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उंच- नीच छूत- छात

नाम : उंच- नीच छूत- छात
लेखक : अबुल आला मौदूदी

  
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ईश्वर के नाम से जो अत्यन्त कृपाशील और दयावान है

ऊँच-नीच, छूत-छात

असमानता, छूत-छात या ऊँच-नीच किसी भी समाज के लिए घुन के समान है, कोई भी देश जो इस रोग में ग्रस्त हो, न तो सुख-शान्ति का घर बन सकता है और न ही वास्तविक उन्नति प्राप्त कर सकता है, बल्कि ऐसा देश पारस्परिक दुश्मनी, घृणा और स्वार्थपरता जैसे घातक रोगों का ग्रास बन कर गृह-युद्ध का शिकार हो जाता है। मनुष्य-मनुष्य में भेद करना, किसी को ऊँचा समझना, किसी को नीचा, चाहे यह अन्तर रंग और नस्ल के नाम पर हो या धन-दौलत के कारण, यह वास्तव में समाज के चेहरे पर बदनुमा दाग़ है। अगर विचार किया जाए तो ज्ञात होगा कि वास्तव में छूत-छात या ऊँच-नींच की यह भावना एक अस्वाभाविक बात है और आज दुनिया में बहुत सारे देश इस लानत के शिकार हैं, यहाँ तक कि मनुष्यों को पशुओं से भी बुरा समझा जाता है, और इसका जीता-जागता उदाहरण हर समय आपको मिल सकता है। मिसाल के तौर पर अगर बर्तन में कोई कुत्ता मुँह डाल दे तो यह बात बहुत से लोगों को सहन हो जाती है और वे इस चीज़ को बग़ैर घृणा के प्रयोग में ले आते है परंतु कोई हरिजन जो कि इंसान है, हाथ भी लगा दे तो वह चीज़ अपवित्र हो जाती है हरिजन तो हरिजन मुसलमानों के साथ भी यही व्यवहार किया जाता है। कितने खेद और दुःख की है यह बात, और मानवता पर कितना बड़ा अत्याचार है यह!

 

ईश्वर की दृष्टि में सारे मनुष्य समान हैं, सब ख़ुदा के बन्दे हैं चाहे वे किसी देश, किसी परिवार या किसी भी क़ौम से सम्बन्ध रखते हों। हरिजन हो या पंडित, जुलाहा हो या सैयद और पठान, आर्य हो या द्रविड़ सबको ख़ुदा ही ने पैदा किया है। उसने अपनी नेमतें प्रदान करने में कोई भेद-भाव नहीं किया है। हवा, पानी, सूर्य, चन्द्र तथा दूसरी सभी चीज़ें सभी लोगों के लिए पैदा की हैं और फिर सारे ही मनुष्यों के लिए मरने-जीने, खाने-पीने देखने-बोलने तथा सुनने के लिए एक से तरीक़े रखे हैं। सारे ही मनुष्यों की रगों में एक सा ख़ून दौड़ रहा है। सभी के अंग एक जैसे हैं। और सबसे बड़ी बात यह है कि सब एक ही माँ-बाप, आदम-हव्वा की संतान हैं। इसलिए सब एक ही परिवार और बिरादरी से संबद्ध हैं। फिर भला किसी पर किसी की प्रमुखता का औचित्य कहाँ से मिल सकता है। इस्लाम इसका घोर विरोधी है, वह केवल एक अन्तर स्वीकार करता है और वह है नेक और बद का, ईश-भय रखने का। वह कहता है कि ख़ुदा से डरनेवाला सदाचारी, ख़ुदा से न डरनेवाले चरित्रहीन से श्रेष्ठ है। और इसी एक अन्तर को दुनिया के सारे न्याय प्रिय लोग स्वीकार करते हैं। बाक़ी सारे अन्तर ग़लत हैं तथा इस योग्य हैं कि हम उन्हें मिटाने के लिए उठ खड़े हों। यही बात क़ुरआन पाक में स्पष्ट शब्दों में यों बयान हुई है-

"लोगो! हमने तुम को एक पुरुष और एक स्त्री से पैदा किया और फिर तुम्हें परिवारों और वंशों में विभाजित कर दिया, ताकि तुम एक-दूसरे को पहचानो। तुम में अधिक बड़ा वह है जो ख़ुदा का सर्वाधिक भय रखने वाला है और निसन्देह अल्लाह जानने वाला और ख़बर रखने वाला है।"

(सूरः हुजुरात)


इसकी व्याख्या महान इस्लामी विद्वान और क़ुरआन मजीद के प्रसिद्ध टीकाकार मौलाना सैयद अबुल-आला मौदूदी ने अपनी प्रसिद्ध टीका ‘तफ़हीमुल क़ुरआन‘ (भाग पाँच) में इस प्रकार की है-
"इस आयत में मानवता को सम्बोधित करके उस बड़ी बुराई का सुधार किया गया है, जो दुनिया में सदैव विश्वव्यापी फ़साद का कारण बनी रही है, अर्थात जाति, रंग, भाषा और राष्ट्रीय पक्षपात।


प्राचीन काल से आज तक प्रत्येक काल में मनुष्य आमतौर से मानवता की उपेक्षा करके अपने आस-पास कुछ सीमा-रेखाएँ खींचता रहता है, जिसके अन्दर पैदा होने वालों को उसने अपना और बाहर पैदा होने वालों को पराया समझा है। ये रेखाएँ किसी नैतिक तथा तार्किक आधार पर नहीं, बल्कि संयोगवश जन्म के आधार पर खींची गई हैं। कहीं इसका कारण एक परिवार, वंश या जाति में पैदा होना है और कहीं एक भौगोलिक क्षेत्र में या एक ख़ास रंग वाली या एक ख़ास भाषा बोलने वाली क़ौम में पैदा हो जाना है। फिर इन बुनियादों पर अपने और पराये का अन्तर स्थापित किया गया है, वह केवल इस हद तक सीमित नहीं रहा है कि जिन्हें इस दृष्टि से अपना कहा गया हो कि उनके साथ परायों के मुक़ाबले में अधिक प्रेम और अधिक सहयोग हो, बल्कि इस अन्तर ने घृणा, दुश्मनी, अपमान और अनादर तथा ज़ुल्म के बहुत रूप धारण किए हैं, इसके लिए दर्शन एवं तर्क गढ़े गए हैं, धर्म बनाए गए हैं, क़ानून गढ़े गए हैं, नैतिक सिद्धांत रचे गये हैं। क़ौमों और राज्यों ने उसे अपनी स्थाई कार्य प्रणाली निर्धारित करके शताब्दियों तक व्यवहारतः अपनाया है।

 

यहूदियों ने इसी कारण बनी इस्राईल को ख़ुदा की चुनी हुई क़ौम ठहराया और अपने धार्मिक कार्यों तक में ग़ैर इस्राइलियों के हक़, अधिकार और पद को इसराइलियों से निम्नतम रखा। हिन्दुओं के यहाँ वर्ण आश्रम को इसी भेदभाव ने जन्म दिया, जिसके अनुसार ब्राहमणों को श्रेष्ठता दी गई, ऊँची जाति वालों की अपेक्षा सारे इंसान नीच और नापाक ठहराये गये और शूद्रों को अत्यन्त हीनता के गढ़े में झोंक दिया गया। काले और गोरे के अन्तर ने अफ़्रीका और अमेरिका में काले वर्ण के लोगों पर जो अत्याचार किए, उनको इतिहास के पृष्ठों में तलाश करने की आवश्यकता नहीं। आज इस बीसवीं शताब्दी ही में प्रत्येक व्यक्ति अपनी आँखों से उन्हें देख सकता है। यूरोप के लोगों ने अमेरिकी महाद्वीप में घुस कर रेड इंडियन नस्ल के साथ जो व्यवहार किया और एशिया और अफ़्रीका की कमज़ोर क़ौमों पर अपना आधिपत्य स्थापित करके जो व्यवहार उनके साथ किया, उसका कारण भी यही धारणा थी कि अपने वतन और अपनी क़ौम की हदों से बाहर पैदा होने वालों की जान, माल और सम्मान उनके लिए वैध है। और उन्हें इसका अधिकार प्राप्त है कि उनको लूटें, ग़ुलाम बनायें और आवश्यक हो तो उनके अस्तित्व को समाप्त कर दें। पाश्चात्य क़ौमों के जातिवाद ने एक जाति को दूसरी जातियों के लिए जिस तरह हिंसक बना कर रख दिया है, उसके निकृष्टतम उदाहरण निकट काल के युद्धों में देखे जा चुके हैं और आज भी देखे जा रहे हैं। विशेषकर नाज़ी जर्मनी का जातीय सिद्धांत और नारडक जाति की उच्चता की धारणा पिछले महायुद्ध में जो चमत्कार दिखा चुकी है, उन्हें दृष्टि में रखा जाये तो आदमी आसानी से यह अनुभव कर सकता है, वह कितनी बड़ी और भीषण गुमराही है जिसके सुधार के लिए क़ुरआन पाक की यह आयत उतरी है।

इस छोटी सी आयत में अल्लाह तआला ने सारे इंसानों को सम्बोधित करके तीन अत्यन्त महत्वपूर्ण मौलिक वास्तविकताएँ प्रस्तुत की हैं-


एक यह है कि सबकी असल एक है, एक ही पुरुष और एक ही स्त्री से तुम्हारी पूरी मानव-जाति का आविर्भाव हुआ है और आज तुम्हारी जितनी नस्लें भी दुनिया में पाई जाती हैं, वे वास्तव में एक प्रारम्भिक नस्ल की शाख़ाएँ हैं, जो एक माँ और एक बाप से शुरू हुई है। इस जन्म श्रृंखला में किसी जगह भी उस भेद ओर ऊँच-नीच के लिए आधार नहीं पाया जाता, जिसके भ्रम में तुम पड़े हो, एक ही ख़ुदा तुम्हारा स्रष्टा है, ऐसा नहीं कि विभिन्न व्यक्तियों को विभिन्न ख़ुदाओं ने पैदा किया हो। एक ही रचना तत्व से तुम बने हो, ऐसा नहीं कि कुछ इंसान किसी पवित्र तत्व से बने हों और कुछ दूसरे इंसान किसी अपवित्र या घटिया पदार्थ से बन गये हों। एक ही ढंग से तुम पैदा हुए हो और एक ही माँ-बाप की तुम संतान हो, यह भी नहीं हुआ कि प्रारम्भिक मानवीय जोड़े बहुत से रहें हो, जिनसे दुनिया के विभिन्न क्षेत्र की आबादियां अलग-अलग पैदा हुई हों।

 

दूसरी यह कि अपनी असल के लिहाज़ से एक होने के बावजूद तुम्हारा जातियों और वंशों में विभाजित हो जाना एक स्वाभाविक बात थी। स्पष्ट है कि पूरी धरती पर सारे इंसानों का एक ही परिवार तो नहीं हो सकता था। नस्ल बढ़ने के साथ अनिवार्य था कि अनेक परिवार बनें और फिर परिवारों से वंश और क़ौमें बन जायें। इसी प्रकार धरती के विभिन्न क्षेत्रों में आबाद होने के बाद रंग, रूप, भाषाएँ और रहन-सहन के ढंग भी अनिवार्यतः विभिन्न ही हो जाने थे और एक क्षेत्र के रहने वालों को परस्पर निकटतम और दूर के क्षेत्रों मे रहने वालों को सदूरतम ही होना था। परन्तु इस स्वाभाविक अन्तर और भेद का मतलब यह कदापि नहीं था कि उसके आधार पर ऊँच-नींच, सज्जन और दुष्ट, श्रेष्ठ और हीन के अन्तर स्थापित किये जायें। एक नस्ल दूसरी नस्ल पर अपनी प्रधानता जताये। एक रंग के लोग दूसरे रंग के लोगों को तुच्छ और हीन जानें। एक क़ौम दूसरी क़ौम पर अपनी उच्चता जमाये और इंसानी अधिकारों में एक गरोह को दूसरे गरोह पर प्रमुखता प्राप्त हो। स्रष्टा ने जिस वजह से इंसानी गरोहों को क़ौमों और वंशों के रूप में बनाया था, वह सिर्फ़ यह थी कि उनके बीच परस्पर परिचय और सहयोग का स्वाभाविक रूप यही था। इसी तरीक़े से एक परिवार, एक बिरादरी, एक क़बीले और एक क़ौम के लोग मिल कर संयुक्त समाज बना सकते थे और ज़िन्दगी के कामों में एक-दूसरे के सहयोगी बन सकते थे, परंतु यह केवल शैतानी मूढ़ता थी कि जिस चीज़ को अल्लाह की बनाई हुई प्रकृति ने परिचय का साधन बनाया था, उसे घृणा और अभिमान का साधन बना लिया गया और फिर नौबत अत्याचार और वैर तक पहुँचा दी गई।

तीसरी यह कि इंसान और इंसान के बीच श्रेष्ठता और बड़ाई की बुनियादी अगर कोई है और हो सकती है तो वह केवल नैतिक श्रेष्ठता है। जन्म से सारे इंसान समान हैं, क्योंकि उनका पैदा करने वाला एक है, उनका रचना तत्व और पैदा होने का तरीका एक ही है और इन सबकी वंशावली एक ही माँ-बाप तक पहुँचती है। इसके अतिरिक्त किसी व्यक्ति का किसी विशेष देश, क़ौम या बिरादरी में पैदा होना एक संयोग की बात है जिसमें उसकी अपनी इच्छा और पसन्द और उसके अपने प्रयास ओर यत्न का कोई हाथ नहीं। कोई उचित कारण नहीं कि इस आधार पर किसी को श्रेष्ठता प्राप्त हो। असल चीज़ जिसके कारण एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति की अपेक्षा श्रेष्ठता प्राप्त होती है वह यह है कि वह दूसरों से अधिक ख़ुदा से डरनेवाला, बुराइयों से बचने वाला और नेकी तथा पवित्रता की राह पर चलने वाला हो। ऐसा व्यक्ति यदि किसी नस्ल, किसी क़ौम और किसी देश से सम्बन्ध रखता हो, तो अपने निजी गुणों के कारण माननीय और जिसका हाल इसके विपरीत हो वह एक निम्नतम श्रेणी का मनुष्य। चाहे वह काला या गोरा, पूर्व में पैदा हुआ हो या पश्चिम में।

 

यही वास्तवकिता है जो क़ुरआन की एक संक्षिप्त सी आयत में बयान की गई है, अल्लाह के रसूल मुहम्मद (सल्ल) ने उनको अपने विशेष भाषणों और आदेशों में ज़्यादा खोल कर बयान किया है। मक्का पर विजय के अवसर पर काबा की परिक्रमा के बाद नबी (सल्ल) ने जो भाषण दिया उसमें कहा-
‘‘शुक्र है उस ख़ुदा का जिसने तुम से अज्ञान काल का ऐब और उसका घमंड दूर कर दिया। लोगो! सारे मनुष्य केवल दो भागों में विभाजित होते हैं-एक सदाचारी और संयमी, जो ख़ुदा की दृष्टि में सम्मान वाले हैं, दूसरे दुराचारी और दुष्ट, जो ख़ुदा की दृष्टि में अपमानित और तुच्छ हैं। यों तो सारे इंसान आदम की संतान हैं और ख़ुदा ने आदम को मिट्टी से पैदा किया था।‘‘

(बेहक़ी, तिर्मिज़ी)


अन्तिम हज के अवसर पर तशरीक़ के दिनों में आप (सल्ल) ने एक भाषण दिया, जिसमें फ़रमाया-‘‘लोगो! ख़बरदार रहो तुम सब का ख़ुदा एक है किसी अरबी को किसी ग़ैर-अरबी पर और किसी ग़ैर-अरबी को किसी अरबी पर और किसी गोरे को किसी काले पर और किसी काले को किसी गौरे पर, कोई बड़ाई प्राप्त नहीं है, अगर प्राप्त है तो ईश-भय की दृष्टि से। तुम में सबसे बड़ा सम्मान वाला वह है जो सबसे अधिक ख़ुदा का भय रखने वाला हो। बताओ मैंने तुम तक बात पहुँचा दी? लोगों ने कहा, हाँ ऐ ख़ुदा के रसूल! । प्यारे रसूल (सल्ल) ने फ़रमायाःअच्छा तो जो यहाँ मौजूद हैं, वे उन लोगों तक यह बात पहुँचा दें जो यहाँ मौजूद नहीं हैं।”
(बैहक़ी)

 

एक हदीस में आप (सल्ल) का उपदेश है- “तुम सब आदम की संतान हो और आदम मिट्टी से पैदा किये गये थे। लोग अपने बाप-दादा पर गर्व करना छोड़ दें, नहीं तो वे ख़ुदा की दृष्टि में एक कीड़े से भी अधिक तुच्छ होंगे।”


एक और हदीस में आप (सल्ल०) ने फ़रमाया- “अल्लाह प्रलय के दिन तुम्हारा गोत्र और वंश नहीं पूछेगा, अल्लाह के यहाँ सबसे बड़ा और सम्मान वाला वह है जो सबसे ज़्यादा ख़ुदा का भय रखने वाला है।”
(इब्ने-जरीर)

एक और हदीस में यह बात इस प्रकार कही गई है-
अल्लाह तुम्हारी सूरतें और तुम्हारा धन दौलत नहीं देखता बल्कि वह तुम्हारे दिलों और तुम्हारे कर्मों को देखता है।
(
मुस्लिम, इब्ने-माजा)


ये शिक्षायें केवल शब्दों तक ही सीमित नहीं रहीं, बल्कि इस्लाम ने उनके अनुसार ईमान वालों का एक विश्वव्यापी समाज व्यवहारतः स्थापित करके दिखा दिया, जिसमें रंग, नस्ल, भाषा, वतन और क़ौमियत का कोई भेदभाव और पक्षपात की कोई धारणा नहीं, जिसमें सम्मिलित होने वाले सारे मनुष्य चाहे वे किसी जाति और क़ौम तथा देश और वतन से सम्बन्ध रखते हों बिल्कुल बराबर के अधिकारों के साथ सम्मिलित हो सकते हैं और हुए हैं। इस्लाम के विरोधियों तक को यह स्वीकार करना पड़ा है कि मानवीय समानता और एकत्व के सिद्धांत को जिस सफलता के साथ मुस्लिम समाज में व्यावहारिक रूप दिया गया, उसका कोई उदाहरण दुनिया के किसी धर्म और किसी व्यवस्था में नहीं पाया जाता और न कभी पाया गया। केवल इस्लाम ही वह धर्म है जिसने धरती के सारे कोनों में फैली हुई असंख्य जातियों और क़ौमों को मिला कर एक समुदाय बना दिया है।


इस सम्बन्ध में एक ग़लतफ़हमी को दूर कर देना भी ज़रूरी है। शादी-विवाह के मामले में इस्लामी क़ानून  कुफ़ु (बराबरी) को जो महत्व देता है उसका कुछ लोग यह अर्थ समझते हैं कि कुछ बिरादरियाँ सज्जन और कुछ नीच हैं और इनके बीच विवाह आपत्तिजनक हैं परन्तु यह एक ग़लत विचार है। इस्लामी विधान के अनुसार प्रत्येक मुसलमान पुरुष का विवाह प्रत्येक मुसलमान स्त्री से हो सकता है, परन्तु वैवाहिक जीवन की सफलता इस पर निर्भर करती है कि पति-पत्नी के मध्य आदतों, स्वभाव, रहने-सहने के ढंग, पारिवारिक परम्पराओं और आर्थिक तथा सामाजिक स्थितियों में अत्यधिक अनुकूलता हो बल्कि वे एक-दूसरे के साथ अच्छी तरह निबाह कर सकें। यही कुफ़ु का वास्तविक उद्देश्य है। जहाँ पुरुष और स्त्री के अन्दर इस दृष्टि से बहुत ज़्यादा दूरी हो, वहाँ इस बात की आशा कम ही हो सकती है कि जवीन भर वे एक साथ रह सकेंगे। इसीलिए इस्लामी क़ानून ऐसे सम्बन्ध को नापसन्द करता है। इसका कारण यह नहीं कि दोनों पक्षों में से एक सज्जन और कुलीन और दूसरा नीच है बल्कि इस का कारण यह है कि स्थितियों में अधिक स्पष्ट अन्तर और विभिन्नता हो, तो शादी-विवाह का सम्बन्ध स्थापित करने में वैवाहिक जीवन के नाकाम तथा असफल हो जाने की ज़्यादा सम्भावना होती है।


आयत के आख़िर में जो यह कहा गया है कि निःसंदेह अल्लाह सब कुछ जानने वाला और बाख़बर है। तो इस का उद्देश्य यह है कि यह बात अल्लाह ही जानता है कि कौन वास्तव में एक उच्च श्रेणी का मनुष्य है और कौन गुणों की दृष्टि से छोटे दर्जे का है। लोगों ने स्वयं ही ऊँच और नीच के जो मापदंड बना रखे हैं यह अल्लाह के यहाँ चलने वाले नही हैं, हो सकता है कि जिस को दुनिया में बहुत उच्च श्रेणी का आदमी समझा गया हो वह अल्लाह के अन्तिम निर्णय में अत्यन्त तुच्छ हो और हो सकता है कि जो यहाँ बहुत तुच्छ समझा गया हो वह वहाँ बड़ा ऊँचा स्थान पाए। असल महत्व दुनिया के आदर-निरादर का है जो ख़ुदा के यहाँ किसी के लिए हो। इस लिए मनुष्य को सारी चिन्ता उसकी होनी चाहिए कि अपने में वे वास्तविक गुण पैदा करे जिसके कारण वह अल्लाह की दृष्टि में आदर पाने के योग्य बन सकें।