जाए फ़िल्म ख़त्म हो गयी है।  या कोई उपन्यास बीच में ही ख़त्म कर दिया जाए।  अगर ऐसा होगा, तो फ़िल्म देखने वाला या उपन्यास पढ़ने वाला, इस बात को नहीं मानेगा। वह जानना चाहेगा कि अंजाम क्या हुआ ? फ़िल्म के बनाने वाले, उपन्यास के लिखने वाले से यह उम्मीद की जाती है कि वह अंजाम ज़रूर दिखाए।  बिल्कुल इसी तरह क्या कोई अक्लमंद इंसान यह मान सकता है कि हमारी ज़िन्दगी की कहानी हमारी मौत के साथ ख़त्म हो जाएगी।  जबकि अभी कहानी पूरी नहीं हुई, ख़ुदा हमें हमारे अंजाम तक नहीं पहुँचाएगा।  हक़ीक़त में पारलौकिक जीवन ही हमारी कहानी का अंजाम है।  


मरने के बाद जीवन की परिकल्पना तक़रीबन सभी धर्मो में पायी जाती है,  यहाँ तक हिन्दू मत में भी। वेदों में पुर्नजीवन की बात कही गयी है, जिसका अर्थ मृत्यु के पश्चात् हमेशा के एक जीवन से है। वेदों में आवागमन और पुनर्जन्म नहीं पाया जाता।  पुनर्जन्म और आवागमन दो अलग-अलग चीज़ें है।  वेदों में पुर्नजीवन है जिसका अर्थ मनुष्य को अपने कर्मों के फल हेतु दोबारा जन्म लेना है, जबकि आवागमन का अर्थ मोक्ष प्राप्ति तक कर्मानुसार 84 लाख योनियों में बार-बार जन्म लेना है।  उपनिषदकाल में पुनर्जन्म और आवागमन का एकार्थी बना डाला गया।  छान्दोग्य उपनिषद में सबसे पहले पुनर्जन्म की बात कही गयी है।


पुनर्जन्म का आंरभिक ‘‘पुनः" शब्द का अर्थ होता है ‘‘दोबारा" न कि बार-बार। फिर भी बार-बार का अर्थ ग्रहण करके उपनिषदों के द्वारा इसकी स्थापना कर डाली गयी और पुराणों, रामायण, महाभारत एवं धर्मशास्त्रों में आदि में इसको अत्यधिक विस्तार दे दिया गया।  इसमें श्राद्ध्य-सिंद्धांत अर्थात घटक की आत्मा को शांति पहुँचाने का कर्मकाण्ड भी विद्मान है, जो पुनर्जन्म के पुर्णतः विपरीत है।  

 

क़ुरआन के अनुसार हर इंसान को मरने के बाद दोबारा पैदा किया जाएगा।  यह एक न ख़त्म होने वाला जीवन होगा।  यह सांसारिक जीवन अच्छे या बुरे कर्म करने की जगह है और मरने के बाद का शाश्वत जीवन इन कर्मों के आधार पर अच्छा या बुरा बदला पाने की जगह।
इस ग्रह अर्थात् पृथ्वी पर पैदा होने वाला हर जिंदा इंसान अपने साथ वापसी का टिकट लेकर पैदा होता है और जीवन भर उसे उसके कंफ़र्म का इंतिज़ार रहता है। वापसी के टिकट के इसी पुष्टीकरण का दूसरा नाम मृत्यु है।  


इंसान का बीमार बूढ़े और अर्थी को देखकर यह नतीजा निकालना कि जीवन दुख है, सही नहीं है, क्योंकि यह किसी एक इंसान का ख़याल हो सकता है, जबकि सही बात वह है जो बीमारी, बुढ़ापा और मौत देने वाला ख़ुदा बताता है। 
ख़ुदा बताता है  कि सांसारिक जीवन इंसान के लिए एक इम्तिहान है।  बीमारी इस इम्तिहान का एक पर्चा है।  बुढ़ापा इम्तिहान के ख़त्म होने की चेतावनी है। और मौत इम्तिहान के ख़त्म होने का एलान है। 


डेढ़ लाख इंसान प्रतिदिन इस दुनिया से मर कर चले जाते हैं।  ये सब लोग कहाँ जाते हैं ? यह एक अहम सवाल है।  इससे आँखें बंद नहीं की जा सकतीं।  दुनिया का कोई विज्ञान इस सवाल का जबाव नहीं दे सकता, केवल धर्म ही इस सवाल का जबाव दे सकता है।  धर्म में से भी केवल वही एक धर्म इसका सही जवाब दे सकता है,  जिसने ज़िन्दगी और मौत देने वाले की वाणी को विशुद्ध व पूर्णातः सुरक्षित कर रखा है।


क्या हर इंसान के मरने का समय अर्थात् उसके इम्तिहान ख़त्म होने का टाइम तय है ? क़ुरआन कहता है कि हर इंसान के मरने का समय पहले ही से  तय है।
‘‘अल्लाह की अनुज्ञा के बिना कोई व्यक्ति मर नहीं सकता। हर व्यक्ति एक लिखित निश्चित समय का अनुपालन कर रहा है।"
मौत को बार-बार याद करने को इस्लाम पसन्द करता है।  क्योंकि इस बात का इंसान पर अच्छा प्रभाव पड़ता है।  अच्छा काम करने के रास्ते में जो सुस्ती आती है वह दूर हो जाती है।  अच्छा काम करने में जल्दी करता है।  गुनाहों को छोड़ने व तौबा करने में भी जल्दी करता है और इंसान अत्याचार करने से भी रुक जाता है। 
मौत को अपनी मर्ज़ी से बुलाने अर्थात आत्महत्या करने को इस्लाम अवैध बताता है।  क्योंकि यह ख़ुदा से मायूस होने और इंसान के बारे में उसकी स्कीम से विरुद्ध करने जैसा है।  ईशादूत हज़रत मुहम्मद ने फ़रमाया-
‘‘तुम में से कोई मौत की तमन्ना न करे और न जल्द मौत आने की दुआ करे। क्योंकि जब मौत आ जाएगी तो उसके कर्म का सिलसिला रुक जाएगा और ख़ुदा को मानने वाले के लिए उसकी आयु भलाई को बढ़ाने का कारण बनती है।"
‘‘मौत की दुआ न करो और न उसकी तमन्ना करो। अगर किसी व्यक्ति के लिए ऐसी दुआ करनी ज़रूरी हो तो वह इस तरह कहे: ‘‘ऐ अल्लाह! मुझे ज़िन्दा रख जब तक कि मेरे लिए ज़िन्दगी बेहतर हो और मुझे उठा ले जब मौत मेरे लिए बेहतर हो।"
उपर्युक्त बातों का सारांश यह है कि ईश्वर के एक होने के सिद्धांत को हम इस तरह स्वीकार करें कि उसकी हस्ती, गुण, अधिकार, सत्ता एवं स्वामित्व में किसी को शरीक न करें।  अन्तिम ईशादूत हज़रत मुहम्मद ने ईश्वर की  इबादत का पूरा तरीक़ा हमें बताया और करके दिखाया है।  हज़रत मुहम्मद पर अंतिम ग्रंथ पवित्र क़ुरआन अवतरित हुआ जो पूर्णतयाः विशुद्ध रूप से सुरक्षित है।  यह किताब समस्त मानव जाति के लिए मार्ग दर्शन है।  इस सांसारिक व पारलौकिक के जीवन में सफलता व मुक्ति के लिए इन सच्चाइयों को स्वीकार करते हुए ईश्वर के बताए हुए मार्ग पर चलना ज़रूरी है।


परलोक की तैयारी आज से ........
इस भौतिक एवं सांसारिक जीवन का अंत हो जाना एक सर्वमान्य सत्य है।  हाँ, इस बात में मत भेद हो सकता है और मतभेद है भी कि इसके अंत के बाद क्या होगा ?  आस्तिकता और धर्म का पक्ष यह है कि इसके बाद एक और जीवन है। नास्तिक एवं धर्म में विश्वास न रखनेवाले लोग कहते हैं कि इसके बाद कोई दूसरा जीवन नहीं है।  उनका कहना है कि हम मर कर हमेशा के लिए ख़त्म हो जाएंगे।  ऐसा नहीं हो सकता कि सड़-गल कर या जलकर हमारा शरीर बिल्कुल ही नष्ट हो जाए तो हम शरीर धारण करके नया प्राप्त कर लें। 


प्रभाव में अन्तर
उपरोक्त दोनों दृष्टिकोणों में से किसी एक को धारण करने के लिए हर व्यक्ति आज़ाद है, अर्थात् उस पर कोई एक विचारधारा थोपी नहीं जा सकती।  लेकिन चूँकि सृष्टि में मनुष्य ही ऐसा जीव है जिसे उसके स्रष्टा ने बुद्धि-विवेक प्रदान किया है।  इसलिए बुद्धिमानी यह है कि दोनों विपरीत दृष्टिकोणों के इस जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों पर अवश्य विचार किया जाए। यही बात मनुष्य को पशु से और मानव को दानव से अलग करती है। और उसे श्रेष्ठ और आदरणीय भी बनाती है।  


पहले दृष्टिकोण का प्रभाव
धार्मिक पक्ष का मूलाधार ‘‘ईश्वर में पूर्ण विश्वास है''।  यहाँ ईश्वर को स्रष्टा, स्वामी, प्रभु, प्रतिपालक, पोषक, निरीक्षक, संरक्षक, न्यायपति, पूज्य व उपासक माना गया है।  इस दृष्टिकोण को अनिवार्य रूप से आपेक्षित है कि इंसान ईश्वर का आज्ञाकारी, कृतज्ञ, ईशपरायण, दास और बन्दा हो। उसका जीवन-कर्म अच्छा, सुंदर, उत्तम हो जो स्पष्ट है।  आज्ञाकारी, उद्दण्ड, पापी, उपदृव्यी, सरकश, ज़ालिम, व्यभिचारी, अत्याचारी जनों से बिल्कुल भिन्न होगा।


दूसरे दृष्टिकोण का प्रभाव
नास्तिक, अधर्मी या धर्मरहित दृष्टिकोण का प्रभाव यह है कि इंसान और पशु के जीवन-उद्देश्य व जीवन शैली में थोड़ा ही अन्तर रह जाता है।  पशु के लिए खाओ, पियो और मर जाओ। यह थोड़ा-सा अन्तर इंसान व समाज को मानवता और मानवीय मूल्यों से बहुत ज़्यादा नीचे गिरा देता है और मानवीय गौरव, गरिमा एवं उत्कृष्टता को आघात पहुँचा कर उसका आंशिक या पूर्ण विनाश कर देता है।  यही वजह है कि संसार में लूट-मार, दमन, शोषण, अनाचार, नरसंहार, फ़साद, व्यभिचार, अन्याय, भ्रष्टाचार फैला हुआ है।  व्यापक अपराधीकरण ने विकट वातावरण बना रखा है। इन समस्याओं के तीन प्रमुख कारक हैं-पहला: ईश्वरीय धर्म का इनकार, दूसरा: धर्म को मानते हुए भी धर्म से उदासीनता एवं विमुखता और तीसरा: लगभग दुनिया की तीन चैथाई आबादी की धार्मिक मान्यताओं व धारणाओं में इस क्षमता व शक्ति का न होना कि वे अपने मानने वालों को ईश्वर के  समक्ष उत्तरदायी होने का प्रबल व यथार्थ विश्वास दिला सकें; ऐसा दृढ़, अडिग विश्वास कि ईश्वर के सामने उत्तरदायित्व की भावना मनुष्य को नेक, ईमानदार, चरित्रवान, शालीन, उपकारी बना सके तथा बदी-बुराई, दुष्कर्म, अत्याचार, अन्याय उपद्रव आदि से बचा सके।


इस्लाम का पक्ष
इस्लाम उन धर्मो में से है जो इस जीवन के बाद एक और जीवन की अवधारणा रखता है।  यह अवधारणा उसकी तीन मूल-धरणाओं-विशुद्ध एकेश्वरवाद, परलोकवाद, ईशदूतवाद-में ऐ एक है।  इसकी सरल-सहज व्याख्या यह है:
मनुष्य को संसार में एक नियतकालीन जीवन दिया गया है, लेकिन वास्तव में मानव-जीवन दीर्धकालीन है।  इस जीवन के दो चरण हैं जो प्रत्यक्ष रूप में तो अलग-अलग है, लेकिन परोक्षतः एक-दूसरे के पूरक-संपूरक तथा परस्पर संलग्न है।  यहाँ का जीवन समाप्त होते ही आत्मा आगे के जीवन में पहुँच जाती है।  क़ियामत के बाद इस जीवन का नष्ट हो चुका शरीर, ईश्वर की महान सृजन-शक्ति क्षमता द्वारा पुनः सृजित कर दिया जाएगा और वही आत्मा उसमें फिर से आ जाएगी।  फिर मानव-जाति के आदि से अन्त तक के सारे इनकार ईश्वर के सामने हाज़िर किए जांएगे।  प्रत्येक के जीवन भर की ‘कर्मपत्री' खोली जाएगी।  पूर्ण इंसाफ़ से हिसाब होगा।  किसी के साथ भी वंश, रंग, भाषा, वर्ण, वर्ग, क़ौम, जाति, स्टेटस और राष्ट्रीयता आदि के आधार पर तनिक भी पक्षपात न होगा।  ये सारे सांसारिक मानदण्ड और अमीर-ग़रीब, शासक-शासित, राजा-प्रजा, मालिक-नौकर, सबल-निर्बल, सत्ताधारी-सत्ताविहीन, ऊँच-नीच आदि के सारे मानदण्ड, महान, प्रभुत्वशाली, न्यायप्रद, निष्पक्ष, सर्वशक्तिमान, तत्वदर्शी ईश्वर के न्यायालय में समाप्त कर दिए जाएंगे।  हरेक के  साथ दोषरहित, त्रुटिरहित, और पूर्ण न्याय  होगा।  हरेक को उसके जीवन-भर का लेखा-जोखा, कर्म-पत्र और परिणाम-पत्र थमा दिया जाएगा।  कुछ लोगों के स्वर्ग में जाने का और कुछ के नरक में जाने का फ़ैसला सुना दिया जाएगा।  स्वर्ग-जिसमें वैभव, सुख, शांति, आराम और  ऐसी-ऐसी नेमतों के बीच एक शाश्वत और अमर जीवन होगा, जिसकी कल्पना भी इस अस्थायी, त्रुटिपूर्ण, नश्वर सीमित जीवन में नहीं की सकती। नरक-जिसमें दुख, प्रताड़ना, आग व ईश्वरीय प्रकोप के बीच एक अति दीर्घ जीवन होगा, जिसकी भयावह, कष्टकर सज़ाओं की कल्पना भी इस जीवन में करनी असंभव है।


मानव-प्रकृति की मांग
मानव प्रकृति-यदि मूल पर क़ायम हो एवं विभिन्न अन्दरूनी और बाहरी कारकों ने उसमें विकार, बिगाड़ व अमौलिकता न पैदा कर दी हो, तो अपने सहज स्वभाव के अन्तर्गत यह माँग करती है कि:
 अच्छे और बुरे लोगों का मरने के बाद  एक जैसा ही परिणाम न हो, अर्थात् सड़-गलकर एक ही तरह दोनों ख़त्म हो जाएं और कहानी समाप्त हो जाए, ऐसा न हो।
 ईश्वर के बाग़ियों, अवज्ञाकारयिों, इनकार करने वालों का तथा ईशोपासक, इशपरायण, ईश-आज्ञापालक लोगों का परिणाम मृत्यु के पश्चात्, उनके इस जीवन के कर्मों के अनुसार ही अलग-अलग हो।
 जिन लोगों ने अत्याचार व अन्याय किए और धन, सत्ता, पहुँच-सिफ़ारिश, धौंस-धांधली का क़ानून व सज़ा के सांसारिक विधानों व प्रावधानों की त्रुटि, सीमितता या पक्षपात के चलते या किसी अन्य कारण से तो साफ़ बच गए, या थोड़ी-सी, अधूरी, प्रतीकात्मक सज़ा पाकर बच निकले उनको न्याय के साथ वह पूरी सज़ा मिले तो इस जीवन में न मिल सकी थी।
 जिन लोगों के साथ इस जीवन में अत्याचार हुआ, जिनके अधिकारों का हनन हुआ, जिनका बहुआयामी शोषण किया गया और जिन्हें पूरा या आधा-अधूरा या कुछ भी इंसाफ़ न मिला उन्हें कहीं न कहीं पूरा न्याय अवश्य मिलना चाहिए, क्योंकि ईश्वर के बारे में यह कल्पना तक नहीं की जा सकती कि उसने इंसानों और इंसानी समाज के लिए अपनी व्यवस्था को अराजकता के हवाले कर दिया हो।

 जो लोग नेक और चरित्रवान हुए, बड़े से बड़ा नुक़सान उठाकर, घोर कष्ट झेल कर, बड़े-बड़े ख़तरों का मुक़ाबला करके भी सत्य मार्ग को न छोड़ा। अनाचार, शोषण, उपद्रव, अराजकता, धांधली, ज़ुल्म के तेज़, तूफान में भी उनके क़दम सत्यमार्ग पर जमे रहे और इस जीवन में उन्हें इस सदाचार व सत्यनिष्ठा का अच्छा और भरपूर बदला, पुरस्कार, पारितोषिक न मिला उसे मिलने के लिए कोई और जगह, कोई अवसर, कोई और जीवन अवश्य प्राप्त होना चाहिए।
इस्लाम की परलोक के सम्बन्ध में धारणा
इस्लाम की परलोक के सम्बन्ध में धारणा मानव-जीवन की अपेक्षाओं को भली-भांति पूरा करती है।  यह मानवीय प्रकृति के ठीक अनुकूल और बुद्धिसंगत है।  यह मानव-प्रकृति की उपरोक्त सारी माँगों को सक्षम, सक्रिय, बुद्धिगत, स्वाभाविक रूप से और सम्पूर्णता के साथ संतृप्त और पूरा करती है।

अन्य धारणाओं से तुलना
मृत्यु-पश्चात् जीवन के बारे में अनेक धार्मिक अवधारणाएँ संसार में पाई जाती हैं।  उन पर एक तुलनात्मक और सरसरी निगाह डालते चलने से  इस्लामी अवधारणा की विशिष्टता व श्रेष्ठता आसानी से नज़र आ जाती है-
1-एक अवधारणा यह है कि अमुक विभूति या व्यक्तित्व पर ईमान ले आना ही मोक्ष,  मुक्ति  या परलोक में स्वर्ग पाने के लिए काफ़ी है।  इस विश्वास के बाद नेकी-बदी, पुण्य-पाप, सदाचरण-दुराचरण  आदि बातें निरर्थक  हो जाती हैं।  इस मान्यता से  कैसा मनुष्य, कैसा समाज बनेगा?  कैसा चरित्र, नैतिक वातावरण बनेगा, इस बारे में कुछ कहना ही व्यर्थ है। विशेषकर पिछली आधी सदी में पूरी दुनिया इस मान्यता से उपजी मानसिकता, सभ्यता-संस्कृति और पूरे विश्व में मची उधमबाज़ी को देख रही तथा इसके दुष्परिणामों, कुप्रभावों को झेल रही है।

2-एक मान्यता यह  है कि यही जीवन अच्छों के लिए स्वर्ग है और बुरों के लिए नरक। अतः पारलौकिक जीवन की कोई आवश्यकता नहीं है।  ऐसा मानने वाले लोग, ज़िन्दगी के दूसरे मामलों में तो बड़ी सूझ-बूझ, छान-फटक, अध्ययन-विश्लेषण, ज्ञानोपार्जन, अक़्लमन्दी व गंभीरता से काम लेते हैं, लेकिन एक गंभीरतम मामले में जो चीज़ सबसे पहले और पूरी तरह त्याग देते हैं वह चीज़ है ‘गंभीरता'।  यह बात कि हर दुष्कर्मी को इसी जीवन में पूरी सज़ा मिल जाती है और हर सुकर्मी को पूरा इनाम, यह बात अवास्तविक भी है और अतार्किक भी।  यह बात रोज़ाना के अनुभवों के बिल्कुल ख़िलाफ़ और प्रतिकूल सिद्ध होती है।
3-तीसरी मान्यता यह है कि इस जीवन के बाद कर्मानुसार आत्मा किसी अन्य अच्छे या बुरे जीव के शरीर में जा बसेगी।  उन जीवों के जीवन-मरण के साथ-साथ, ‘शरीर-परिवर्तन' का क्रम चलता रहेगा।  इस मान्यता में एक तार्किक त्रुटि यह है कि यह इस जीवन में मनुष्य के चरित्र निर्माण में कोई यथार्थ, प्रभावकारी, सक्रिय भूमिका निभाने और उसे ईश्वर के समक्ष पारलौकिक जीवन में उत्तरदायी  बनाने में व्यावहारिक स्तर पर पूरी तरह अक्षम, असमर्थ और असफल है।
उपरोक्त पंक्तियों में, ‘मृत्यु-पश्चात् जीवन' की जो स्पष्ट इस्लामी धारणा बयान की गयी उसमें ऊपर लिखी गई तीनों सीमितताओं और या त्रुटियों का समाधान निहित है।  इस्लाम का दृष्टिकोण बिल्कुल स्पष्ट और निश्चित है।  इस्लामी धारणा है कि
(1) हर व्यक्ति का हर काम चाहे एकांत में किया गया हो, चाहे लोगों के सामने, चाहे अंधेरे में किया गया हो, चाहे उजाले में, अल्लाह के अदृश्य फ़रिश्तों के माध्यम से हर क्षण  रिकार्ड किया जा रहा है।  
(2) आदमी को सर्वशक्तिमान ईश्वर ने अपनी अपार-असीम शक्ति व सामर्थ्य से जिस तरह पहली बार बनाया था उसी प्रकार एक बार फिर उसे बना देना ईश्वर के लिए अंसभव तो बहुत दूर की बात, तनिक भी कठिन न होगा।  
(3)  हर मनुष्य के जीवन भर के किए-धरे कर्मों का पूरा-पूरा बदला उसे परलोक में पूरे न्याय के साथ दे दिया जाएगा।  
(4) और यह बदला या तो स्वर्ग होगा या  फिर नरक।


क़ुरआन में पारलौकिक जीवन
इस्लाम का मूल स्त्रोत ‘क़ुरआन' नामक वह ईशग्रंथ है, जिसकी ऐतिहासिकता व प्रामाणिकता के विश्वसनीय होने पर संसार के सभी निष्पक्ष व पूर्वाग्रहरहित विद्वानों, बुद्धिजीवियों एवं शोघकर्ताओं ने पूर्ण विश्वास ज़ाहिर किया है।  यह आरम्भ से अंत तक, शब्दश: ईश्वरीय वाणी है, जो किसी भी मानव-हस्तक्षेप से मुक्त, पवित्र ईशग्रंथ है।  इसमें पूरे मानव जीवन का विधान और मार्गदर्शन है।  इसमें इंसान की हैसियत, उसे पैदा करने का उदेश्य, ईश्वर की सही पहचान, मनुष्य व ईश्वर के बीच सम्बन्ध, ईश्वर के प्रति मनुष्य के कर्तव्य दूसरे इंसानों के प्रति कर्तव्य-अधिकार, उपासना की वास्तविकता व पद्धति, मृत्यु-पश्चात् जीवन की व्याख्या विस्तार से वर्णित हुई है।  पारलौकिक जीवन से सम्बन्धित क़ुरआन की बहुत सी आयतों में से कुछ के भावानुवाद यहाँ प्रस्तुत किए जा रहे हैं-


 ‘‘उस दिन हर व्यक्ति को उसकी कमाई का बदला पूरा-पूरा दे दिया जाएगा और किसी के साथ अन्याय न होगा।‘‘
 ‘‘और कर्म-पत्र सामने रख दिया जाएगा।  उस वक़्त तुम देख लोगे कि अपराधी लोग अपने जीवन-ब्यौरे से डर रहे होंगे और कह रहे होंगे, ‘‘हाय हमारी तबाही! यह कैसा रिकार्ड है कि हमारी कोई छोटी-बड़ी गतिविधि ऐसी नहीं रही जो इस में उल्लिखित न हो। जो-जो कुछ उन्होंने किया था वह सब अपने सामने मौजूद पाएँगे और उस वक़्त तेरा रब किसी के साथ तनिक भी अन्याय न करेगा।''
 ‘‘उस दिन के अपमान और मुसीबत से बचो जबकि तुम ईश्वर की ओर वापस होगे।  वहीं हर व्यक्ति की अपनी कमाई हुई नेकी या बुराई का पूरा-पूरा बदला मिल जाएगा।''
 ‘‘कोई शब्द उस के मुँह से नहीं निकलता जिसे रिकार्ड करने के लिए एक निरीक्षक मौजूद न हो।''
 ‘‘तुममें से कोई व्यक्ति चाहे ज़ोर से बात करे, चाहे धीरे से, कोई अन्धेरे में हा या दिन के उजाले में चल रहा हो, उसके बारे में ईश्वर के लिए सब बराबर है।''
 ‘‘अन्ततः  हर व्यक्ति को मरना है और तुम सब अपना पूरा-पूरा बदला क़ियामत के दिन पाने वाले हो।  सफल वास्तव में वह है जो वहाँ नरक की आग से बच जाए और स्वर्ग में दाख़िल कर दिया जाए।  रहा यह संसार, तो यह केवल धोखे की चीज़ है।''
 ‘‘क्या इंसान यह समझ रहा है कि हम उसकी हड्डियों को इकट्ठा न कर सकेंगे? क्यों नहीं? हम तो उसकी उंगलियों की पोर-पोर तक ठीक-ठीक बना देने में सक्षम है।  मगर इंसान यह चाहता है कि आगे भी दुष्कर्म करता रहे।''


हदीस में पारलौकिक जीवन
‘हदीस‘ इस्लामी परिभाषा में इस्लाम के पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद के पवित्र जीवन-आचरण और कथन को कहते हैं।  इसका पूरा रिकार्ड पैग़म्बर के समकालीन विश्वसनीय पुरुषों, स्त्रियों के वक्तव्यों के रूप में आरम्भ-काल में ही तैयार कर लिया गया था।  पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद के सारे कथन, कार्य, गतिविधियाँ, पैग़म्बरी आदेश-निर्देश तथा क़ुरआन की आयतों की पैग़म्बर द्वारा की गई व्याख्याएं, हज़ारों की संख्या में प्राचीनकाल में ही लिपिबद्ध, संकलित वह संपादित कर ली गई थीं, जो आज कई भाषाओं में अनूदित हैं और हर जगह उपलब्ध हैं।
आप के परलोक, स्वर्ग, नरक से संबधित अनेकानेक कथनों में से कुछ को  यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है:
1-‘‘क़ियामत के दिन बन्दा एक क़दम भी आगे न बढ़ा सकेगा, जब तक उससे पाँच बातों के बारे में जवाब न ले लिया जाए।
 अपनी आयु किस तरह व्यतीत की
 अपनी जवानी किस तरह बिताई।
 माल कहाँ से कमाया?
 माल कहाँ से ख़र्च किया?
 जो ज्ञान उसने अर्जित किया उस पर कितना अमल किया? ''
2-‘‘दरिद्र उसे माना जाता है जो बिल्कुल ही निर्धन हो।  लेकिन मेरी उम्मत में अस्ल में दरिद्र वह है जो नमाज़, रोजा, इबादत-उपासना आदि का एक बड़ा भंडार लेकर परलोक में ख़ुदा की अदालत में इस तरह आएगा कि उसने किसी का हक़ मारा होगा, किसी को सताया होगा, गाली दी होगी, किसी पर ज़ुल्म किया होगा।  न्याय का तकाज़ा पूरा करने के लिए अल्लाह उसकी नेकियाँ प्रभावित व मज़लूम लोगों को देता जाएगा, यहाँ तक कि उसकी नेकियाँ ख़त्म हो जाएँगी, वह पूरी तरह से दरिद्र हो जाएगा।  फिर भी उसके हिसाब में उसके उपरोक्त कुकर्मों की मात्रा बाक़ी रह जाएगी, तो प्रभावित लोगों के पाप उसके खाते में डाले जाएँगे और फिर फ़रिश्तों को हुक्म दिया जाएगा कि उसे घसीटते हुए ले जाएँ और नरक में डाल दें।''
3-‘‘जिसने बेटियों पर बेटों को प्रमुखता न दी, बेटियों की हत्या न की, बल्कि उन्हें स्नेहपूर्वक पाला-पोसा, अच्छी शिक्षा-दीक्षा दी, अच्छे संस्कारों से सुसज्जित किया और अच्छा रिश्ता करके उनका घर बसा दिया, वह परलोक में मेरे साथ स्वर्ग में इस तरह रहेगा'' फिर आपने हाथ की दो उंगलियाँ बिल्कुल क़रीब करके दिखाया।
4- उस व्यक्ति पर अल्लाह की लानत है जिसके पास उसके बूढ़े माता-पिता हों या उनमें से कोई एक हो और वह व्यक्ति उनकी/उसकी सेवा-सुश्रूषा करके स्वयं का स्वर्ग का भागी न बना सके।''


परलोक-संबंधी शिक्षाओं के व्यावहारिक परिणाम
मृत्यु-पश्चात्, पारलौकिक जीवन की अवधारणा, इस्लाम में मात्र कोई धुंधली-सी या मात्र दार्शनिक स्तर की परिकल्पना नहीं है।  इसे इस्लाम ने ‘दृढ़ विश्वास' का रूप दिया है।  अतः इस विश्वास ने व्यक्ति व समाज की ऐसी काया पलट दी, जिसके विवरण से इतिहास के पन्ने भरे पड़े हैं।  इसके असंख्य व्यावहारिक प्रभावों व परिणामों में से सिर्फ़ कुछ यहाँ बहुत संक्षेप में लिखे जा रहे है-


 वह क़ौम जो शराब पानी की  तरह पीती थी, उस क़ौम के लोगों ने जब इस्लाम क़ुबूल कर  लिया और ईशसन्देष्टा ने सार्वजनिक घोषणा करायी कि क़ुरआन की आयतें अवतरित हुई हैं कि शराब हराम कर दी गई है अर्थात् अब जो व्यक्ति शराब पिएगा, उसकी एक बूंद भी ज़बान पर डालेगा, एक घूंट भी पिएगा उसे परलोक में नरक की यातना झेलनी पड़ेगी तो घोषणा सुननी थी कि लोगों ने ख़ुद अपने शराब से भरे मटके तोड़ डाले।  हाथ का प्याला जो मुँह तक आ चुका था, फेंक दिया, हलक़ में उँगलियाँ डालकर पेट में चली गई शराब की क़ै कर दी और सभा में घोषणा सुनकर  भी किसी ने शराब का प्याला पी लिया तो दूसरे उपस्थित लोगों ने मुक्कों, घूंसों से पीट डाला।
 लड़की  का जन्म होने पर चेहरों पर क्लौंस छा जाती थी।  विभिन्न कारणों से, बेटी को ज़िन्दा दफ़न कर देने की पिशाचीय क्रूर कुप्रथा भी प्रचलित थी।  कन्याओं की हत्या के विरुद्ध क़ुरआन में आयतें अवतरित हईं, पैग़म्बर ने बस कुछ संक्षिप्त आदेश दिए।  फिर बेटी की पैदाइश पर लोगों के चेहरे खिल उठने लगे। उसे स्वर्ग प्राप्ति का साधन मानकर माता-पिता प्रफुल्लित और प्रसन्नचित हो जाने लगे। कन्या-हत्या का मुस्लिम समाज से पूर्ण व स्थायी उन्मूलन हो गया।
 माता-पिता, विशेषतः जब वे बूढ़े, कमज़ोर, आश्रित हो जाएँ, के मान-सम्मान, आदर, सेवा-सुश्रूषा और आज्ञापालन में औलादें तत्पर हो गईं, क्योंकि इसमें उन्होंने अपनी स्वर्ग-प्राप्ति का सामान देखा।


मृत्यु-पश्चात् जीवन (परलोक, ईश्वरीय न्याय, कर्मों  का पूरा बदला, स्वर्ग पाने की ललक, नरक से बचने की चिंता) की इस्लामी अवधारणा ने सांसारिक जीवन के किसी भी पहलू को अछूता, किसी भी क्षेत्र को अप्रभावित न छोड़ा।  इतिहास  दुनिया की सबसे उजड्ड, बेढब, अनपढ़, असभ्य, शराबी, दुराचारी, दुष्चरित्र, बद्दू क़ौम के सदाचरण, ईमानदारी,  सभ्यता, दयालुता, क्षमाशीलता, जन-सेवा, परमार्थ, त्याग, उत्सर्ग, ज्ञान-विज्ञान तथा  मानवीय-मूल्यों की श्रेष्ठता व उत्कृष्टता को रिकार्ड में ले आने पर विवश हो गया।  यह बदलाव, यह सम्पूर्ण क्रान्ति लाने में इस्लाम की मूलधारणा ‘विशुद्ध' एकेश्वरवाद के  साथ लगी हुई ‘परलोकवाद-अवधारणा' की ही अस्ल भूमिका व  अस्ल योगदान है।


क्या हम अच्छा मनुष्य बनना नहीं चाहते ? क्या हम अच्छा परिवार, अच्छा समाज, अच्छी सामूहिक व्यवस्था बनाने की आरज़ू, अभिलाषा  नहीं रखते ? क्या हम दुराचार, अत्याचार, भ्रष्टाचार, अन्याय अशान्ति, अपराधीकरण, कन्या-वध व कन्याभ्रूण-हत्या का निवारण व उन्मूलन नहीं चाहते ? यक़ीनन हममें से हर कोई यह चाहता है।  तो आइए, मृत्यु-पश्चात जीवन की इस्लामी अवधारणा अपनाएँ और बिना समय गंवाए, ‘‘परलोक की तैयारी आज से'' ही शुरू कर दें।  ईश्वर हमारी  सहायता और हमारा सन्मार्गदर्शन करे।