दो शब्द
‘नारी और इस्लाम' यह पुस्तिका सर्वप्रथम यू0पी0 जमाअत द्वारा चलाई गई एक मुहिम के अवसर पर प्रकाषित की गई थी और इसे बड़ी संख्या में गैर-मुस्लिम भाइयों के बीच वितरित किया गया था।
इस्लाम में औरत को क्या स्थान दिया गया हैं और उसकी क्या हैसियत इस्लाम में है, इसकी एक झलक इस संक्षिप्त-सी पुस्तिका में प्रस्तुत की गई है जिससे आपको अन्दाज़ा हो सकेगा कि इस्लाम ने औरत को समाज में उसका सही स्थान प्रदान किया हैं।
इस विषय पर विस्तृत जानकारी प्राप्त करने के लिए पुस्तिका के अन्त में एक पुस्तक-सूची भी दी गई है, जिनके अध्ययन से इस विशय पर इस्लाम का विस्तृत दृश्टिकोण आपके सामने आ सकेगा।
हमे आषा है कि इस पुस्तिका को ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुॅचाया जाएगा।
नसीम गा़जी
अध्यक्ष
इसलामी साहित्य ट्रस्ट (रजि0)
बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम
'अल्लाह दयावान कृपाषील के नाम से'
नारी और इस्लाम
भूमिका
इतिहास में एक लम्बे समय से नारी पर अत्याचार होता आ रहा हैं। हर कौम और हर क्षेत्र में नारी उत्पीड़ित थी। यूनान मे, रूस में, मिस्र में, इराक में, भारत में, चीन में, अरब में, हर जगह उस पर जुल्म व अत्याचार हो रहा था। बाजारों और मेलो में उसका क्रय-विक्रय होता था। जानवरों से बदतर उसके सुलूक किया जाता था। यूनान में एक लम्बे समय तक यह बहस जारी रही कि उसके अन्दर आत्मा है भी या नहीं। अरब वाले तो उसके अस्तित्व ही को अपमान समझते थे। कुछ कठोर हृदय लोग अपनी बेटियों को जिन्दा धरती में गाड़ देते थे। भारत में पति की चिता पर उसकी विधवा जलकर भस्म हो जाती थी। निवृत्तिवादी धर्म उसे अपराध का स्रोत, पाप का द्वार और पाप का प्रतिरूप समझते थे। उसके साथ सम्बन्ध रखने को आध्यात्मिक उत्थान के मार्ग में अवरोध समझा जाता था। दुनिया की अधिकांश सभ्याताओं में उसे समाज में कोई स्थान प्राप्त न था। वह उपेक्षणीय और अधम समझी जाती थी। उसे आर्थिक और राजनैतिक अधिकार प्राप्त न थे। वह स्वेच्छापूर्वक लेन-देन और कोई आर्थिक हस्तक्षेप नही कर सकती थी। वह षादी से पहले बाप के, फिर पति के और उसके बाद अपने पुत्र के अधीन थी। उनके प्रभुत्व को चुनौती देने की उसे अनुमति न थी। उनके द्वारा की गई नृशंसता और अत्याचार पर उसकी कही सुनवाई न थी। उसे फरयाद और आपत्ति करने का भी अधिकार प्राप्त न था।
औरत और इस्लाम:-इस्लाम ने औरत को जुल्म व अत्याचार के खड्ड से निकाला । उसके साथ इन्साफ़ क़िया, उसे सारे मानवीय अधिकार दिए, इज्जत व श्रेश्ठता प्रदान की और समाज का उसका सम्मान करना सिखया, और औरत की मज़लूमी व महकूमी (दासता) के खिलाफ़ इतने ज़ोर से आवाज बुलन्द की सारी दुनिया उससें गूॅंज उठी। आज उसी का प्रभाव हैं कि किसी में यह साहस नही कि उसकी पिछली (दासता की) हैसियत को सही और यथार्थपरक कह सके। क़ुरआन ने पूरी शक्ति से कहा -
''ऐ लोगो! अपने रब से डरो, जिसने तुम्हे एक ज़ान से पैदा किया, और उससे उसका जोड़ा बनाया और उन दोनों से बहुत-से मर्द और औरतें फैंला दी, और अल्लाह से डरो जिसका वास्ता देकर तुम एक-दूसरे से अपने ह़क माॅगते हों, और रिस्तों का सम्मान करों । निस्संदेह अल्लाह तुम्हारी निगरानी कर रहा हैं।‘‘ (क़रआन 4:1)
यह इस बात की घोषणा थी कि एक इन्सान और दूसरे इन्सान के बीच जो झूठे भेद-भाव दुनिया में पैदा कर दिए गए हैं वे सब सत्य के प्रतिकूल, निराधार और निर्मल हैं। सम्पूर्ण मानव जाति एक ही जान से पैदा हुई हैं। सबकी बुनियाद एक हैं। पैदाइशी तौर पर न कोई श्रेष्ठ हैं, न हीन, न कोई ऊॅंची जाति का हैं और न कोई नीची जाति का । सभी बराबर और समान अधिकार रखते हैं।
औरते की तीन हैसियतेः-एक घर में औरत की तीन स्पष्ट हैसियतें हैं-माॅ, बीबी, और बेटी। इस्लाम ने इन तीनों की हैसियतों में उसे बड़ा ऊॅंचा मक़ाम प्रदान किया हैं।
माॅं के रूप में औरत की हैसियत: इस्लाम ख़ुदा और रसूल के बाद सबसे ऊॅंचा दर्जा माॅ को देता हैं। माॅ और बाप दोनों के साथ सद्व्यवहार करने और उनके आज्ञानुपालन का आदेश देता हैं। अतएव क़ुरआन में कहा गया हैं-
''और हमने मनुश्य को अपने माॅ-बाप का हक़ पहचाननें की ताकीद की हैं। उसकी माॅ ने सख्ती पर सख़्ती झेलकर उसे अपने पेट में रखा और दो वर्ष में उसका दूध छूटा । हमने आदेश दिया कि मेरे कृतज्ञ बनो और अपने माॅ-बाप के भी कृतज्ञ बनो । अन्ततः मेरी ही ओर तुम्हे पलटना हैं।‘‘ (क़ुरआन, 31:14)
अल्लाह के पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) ने बाप के साथ भी सद्व्यवहार की ताकीद की हैं, लेकिन माॅ के साथ सद्व्यवहार पर उन्होने ज़्यादा बल दिया हैं। आप का आदेश है।
''मैं मनुश्य को उसकी माॅ के बारे में (सद-व्यवहार की) ताकीद करता हूॅ, मैं मनुश्य को उसकी माॅ के बारे में (सद्व्यवहार की) ताकीद करता हॅू। मैं मनुश्य को उसकी माॅ के बारे में (सद्व्यवहार की) ताकीद करता हॅू, मैं मनुश्य को उसके बाप के बारे में (सद्व्यवहार की)ताकीद करता हूॅ।'' (हदीश: इब्ने माजा)
हज़रत अबू हुरैरा (रजि0) फ़रमाते हैं कि एक आदमी नबी सल्ल0
1.सल्ल0: इसका पूर्ण रूप हैं ‘सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम'। जिसका अर्थ है उन पर अल्लाह अपनी दया और कृपा करे! जब पैगम्बर, नबी, रसूल हजरत मुहम्मद का नाम लेते या लिखते हैं तो दुआ के ये शब्द बढ़ा देते है।
2. रजि0: इसका पूर्ण रूप हैं ‘रजियल्लाहु अन्हु'। जिसका अर्थ है, अल्लाह उनसे प्रसन्न हो। जब पैगम्बर हजरत मुहम्मद (सल्ल0) के किसी सहाबी (साथी) का नाम लेते या लिखते है तो दुआ के ये ये षब्द बढ़ा देते हैं।
के पास आया और पूछा-
'' ऐ अल्लाह के रसूल ! मेरे अच्छे व्यवहार का सबसे ज्यादा हक़दार कौन हैं ?‘‘
आपने फरमाया, ''तेरी माॅं!''
उसने पूछा,'' फिर कौन ?''
आपने फरमाया,‘‘तेरी माॅं!''
उसने फिर पूछा,‘‘फिर कौन ?''
फरमाया ‘‘तेरी माॅ!‘‘
उसने कहा,‘‘फिर कौन ?‘‘
तो आपने फ़रमाया,‘‘तेरा बाप!''(हदीसः अल-अ-द-बुल मुफ़रद) अल्लाह के रसूल (सल्ल0) ने फरमाया हैं-
''अल्लाह ने तुमपर हराम ठहराई हैं, माॅ की नाफरमानी और लड़कियों को ज़िन्दा दफ़न करना। '' (हदीस)
अल्लाह के रसूल (सल्ल0)ने यह भी फ़रमाया-
''जन्नत माॅ के क़दमों के नीचे हैं।'' (हदीस)
पत्नी के रूप में औरत की हैसियत:-इस्लाम में औरत का स्थाई अस्तित्व स्वीकार किया गया हैं। निकाह की वजह से न तो उसका व्यक्तित्व पति के व्यक्तित्व में गुम हो जाता हैं और न वह उसकी चेरी और दासी होती है। बीबी के बारे में कुरआन कहता हैं-
''अल्लाह की (बहुत-सी) निषानियों में से यह भी हैं कि उसने तुम्हारे लिए तुम्हारी ही नस्लसे जोड़े बनाए, ताकि तुम उनके पास आराम और षान्ति पा सको, और तुम्हारे बीच प्रेम और दयालुता पैदा कर दी। निस्संदेह हैं उन लोगों के लिए जो सोच-विचार करते हैं।'' (कुरआन 30:21)
एक दूसरे स्थान पर अल्लाह फ़रमाता हैं-
''मर्द औरतों के सरपरस्त (संरक्षक) और निगराॅ हैं, इस कारण कि अल्लाह ने एक को दूसरे पर श्रेश्ठता दी हैं और इस कारण भी कि मर्द अपने माल (धन) खर्च करते हैं। अतः जो नेक स्त्रियाॅ होती हैं, वे आज्ञापालन करनेवाली और मर्दो के पीछे(अनुपस्थिति में) छिपे की अल्लाह के संरक्षण में रक्षा करनेवाली हैं।‘‘ (कुरआन 4ः34 )
कभी-कभी आदमी को एक चीज नापसन्द होती हैं, लेकिन उसमें भलाई के अनगिनत पहलू होते हैं। औरतों के सम्बन्ध में कुरआन कहता हैं-
‘‘उनके साथ भले तरीके से जीवन-यापन करो। अगर तुम उनको नापसन्द करते हो तो सकता हैं कि एक चीज़ तुम्हे नापसन्द हो और अल्लाह ने उसमें बहुत-सी भलाई रख दी हो।'' (कुरआन 4:19)
एक सहाबी ने अल्लाह के रसूल (सल्ल0) से बीबी क अधिकारों के बारे में पूछा, तो आपने फ़रमाया -
'' जब तुम खाओ तो उसे भी खिलाओं, जब तुम पहनो तो उसे भी पहनाओं । (गुससे से बेक़ाबू होकर) उसके मुॅंह पर मत मारो और उसको बुरा भला मत कहो । (उससे किनाराकशी ज़रूरी हो जाए तो) उसे घर से मत निकाल दो, बल्कि घर के अन्दर ही उससे अलग रहो।‘‘
(हदीसःअबू दाऊद)
एक अवसर पर अल्लाह के रसूल (सल्ल0) फरमाते हैं-
‘‘कोई मोमिन (ईश-भक्त) किसी मोमिना (धर्मपरायणा) बीवी से नफरत न करे। अगर उसकी एक आदत अच्छी न लगे तो दूसरी अच्छी लगेगी।''(हदीसःमुस्लिम)
अल्लाह के रसूल (सल्ल0) ने एक जगह और फरमाया-
‘‘ ईमानवालो से सबसे परिपूर्ण ईमानवाला व्यक्ति वह है, जिसके अखलाक (व्यवहार) सबसे अच्छे हो, और तुममें बेहतर लोग वे हैं जो अपनी स्त्रियों के हक में बेहतर हों।'' (हदीस)
अल्लाह के रसूल (सल्ल0) ने एक जगह और फरमाया-
''यह संसार जीवन बिताने का सामान हैं और इसका सबसे बेहतर सामान नेक बीवी हैं।'' (हदीसःमुस्लिम)
बेटी के रूप में औरत की हैसियतः-अज्ञानकाल (अर्थात इस्लाम से पूर्वकाल)
में अरबवासी लड़कों को गर्व का साधन और श्रेष्ठ पूॅजी समझते थे, लेकिन लड़कियाॅं उनके लिए बोझ थीं। उनको वे लज्जा का कारण समझते थे और उनकी चर्चा ही से उनका सिर षर्म से झुक जाता था। बल्कि कुछ कठोर हृदय बाप अपने हाथों अपनी मासूम लड़कियों को जिन्दा ज़मीन में दफ़न कर देते थें।
कु़रआन ने कहा -
''अल्लाह ही के लिए आसमान व जमीन की बादशाहत हैं। वह जो चाहता हैं पैदा करता हैं। जिसे चाहता हैं लड़कियाॅ देता है, और जिसे चाहता है। लड़के प्रदान करता हैं। या लड़के और लड़कियाॅं दोनों देता हैं। और जिसे चाहता हैं बाॅझ बना देता हैं। निस्संदेह वह ज्ञानवान और सामथ्र्यवान हैं।'' (कुरआन 42:49-50)
अल्लाह के रसूल (सल्ल0) ने लड़कियों की परवरिश की प्रेरणा दी। फ़रमाया-
''अल्लाह जिस व्यक्ति को लड़कियों के द्वारा कुछ भी आज़माए, तो उसे चाहिए कि वह उनके साथ अच्छा व्यवहार करें। ये लड़कियाॅ उसके लिए जहन्नम (नरक)से बचाव का साधन होंगी। ‘‘ (हदीस:बुख़ारी)
अल्लाह के रसूल (सल्ल0) ने फरमाया -
''तुममें से जिसके तीन लड़कियाॅ या तीन बहने हों और वह उनके साथ अच्छा व्यवहार करे तो जन्नत में अवश्य दाखिल होगा। (हदीस:तिर्मिज़ी)
एक अवसर पर अल्लाह के रसूल (सल्ल0) ने फरमाया -
''जो व्यक्ति दो बच्चियों का, उनके जवानी को पहुॅचने तक, पालन-पोशण करेगा, क़ियामत (परलोक) के दिन वह और मैं इस तरह (मिलकर) आएॅंगे। यह कहकर आपने दोनों उॅगलियों को मिलाकर दिखाया। (हदीस)
अल्लाह के रसूल (सल्ल0) ने फरमाया -
'' जिस व्यक्ति की लड़की हो, वह न तो उसे जिन्दा दफन करें और न उसके साथ उपेक्षापूर्ण व्यवहार करें और न उसपर अपने लड़के को प्राथमिकता दे, तो अल्लाह उसे जन्नत में प्रविष्ट कराएगा।‘‘ (हदीस)
एक बार अल्लाह के रसूल (सल्ल0) ने फ़रमाया-
''लड़कियों से घृणा मत करो, वे तो सहानुभूति की प्रतिमा और बड़ी मूल्यवान है।‘‘
(हदीस-मुसनद अहमद)
हज़रत सुराक़ा (रजि0)से अल्लाह के रसूल (सल्ल0) ने पूछा-
‘‘क्या तुम्हें यह न बताऊॅ कि सबसे बड़ा दान क्या है।''हज़रत सुराक़ा (रजि0) ने निवेदन क़िया कि ऐ अल्लाह के रसूल ! अवष्य बताएॅं । आपने फ़रमाया -
''अपनी उस बच्चे पर उपकार करो जो (विधवा होने या तलाक़ दिए जाने की वजह से) तेरी ओर लौटा दी गई हो, और तेरे सिवा कोई दूसरा उसका देखनेवाला न हो।‘‘ (हदीस)
ठस प्रकार इस्लाम ने स्त्रियों के संवैधानिक अधिकार भी सुरक्षित किए हैं और नैतिक रूप् से भी उसे उच्च सम्मान व प्रतिष्ठा का पद प्रदान किया है।
अगर इस्लामी षिक्षाओं का जाइजा लिया जाए तो स्पश्ट रूप् से एक औरत के निम्नलिखित अधिकार बनते हैं-
1. एक औरत को समाज में सम्मान के साथ जीने का अधिकार प्राप्त है।
अरब के कुछ क़बीले अपनी लड़कियो को ज़िन्दा दफ़न कर दिया करते थे। कुरआन ने उन्हे ज़िन्दा रहने का अधिकार दिया और कहा कि जो व्यक्ति उनके इस अधिकार का हनन करेगा, क़ियामत के दिन उसे ख़ुदा को ज़वाब होगा। फरमाया-
‘‘उस घड़ी को याद करो जबकि उस लड़की से पूछा जाएगा जिसे दफन किया गया था कि वह किस अपराध में मार डाली गई थी?'' (कुरआन 81: 9 )
2.इस्लाम के निकट प्रत्येक बच्चा यह नैतिक और वैधानिक अधिकार लेकर जन्त लेता हैं कि उसके जीवन की आवष्यक वस्तुएॅ उपलब्ध कराई और लापरवाही से उसे मौत के मुॅह में न जाने दिया जाए। पवित्र कुरआन का आदेश है-
‘‘बच्चा जिसका हैं (यानी बाप का) उस पर दूघ पिलानेवाली का खाना और कपड़ा देना सामान्य नियम के अनुसार अनिवार्य है।'' (कुरआन, 2:233)
3.इस्लाम ने शिक्षा का अधिकार मर्द और औरत दोनो के लिए न सिर्फ स्वीकार किया है, बल्कि लड़कियों की शिक्षा-दीक्षा पर विशेष ध्यान दिया और लड़कियों के लालन-पालन और उनके षिक्षण-प्रषिक्षण और प्रसन्नता पूर्वक षादी आदि करनेवाले को जन्नत की शुभ-सूचना दी हैं ।
4.इस्लाम ने निकाह के मामले में लड़की के वली और सरपरस्त (संरक्षक) को महत्व अवश्य दिया है, लेकिन इसके साथ यह भी कहा हैं कि निकाह उस लड़की की अनुमति से ही होगा। अगर औरत विधवा या तलाक पाई हुई है तो स्पष्ट रूप से अपनी सहमति को प्रकट करेगी और कुवारी है तो उसकी खामोषी को उसकी सहमति समझ लिया जाएगा।
अल्लाह के रसूल (सल्ल0) ने फरमाया-
‘‘बेवा व तलाक पाई औरत का निकाह नही किया जाएगा जब तक कि उसकी राय मालूम न कर ली जाए, और अविवाहिता का निकाह नहीं होगा जब तक उसकी अनुमति न ले ली जाए।'' (हदीस)
5. इस्लाम ने ‘महर‘ को औरत का हक़ करार दिया हैं और मर्द को आदेष दिया हैं कि जिस औरत से उसका निकाह हो, वह हर हाल में उसे मह्र अदा करे। मह्र के बिना निकाह वैध नहीं होगा। क़ुरआन ने स्पश्ट षब्दों में घोशणा की हैं कि -
‘‘औरतों को उनके मह्र खुषदिली से दे दो। ‘‘(कुरआन 4: 4)