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नशाबन्दी और इस्लाम

  
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ईश्वर के नाम से अत्यंत कृपाशील और दयावान है

नशाबन्दी और इस्लाम

श्रीमान अध्यक्ष महोदय तथा उपस्थित सज्जनो !


इस गोष्ठी के लिए जो विषय निर्धारित किया गया है उसका आशय यही हो सकता है कि शराब बन्दी यह मद्य-निषेध को सफल बनाने के लिए देश की धार्मिक और समाज कल्याण के लिए कार्य करने वाली संस्थाओं को उनकी ज़िम्मेदारियाँ अदा करने की ओर ध्यान दिलाया जाए। इस पर विचार करने की आवश्यकता नहीं है कि यह समस्या उनके दायित्व के अंतर्गत आती है या नहीं, क्योंकि मैं समझता हूँ कि इसका उनकी ज़िम्मेदारियों में से होना बल्कि इसका एक बड़ी ज़िम्मेदारी होना स्वयं सिद्ध है। मेरे विचार में कोई धर्म भी ऐसा न होगा जो इसके प्रति उदासीनता दिखाए और जो चीज़ मानव को मानवता के पद से गिरा देने वाली और बहुत से नैतिक दुर्गुणों का मूल कारण बनती हो उसकी ओर ध्यान न दे और लोगों को उससे दूर रखने के लिए कोई क़दम न उठाये। 


इस प्रकार जो संस्थाएँ सामाजिक कल्याण में रुचि रखती हैं, यदि उनके कार्यक्रमों में इस बुराई के उन्मूलन को पूरी गंभीरता के साथ शामिल न किया गया हो तो ऐसी संस्थाओं को बस नाम मात्र की ही समाज-कल्याण संस्था समझा जा सकता है।


विभिन्न धर्मो और धार्मिक संस्थाओं से सम्बंध रखने वाले सज्जन इस विचार गोष्ठी में शामिल हो रहे हैं। वे इस अवसर पर अपने-अपने धर्म के दृष्टिकोण को स्पष्ट करेंगे और उन्हें इसका पूरा अधिकार भी प्राप्त है, किंतु जहाँ तक इस्लाम का संबंध है, जिसके अनुयायी होने का मुझे श्रेय प्राप्त है उसका दृष्टिकोण इस विषय में इतना स्पष्ट है कि सम्भवतः शिक्षित लोगों की इस गोष्ठी में इस सिलसिले में किसी विस्तृत वार्तालाप की ज़रूरत न होगी।


शराब और क़ुरआन

हमारे धार्मिक ग्रन्थ क़ुरआन मजीद में शराब को बिल्कुल ही हराम और निषिद्ध और नापाक कहा गया है। और यह स्पष्ट करने के लिए कि इस से बचना उन लोगों के लिए अत्यन्त आवश्यक है, जो ईश्वर में विश्वास रखते हों, मुसलमानों को ‘ऐ वे लोगो जो ईमान लाये हो' कह कर सम्बोधित करते हुए उन्हें इस से दूर रहने की ताकीद की गई है और इसे कल्याण एवं सफलता का मार्ग कहा गया है -


"ऐ ईमान लाने वालो, यह शराब और जुआ और ये (झूठे देवी-देवताओं के) थान और पांसे, शैतान के गन्दे कामों में से हैं, अतः इन से बचो ताकि तुम सफल हो सको।" (5:90)
इस के आगे शराब और जुए दोनों की ख़राबियों की ओर इन शब्दों में ध्यान दिलाया गया है-


"शैतान तो यही चाहता है कि शराब और जुए के द्वारा तुम्हारे बीच वैसनस्य और द्वेष पैदा कर दे, और तुम्हें ईश्वर की याद और नमाज़ से रोक दे। फिर क्या तु बाज़ आ जाओगे।" (5:91)


और यह कहा गया कि अल्लाह और उसके पैग़म्बर के आज्ञापालन का तक़ाज़ा यह है कि इन हानिकारक चीज़ों से बचा जाये, अतएव चेतावनी के रूप में आगे कहा गया है-
"अल्लाह का आदेश मानो और रसूल का आदेश मानो, और (इन चीज़ों से) बचते रहो। यदि तुमने (हुक्म मानने से) मुंह मोड़ा, तो जान लो कि हमारे रसूल (पैग़म्बर) पर केवल स्पष्ट रूप से पहुँचा देने ही की ज़िम्मेदारी थी।" (5:92)


क़ुरआन की इन आयतों में शराब के लिए ‘ख़म्र' शब्द का प्रयोग किया गया है जो विशेष रूप से विचारणीय है। ख़म्र अरबी भाषा का शब्द है जिस से अभिप्रेत हर वह चीज़ है जो बुद्धि पर परदा डाल दे। इस शब्द की यही व्याख्या दूसरे ख़लीफ़ा हज़रत उमर (रज़ि0) ने अपने ख़ुत्बे (धार्मिक अभिभाषण) में की थी-


‘ख़म्र उस चीज़ को कहते हैं जो बुद्धि पर परदा डाल दे।'


इस व्याख्या से जहाँ यह बात स्पष्ट होती है कि शराब बुद्धि को भंग करती है, वहीं इससे यह भी मालूम होता है कि इस्लाम ने किसी विशेष प्रकार की शराब ही को हराम नहीं किया है, बल्कि इस के अन्तर्गत हर वह चीज़ आ जाती है जो नशा लानेवाली हो और मनुष्य की सोचने-समझने की शक्ति को नष्ट करे या उसे हानि पहुँचाए।


इस अवसर पर हमें इस बात को भी ध्यान में रखने की ज़रूरत है कि मनुष्य को जिस चीज़ के कारण समस्त प्राणियों में विशिष्ट और प्रतिष्ठित एवं केंद्रीय स्थान दिया गया है, वह वास्तव में उस की सोचने-समझने और सत्य-असत्य और भले-बुरे में अन्तर करने की क्षमता है। 


अब यह स्वाभविक बात है कि जिस चीज़ या काम में मनुष्य की इस क्षमता और योग्यता को आघात पहुँचता हो या उसके पूर्ण रूप से क्रियाशील होने में बाधा उत्पन्न होती है, उसको मनुष्य का निकृष्टतम शत्रु समझा जाये। शराब चूंकि मस्तिष्क को स्वाभाविक रूप से कार्य करने में रुकावट डालती और उसकी तर्क-शक्ति को शिथिल कर के मनुष्य को मानवता से ही वंचित कर देती है, इसलिए उसे मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु घोषित करना बिल्कुल उचित ही है।


शराब पैग़म्बरे-इस्लाम की दृष्टि में 

क़ुरआन मजीद में शराब के विषय में जो कुछ कहा गया है उस का स्पष्टीकरण अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्द (सल्ल0) के बहुत से कथनों से भी होता है। आपने कहा है-
प्रत्येक मादक चीज़ ‘ख़म्र' है और प्रत्येक मादक चीज़ हराम है।'


आपने यह भी कहा है-


"हर वह पेय जो नशा पैदा करे, हराम है और मैं हर मादक चीज़ से वर्जित करता हूँ।''


शराब की हानि और ख़राबी के सिलसिले में इस्लाम के दृष्टिकोण का अनुमान इस से भी किया जा सकता है कि अल्लाह के रसूली (सल्ल0) ने फ़रमाया-

"अल्लाह ने लानत की है, शराब पर, उसके पीने वाले पर, पिलाने वाले पर, बेचने वाले पर, उसको जिस के लिए वह निचोड़ी जाए उस पर, उसे उठाकर ले जाने वाले पर और उस पर भी जिस के पास वह ले जायी जाये।"


शराब के सिलसिले में इस्लाम की सख़ती का यह हाल है कि एक व्यक्ति ने नबी (सल्ल0) से पूछा कि: "क्या दवा के रूप में उसे प्रयोग में लाने की इजाज़त है ? तो आपने कहा, "शराब दवा नहीं बल्कि बीमारी है।"


एक सहाबी जो हिमियर के रहने वाले थे, कहते हैं कि मैंने नबी (सल्ल0) से निवेदन किया कि ‘हम एक ऐसे क्षेत्र के रहने वाले हैं जो अत्यन्त ठंडा है और हमें मेंहनत भी बहुत करनी पड़ती है। हम लोग एक प्रकार की शराब बनाते हैं और उसे पीकर थकावट और ठंडक का मुक़ाबला करते हैं। आपने पूछा, ‘ जो चीज़ तुम पीते हो वह नशा करती है ? ‘मैंने कहा हाँ, आपने कहा, ‘तो फिर उस से परहेज़ करो।' मैंने निवेदन किया, ‘किन्तु हमारे इलाक़े के लोग नहीं मानेंगे। ‘तो आप ने कहा, यदि वे न मानें तो उन से युद्ध करो।"

 शराब के सिलसिले में इस्लाम का एक नियम यह भी है कि नशीली चीज़ को कम से कम मात्रा में भी इस्तेमाल करने की इजाज़त नहीं है। और यह मानव-दुर्बलता की दृष्टि से एक बुद्धिसंगत बात है, क्योंकि शराब के विषय में जहाँ यह बात सत्य है कि मुंह लग जाये तो बड़ी मुश्किल से छूटती है, वहीं यह बात भी सत्य है कि इस में किसी सीमा का निर्धारण बहुत मुश्किल है, क्योंकि सीमा का निर्धारण बुद्धि ही करेगी और वह शराब के प्रभाव से शिथिल हो जाती है।


अल्लाह के नबी (सल्ल0) कहते हैं-
"जिस चीज़ की अधिक मात्रा नशा पैदा करे, उसकी थोड़ी मात्रा भी हराम है।"
हर सिलसिले में यह बताना भी आप की दिलचस्पी की चीज़ होगी कि किस तरह इस्लामी समाज में शराबबन्दी का क़ानून लागू हुआ। नशाबन्दी की संजीदा कोशिश के लिए यह विभिन्न पहलुओं से मार्ग-दर्शक सिद्ध हो सकता है।

शराब के विषय में इस्लाम के क्रमिक आदेश

हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) का आविर्भाव हुआ तो उस समय अरब समाज इतना बिगड़ चुका था कि जीवन में भोग-विलास की जो सामग्री भी प्राप्त हो सकती थी उससे आनन्द लेना और आज़ादी के साथ शरब पीना लोगों के दैनिक जीवन में शामिल हो चुका था। इस्लाम ने लोगों के समक्ष एक वैमनस्य और पवित्र जीवन की जो कल्पनाएं उजागर करनी आरम्भ की थीं। उससे प्रभावित हो कर बहुतों के मन में स्वयं ही शराब और जुए के विषय में प्रश्न उठने लगे थे कि इन के सिलसिले में सही दृष्टिकोणों क्या हो सकता है ? अतएव क़ुरआन ने उनके इस प्रश्न को लेते हुए इस का उत्तर इन शब्दों में दिया-


"लोग आप से शराब और जुए के विषय में पूछते हैं। कह दीजिए कि इन दोनों में बड़ा गुनाह है और यद्यपि इन में लोगों के लिए कुछ लाभ भी है, किन्तु  इन का गुनाह इन के लाभ से कहीं अधिक है।" (2:219)


यह शराब और जुए के सम्बन्ध में पहला आदेश था। जिसमें इन के बारे में केवल अप्रियता व्यक्त कर के छोड़ दिया गया ताकि लोगों के मन और मस्तिष्क इन के निषेध को स्वीकार करने को तैयार हो जायें। बहुत-से मुसलमान तो शराब के बारे में इस पहली ही टिप्पणी के बाद शराब से परहेज़ करने लगे थे, मगर चूंकि इस में स्पष्ट रूप से शराब के वर्जित होने की धोषणा नहीं की गई थी इसलिए बहुत से लोग पूर्ववत् मद्य-पान करते रहे यहाँ तक कि कभी नशे की हालत में नमाज़ पढ़ने खड़े हो जाते थे और नमाज़ में कुछ का कुछ पढ़ जाते थे। अतः कुछ दिनों के पश्चात यह आदेश आया-


"ऐ वे लोगों जो ईमान लाये हो, नशे की हालत में नमाज़ के क़रीब न जाओ। नमाज़ उस समय पढ़नी चाहिए जब तुम यह जानो कि नमाज़ में क्या कह रहे हो।" (4:43)


इसका प्रभाव यह हुआ कि लोगों ने शराब पीने का समय बदल डाला और ऐसे समय में शराब पीनी छोड़ दी जिस में यह आशंका हो कि नशे की हालत में कहीं नमाज़ का समय न आ जाये। इस के कुछ समय के बाद शराब के निषेध का वह स्पष्ट आदेश आ गया जिसका उल्लेख आरम्भ में हम कर चुके हैं। इस आदेश का पालन इस प्रकार किया गया कि जिसके पास भी शराब थी उसने मदीना की गलियों में बहा दी।


यहाँ इस बात को स्पष्ट कर देना आवश्यक मालूम होता है कि बीच की आयत में शराब और जुए के जिस लाभ का उल्लेख हुआ है उस से तात्पर्य भौतिक और स्वास्थ्य सम्बन्धी लाभ नहीं है बल्कि इससे तात्पर्य वे लाभ हैं जिन की धारणा उस समय के अरब समाज में पायी जाती थी, अर्थात् उनके दानशील लोग ख़ूब शराब पीते, फिर मस्ती में आकर जिस किसी का ऊंट या ऊंटनी पाते, ज़ब्ह कर देते, फिर उन के मालिक को मुँह माँगे दाम देते और उसके मांस पर जुआ खेलते और हर व्यक्ति जितना मांस जीतता जाता वह उन ग़रीबों और निर्धनों पर लुटा देता जो इस उत्सव की ख़बर सुन कर मौक़े पर पहले से ही इकट्ठे हो जाते। इस पहलू से जुए और शराब की गणना दानशीलता के श्रेष्ठ कामों और सहानुभूति की प्रेरणादायक चीज़ों में होती थी। अतः जब ग़रीबों पर ख़र्च करने के सम्बन्ध में आयतें उतरीं, तो लोगों के मन में यह प्रश्न उठा कि जब इस्लाम ग़रीबों पर ख़र्च करने पर इतना ज़ोर देता है, तो शराब और जुए में क्या ख़राबी है जिनके द्वारा ग़रीबों को एक प्रकार से सहायता पहँचती है ?


इन प्रश्न के उत्तर में यह आयत अवतरित हुई और यह स्पष्ट कर दिया गया कि जो चीज़ें नैतिक दृष्टि से हानिकारक हैं यदि उन से कोई लाभ देखने में होता भी हो, जब भी उन के हानि के पहलू बढ़े होने के कारण उन से परहेज़ अनिवार्य है।


नशाबन्दी के विषय में जमाअत इस्लामी हिन्द का नीति आधार
उपस्थित सज्जनो !
शराब के विषय में इस्लाम की इन शिक्षाओं और आदेशो की रौशनी में इस बात का भली-भांति अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि जमाअत इस्लामी हिन्द, जो इस्लाम की अलमबरदार, उस के प्रचार-प्रसार और उस की शिक्षाओं को यथासंभव व्यवहार में लाने ही के लिए स्थापित हुई है, देश में शराबबन्दी के सम्बन्ध में उसका नीति-आधार (Stand) क्या हो सकता है ? इस के साथ यह बात भी आप के समक्ष रहनी चाहिए कि इस्लाम की दृष्टि से एक मुस्लिम का वास्तविक कार्य और उसका मौलिक कर्तव्य ही भलाई की प्रेरणा देना और बुराई को रोकना है। अतएव् क़ुरआन मजीद में मुसलमानों को सम्बोधित करते हुए कहा गया है-


"तुम वह उत्तम गिरोह हो जो लोगों के लिए उठाये गये हो, तुम नेकी की हुक्म देते हो और बुराई से रोकते हो और अल्लाह पर ईमान रखते हो।" (3:110)
अतः मुसलमान की हैसियत से बुराइयों में इस सब से बड़ी बुराई की ओर, जिसे ‘उम्मुल ख़बाइस' अर्थात् बुराइयों की जड़ कहा गया है, ध्यान न देने को हम एक महान कर्तव्य की अवहेलना समझते हैं और अपने लिए ज़रूरी समझते हैं कि इस से लोगों को बचाने के लिए जो प्रयास भी हम कर सकते हैं उन में किसी प्रकार की कोतही न करें।


इसीलिए हमारे समक्ष केवल मुसलमानों ही के लिए नहीं, बल्कि पूरे देशवासियों के लिए सुधार के जो कार्यक्रम हैं, उन में शराब और जुआ और इस प्रकार की दूसरी बुराइयों से समाज को मुक्त करने की कोशिश को विशेष महत्व प्राप्त है।


जमाअत की शाखाएँ जहाँ-जहाँ भी स्थापित हैं और उस से सम्बन्ध रखने वाले जहाँ-जहाँ भी मौजूद हैं, प्रायः हर जगह इस काम की ओर ध्यान दिया जा रहा है। शायद आप में से बहुतों को मालूम होगा कि अभी दिसम्बर 1982 में जमाअत इस्लामी आंध्र प्रदेश की ओर से पूरे क्षेत्रीय पैमाने पर ‘अश्लीलता और बुराई की रोकथाम' के नाम से एक सप्ताह मनाया गया था जिस के अन्तर्गत जगह-जगह सभाओं और गोष्ठियों का आयोजन किया गया था और बहुत से स्थानों पर छात्रों और नवयुवकों की ओर से जुलूस भी निकाले गये थे। इन सभी प्रोग्रामों में मुसलमानों के साथ हमारे ग़ैर-मुस्लिम भाइयों ने भी बहुत ही शौक़ और उल्लास के साथ हिस्सा लिया था और कई स्थानों पर बहुत से प्रमुख ग़ैर-मुस्लिम नेता भाषणों और गोष्ठियो में सम्मिलित हुए थे। सामूहिक दृष्टि से पूरे प्रदेश पर इसका अच्छा प्रभाव पड़ा और समाचार-पत्रों ने भी बहुत विस्तार से इसकी ख़बरें प्रकाशित कीं। कुछ स्थानों पर जन-सभाओं के समापन पर शराब के आदी कुछ ग़ैर-मुस्लिम भाइयों ने यह व्रत लिया कि वे भविष्य में मद्य-पान से पूरी तरह अपने को दूर रखेंगे।


यह काम जहाँ हम, अपने तौर पर यथाशक्ति करने की कोशिश करते हैं वहीं जो लोग यह सेवा कार्य कर रहे होते हैं और हमसे इसमें सहयोग चाहते हैं, तो हम सहर्ष उनका साथ देते हैं।
मैं आप महानुभावों को यह भी बताना चाहता हूँ कि जनवरी सन् 1970 ई0 में नशाबन्दी पर जो गांधी शतक अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ था उस में शामिल होने के लिए मुझे भी आमंत्रित किया गया था। इस अवसर पर मैंने "धर्म नैतिकता और शराब" (Religion, Morality and Alchohal) के विषय पर एक संक्षिप्त-सा पंफ़्लेट अंग्रेज़ी में प्रस्तुत किया था जो सम्मेलन ही की ओर से पहले से छपवा लिया गया था और वह सम्मेलन में बांटा गया था।


किन्तु यहाँ पर मुझे अत्यन्त दुख के साथ यह कहना पड़ रहा है कि जहाँ तक आदरपूर्वक गांधी जी का नाम लेने या उन की समाधि पर फूल चढ़ाने या उन का वार्षिक जन्म-दिवस या निधन-दिवस मनाने का सम्बन्ध है, इसमें तो हमारे हर छोटे-बड़े नेता भरपूर हिस्सा लेते और एक-दूसरे से आगे बढ़ जाने के लिए पूरी तरह सचेष्ट दिखाई देते हैं, लेकिन जहाँ तक भारत के इस महान सपूत के साथ वास्तविक लगाव और प्रेम का सम्बन्ध है इस में वे हर जगह से पीछे दीख पड़ते हैं। उन से प्रेम और आदर का सम्बन्ध रखने का हक़ उनका केवल नाम लेने से अदा नहीं हो सकता। इस के लिए ज़रूरी है कि उन के जीवन से कुछ अच्छी शिक्षा ग्रहण की जाए और उनकी अच्छी बातें व्यवहार में लायी जाएँ और दुनिया जानती है कि उन्होंने अपने व्यावहारिक प्रोग्रामों में शराबबन्दी को कितना अधिक महत्व दिया था और इसके लिए वे अपने जीवन-काल में क्या-क्या यत्न करते रहे हैं। उन के एक अत्यन्त निष्ठावान अनुयायी श्रीमान नारायण जी (भूतपूर्व राज्यपाल, गुजरात) ने, जिन से मुझे भी कई बार मुलाक़ात करने का श्रेय प्राप्त हुआ है, अपने एक लेख में गांधी जी का यह कथन उद्धृत किया है कि "यदि मुझे सारे भारत का डिक्टेटर नियुक्त कर दिया जाए, चाहे एक घण्टे को ही, तो मेरा पहला आदेश यह होगा कि बिना किसी मुआवज़े के शराब की सभी दुकानें बन्द कर दी जाएँ। शराब कोई ऐसी चीज़ नहीं है कि जिस के साथ कोई नर्मी की जाए। कोई नर्म पॉलिसी इस बहुत बड़ी बुराई का उन्मूलन नहीं कर सकती। मुकम्मल नशाबन्दी से कम कोई चीज़ जनता को इस लानत से नहीं बचा सकती।"


शराबबन्दी के सिलसिले में लचर दलीलें

यह कितनी बड़ी विडम्बना है कि गांधी जी तो नशे को जनता के लिए एक लानत समझते थे और जनता को इस लानत से बचाने के लिए मुकम्मल नशाबन्दी की ज़ोरदार अन्दाज़ में वकालत करते रहे, यहाँ तक कि बिना किसी मुआवज़े के शराब की तमाम दुकानें बन्द कर देने को अनिवार्य समझते रहे हैं, किन्तु अब उन के नाम लेवाओं में भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो उनके इस दृष्टिकोण को पूर्णतः अव्यावहारिक और उसे केवल उनका एक स्वप्न एवं कल्पना समझते हैं। और कांग्रेस एवं कांग्रेसी हुकूमतों तक की नीति यह है कि शुरू-शुरू में तो इस सिलसिले में काफ़ी जोश दिखाया गया और मार्च सन् 1956 ई0 में लोकसभा ने यह प्रस्ताव पारित किया था कि द्वितीय पंचवर्षीय योजना में नशाबन्दी को एक अनिवार्य अंश की हैसियत दी जानी चाहिए और योजना आयोग को एक फ़ार्मूला तैयार करना चाहिए कि पूरे देश में नशाबन्दी को तेज़ी के साथ प्रभावकारी रूप से लागू किया जा सके और इस प्रस्ताव को व्यवहारतः अपनाने के लिए योजना आयोग ने कई एक चीज़ें तय भी की थीं जिनको कई एक प्रदेशों ने व्यावहारिक रूप देने के लिए कुछ चेष्टाएं भी की थीं, किन्तु यह दुर्भाग्य की बात है कि समय गुज़रने के साथ इस सिलसिले में ढील पैदा होने लगी। बुद्धिवाद के नाम पर कुछ राज्यों ने तो अपनी रियासत की सीमाओं में नशाबन्दी के कितने ही क़ानूनों को ढीला कर दिया और दूसरे राज्यों को नशाबन्दी से होनेवाली आय में कमी को अपने लिए असत्य घोषित कर के उन क़ानूनों में ढील देनी शुरू कर दी। इस समय स्थिति यह है कि अधिकतर राज्यों में इसी प्रकार पंगु-विवशताओं के आधार पर मात्र दिखावे के लिए या गांधी जी के साथ अपने सम्बन्ध के प्रदर्शन के लिए केवल आंशिक रूप से नशाबन्दी लागू है। परिणाम यह है कि साल का कोई दिन भी ऐसा नहीं गुज़रता है जिसमें शराब पीने के घातक परिणामों की ख़बरें सुनने में न आती हों। शराब के रसिया नित्य ज़हरीली, शराब पी-पी कर अपने प्राण तो देते ही रहते हैं लेकिन कितने लोग हैं जो शराब पिये बिना केवल इसलिए मृत्यु-ग्रास बन जाते हैं कि रेलवे और बसों के ड्राइवर नशे की हालत में अपनी गाड़ियाँ चला रहे होते हैं। स्वयं रेल मंत्री के एक वक्तव्य के अनुसार रेल दुर्घटनाओं में जो आये दिन घटती रहती हैं, इस बड़ी लत का बड़ा हाथ है। मनुष्य की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के नाम पर नशाबन्दी का विरोध करना बुद्धिवाद का कोई अच्छा प्रदर्शन नहीं है।

 इस प्रकार तो चोरी और डाके पर पाबंदी भी अवैध ठहरेगी। शराब के रसिया यदि शराब के शौक़ में अंधे हो कर इस तरह के तर्क प्रस्तुत करें तो उनको तो इसके लिए विवश समझा जा सकता है। क्योंकि कहावत है कि आसक्ति और प्रेम आदमी को अंधा बना देता है। और शराब तो है ही वह चीज़ जो बुद्धि पर परदा डाल दिया करती है, लेकिन जो मनीषी और बुद्धिमान इस लानत से बचे हुए हैं उनकी और से स्वतंत्रता के नाम पर नशाबन्दी का विरोध विचित्र मालूम होता है। आख़िर यह कौन सी आज़ादी है जो उस उद्देश्य ही को नष्ट कर दे जिसके लिए आज़ादी की माँग की जाती है। और जहाँ तक सरकारों के कोषों के शराबबन्दी से प्रभावित होने का प्रश्न है तो उसको शराबबन्दी के विरोध के लिए तर्क के रूप में प्रस्तुत करना तो और भी अधिक खेदजनक है। सरकारों के लिए आमदनी का प्रश्न उतना महत्व नहीं रखता जितना महत्व मानव की बुद्धि और होश की रक्षा को प्राप्त है-जिस पर स्वयं उसके अपने प्राण, धन और सम्मान के साथ-साथ दूसरों के प्राण-धन और सम्मान की सुरक्षा निर्भर करती है। 


हज़रत अबूबक्र (रज़ि0) ने अज्ञान-काल में भी कभी शराब नहीं पी थी। जब उनसे पूछा गया कि शराब क्यों नहीं पीते थे, तो इसके उत्तर में कहा कि अपनी इज़्ज़त की शिष्टता की रक्षा के लिए, क्योंकि शराब पीने वाला अपने सम्मान और शिष्टता को क़ायम नहीं रख सकता। और जब नबी (सल्ल0) को यह बात मालूम हुई तो आपने कहा-"अबूबक्र ने सच कहा, अबूबक्र ने सच कहा।"


इस समस्या का यह पहलू भी विचारणीय है कि शराबबन्दी से सरकार को माली हैसियत से जो घाटा होगा इसके नैतिक लाभों के मुक़ाबले में कोई हैसियत नहीं रखता। फिर दूसरे उसकी बड़ी हद तक क्षतिपूर्ति इससे हो सकती है कि शराब पीने वाले शराब पर जो निस्संकोच रुपया बहाते हैं उसको बचाकर वे अपनी और अपने घरवालों की अहम ज़रूरतों पर ख़र्च कर सकेंगे और इससे उनकी कार्यक्षमता में भी अभिवृद्धि होगी जिससे देश को विभिन्न पहलुओं से लाभ पहुँचेगा और अप्रत्यक्षतः उससे सरकारी ख़ज़ाने को भी लाभ पहुँच सकेगा।

अन्य देशों के तजरिबे

अभी जल्द ही एक ज्ञानवर्धक पत्रिका में एक लेख मेरी निगाह से गुज़रा है जिसमें रूस की सबसे प्रिय शराब ‘वोदका' के विषय में स्वयं रूसी गवेषको के हवाले से यह ज़ाहिर किया गया है कि यह मादक उन चीज़ों में से एक है जो सोवियत यूनियन (अब राष्ट्र मंडल) में पैदावार की कमी का कारण बनी है और इस समय सरकार के आगे एक बड़ी मुश्किल यह खड़ी हुई है कि हर सप्ताह काम से बचने के लिए बीमारी का उज़्र पेश करके अवकाश प्राप्त करने वाले मज़दूरों की संख्या बढ़ती जा रही है। लेख में यह भी कहा गया है कि रूस के गवेषक विशलेषण और विवाद के पश्चात् इस नतीजे पर पहुँचे है कि काम से मज़दूरों के भागने की दस सूरतों में से नौ में मद्य-पान ही इसका निकटतम कारण है। और कुछ ही वर्ष पहले वहाँ के एक समाज-विज्ञानी ने यह खोज की थी कि यदि रूस के मज़दूर ‘वोदका' शराब पीने छोड़ दें तो उत्पादन में दस प्रतिशत की अभिवृद्धि हो जाएगी। इस लेख में साइबेरिया के एक नगर के बारे में लिखा गया है कि वहाँ के ज़िम्मेदारों का यह विचार है कि डाक्टरों की इजाज़त से शराब पीने वाले मज़दूर जो छुट्टिया लिया करते हैं इससे उनके नगर को ढाई मिलियन डालर वार्षिक हानि पहुँच रही है। यह शक्ल प्रत्येक सप्ताह में प्राय: सोमवार को पेश आया करती है जिसमें मज़दूरों को ग़ैर-हाज़िरी के कारण दो तिहाई का उत्पादन घट जाया करता है। कारख़ानों में अस्ल काम वास्तव में मंगल से शरू होता है और शुक्रवार को समाप्त हो जाता है। दूसरे शब्दों में सप्ताह में केवल चार दिन काम होता है।


इसी तरह एक और लेख में इंग्लैंड के सिलसिले में यह भयावह ख़बर पढ़ी है कि एक स्कूल की अंतिम कक्षा के 160 नवयुवक छात्रों ने क्रिसमस के अवसर पर एक सभा का आयोजन किया जिसमें उनके बीच मुक़ाबला हुआ कि उनमें से कौन अधिक तेज़ी से शराब पी सकता है जिसके बाद उनमें से एक तो शौचालय में बेहोश पाया गया और पाँच अस्पताल ले जाए गए और अभी अभद्र सभा को समाप्त हुए एक घण्टा भी न बीता थ कि उनमें से दासियों के हाथ पैर शिथिल हो गए।


यह विदित रहे कि इस प्रकार की दुर्घटनाएँ कुछ इन्हीं देशों में घटित नहीं होती हैं। समाचार पत्र पढ़ने वाले भली-भांति जानते होंगे कि स्वयं हमारे देश में भी जहाँ धर्म और नैतिकता को अब भी विशेष ऊँचा स्थान प्राप्त है और यहाँ के आम लोग मद्य-पान को साधारणतः बुरी निगाह से देखते हैं, इससे मिलती-जुलती घटनाएँ प्रायः घटित होती रहती हैं और ऐसा क्यों न हो, हमारा देश भी उन देशों के अनुकरण ही को अपनी उन्नति का वास्तविक सोपान समझ रहा है। इसलिए वहाँ की समस्या और रहन-सहन के इस प्रसाद से वह क्यों और कब तक वंचित रहेगा।


अमेरिका में शराबबन्दी का तजरिबा

नशाबन्दी के विरोधी इसके विरोध में एक तर्क यह भी पेश किया करते हैं कि इस शराबबन्दी की तीसरी दहाई में अमेरिका जैसी हुकूमत ने शराब के विनाशकारी परिणामों से देश को बचाने के लिए शराबबन्दी को वैधानिक रूप से लागू करना चाहा था किन्तु वह इस उद्देश्य में सफल न हो सकी और विवश होकर उसे अपने क़ानून रद्द करने पड़े। मेरे विचार में यह बहुत कमज़ोर दलील है। विचारणीय समस्या यह है कि क्या इससे मौलिक रोग का उपचार हो सका या स्थिति अधिक ख़राब और गंभीर हो गई ? रूस और इंग्लैंड के सिलसिले में शराब की जिस हानियों का उल्लेख पहले किया जा चुका है अमेरिका में उनका अनुपात इन देशों से भी कही बढ़-चढ़ कर है और यह समस्या इस समय वहाँ के विचारकों और मनीषी वर्ग के लिए बहुत बड़ी और परेशान करने वाली समस्या बनी हुई है, तो क्या शराबबन्दी का विरोध करने वालों के लिए यह कुछ शोभा दे सकता है कि वे इस पहलू को तो कोई महत्व न दें और शराब की हानियों के प्रति उदासीनता दिखाते हुए अमेरिका की असफलता की कल्पना में मग्न रहें।


जहाँ तक इस असफलता का सम्बंध है, हमें इस पर नहीं जाना चाहिए कि अमेरिका की हुकूमत एक बहुत बड़ी हुकूमत है जिस को किसी कार्य को संपन्न करने के लिए हर प्रकार के बहुत अधिक साधन प्राप्त हैं। पहली बात तो यह है कि यह समस्या अपनी जगह स्वयं विचारणीय है कि नशाबन्दी को सफल बनाने के लिए जो चीज़ें आपेक्षित हैं वे उसे उपलब्ध हैं या नहीं ? यदि नहीं तो उसके सारे साधन व्यर्थ हैं जिन से वह इस समय माला-माल है। शराबबन्दी के सम्बंध में प्राथमिक महत्व एक ऐसा वातावरण तैयार करने का है जो इस प्रकार के प्रयासों के लिए अनुकूल हो सके और यह विदित है कि भौतिकवाद पर आधारित सभ्यता का सबसे बड़ा गहवारा इस समय अमेरिका ही है, जहाँ धर्म और नैतिकता को लगभग देश निकाला दिया जा चुका है।


में उन क़ानूनों का विस्तृत अध्ययन नहीं कर सका हू जो शराबबन्दी के सिलसिले में वहाँ लागू किए गए थे। सम्भव है उन्हीं में त्रुटि के कुछ ऐसे पहलू मौजूद रहे हों जो उनके पूर्णतः सफल होने में बाधक सिद्ध हुए हों। या मान लीजिए वे क़ानून त्रुटियों से मुक्त भी रहे हों तो उनको लागू करने वालों में उस भावना और स्फूर्ति का आभाव रहा हो जो उनको सफल बनाने के लिए अनिवार्य हुआ करती है।


इस्लाम की सुधार-पद्धति

मैं शराबबन्दी के सिलसिले में इस्लामी शिक्षाओं का उल्लेख करते हुए इस बात की ओर इशारा कर चुका हूँ कि किस तरह इसके लिए पहले से एक अनुकूल वातावरण तैयार किया गया था और फिर किस तरह मानव-मन की समस्त दुर्बलताओं को ध्यान में रखते हुए उनकी रोक-थाम की गई थी। उदाहरणार्थ मादक शराब की थोड़ी-से-थोड़ी मात्रा को भी हराम घोषित किया गया और जिस प्रकार शराब और शराबी पर लानत भेजी गई है उसी प्रकार उसे निचोड़ने वाले और जिसके लिए वह निचोड़ी जाए और उसे बेचने वाले और उसका क्रय-विक्रय करने वाले, उसे पिलाने वाले, उसको उठाकर एक जगह से दूसरी जगह ले जाने वाले और जिसके लिए वह ले जायी जाए, उन सभी को ईश्वरीय प्रकोप का भागी घोषित किया गया है। 


फिर इस्लाम में केवल शराब की बुराइयाँ बयान कर देने ही पर बस नहीं किया गया है बल्कि इसके साथ-साथ इसकी एक सख़्त सज़ा भी 80 कोड़े या कुछ धर्मशास्त्रियों के कथानुसार 40 कोड़े निर्धारित की गई है और शरीअत (धर्म-विधान) की दृष्टि से यह बात इस्लामी हुकूमत के कर्तव्यों में से है कि वह शराबबन्दी के आदेश को बलपूर्वक लागू करे। जैसा कि यह रिवायत पहले आ चुकी है कि जब हिमियर के एक सहाबी ने यह उज़्र पेश किया कि वहाँ के लोग सर्दी से बचने और थकान दूर करने के लिए जो शराब इस्तेमाल करते हैं वे उसे छोड़ने पर राज़ी न हो सकेंगे तो आपने उन से साफ़-साफ़ कहा कि तो फिर उनसे युद्ध करो और हज़रत उमर (रज़ि0) के समय में कबीला बनी सक़ीफ़ के एक व्यक्ति की दुकान इसलिए जलवा दी गई कि वह गुप्त रूप से शराब बेचता था और एक दूसरे मौक़े पर एक पूरा गांव हज़रत उमर (रज़ि0) के आदेश से इस अपराध में जला डाला गया कि वहाँ गुप्त रूप से शराब निचोड़ने और बेचने का कारोबार चल रहा था। प्रश्न यह है कि अमेरिका में शराबबन्दी के सिलसिले में इस तरह की चीज़ों पर कहाँ ध्यान दिया गया था। सम्भव है इसके असफल होने में आशिंक या पूर्ण रूप से इनकी अपेक्षा का हाथ रहा हो। 


अंत में मैं यह निवेदन करना चाहता हूँ कि यदि हम अपने देश में शराबबन्दी के आंदोलन को पूरी तरह सफल बनाना चाहते हैं तो इन सब पहलुओं को अपने समझ रखना अत्यंत आवश्यक है और यह याद रखे कि शराबबन्दी के सिलसिले में हमारा सबसे बड़ा साधन लोगों में ईश-भक्ति, धर्म परायणता और परलोक की पूछताछ के एहसास और वहाँ की सफलता की अभिलाषा को उभारना है।


शराबबन्दी में इस्लाम की मिसाली सफलता में उपर्युक्त बातों और विशेषतः इस अंतिम बात को मौलिक महत्व प्राप्त रहा है और वर्तमान युग में भी जबकि मुस्लमानों का इस्लाम से व्यावहारिक नाता कमज़ोर हो गया है अब भी उनका समाज मद्य-पान की लानत से बहुत कुछ सुरक्षित है तो वास्तव में यह इन्हीं सब बातों का हल और परिणाम है 
यहाँ यह बात भी विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि क़ुरआन मजीद में जब वह आयत अवतरित हुई जिसके आख़िरी हिस्से में मुस्लमानों को सम्बोधित करते हुए कहा गया है कि क्या तुम इससे बाज़ रहोगे? तो हर तरफ़ से यह आवाज़ बुलन्द हुई-


"ऐ हमारे रब, हम बाज़ आ गये, ऐ हमारे रब हम बाज़ आ गये।"

 
इस्लाम में ईश्वर के आज्ञापालन की यही भावना शराबबन्दी की सफलता की अस्ल ज़ामिन थी और भविष्य में भी इसी के द्वारा इसे सफल बनाया जा सकता है।
सारी प्रशंसा अल्लाह सारे संसार के रब के लिए है, हमारी अंतिम पुकार यही है ।