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Satya Dharm ki khoj

  
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सत्य धर्म की खोज

कुछ ज़रूरी बातें
सत्य की खोज में सक्रिय मेरे भाई और बहनो!
ईश्वर आपका मार्गदर्शन करे और आप जीवन के सच्चे रास्ते की तलाश में कामयाब हों। शान्ति और सलामती हो उन पर जिन्होंने हिदायत के रास्ते को अपनाया।
हमारे देश में मुसलमान अपने हिन्दू, दलित, सिख, ईसाई, बौद्ध और जैनी आदि भाइयों के साथ सदियों से मिल-जुलकर मुहब्बत और भाईचारा की ज़िन्दगी गुज़ार रहे हैं। मिलने-जुलने और जान-पहचान के इस अवसर पर हम सबको ईश्वर का आभारी होना चाहिए। मुसलमानों का कुछ हद तक परिचय तो आप भाइयों को है, क्योंकि साथ मिल-जुलकर रहने के कारण स्वाभाविक रूप से आप उनकी अच्छाइयों और कमज़ोरियों को जानते हैं। निश्चय ही कुछ ग़लतफ़हमियां भी विभिन्न कारणों से पाई जाती हैं, जिन्हें दूर करने की कोशिश समय-समय पर होती रहती है। इस विषय में दोनों ओर से और अधिक कोशिश की ज़रूरत है, लेकिन इस्लाम का सही परिचय आपके सामने नहीं है। स्वाभाविक रूप से बहुत-से भाई समझते हैं कि मुसलमान जिस तरह की धार्मिक आस्थाओं को प्रकट करते हैं, जिस तरह पूजा के काम करते हैं, जैसे रस्म-रिवाज और त्योहार मनाते हैं और कुल मिलाकर जो जीवन-शैली उन्होंने अपना रखी है, यही पूरा-का-पूरा अस्ल इस्लाम है, लेकिन सच्चाई यह है कि आज मुसलमानों का सामूहिक व्यवहार विशुद्ध इस्लामी नहीं रह गया है। अच्छे और सच्चे मुसलमान तो हमेशा और हर जगह मौजूद रहे हैं और आज भी हैं, लेकिन एक गरोह की हैसियत से एक मुसलमान की कार्य-शैली और व्यवहार बिल्कुल विशुद्ध इस्लाम की पूर्ण नुमाइन्दगी नहीं करती। इतिहास के हर दौर में इस्लाम का सही परिचय कराने की और ग़लतफ़हमियों को दूर करने की कोशिशें होती रही हैं। इनके कुछ अच्छे असर भी हुए हैं, लेकिन केवल इस्लाम का परिचय और ग़लतफ़हमियों को दूर करना काफ़ी नहीं था। मुसलमानों को यह एक दावत देने वाले गरोह की हैसियत से काम करना चाहिए था। इसमें उनसे कोताहियां होती रही हैं। कई अच्छे और सच्चे मुसलमान और कुछ संगठन ग़लतफ़हमियों और बदगुमानियों को दूर करने की लगातार कोशिशें करते रहे हैं। इस उद्देश्य के लिए लिट्रेचर का प्रकाशन भी एक लाभदायक साधन है, लेकिन आज भी करोड़ों देश-बन्धु और बहनों के सामने इस्लाम का सही परिचय नहीं हो पा रहा है। इस सिलसिले में एक अहम सच्चाई यह भी है कि मुसलमान अपने व्यावहारिक जीवन को इस्लाम का आदर्श बनाएं और देश के ग़ैर-मुस्लिम भाइयों के साथ इस्लामी आचरण और अच्छे सुलूक का रवैया अपनाएं, तो यह इस्लाम का सही परिचय होगा। 
इस्लाम के हवाले से ये कुछ अहम बातें आपकी सेवा में पेश की गईं, ताकि आप हर तरह के पक्षपातों से ऊपर उठकर सत्य की खोज की सच्ची भावना से खोज के महत्व और ज़रूरत को महसूस करें। आपको पेश की गई बातों से सहमति या असहमति रखने की पूरी आज़ादी है, लेकिन हर इन्सान को बहरहाल यह सोचना चाहिए कि सत्य-धर्म कौन-सा है, क्योंकि सत्य का इन्कार करने के बाद इन्सान कैसे कामयाब हो सकता है और परलोक की ज़िन्दगी में अपने पैदा करने वाले के सामने वह क्या कारण पेश कर सकेगा? वहां वह स्रष्टा की नाराज़ी और उसके नतीजे में जहन्नम के भयंकर अज़ाब का ख़तरा क्यों मोल ले!
ज़ाहिर है कि सत्य पर किसी आदमी या धार्मिक वर्ग का एकाधिकार नहीं है। वह भौगोलिक सीमाओं तक भी सीमित नहीं है। सत्य तो सभी इन्सानों के लिए सौभाग्य, कल्याण और मोक्ष की प्रतिभूति है। सत्य का इन्कार किया जाए और उसे झुठलाया जाए तो सत्य नाकाम नहीं होता, बल्कि इसे झुठलाने वाला इन्सान या जाति नाकाम होती है। सत्य को झुठलाने के बाद जिस मार्ग को भी अपनाया जाता है, वह अस्ल में ख़ुदा की अवज्ञा का मार्ग है। इसका अंजाम मौत के बाद हमेशा की ज़िन्दगी (में निजात या मुक्ति से वंचित होना) और नरक की आग की यातना है। 
आप केवल यह न देखें कि इन बातों को पेश करने वाला कौन और कैसा है, बल्कि यह देखें कि इन बातों में सच्चाई कितनी है, जो बातें पेश की जा रही हैं क्या वे बुद्धि और दलील पर वज़न रखती हैं? इन्सानी स्वभाव के अनुसार हैं? क्या इन्सान के अस्तित्व और सृष्टि में पाई जाने वाली अनगिनत निशानियां इन बातों की पुष्टि करती हैं? यह भी देखें कि कहने वाला ये बातें क्यों कह रहा है? क्या इस पैग़ाम से उसका कोई व्यक्तिगत या जातिगत स्वार्थ जुड़ा है? खुले और साफ़ दिमाग़ से इन सवालों पर ग़ौर किया जाए तो निश्चित रूप से आपका दिल पुकार उठेगा कि यह सच्चा पैग़ाम है, इसका इन्कार एक अस्वाभाविक और अनुचित रवैया है। 
इन्सान को यह ज़िन्दगी एक ही बार प्रदान की गई है। मौत आने से पहले वह अपनी भलाई, बुराई, लाभ और हानि के बारे में सोच-विचार कर सकता है और फ़ैसला भी, लेकिन जहां एक बार मौत आ गई, आंखें बन्द हो गईं और उसके परलोक के सफ़र की शुरुआत हो गई तो वह अपने लिए कुछ नहीं कर सकता। हर इन्सान का सबसे बड़ा मसला मौत के बाद हमेशा की ज़िन्दगी में कामयाबी पाने का और नाकामी से बचने का है। इस मसले को बुनियादी और अहम मसला समझना चाहिए। इसकी उपेक्षा करके दुनिया में लापरवाही की ज़िन्दगी बसर करना ज़बरदस्त ग़लती है। परलोक की नाकामी का अंजाम नरक की आग में जलने के रूप में सामने आएगा। कितना भयानक है यह अंजाम! क्या इससे बचने की कोशिश करना, हर इन्सान की ज़िम्मेदारी नहीं है?

इन्सान की अहम ज़िम्मेदारी
इन्सान की यह बहुत ही अहम ज़िम्मेदारी है कि वह अपने पैदा करने वाले की हिदायत और रहनुमाई (धर्म) को तलाश करे। उसे अपनी तरफ़ से कोई नया धर्म या नया रास्ता बनाने की ज़रूरत नहीं है। अतीत में इन्सान ने यह कोशिश की है और सैकड़ों धर्म खोज निकाले हैं। धर्म की यह बहुलता, इस कोशिश की नाकामी का सबसे बड़ा सुबूत है।
इन्सान के अन्दर नैतिक शक्ति होनी चाहिए। अगर उसके बाप-दादा तक सत्य की रौशनी नहीं पहुंच सकी तो सत्य जहां से भी मिले, सोच-विचार और बुद्धि और दलील की बुनियाद पर उसे क़बूल कर ले। इसमें किसी भी प्रकार की रुकावट पैदा न होने दे। आमतौर पर लोग समझते हैं कि धर्म के मामले में बाप-दादा के रास्ते या ज़िन्दगी के तरीक़े और धार्मिक विचारधाराओं को नहीं छोड़ना चाहिए। उनका यह भी ख़याल है कि दूसरी धार्मिक विचारधाराओं को, चाहे वे कितने ही सच और उचित हों स्वीकार नहीं करना चाहिए। इस रवैए पर विचार करने की ज़रूरत है। अगर हमारे बाप-दादा सत्य-मार्ग के राही थे तो उस रास्ते पर चलते रहने और उनकी धार्मिक विचारधाराओं को स्वीकार करने में कोई ग़लत बात नहीं है, लेकिन अगर किसी वजह से उन्हें सत्य नहीं मिल सका, या वे उससे बेख़बर रहे और फिर भी हम अपने बाप-दादाओं के रास्ते पर ही चलें तो क्या होगा? इन्सान अस्ल में ईश्वर का दास है। बाप-दादा या किसी और इन्सान का दास नहीं है। इसके लिए तो एक ही रास्ता सही है और वह यह है कि एक ईश्वर की पूरी बन्दगी और आज्ञापालन करे। ख़ुद को बिना किसी शर्त के ख़ुदा के हवाले कर दे। इसी को ईश्वर पर ईमान या एकेश्वरवाद कहते हैं। इस विचारधारा में बहुदेववाद से बचना बहुत ज़रूरी है, इसकी चर्चा अगले पन्नों में आएगी। 
एक अहम सच्चाई यह है कि ख़ुदा पर ईमान का मतलब केवल उसको मान लेना नहीं है, बल्कि ईश्वर की सही अवधारणा सामने होनी चाहिए, उसके सारे गुण और उसकी अपेक्षाएं मालूम होनी चाहिएं। इसी तरह उसकी पसन्दीदा ज़िन्दगी के तरीक़े को जानना और मानना ज़रूरी है। ये सारी बातें ईश्वर ने हर इन्सान को सीधे तौर पर नहीं बताई हैं, बल्कि इसकी एक समुचित व्यवस्था की है। वह पैग़म्बरों का सिलसिला है, जो आदम (अलैहिस्सलाम) से शुरू होकर आख़िरी पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) पर ख़त्म हुआ। इसलिए तमाम पैग़म्बरों को मानना और मुहम्मद (सल्ल॰) को आख़िरी पैग़म्बर स्वीकार करना ज़रूरी है। किसी एक पैग़म्बर का इन्कार सभी पैग़म्बरों का इन्कार है, क्योंकि सभी पैग़म्बर ईश्वर के भेजे हुए थे। पैग़म्बर का इन्कार आख़िरकार ईश्वर ही का इन्कार है। 
सत्य सामने आ जाने के बाद ज़िद और हठधर्मी, पक्षपात, नफ़रत या स्वार्थपरता और केवल बाप-दादा के अनुकरण के लिए उसे झुठला देना बहुत बड़ी नाकामी है। इस तरह इन्सान परलोक की ज़िन्दगी में नरक की यातना का ख़तरा मोल लेता है। 
ईश्वर ने इन्सान को बुद्धि और चेतना प्रदान की है। इसी के साथ उसे इरादा और अमल की आज़ादी और अधिकार भी दिया गया है। वह दूसरे प्राणियों की तरह मात्र मजबूर नहीं है। इन्सान को ये योग्यताएं और विशेष क्षमताएं सिर्फ़ दुनिया की ज़रूरतों को पूरा करने और इच्छाओं की पूर्ति के लिए नहीं दी गई हैं। इस तरह तो वह केवल जानवर बनकर रह जाएगा। जिस स्रष्टा ने ज़िन्दगी जैसा बहुमूल्य अनुग्रह और विशेष योग्यताएं उसे प्रदान की हैं, उसकी ख़ुशी को पाना, उसकी मर्ज़ी और पसन्दीदा ज़िन्दगी के तरीक़े को (अपनी आज़ादी और स्वच्छन्दता से मुक्त होकर) अपनाना इन्सान की ज़िम्मेदारी है। इतना ही नहीं, ऐसे दोस्त, मेहरबान और उपकारी ईश्वर की नाराज़ी से बचने की कोशिश करना ज़रूरी है। उसके साथ ग़द्दारी और बेवफ़ाई न करना ही इन्सान की सबसे बड़ी और अहम ज़िम्मेदारी है। 
इन्सान यह मालूम करने की कोशिश तो करे कि आख़िर ईश्वर ने उसे ज़िन्दगी और विभिन्न योग्यताएं और क्षमताएं किस लिए प्रदान की हैं? मान लीजिए कि किसी आदमी ने दुनिया में ख़ुदा की दी हुई सलाहियतों के बल पर बड़े-बड़े कारनामे अंजाम दिए, लेकिन उसने अपने स्रष्टा के बताए हुए ज़िन्दगी के मक़सद को पूरा नहीं किया, तो यह उसकी सबसे बड़ी नाकामी होगी। मौत के बाद इस कोताही की क्षतिपूर्ति का कोई मौक़ा उसे नहीं मिलेगा। ऐसी स्थिति में क्या यह हर इन्सान की अहम और बुनियादी ज़िम्मेदारी नहीं है कि अपनी मौत आने से पहले ज़िन्दगी के वास्तविक उद्देश्य को मालूम करे और उसे इस दुनिया में पूरा करने की कोशिश करे, ताकि दुनिया में सुख व शान्ति की ज़िन्दगी बसर कर सके और मौत के बाद ख़ुदा की ख़ुशी पाकर जन्नत के शाश्वत आनन्द का हक़दार बन सके।
ईश्वर के बारे में यह बदगुमानी नहीं की जा सकती कि उसने इन्सानों को पैदा किया। उन्हें ज़िन्दगी प्रदान की और बुद्धि और चेतना के ख़ास अनुग्रह और योग्यताएं दे दीं, लेकिन उन्हें ज़िन्दगी का कोई उद्देश्य नहीं बताया और दुनिया में यूं ही मनमानी ज़िन्दगी बसर करने के लिए आज़ाद और बेलगाम छोड़ दिया। फिर मौत के बाद उनका हिसाब भी न लेगा।
एक और पहलू से ग़ौर करें। इन्सान बुद्धि और चेतना से काम ले तो क्या यह बात ठीक मालूम होती है कि हिसाब का ऐसा दिन नहीं आएगा, जब इन्सान मरने के बाद दोबारा ज़िन्दगी पाकर अल्लाह के सामने हाज़िर हो और उससे नेमतों और अधिकारों के बारे में बेलाग पूछताछ हो। ईश्वर हिसाब-किताब ले। कामयाब होने वालों को अपनी ख़ुशी और इनाम प्रदान करे और नाकाम होने वालों को कठोर सज़ा दे। बुद्धि तो कहती है कि ऐसा ज़रूर ही होना चाहिए। अगर ऐसा नहीं होता है तो यह अल्लाह की रहमत, इन्साफ़ और हिकमत के ख़िलाफ़ होगा। बुद्धि का यह फ़ैसला बिल्कुल ठीक है।
इन्सान की भलाई इसमें है कि दुनिया की ज़िन्दगी और उसकी नेमतों और संसाधनों को ईश्वर की मेहरबानी और कृपा समझे, उनका सम्मान करे। ईश्वर का शुक्रगुज़ार बन्दा बनकर उसकी पूरी ग़ुलामी और बन्दगी अपनाए। उसके आख़िरी पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) के ज़रिए से जो हिदायत और रहनुमाई इन्सानों को दी गई है, उस पर ईमान लाए और मुहम्मद (सल्ल॰) की पूरी पैरवी अपनाए। दुनिया की भलाई और परलोक की मुक्ति का यह एकमात्र रास्ता है।

एक ईश्वर को मानना ज़रूरी है
ईश्वर का इन्कार करने वाले हर दौर में कम ही रहे हैं। अधिकांश धर्मों में ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार किया गया है, लेकिन विभिन्न धर्मों में इसकी अवधारणा एक समान नहीं है, बल्कि कई पहलुओं से अलग है। यूं भी सिर्फ़ ईश्वर को एक मान लेना काफ़ी नहीं। ईश्वर से सम्बन्ध को इन्सान सिर्फ़ अपनी बुद्धि, अनुभव और देखने-परखने से समझने की कोशिश करता है, तो उसके भटक जाने की आशंका है, क्योंकि ईश्वर सूंघने, चखने, देखने की चीज़ नहीं है। पैदा करने वाले को अपनी आंखों से नहीं देखा जा सकता, बल्कि उसको बिना देखे उन निशानियों पर ग़ौर करना है, जो उसके अस्तित्व की ओर इशारा करती हैं और पूरी सृष्टि में फैली हुई हैं। इन पर चिन्तन-मनन करके एक ईश्वर को मानना यही बड़ी परीक्षा है। इन्सान की अस्ल ज़रूरत यह है कि उसे ख़ुदा का परिचय प्राप्त हो। ईश्वर के गुण और उनकी अपेक्षाएं उसे ठीक ढंग से मालूम हों और उसकी मर्ज़ी और उसकी ज़िन्दगी के पसन्दीदा तरीक़ों को अच्छी तरह से जान ले, ताकि उस पर एकनिष्ठा के साथ आचरण कर सके।
यह भी एक अहम ज़रूरत है कि अल्लाह ने इन्सानी ज़िन्दगी का जो मक़सद तय किया है, इन्सान उसको जान ले और उसे पाने में कामयाब हो। इसी के नतीजे में वह आख़िरत में ईश्वर की ख़ुशी पाकर जन्नत प्राप्त कर सकता है। इस अहम ज़रूरत को ईश्वर ने ख़ुद पूरा किया है। उसने इन्सान को इस मुश्किल में नहीं डाला कि वह बुद्धि और अनुमानों के घोड़े दौड़ाकर मालूम करे कि ईश्वर कौन है, उसके गुण क्या हैं? केवल बुद्धि के ज़रिए से इन सवालों का जवाब ढूंढ़ने में इन्सान भटक जाता और शैतान का शिकार हो जाता है। अल्लाह ने इन्सानों को अपनी हस्ती और ख़ूबियों का परिचय और अपेक्षाओं का ज्ञान देने के लिए नबियों और पैग़म्बरों को दुनिया में भेजा। उनके ऊपर किताबें और सहीफ़े उतारे। आख़िरी पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) हैं और अल्लाह की आख़िरी किताब क़ुरआन मजीद है। इन्सान की शान्ति और सलामती इसी में है कि वह ईश्वर की किताबों और उसके पैग़म्बरों पर ईमान लाए और आख़िरी पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) के बताए हुए रास्ते पर चले।
कुछ लोगों की तरफ़ से ईश्वर का इन्कार करने के सिलसिले में एक दलील दी जाती है कि वह हमें नज़र नहीं आता, लेकिन यह दलील बहुत कमज़ोर है, क्योंकि ईश्वर को मानने के लिए उसको देखना शर्त नहीं है। हम कितनी ही ऐसी चीज़ों को मानते हैं, जिन्हें खुली आंखों से नहीं देखते। जैसे अन्तरिक्ष (Space) के अस्तित्व को वैज्ञानिक स्वीकार करते हैं, लेकिन अदृश्य अन्तरिक्ष हमें नज़र नहीं आता। यही मामला आत्मा और गुरुत्वाकर्षक बल वग़ैरा का है। 
इन सबको हम अपनी आंखों से नहीं देखते, लेकिन इनकी तरफ़ इशारा करने वाली सच्चाइयों पर ग़ौर करके उनके अस्तित्व को मान लेते हैं। इन्सान की आंखों में इतनी क्षमता नहीं है कि ईश्वर को देख सके। साथ ही तेज़ धूप में सूरज पूरी आन-बान से चमक रहा हो, तो अगर कोई नंगी आंखों से उसे देखने की कोशिश करेगा तो उसकी आंखों की रौशनी ख़राब हो जाएगी। इसी तरह बिजली जब कड़क और चमक के साथ आसमान पर आती है, तो उसे नज़र जमाकर देखने की कोशिश में आंख की रौशनी ख़त्म हो सकती है। ऐसी और भी बहुत-सी मिसालें हो सकती हैं। 
मुहम्मद (सल्ल॰) ने बताया कि ईमान और अच्छे काम करने वाले लोग मौत के बाद जब स्वर्ग में जाएंगे तो वहां उनकी आंखों में इतनी ताक़त होगी कि वे ईश्वर को देख सकेंगे। कुछ धार्मिक गरोह दावा करते हैं कि वे इसी दुनिया में ईश्वर को दिखाएंगे, लेकिन यह दावा सही नहीं है। क़ुरआन में कहा गया है कि ईश्वर ज़मीन और आसमानों का प्रकाश (नूर) है।
ईश्वर अपने बन्दों पर अत्यन्त दयावान है कि उसने उन्हें अपना बोध कराया और अपने गुणों का परिचय पैग़म्बरों के ज़रिए से इन्सानों को प्रदान किया और उन गुणों और ख़ूबियों की व्यावहारिक अपेक्षाएं बताईं। जीवन पर उनके प्रभाव की ओर इशारा किया। ईश्वर की इबादत करने और ज़िन्दगी में उसे याद रखने के सारे तरीक़े इन्सानों को बता दिए। पैग़म्बर की ज़िम्मेदारी थी कि वह उन बातों पर अमल करके इन्सानों के लिए अपनी ज़िन्दगी का नमूना पेश करें। इसके विपरीत कितने ही धार्मिक गरोह इतिहास में ऐसे गुज़रे हैं, जिन्होंने अपनी सीमित बुद्धि और अनुमान पर भरोसा किया। ईश्वर की इबादत के तरीक़े ख़ुद ही तय करने की नाकाम कोशिश की और भटक गए। कुछ नादान कहते हैं कि उद्देश्य तो एक ईश्वर की ही पूजा और उपासना करना है, लेकिन बीच में माध्यम के रूप में कुछ और ज़रिए अपना लिए गए हैं। जैसे मूर्तियां या महापुरुष या कुछ आकृतियां (Forms)। इनकी पूजा और उपासना करके वास्तविक पूज्य तक पहुंचा जा सकता है। सवाल यह है कि क्या ईश्वर ने यह सब करने का आदेश दिया है या कम-से-कम इसकी इजाज़त दी है? अगर दिया है तो किस धार्मिक किताब या किस पैग़म्बर या महापुरुष की शिक्षा में यह आदेश हमें मिलता है? यह सवाल भी पैदा होता है कि क्या ईश्वर ने यह बात किसी धार्मिक किताब या किसी पैग़म्बर के ज़रिए बताई है कि इन्सान सीधे-सीधे वास्तविक स्रष्टा की इबादत और बन्दगी नहीं कर सकता और उससे दुआएं नहीं मांग सकता है। क़ुरआन के अनुसार ये दोनों बातें सही नहीं हैं। हर इन्सान ईश्वर पर ईमान लाकर उसकी बन्दगी और इबादत कर सकता है। उससे सीधे दुआ मांग सकता है, बल्कि सिर्फ़ उसी से मांगना सही है।
जो लोग पैग़म्बरों की साफ़ और सही शिक्षाओं को दलीलों की मौजूदगी के बावजूद नहीं मानना चाहते, उनका रवैया सही नहीं है, बल्कि ज़िद और हठधर्मी का पता देता है। ऐसे लोग मौत के बाद की ज़िन्दगी में अपनी आंखों से इन छिपी हुई सच्चाइयों को देख लेंगे, तो दंग रह जाएंगे और इन्कार करने की हिम्मत नहीं होगी, लेकिन उस समय पैग़म्बरों की शिक्षा के मानने का कोई फ़ायदा नहीं होगा। मौत के बाद की ज़िन्दगी का दिन कर्मों के फ़ैसले और बदले का दिन होगा। इन्सान अपनी पैदाइश और अपने व्यक्तित्व पर सोच-विचार और सृष्टि की सच्चाई पर ग़ौर करे, तो उसे अनगिनत निशानियां मिलेंगी, जिन्हें देखकर वह सहसा पुकार उठेगा कि यक़ीनन एक अल्लाह (ईश्वर) सबका पैदा करने वाला और मालिक है। इन निशानियों की विस्तृत जानकारी के लिए क़ुरआन का अध्ययन ज़रूर करना चाहिए। विभिन्न भाषाओं में क़ुरआन के अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं और आसानी से उपलब्ध भी हो सकते हैं।
प्रोफ़ेसर ख़ुर्शीद अहमद अपनी किताब ‘इस्लामी नज़रिया-ए-हयात’ में लिखते हैं—
‘‘सच्चाई तो यह है कि हर वह आदमी जो देखने वाली आंख और सोचने वाला दिमाग़ रखता हो, इस सृष्टि की सच्चाइयों को देखकर सहसा पुकार उठता है कि कोई भी सृष्टि एक तत्वदर्शी और सर्वज्ञ रचयिता और शासक के बिना न अस्तित्व में आ सकती थी और न बाक़ी रह सकती है। ज़मीन से लेकर आसमानों तक सारी सृष्टि एक पूर्ण व्यवस्था है और यह पूरी व्यवस्था एक ज़बरदस्त क़ानून के तहत चल रही है, जिसमें हर तरफ़ एक सर्वव्यापी सत्ता, एक निर्दोष नीति-नियम और एक त्रुटिरहित ज्ञान के लक्षण नज़र आते हैं। ये लक्षण इस बात की पुष्टि करते हैं कि इस व्यवस्था का एक चलाने वाला (संचालक) है। व्यवस्था की कल्पना एक व्यवस्थापक के बिना, क़ानून की कल्पना एक शासनाधिकारी के बिना, तत्वदर्शिता की कल्पना एक तत्वदर्शी के बिना और ज्ञान की कल्पना एक विद्वान के बिना और सबसे बढ़कर रचना की कल्पना एक रचनाकार के बिना आख़िर किस तरह की जा सकती है! यह सृष्टि एक योजना के तहत काम कर रही है। क्या यह योजना, एक योजनाकार के बिना ही जारी हो गई है। इस ब्रह्माण्ड में अत्यन्त ऊंचे दरजे का सौन्दर्य और सन्तुलन है। यह सौन्दर्य और सन्तुलन एक संचालक के बिना कैसे सम्भव है! इसके अलावा हम ख़ुदा के अस्तित्व को स्वीकार न करें, सृष्टि का सर्वेसर्वा किसी और को क़रार दें तो इन्सानी और हैवानी अस्तित्व की व्याख्या बड़ी मुश्किल नज़र आती है। सरसरी तौर पर बड़ी आसानी से कहा जा सकता है कि विभिन्न तत्व एक अनुपात से मिले और जानवर या इन्सान अस्तित्व में आ गए लेकिन आधुनिक वैज्ञानिक विकास के कारण ऐसे संयोगों को मानना बड़ा मुश्किल हो गया है (या सम्भव नहीं रहा है।)।’’         
(पृष्ठ : 191 से 193)
एक अत्यन्त सुन्दर और सुगठित, व्यवस्थित और स्थिर ब्रह्माण्ड (कायनात) यहां मौजूद है, इसमें ज़मीन से एक करोड़ गुणा बड़े सितारे तक पाए जाते हैं। ऐसी आकाशगंगाएं हैं, जिनमें करोड़ों और अरबों नक्षत्र घूम रहे हैं। ब्रह्माण्ड की व्यापकता का वैज्ञानिक आज तक पूरा अन्दाज़ा नहीं लगा सके हैं। कुछ समय पहले मशहूर अंग्रेज़ी पत्रिका ‘रीडर्स डाइजेस्ट’ ने बड़े साइज़ में ब्रह्माण्ड में ग्रहों, उपग्रहों और आकाशगंगाओं का चित्र प्रकाशित किया था। उसमें एक तरफ़ एक बारीक-सा नुक़्ता लगाकर उसकी तरफ़ तीर का निशान बनाकर उसके नीचे लिखा था—
“Our Solar System lies somewhere between here.”
(हमारा सौरमण्डल यहीं कहीं है।)
इस वाक्य को पढ़कर ब्रह्माण्ड की नाक़ाबिले-पैमाइश विशालता का अन्दाज़ा किया जा सकता है। इस तरह के विशाल ब्रह्माण्ड की रचना का कारण क्या कोई आकस्मिक घटना हो सकती है? एक अच्छा शेअर हमारे सामने कोई कह दे तो हम पूछते हैं कि यह किस शायर की रचना है? इसी तरह एक अच्छी-सी तस्वीर (Painting) हम देखते हैं तो सवाल होता है कि किस कलाकार (Artist) ने इसको बनाया है? एक ख़ूबसूरत-सी इमारत (Building) को देखकर मन उसके इंजीनियर और आर्किटेक्ट की तरफ़ जाता है। पूरा ब्रह्माण्ड, जिसमें हमारी विशाल दुनिया भी शामिल है, इसको देखकर इसके बनाने वाले और मालिक का ध्यान नहीं आएगा? क्या कोई सही बुद्धि और समझ रखने वाला इन्सान इस तरह की बात स्वीकार कर सकता है? यह कितनी अनुचित और तर्कहीन बात है, अगर कोई कहे कि यह ब्रह्माण्ड ईश्वर के बनाए बिना बन गया है और अपने-आप या संयोगवश चल भी रहा है। प्रोफ़ेसर जोड ने कहा है—
‘‘सर जेम्स जींस और सर आर्ट वाइंड मिक्सन की किताब हमें बताती है कि बीसवीं सदी के भौतिक विज्ञान ने भौतिक जगत् के बारे में उन्नीसवीं सदी की धारणाओं में क्रान्ति पैदा कर दी है और यह क्रान्ति धर्म से समझौता और समरूपता की दिशा में है। आज विज्ञान और धर्म ब्रह्माण्ड की सच्चाई के बारे में एक ही तरह की बात कह रहे हैं, जबकि अपने नतीजों तक पहुंचने के लिए दोनों के शोध और अध्ययन के तरीक़े अलग-अलग हैं। हम कह सकते हैं कि आज विज्ञान ने ख़ुदा की अवधारणा स्वीकार कर ली है।’’
(इस्लामी नज़रिया-ए-हयात (उर्दू), पृष्ठ-191, 
God and Evil by Jode P-140 से उद्धृत)
इस संक्षिप्त विश्लेषण के बाद यह नतीजा सामने आता है कि ईश्वर का अस्तित्व यक़ीनी है और उसे मानना हमारी ज़िन्दगी के लिए बहुत ज़रूरी है। यह बात भी स्पष्ट है कि उसके बारे में सही जानकारी प्राप्त करने और उसका बोध हासिल करने से इन्सान की सीमित बुद्धि, दर्शन और विज्ञान असमर्थ है। इस बुनियादी ज्ञान के लिए ईश्वर ने पैग़म्बरों का सिलसिला जारी किया। आख़िरी पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) पर आज से साढ़े चौदह सौ साल पहले प्रकाशना (वह्य) के द्वारा क़ुरआन अवतरित किया गया। क़ुरआन में ईश्वर का परिचय कराया गया है। उसकी हस्ती और ख़ूबियां बयान की गई हैं और बताया गया है कि अल्लाह को मान लेने की अपेक्षाएं क्या हैं और इन्सान की ज़िन्दगी पर इस अवधारणा के असर क्या पड़ते हैं? क़ुरआन में विस्तार से बताया गया है कि कौन-सी आस्थाएं (अक़ीदे) ईश्वर को मानने के विरुद्ध हैं। उन आस्थाओं और कर्मों के नतीजे दुनिया और आख़िरत में किस तरह सामने आएंगे? उन नतीजों से बचने का तरीक़ा क्या है? ईश्वर की इबादत किस तरह की जाए? 
इन सभी सच्चाइयों को स्वीकार करने के लिए किसी विशेष नस्ल, रंग, भाषा और इलाक़े से सम्बन्ध रखने की कोई शर्त नहीं है। दुनिया का हर एक इन्सान इन पर सोच-विचार करके बुद्धि और स्वभाव और दलील की बुनियाद पर इन्हें क़बूल कर सकता है और इन्हें अपना भी सकता है। क़ुरआन किसी भी सच्चाई को आंखें बन्द करके मानने के लिए नहीं कहता। इन अवधारणाओं को क़बूल या रद्द करने की आज़ादी और अधिकार इन्सान को हासिल है। क़ुरआन बताता है कि इस अधिकार के इस्तेमाल की पूरी ज़िम्मेदारी इन्सान पर ही होगी। स्वीकार करने की स्थिति में कामयाबी मिलेगी और रद्द करने की स्थिति में ज़बरदस्त नाकामी का सामना उसे ख़ुद करना पड़ेगा।


इस्लाम में ईश्वर की धारणा
पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) ने जब अरब के निवासियों में एक अल्लाह (ईश्वर) की बन्दगी का पैग़ाम पहुंचाया तो लोगों में स्वाभाविक रूप से यह जिज्ञासा पैदा हुई कि ईश्वर कैसा है? किस चीज़ से बना है? उसकी विशेषताएं क्या हैं? वह उनके पूज्यों से क्यों और किस तरह भिन्न है? 
मुहम्मद (सल्ल॰) ने ईश्वर का पूर्ण परिचय कराया, उसके गुणों की संग्राहक और विस्तृत चर्चा ही नहीं की, बल्कि उसकी अपेक्षाओं को भी बयान किया। इस बात को भी स्पष्ट किया कि ईश्वर को मानने के प्रभाव ज़िन्दगी पर क्या पड़ने चाहिए।
ग़ौर करना चाहिए कि ईश्वर के बारे में जानने का हमारे पास क्या ज़रिआ है? बुद्धि, अनुभव, विज्ञान और अवलोकन के ज़रिए से इन्सान ने ईश्वर को जानने और मालूम करने की जो भी कोशिशें कीं, उनमें वह भटक गया। यह भी एक महत्वपूर्ण सवाल है कि ईश्वर के सम्बन्ध में इन्सान को क्या जानना चाहिए और किस चीज़ की कुरेद में नहीं पड़ना चाहिए? स्रष्टा को जानने के सिलसिले में इन्सान की अस्ली और सच्ची ज़रूरत क्या है? कुछ लोग दावा करते हैं कि वे ईश्वर को इसी ज़िन्दगी में दिखाएंगे। यह बहुत ही गुमराह करने वाली बात है। यह अवलोकन इस ज़िन्दगी में सम्भव नहीं है।
ईश्वर के बारे में जानने की जो अस्ल ज़रूरत है, वह यह है कि उसके गुण और उसके अधिकार क्या हैं, वह इन्सान से क्या चाहता है? वह किन कामों से ख़ुश होता है और किनसे नाराज़? इस दुनिया में इन्सान, ईश्वर की मर्ज़ी को कैसे पूरा कर सकता है और परलोक में उसकी पूछगछ और पकड़ से कैसे बच सकता है। ईश्वर की इबादत करने और पूरी ज़िन्दगी उसके पसन्द के कामों में बसर करने के लिए उसका मार्गदर्शन क्या है?
एक सवाल यह भी है कि क्या ईश्वर इन्सान से सिर्फ़ अपनी पूजा (परस्तिश) ही चाहता है? इसके अलावा उसने इन्सान की व्यक्तिगत और सामूहिक ज़िन्दगी के लिए कोई हिदायत और रहनुमाई नहीं दी है। जैसा कि कहा गया, ईश्वर की हस्ती और गुणों और उसकी अपेक्षाओं को जानने और उसकी इबादत के तरीक़ों को मालूम करने का कोई बौद्धिक साधन हमारे पास नहीं। लेकिन ईश्वर इन्सान पर बहुत दयावान है। उसने इन्सानों को इस परेशानी में नहीं डाला, बल्कि अपने बारे में हमारे लिए जो ज़रूरी था, हमें बता दिया। उस स्रष्टा के बारे में जो जानकारी हमारे लिए ज़रूरी नहीं, उसकी कुरेद में हमें नहीं पड़ना चाहिए। इन्सानी इतिहास में पैग़म्बरों और नबियों का पवित्र गरोह ही है, जिसने ईश्वर की हस्ती, उसके गुणों और अधिकारों को विस्तार से हमें बता दिया है। उन पवित्र हस्तियों ने इन्सानों को बताया कि उनके पास ईश्वर की तरफ़ से वह ज्ञान आया है जो आम इन्सानों को हासिल नहीं है। ईश्वर की महान हस्ती के बारे में जो सच्चाइयां वे बताते हैं, वे सब ईश्वर की तरफ़ से भेजी गई हैं।
क़ुरआन के अवतरण के दौरान आज से 1450 साल पहले दुनिया में ईश्वर के बारे में निम्नलिखित धारणाएं पाई जाती थीं—
एक धारणा यह थी कि वह रचयिता है, लेकिन दुनिया की रचना के बाद दुनिया से अलग होकर बैठ गया है। उसे अपने बन्दों की भलाई और बुराई से कोई दिलचस्पी नहीं है। वह (ईश्वर माफ़ करे!) एक खेल के रूप में दुनिया के कारोबार को देखकर केवल आनन्दित हो रहा है।
दूसरी तरफ़ कहीं ईश्वर को एक माना गया, मगर उसके साझी और समकक्षी बना लिए गए। इसके साथ उसके अधीन कई ख़ुदाओं को मान लिया गया। अधीनस्थ ख़ुदाओं के अलग-अलग काम तय कर लिए। मिसाल के तौर पर बारिश व हवा, ज़मीन व आसमानों की व्यवस्था और देखभाल वग़ैरा।
एक विचार यह पेश किया गया कि ईश्वर अपनी औलाद रखता है। मिसाल के तौर पर फ़रिश्तों को उसकी बेटियां स्वीकार किया गया। कम-से-कम यह हुआ कि उसका एक बेटा मान लिया गया। उसे भी ख़ुदा माना गया। कहने का मतलब यह कि ख़ुदा एक नहीं रहा, बल्कि ख़ुदाओं के ख़ानदान मान लिए गए।
एक धारणा यह थी कि ख़ुदा को इन्सान की तरह समझा गया। इन्सानों जैसी उसकी तस्वीरें, प्रतिमाएं और मूर्तियां बना ली गईं। हालांकि ख़ुदा को किसी ने कभी देखा ही नहीं और न यह कहा जा सकता है कि उसका कोई शरीर इन्सानों की तरह है। यह भी कहा गया कि ज़ुल्म-अत्याचार, फ़साद और बिगाड़ को दूर करने के लिए ईश्वर ख़ुद इन्सानी शरीर या किसी जानवर के रूप में आता है और समाज सुधार का काम करके चला जाता है। 
ख़ुदा के बारे में यह विचार पेश किया गया कि वह अपने ही एक बन्दे से रात-भर कुश्ती लड़ता है और सुबह के समय हार जाता है और अपने बन्दे से कहता है कि अब मुझे जाने दो।
एक धारणा यह थी कि पैदा करने वाले और बन्दों के बीच सीधे सम्पर्क नहीं हो सकता, बीच में कुछ हस्तियां हैं जिनकी वह सुनता है, उनकी सिफ़ारिशें स्वीकार करता है और उनकी ख़ुशी और पसन्द को प्रिय रखता है। 
ये और इस तरह की और बहुत-सी धारणाएं मौजूद थीं। ये सब त्रुटिपूर्ण, अबौद्धिक और अस्वाभाविक धारणाएं हैं। ये मात्र ग़लत धारणाएं ही नहीं हैं, बल्कि व्यावहारिक ज़िन्दगी पर इनके हानिकारक प्रभाव पड़ते हैं। इन धारणाओं के नतीजे में इन्सानों के अन्दर त्रुटिपूर्ण, असन्तुलित चरित्र और विशेषताएं पैदा होती हैं।
आज सारी दुनिया में इस्लाम एकमात्र धर्म है, जिसमें एक ईश्वर की स्पष्ट और दिल और दिमाग़ को संतुष्ट करने वाली धारणा पेश की गई है।
इसकी व्यापक विशेषताएं बताई गई हैं और व्यावहारिक ज़िन्दगी में उनकी अपेक्षाओं से परिचित कराया गया है। दलीलों की रौशनी में शिर्क (बहुदेववाद) का भरपूर खण्डन किया गया है, क्योंकि बहुदेववाद, एकेश्वरवाद के बिल्कुल विपरीत है। एकेश्वरवाद को सही रूप में समझने के लिए बहुदेववाद को जान लेना बहुत ज़रूरी है (अगले पन्नों में इन बातों पर रौशनी डाली जाएगी)। इस्लाम में ईश्वर की धारणा के सम्बन्ध में मौलाना सैयद जलालुद्दीन उमरी लिखते हैं—
‘‘क़ुरआन इन्सान को ईश्वर को जानने की सही कसौटी प्रदान करता है। ख़ुदा क्या है? उसकी विशेषताएं या गुण क्या हैं? उसकी हिदायत क्या है? उसके नियम-क़ानून क्या हैं? वह अपने बन्दों से क्या चाहता है? क़ुरआन में (ईश्वर की) बन्दगी के उसूल मिलेंगे, नैतिक शिक्षा मिलेगी, सांस्कृतिक, सामाजिक शिक्षाएं और राजनीति के आदेश मिलेंगे। इसी तरह आप क़ुरआन में स्वर्ग और नरक का ज़िक्र पाएंगे। क़ौमों के उत्थान-पतन की घटनाएं पढ़ेंगे। लेकिन इन सबका मक़सद सिर्फ़ यह है कि इन्सान को ख़ुदा की सही धारणा मिले और वह उसकी मर्ज़ी और नामर्ज़ी से परिचित हो जाए।’’ 
(ख़ुदा और रसूल का तसव्वुर, इस्लामी तालीमात में, पृ॰-157)
इसी किताब में दूसरी जगह लिखते हैं—
‘‘क़ुरआन खोलते ही पहली सूरा, जिसका आप अध्ययन करेंगे, वह ख़ुदा का परिचय इस तरह कराती है कि वही पूज्य है, वही सबका सब कुछ है। सारी तारीफ़ें उसी के लिए हैं। वह पालनहार है और सारे जहान का पालन-पोषण कर रहा है। वह कृपाशील और दयावान है और सारा संसार उसी की दयालुता और मेहरबानी के सहारे ज़िन्दा है। वह आख़िरत के दिन का मालिक है। इन्सानों का आख़िरी हिसाब-किताब उसी के हाथ में है। इसके बाद इन्सान को दावत दी गई है कि वह ख़ुदा की तरफ़ लपके और अपने-आपको उसके सामने डाल दे। उसी की तरफ़ बढ़े, उसी से मदद चाहे, क्योंकि यही सीधा रास्ता है। जो आदमी इस राह से भटक जाए, उसको ख़ुदा के ग़ज़ब से कोई चीज़ बचा नहीं सकती। दुनिया और आख़िरत में उसका नाकाम होना यक़ीनी है। इस तरह क़ुरआन की इस (सूरा) भूमिका में ख़ुदा का परिचय भी है और उसकी तरफ़ बुलावा भी।’’               (वही, पृ॰ 160) 
इस्लाम में ईश्वर की धारणा के सम्बन्ध में एक व्यापक लेख मौलाना सैयद हामिद अली की किताब ‘एकेश्वरवाद और बहुदेववाद’ में मौजूद है। उसका सारांश निम्नलिखित है—
ईश्वर ही स्रष्टा है
इस्लाम में ईश्वर की धारणा के अनुसार ईश्वर ही हर चीज़ का पैदा करने वाला है। जिन दूसरों को लोगों ने स्रष्टा मान रखा है, वे सब ईश्वर की रचना हैं और रचना रचनाकार कैसे हो सकती हैं? 
ईश्वर ही मालिक है
कायनात (ब्रह्माण्ड) और उसकी सारी चीज़ों का मालिक वही अकेला है। क़ुरआन में कहा गया है—
‘‘आसमानों और ज़मीन में जो कुछ है सब ईश्वर का है।’’ 
(क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, आयत-284)
‘‘प्रशंसा ईश्वर ही के लिए है जो सारे जहान का रब है।’’
(क़ुरआन, सूरा-1 बक़रा, आयत-1)
रब अस्ल में मालिक, परवरदिगार और शासक को कहते हैं। एक जगह क़ुरआन में कहा गया है—
‘‘(ऐ नबी!) कहो जिनको तुम ईश्वर के सिवा अपना ख़ुदा मानते हो, उन्हें पुकारकर देखो। वे न आसमानों में कण-भर किसी चीज़ के मालिक हैं न ज़मीन में।’’ 
(क़ुरआन, सूरा-34 सबा, आयत-22)

ईश्वर ही शासक है
ईश्वर ब्रह्माण्ड का रचनाकार और मालिक है, तो फिर ईश्वर ही को शासन करने का अधिकार पहुंचता है। उसके सिवा कोई दूसरा सृष्टि का शासक नहीं हो सकता। क़ुरआन में कहा गया है—
‘‘तुम चाहे कोई बात व्यक्त करो या छिपाओ, अल्लाह को हर बात का ज्ञान है।’’   (क़ुरआन, सूरा-33 अहजाब, आयत-54)
दूसरी जगह क़ुरआन में कहा गया है—
‘‘न बादशाही में उसका कोई सहभागी है और न ऐसा ही है कि वह बेबस हो जिसके कारण बचाव के लिए उसका कोई सहायक मित्र हो। और बड़ाई बयान करो उसकी, पूर्ण बड़ाई।’’ 
(क़ुरआन, सूरा-17 बनी इसराईल, आयत-111)
ईश्वर ही परवरदिगार है
क़ुरआन की निम्नलिखित आयतों पर विचार करें—
‘‘क्या तुमने देखा नहीं कि अल्लाह ने आसमान से पानी उतारा तो उसे झरनों, सोतों और नदियों के रूप में ज़मीन में प्रवाहित कर दिया। फिर वह उससे रंग-बिरंगी खेती पैदा करता है।’’                    
(क़ुरआन, सूरा-39 ज़ुमर, आयत-21)
एक और जगह कहा गया है—
‘‘उनसे पूछो, कौन आसमान और ज़मीन से रोज़ी देता है? ये सुनने और देखने की शक्तियां किसके अधिकार में हैं? कौन बेजान में से जानदार को और जानदार में से बेजान को निकालता है? कौन इस विश्व की व्यवस्था का उपाय कर रहा है? वे ज़रूर कहेंगे कि ईश्वर।’’        (क़ुरआन, सूरा-10 यूनुस, आयत-31)
कहने का मतलब यह है कि सेहत और तन्दुरुस्ती, औलाद, हानि-लाभ, ज्ञान, धन-सम्पत्ति और सारे अनुग्रह उसी के दिए हुए हैं। उसके अनुग्रहों को कोई गिन नहीं सकता।
ईश्वर ही ज़रूरतों को पूरी करने वाला है
ईश्वर स्रष्टा, मालिक, परवरदिगार, शासक और हाकिम है। सब कुछ उसी के पास है। इसलिए ज़रूरतों को पूरी करने वाला, मुसीबतों और मुश्किलों को दूर करने वाला भी वही है। क़ुरआन में कहा गया है—
‘‘ईश्वर के सिवा जिन्हें तुम पुकारते और पूजते हो, वे सब-के-सब तुम ही जैसे ईश्वर के बन्दे और मुहताज हैं।’’ 
(क़ुरआन, सूरा-7 आराफ़, आयत-194)
जिस किसी को जो कुछ मिलता है, उसी के देने से मिलता है। वही ज़रूरतों को पूरी करने वाला और मुश्किलों को दूर करने वाला है।
ईश्वर ही क़ानून देनेवाला है
इन्सान को आदेश देने और उसके लिए क़ानून बनाने का अधिकार सिर्फ़ ईश्वर को है। यह अधिकार ईश्वर के सिवा किसी और को हासिल नहीं है। क़ुरआन में कहा गया है—
‘‘आदेश सिर्फ़ ईश्वर के लिए है, किसी और के लिए नहीं। उसने आदेश दिया है कि उसकी बन्दगी करो, किसी और की न करो।’’                 (क़ुरआन, सूरा-12 यूसुफ़, आयत-40)
बन्दगी का मतलब पूजा और ग़ुलामी दोनों है। बन्दा और ग़ुलाम का काम यह है कि मालिक की मर्ज़ी पर चले और उसका हुक्म माने और उसके हुक्म के ख़िलाफ़ किसी का हुक्म न माने। 
ज़िन्दगी और मौत अल्लाह के हाथ में है
क़ुरआन में कहा गया है—
‘‘तुम अल्लाह के आज्ञापालन से कैसे इन्कार करते हो, हालांकि तुम्हारा वुजूद (अस्तित्व) नहीं था। उसने तुम्हें जीवन प्रदान किया। फिर वह तुम्हें मौत देगा। फिर वह तुम्हें ज़िन्दा करेगा। फिर तुम उसी के पास पलटाए जाओगे।’’ 
(क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, आयत-28)
लाभ-हानि ईश्वर के हाथ में है
क़ुरआन में कहा गया है—
‘‘और उन्होंने ईश्वर के सिवा दूसरे ख़ुदा बना रखे हैं, जो कुछ भी पैदा नहीं करते और ख़ुद पैदा किए जाते हैं। उनके हाथ में अपना लाभ-हानि भी नहीं है, न मौत, न ज़िन्दगी, न दोबारा उठाया जाना उनके बस में है।’’ 
(क़ुरआन, सूरा-25 फ़ुरक़ान, आयत-3) 
पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) ने कहा है कि जब मांगो तो ईश्वर से मांगो, और जब मदद चाहो तो ईश्वर से चाहो और विश्वास रखो, अगर सब लोग मिलकर तुम्हें कोई फ़ायदा पहुंचाना चाहें तो हरगिज़ न पहुंचा सकेंगे, मगर जितना कि ईश्वर ने तुम्हारे लिए लिख दिया है। और अगर सारे लोग इकट्ठा होकर तुम्हें कोई नुक़सान पहुंचाना चाहें तो हरगिज़ न पहुंचा सकेंगे मगर जितना कि ईश्वर ने तुम्हारे हिस्से में लिख दिया है। 
(हदीस: तिरमिज़ी)
ईश्वर ही हर चीज़ का ज्ञान रखता है
क़ुरआन में कहा गया है—
‘‘और तुम बात चुपके से करो या ज़ोर से (वह सब सुनता है)। वह तो दिलों का हाल तक जानता है। क्या वही न जानेगा जिसने पैदा किया। और वह सूक्ष्मदर्शी है, हर चीज़ की ख़बर रखता है।’’          
(क़ुरआन, सूरा-67 मुल्क, आयतें-13, 14) 
क़ुरआन में एक और जगह कहा गया है—
‘‘और उसी के पास ग़ैब (परोक्ष) की कुंजियां हैं, जिन्हें उसके सिवा कोई नहीं जानता, मगर सिर्फ़ वह। जल और थल की हर चीज़ को वह जानता है। जो पत्ता भी गिरता है, उसे जानता है और ज़मीन के अंधकारमय परदों में जो दाना गिरता है और जो गीली या सूखी चीज़ गिरती है वह सब अल्लाह के स्पष्ट रिकॉर्ड में है।’’               (क़ुरआन, सूरा-6 अनआम, आयत-59) 
ईश्वर के समकक्ष कोई नहीं
ब्रह्माण्ड की सारी चीज़ें अल्लाह की रचना हैं। इसलिए ब्रह्माण्ड की कोई चीज़ अल्लाह के बराबर नहीं हो सकती। क़ुरआन में कहा गया है—
‘‘संसार की कोई चीज़ उसके सदृश नहीं।’’ 
(क़ुरआन, सूरा-42 शूरा, आयत-11)
दूसरी आयत—‘‘और कोई उसके बराबर का नहीं।’’ 
(क़ुरआन, सूरा-112 इख़लास, आयत-4)
ईश्वर के सामने कोई सिफ़ारिश करने वाला नहीं
सिफ़ारिश आमतौर पर इसलिए की जाती है कि अपराधी को अपराध की पकड़ से बचा लिया जाए या किसी आदमी को वह चीज़ दिलवा दी जाए जिसका वह हक़दार नहीं है। यह खुला हुआ भ्रष्टाचार है। किसी स्वाभिमानी व्यक्ति से यह आशा नहीं रखनी चाहिए कि वह इस तरह की सिफ़ारिश करेगा या क़बूल करेगा। लेकिन कुछ लोग ख़ुद के बनाए हुए ख़ुदाओं के बारे में यह धारणा रखते हैं कि ख़ुदा के सामने उनकी अनुचित सिफ़ारिश करेंगे या ख़ुदा की पकड़ से उन्हें बचा लेंगे, हालांकि ख़ुदा के यहां इस तरह की सिफ़ारिश मुमकिन नहीं है। वह न किसी का दबाव क़बूल करता है और न ग़लत फ़ैसले करता है और न उसे धोखा दिया जा सकता है। वह अपने ज्ञान की रौशनी में सही फ़ैसले करता है। क़ुरआन में कहा गया है—‘‘ईश्वर के सामने ज़ालिमों (बाग़ियों) का न कोई दोस्त होगा, न सिफ़ारिशी कि उसकी बात मान ली जाए। वह आंखों की आपराधिक गतिविधियों और दिलों के छिपे इरादों को भी जानता है और वह सही फ़ैसला ही फ़रमाता है।’’ 
(क़ुरआन, सूरा-40 मोमिन, आयतें-18 से 20)


ईश्वर का साझी ठहराना
सबसे बड़ा गुनाह है
 ईश्वर को सिर्फ़ एक मानना काफ़ी नहीं है। ईश्वर स्रष्टा, मालिक, सारे जहान का रब, हाकिम, रोज़ी देने वाला और वास्तविक पूज्य है। उसके सिवा सभी दूसरे ख़ुदा जो इन्सानों ने ख़ुद बना लिए हैं, उनका इन्कार भी ज़रूरी है।
ईश्वर को एक मानना, लेकिन दूसरों को उसकी हस्ती, उसके गुण और अधिकारों में साझी ठहराना सबसे बड़ा गुनाह है। इसी को शिर्क यानी बहुदेववाद कहते हैं। एकेश्वरवाद यह है कि ईश्वर को एक मानकर पूरे तौर पर उसकी बन्दगी अपनाई जाए। दूसरी तरफ़ दूसरे सारे ख़ुदाओं का इन्कार करना और उनकी बन्दगी और आज्ञापालन से पूरी तरह बचकर रहना एकेश्वरवाद में शामिल है।
शिर्क या बहुदेववाद क्या है?
ईश्वर अपने व्यक्तित्व या हस्ती, गुणों और अधिकारों में भी अकेला है। यानी वह इन सब पहलुओं से भी अकेला है, उसका कोई साझी नहीं। उसको एक मानने का मतलब यह है कि उसके सिवा किसी भी दूसरे ख़ुदा या ख़ुदाई गुण रखने वाली किसी हस्ती का इन्कार किया जाए। सचमुच उसके सिवा जिनको ख़ुदा या ख़ुदाई गुण रखने वाली हस्ती ठहराया जाता है, अस्ल में उनमें ख़ुदाई की कोई विशेषता है ही नहीं। शिर्क या बहुदेववाद सबसे बड़ा गुनाह ही नहीं, एक बहुत बड़ा झूठ भी है। इस झूठ पर ज़िन्दगी की बुनियाद रखने का मतलब सत्य के मार्ग से भटक जाना है। ईश्वर की हस्ती, उसके गुणों और अधिकारों में किसी भी दूसरी ज़िन्दा या मुर्दा हस्ती को या किसी चीज़ को साझी बनाना और शामिल करना शिर्क यानी बहुदेववाद है। क़ुरआन ने शिर्क यानी बहुदेववाद को सबसे बड़ा गुनाह ठहराया है और इसे सबसे बड़ा अत्याचार कहा है। शिर्क या बहुदेववाद की माफ़ी नहीं होगी। ईश्वर अपनी हस्ती, अपने गुणों और अधिकारों में एकमात्र, अकेला और तनहा है। क़ुरआन में है—
‘‘कहो, वह ईश्वर है, यकता। ईश्वर सबसे निरपेक्ष है और सब उसके मुहताज हैं। न उसकी कोई सन्तान है और न वह किसी की सन्तान और कोई उसका समकक्ष नहीं है।’’ 
(क़ुरआन, सूरा-112 इख़लास, आयत-1 से 4)
ईश्वर को एक मानकर कितने ही लोगों ने किसी को उसका बेटा, किसी को उसकी बेटियां और किसी को उसकी मां क़रार दिया, जबकि सचमुच उसकी कोई औलाद नहीं है और न वह किसी की औलाद है। वह हमेशा से है और हमेशा रहने वाला है। उसका कोई ख़ानदान और बिरादरी नहीं। वह हर तरह की कमज़ोरी से पाक है। उसे किसी की मदद और सहारे की ज़रूरत नहीं है। और इन्सान और दुनिया की दूसरी सारी रचनाएं उसी की मुहताज हैं, उसी के सहारे की ज़रूरतमन्द हैं। क़ुरआन की निम्नलिखित आयतों के अनुवाद पर ग़ौर कीजिए—
‘‘ईश्वर ही के लिए सबसे उच्चतर गुण हैं और वही प्रभुत्वशाली और तत्वदर्शी है।’’        (क़ुरआन, सूरा-16 नह्ल, आयत-60)
‘‘ईश्वर इस अपराध को हरगिज़ माफ़ नहीं करता कि किसी को उसका साझी ठहराया जाए और इसके सिवा दूसरे जितने गुनाह हैं वह जिसके लिए चाहता है, माफ़ कर देता है और जिसने ईश्वर के साथ किसी और को साझी ठहराया, उसने बहुत ही बड़ा झूठ गढ़ा और सख़्त गुनाह की बात की।’’ 
(क़ुरआन, सूरा-4 निसा, आयत-48) 
‘‘वही एक आसमान में भी ईश्वर है और ज़मीन में भी ईश्वर और वही तत्वदर्शी और सर्वज्ञ है।’’ 
(क़ुरआन, सूरा-43 जुख़रुफ़, आयत-84) 
‘‘अगर ज़मीन और आसमान में ईश्वर के सिवा दूसरे पूज्य भी होते तो (ज़मीन और आसमान) दोनों की व्यवस्था बिगड़ जाती। अतः पाक है ईश्वर, सिंहासन का अधिकारी उन बातों से जो ये लोग बना रहे हैं।’’ (क़ुरआन, सूरा-21 अंबिया, आयत-22) 
‘‘क्या वह जो हर चीज़ को पैदा करता है और जो किसी चीज़ को पैदा नहीं करता, दोनों बराबर हो सकते हैं? तो क्या तुम नसीहत हासिल नहीं करते?’’
(क़ुरआन, सूरा-16 नह्ल, आयत-17)
‘‘ये जिन लोगों को ईश्वर के सिवा पुकारते हैं, वे किसी चीज़ को पैदा नहीं करते, बल्कि वे ख़ुद पैदा किए गए हैं। वे मुरदा हैं, ज़िन्दा नहीं हैं। वे यह भी नहीं जानते कि दोबारा कब उठाए जाएंगे।’’            (क़ुरआन, सूरा-16 नह्ल, आयतें-20, 21)
‘‘क्या उन्होंने ईश्वर के सिवा दूसरे पूज्य बना रखे हैं? उनसे कहो, तुम अपनी दलील तो लाओ।’’ 
(क़ुरआन, सूरा-21 अंबिया, आयत-24)
यह सच है कि ईश्वर ने अपनी सृष्टि और उसकी सारी चीज़ों की व्यवस्था सहायक ख़ुदाओं के सिपुर्द नहीं की है। उसे किसी सहायक और मददगार की ज़रूरत नहीं है। ये तो लोगों की बनाई हुई धारणाएं हैं। जैसे दुनिया में वे देखते हैं कि किसी सरकार में प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति की मदद के लिए सहायक मंत्रियों की एक टीम रहती है, तो उसी पर वे ईश्वर का अनुमान लगाते हैं। ईश्वर इन तमाम कमज़ोरियों से पाक है। किसी की मदद का मुहताज होना तो ऐब और कमज़ोरी है। ईश्वर हर कमज़ोरी और ऐब से पाक है और सबसे बेनियाज़ (निस्पृह) है।
सृष्टि और उसकी तमाम चीज़ों की पैदाइश, उसकी व्यवस्था, उसके पालन-पोषण, निगरानी और सुरक्षा में किसी की साझेदारी का कोई सुबूत और दलील नहीं है। मौलाना सैयद जलालुद्दीन उमरी कहते हैं—
‘‘ख़ुदा के एक होने की दलील यह है कि इस कायनात (ब्रह्माण्ड) में उसी का इरादा पूरा हो रहा है। जिस तरफ़ देखो, उसी का हुक्म चलता है। ज़मीन, आसमान, चांद, सूरज, दिन और रात हर चीज़ पर उसी की सत्ता है और किसी में उसकी नाफ़रमानी की ताक़त नहीं है। लेकिन अगर किसी का विचार है कि सृष्टि के बहुत-से ख़ुदा हैं, तो आख़िर सृष्टि के किस हिस्से में उनका शासन चलता है और कौन-सी चीज़ उनके आदेशों के अधीन है? और वह शासन और सत्ता हमें नज़र क्यों नहीं आती।’’              (ख़ुदा और रसूल का तसव्वुर, पृ॰ 258)
शिर्क यानी बहुदेववाद अस्ल में बाप-दादा के रास्ते पर आंखें बन्द करके चलने का नाम है। क़ुरआन में बताया गया है—
‘‘अतः (ऐ नबी!) जिनको ये पूज रहे हैं, उनके विषय में तुझे कोई सन्देह न हो। ये तो बस उसी तरह पूजा किए जा रहे हैं, जिस तरह इससे पहले इनके बाप-दादा पूजा करते रहे हैं।’’          
(क़ुरआन, सूरा-11 हूद, आयत-109)
‘‘और उन लोगों ने ईश्वर के कुछ साझीदार ठहरा लिए, ताकि वे उन्हें ईश्वर के रास्ते से भटका दें। उनसे कहो : कर लो कुछ मज़े, आख़िरकार तुम्हें पलटकर जाना जहन्नम (नरक) में ही है।’’              (क़ुरआन, सूरा-14 इबराहीम, आयत-30) 
यह बहुदेववाद (शिर्क) का कितना भयंकर अंजाम है! मौलाना बहुदेववाद (शिर्क) के बारे में आगे कहते हैं—
अगर यहां बहुत-से ख़ुदा होते तो इसका सुबूत हमें टकराव के रूप में मिलना चाहिए था। एक ख़ुदा की मर्ज़ी दूसरे ख़ुदा की मर्ज़ी से टकराती, एक ख़ुदा जो काम करना चाहता, दूसरा उसकी राह में रुकावट पैदा करता, क्योंकि ऐसी कोई स्थिति नहीं है कि सृष्टि पर इच्छा और अधिकार रखने वाले ख़ुदाओं की सत्ता हो और उनमें मतभेद और टकराव न पाया जाए। ख़ुदा वह है जिसकी मर्ज़ी इस सृष्टि में पूरी हो और अगर उसकी मर्ज़ी पूरी नहीं होती है, तो इसका मतलब यह है कि वह ख़ुदा नहीं है। सृष्टि के बहुत-से ख़ुदा हैं तो उनके अलग-अलग और परस्पर विरोधी इरादे एक ही समय में यहां पूरे होने चाहिए थे, जिसका नतीजा निश्चित रूप से बिगाड़ और फ़साद के रूप में सामने आता। लेकिन स्थिति यह नहीं है, बल्कि सृष्टि में हर तरफ़ व्यवस्था सम्बन्धी शान्ति और समरूपता पाई जाती है। सृष्टि में टकराव और विरोध का न होना क़ुरआन की दृष्टि में स्पष्ट रूप से ख़ुदा के एक होने की दलील है। क़ुरआन में बताया गया है—‘‘न तो ख़ुदा की कोई औलाद है और न कोई दूसरा ख़ुदा यहां मौजूद है। अगर ऐसा होता तो हर ख़ुदा अपनी सृष्टि (मख़लूक़) के साथ अलग-अलग दुनिया बसा लेते और वे एक-दूसरे पर चढ़ दौड़ते। अल्लाह उनकी बातों से पाक है।’’     (क़ुरआन, सूरा-23 मोमिनून, आयत-91) 
इन वाक्यों में (कि ख़ुदा उनके शिर्क से बुलन्द व पाक है) उस सच्चाई की तरफ़ इशारा है कि इन्सान शिर्क यानी बहुदेववाद से उसी समय बच सकता है, जबकि वह ख़ुदा की अत्यन्त ऊंची धारणा रखता हो। इसलिए जो लोग इस कायनात में अनगिनत ख़ुदाओं की ख़ुदाई को मानते हैं, उनके मन में अस्ल में ख़ुदाई की बहुत ही गिरी हुई और घटिया धारणा होती है। 
(वही, पृ. 260)
बहुदेववाद (शिर्क) के सम्बन्ध में कुछ सवाल
लोगों में बहुदेववाद की शुरुआत इस तरह हुई थी कि नेक लोगों के प्रति प्रेम और श्रद्धा में बहुत आगे बढ़ जाने की वजह से पहले उनकी प्रतिमा बनाई गई, ताकि उनको याद रखा जाए, लेकिन बाद की पीढ़ियों में उनकी पूजा और उपासना होने लगी। फिर उन नेक हस्तियों को विधिवत रूप से ख़ुदाई में शामिल कर दिया गया। हालांकि उन्होंने कभी यह नहीं कहा था कि वे ख़ुदाई में साझीदार हैं या ईश्वर ने अपनी कुछ शक्तियों और अधिकारों को उनकी तरफ़ हस्तान्तरित किया है। ख़ुद उन हस्तियों ने अपनी ज़िन्दगी में एक ख़ुदा की पूरी तरह बन्दगी और आज्ञापालन किया था। लेकिन लोगों ने उन हस्तियों को (इन्सान होने के बावजूद) ख़ुदाई के मक़ाम पर बिठा दिया, जबकि उन महापुरुषों ने हमेशा ख़ुद को अल्लाह के बन्दों में गिना। ग़ौर करने की बात यह है कि वे अल्लाह की रचना और बन्दे होते हुए ख़ुदाई में कैसे साझी हो सकते हैं? 
जो इन्सान अपनी पैदाइश से पहले मां के पेट में नौ महीने रहा हो, बच्चा बनकर पैदा हुआ हो, नौजवानी और बुढ़ापे की मंज़िलों से गुज़रकर या जवानी ही में उसकी मौत हो गई हो, वह अपनी ज़िन्दगी में दुख सहता रहा हो, बीमारी, ख़ुशी, ग़म और हादसों से उसका सामना होता रहा हो, ज़ाहिर है कि इन सभी परिस्थितियों पर वह अपना कोई अधिकार नहीं रखता था, बल्कि अधिकारहीन था। इन सब कमज़ोरियों के बावजूद वह ख़ुदा या ख़ुदाई में साझी कैसे बन गया? वह ख़ुदा या ख़ुदाई में साझी होता तो कम-से-कम अपनी मौत को टाल सकता था।
(1) क्या ईश्वर ने कहीं यह बताया है कि अपनी मदद और सृष्टि की व्यवस्था के लिए उसने सहायक ख़ुदा नियुक्त कर रखे हैं? इसी तरह क्या उसने यह बताया है कि उसने फ़ुलां-फ़ुलां अधिकार अपने मददगार ख़ुदाओं को सौंपे हैं। ये बातें किस धार्मिक किताब में लिखी हुई हैं? और उनकी दलील क्या है?
(2) कुछ लोगों की दलील यह है कि आम इन्सान ख़ुदा की सही तरीक़े से इबादत नहीं कर सकते या उसकी कल्पना उनके लिए दुर्लभ है। इसी लिए उसकी मूर्ति या किसी और तस्वीर वग़ैरा के रूप में उसकी पूजा और उपासना की जाती है। इस दलील पर ग़ौर करने की ज़रूरत है। ख़ुदा की जो भी मूर्ति प्रतिमा तस्वीर या कोई और रूप की कल्पना कर ली गई है आम तौर पर वह इन्सानों या जानवरों की तरह है। तो क्या ख़ुदा इन्सान या जानवर है? इस सिलसिले में बुनियादी सवाल यह भी है कि क्या ख़ुदा ने ऐसा करने का हुक्म भी दिया है? कहां दिया है? उसकी दलील या सुबूत क्या है? क्या ख़ुदा इस बात को गवारा कर सकता है कि अपनी पूजा, उपासना और इबादत का तरीक़ा तो इन्सानों को न बताए, लेकिन इतनी सख़्त आज़माइश में उन्हें डाल दे कि इन्सान ये सारे तरीक़े ख़ुद ही मालूम करे और जिस तरह चाहे वैसे उसकी इबादत, उपासना और पूजा कर ले। फिर केवल इबादत, उपासना और पूजा काफ़ी नहीं, बल्कि इन्सान का अपनी व्यक्तिगत और सामूहिक ज़िन्दगी में ख़ुदा के आदेशों पर अमल करना भी ज़रूरी है और पूरी ज़िन्दगी को उसकी पूर्ण इच्छा के अधीन कर देना अनिवार्य है और सचमुच इबादत का सही अभिप्राय यही है, जिसके लिए इन्सान को पैदा किया गया।
एक अहम रहनुमाई क़ुरआन में यह की गई है कि दुनिया का हर इन्सान अल्लाह पर ईमान लाकर (बीच में किसी माध्यम को लाए बिना) उसकी इबादत और उपासना कर सकता है और उससे दुआएं मांग सकता है। अल्लाह उसकी इबादत और दुआओं को जानता है और उन्हें क़बूल भी करता है।
(3) एक ख़ुदा के सिवा जिनको भी ख़ुदा मानकर या ख़ुदाई में साझी ठहराकर उनकी इबादत और पूजा की जा रही है, उन साझीदारों के रूप मर्द या औरत दोनों की तरह मान लिए गए हैं। क्या ख़ुदा इन्सान की तरह मर्द या औरत जैसे शरीर या अंग रखता है? फिर अन्याय की हद यह कि उन सहायक ख़ुदाओं की तरफ़ तमाम इन्सानी कमज़ोरियां भी जोड़ दी गई हैं। इस सिलसिले में बहुत-सी शर्मनाक दास्तानें बयान की जाती हैं। इन तमाम कमज़ोरियों के साथ ये साझीदार या इन्सानों के बनाए हुए ख़ुदा क्या हमारे लिए आइडियल और नमूना हो सकते हैं ? उनकी पैरवी कैसे की जा सकती है?
(4) पूरी दुनिया में बहुदेववादियों ने ख़ुदा और उसके साझीदारों के अलग-अलग नाम रखे हैं और उनकी तरह-तरह की दास्तानें बना ली हैं। ये विवरण भी एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न हैं। उदाहरण के रूप में भारत, चीन, यूनान, रूम, अफ़्रीक़ा और ऑस्ट्रेलिया वग़ैरा में बहुदेववादी धारणाएं बिल्कुल अलग-अलग हैं। इन्सानों के उपासकों की हस्ती और विशेषताएं दुनिया के तमाम बहुदेववादियों की नज़र में एक समान नहीं हैं। सबकी यहां अलग-अलग विचार हैं, जो परस्पर भिन्न हैं। तो सवाल यह है कि आख़िर इन सबके बीच वास्तविक ख़ुदा और उपास्य किसे कहा जाए? ख़ुदा तो वह हो सकता है जो वास्तव में सारी सृष्टि और समस्त रचनाओं का अकेला ही स्रष्टा और उपास्य है। दुनिया के विभिन्न देशों में उसका नाम वहां की भाषा में लिया जाएगा, लेकिन वह वास्तव में एक ही हस्ती है और उसकी विशेषताएं और गुण एक समान हैं।
(5) सामान्य परिस्थितियों में बहुदेववादी दुनिया में अपनी धारणा के अनुसार बनाए हुए बहुत सारे ख़ुदाओं को मानकर उनकी पूजा और उपासना में लगे रहते हैं, लेकिन बड़ी मुसीबतों और विपदा के मौक़ों पर वे उन सबको भूलकर एक अस्ली और वास्तविक ख़ुदा को मदद के लिए पुकारते हैं। इसका साफ़ मतलब यह है कि हर इन्सान की प्रकृति एकेश्वरवाद पर क़ायम है। उसकी आत्मा की गहराइयों में एक वास्तविक ख़ुदा और सच्चे उपास्य की धारणा बैठी हुई है। उसी से मदद चाहना, अपनी मुश्किलों और परेशानियों में उसी को पुकारना, उसी की ओर से अपनी हालतों की बेहतरी की उम्मीद रखना और उसी से आशा और उम्मीदें लगाए रखना, ये इन्सान की प्रकृति की मांग है। इसके विपरीत ख़ुदा के ऐसे साझी ठहराना, जिनकी उसने कोई ख़बर नहीं दी है और उनको पुकारना, उनसे दुआएं मांगना वग़ैरा अप्राकृतिक और अबौद्धिक काम है। सब एक मरुमरीचिका की तरह है, जिसका कोई आदमी पानी की तलाश में पीछा करे, मगर उस जगह पहुंचे तो एक बूंद पानी न मिले। 
(6) दुनिया-भर के बहुदेववादी अपनी-अपनी धारणाओं के अनुसार काल्पनिक ख़ुदाओं को मानकर उनकी पूजा और उपासना करते हैं, मगर एक मुद्दत गुज़र जाने के बाद उनको छोड़कर दूसरे ख़ुदा बना लेते हैं और उनकी पूजा और उपासना करने लगते हैं। क्या इस तरह ख़ुदा निर्धारित करने और एक अवधि के बाद उनको ख़ुदाई के मक़ाम से हटाकर उनकी जगह दूसरे ख़ुदाओं को निर्धारित करने का अधिकार इन्सानों को हासिल है! जबकि सच्चाई यह है कि जिनको ख़ुदा मानकर पूजा और उपासना की जाती है, फिर उनको भुलाकर दूसरे ख़ुदाओं की इबादत होने लगती है। सचमुच उनमें कोई भी ख़ुदा नहीं है। एक और पहलू ग़ौर करने लायक़ है कि बहुदेववादी धारणा में ख़ुदा से सम्बन्ध केवल पूजा और उपासना की हद तक ही रहता। इस सीमित क्षेत्र के बाद पूरी ज़िन्दगी में इन्सान ख़ुदा का बाग़ी और नाफ़रमान हो जाता है। यानी इन्सान की पूरी ज़िन्दगी के लिए हिदायत देने, कामयाबी हासिल करने और आख़िरत में मुक्ति पाने के सिलसिले में ये ख़ुदा कोई रहनुमाई नहीं करते।
वेदों में बहुदेववाद की मनाही
हिन्दू धर्म की बुनियाद वेदों पर है, हालांकि उनमें कहीं भी हिन्दू धर्म का शब्द नहीं आया है। चार वेद मशहूर है—ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद और सामवेद।
इनमें ऋग्वेद सबसे प्राचीन है। वेदों की अस्ली शिक्षा एक ख़ुदा को मानने, उसी की पूजा और उपासना और पूरी तरह बन्दगी करने और उसकी नाफ़रमानी से बचकर ज़िन्दगी बसर करने की थी। ईश्वर को छोड़कर किसी दूसरी ज़िन्दा या मुर्दा हस्ती और चीज़, जैसे सूरज, चांद, सितारे, पेड़, पत्थर वग़ैरा को किसी भी रूप या फॉर्म में पूजने से वेदों में सख़्ती से मना किया गया है। वेदों की निम्नलिखित शिक्षाओं पर ग़ौर कीजिए—
स पर्यागाच्छुक्रमकायम्                    (यजुर्वेद 40:8)
‘‘वह (ब्रह्म) शीघ्रकारी, सर्वशक्तिमान, स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर से रहित और सब ओर से व्याप्त है।’’1
ऋचो अक्षरे परमे व्योमन् यस्मिन् देवा अधि विश्वे निषेदुः।
यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति य इत् तद् विदुस्ते इमे समासते।।                               (ऋ॰ 1/164/39)
‘‘परम आकाश के समान व्यापक और ऋचाओं के अक्षर के समान अविनाशी परमात्मा है, जिसमें सम्पूर्ण देवगण स्थित हैं। जो उस परम ब्रह्म को नहीं जानता, वह इन वेद मंत्रों से क्या करेगा। जो उस परमतत्व को जानते हैं, वे ये विद्वान उत्तम स्थान में बैठते हैं।’’2
ईशा वास्यमिद सर्व यत्किं च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम्।।
(यजुर्वेद 40:1)
‘‘हे मनुष्य! जो कुछ इस संसार में जगत् है उस सब में व्याप्त होकर नियन्ता है वह ईश्वर कहता है। उससे डर कर तू अन्याय से किसी के धन की आकांक्षा मत कर। उस अन्याय के त्याग और न्यायाचरणरूप धर्म से अपने आत्मा से आनंद को भोग।’’3
इस श्लोक में साफ़ तौर पर इन्सानों को एक ईश्वर के मानने और उससे डर कर जीवन व्यतीत करने और अन्याय से बचने का आदेश दिया गया है और बताया गया है कि इसी नीति पर चलकर सच्चा सुख प्राप्त हो सकता है।
अहमिन्द्रो न परा जिग्य इद्धनं न मृत्यवेऽव तस्थे कदा चन।
सोममिन्मा सुवन्तो याचता वसु न मे पूरवः सख्ये रिपाथन।।
(ऋ॰ 10/48/5)
‘‘मैं परमैशवर्य्यवान सूर्य के सदृश जगत् का प्रकाशक हूं। कभी पराजय को प्राप्त नहीं होता और न कभी मृत्यु को प्राप्त होता हूं। मैं ही जगत् रूप धन का निर्माता हूं। सब जगत् की उत्पत्ति करने वाले मुझ ही को जानो। हे जीवो! ऐश्वर्य प्राप्ति के यत्न करते हुए तुम लोग विज्ञानादि धन को मुझ से मांगो और तुम लोग मेरी मित्रता से अलग मत होओ।’’4
अहं दां गृणते पूर्व्यं वस्वहं ब्रह्म कृणवं मह्यं वर्धनम्।
अहं भुवं यजमानस्य चोदिताऽयज्वनः साक्षि विश्वस्मिन् भरे।
(ऋग्वेद 10/49/1)
‘‘हे मनुष्यो! मैं सत्य भाषणरूप स्तूति करने वाले मनुष्य को सनातन ज्ञानादि धन को देता हूं। मैं ब्रह्म अर्थात् वेद का प्रकाश करनेहारा और मुझ को वह वेद यथावत कहता उससे सबके ज्ञान को मैं बढ़ाता, मैं सत्यपुरुष का प्रेरक यज्ञ करनेहार को फलप्रदाता और इस विश्व में जो कुछ है उस सब कार्य्य का बनाने और धारण करने वाला हूं। इसलिए तुम लोग मुझको छोड़ किसी दूसरे को मेरे स्थान में मत पूजो, मत मानो और मत जानो।’’5
अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽसंभूतिमुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ सम्भूत्या रताः।।  (यजुर्वेद 40:9)
‘‘जो असंभूति अर्थात् अनुत्पन्न अनादि प्रकृति कारण की ब्रह्म के स्थान में उपासना करते हैं वे अन्धकार अर्थात् अज्ञान और दुःख सागर में डूबते हैं। और संभूति जो कारण से उत्पन्न हुए कार्यरूप पृथ्वी आदि भूत, पाषाण और वृक्षादि अवयव और मनुष्यादि के शरीर की उपासना ब्रह्म के स्थान में करते हैं वे उस अन्धकार से भी अधिक अन्धकार अर्थात् महामूर्ख  चिरकाल घोर दुःख रूप नरक में गिरके महाक्लेश भोगते हैं।’’6
यहां भी हम देखते हैं कि एक परमेश्वर को छोड़कर किसी अन्य की उपासना करने वाले को वेद में नरक की यातना की सूचना दी गई है।
न तस्य प्रतिमा अस्ति।           (यजु॰ 32/3)
‘‘उस परमेश्वर की प्रतिमा नहीं है।’’7
यच्चक्षुषा न पश्यति येन चक्षु...षि पश्यति।
तदेव ब्रहमत्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।।
(केनोपनिषद् 1:6)
‘‘जिसे चक्षु (आंख) के द्वारा नहीं देखा जा सकता, अपितु चक्षु (आंख) जिसकी महिमा से देखने में सक्षम होता है, उसे ही तुम ब्रह्म जानो। चक्षु (आंख) के द्वारा द्रष्टव्य (दिखने वाले) जिस तत्व की लोग उपासना करते हैं, वह ब्रह्म नहीं है।’’8
हम देखते हैं कि उपर्युक्त श्लोकों में एक ईश्वर ही को मानने की शिक्षा दी गई है और अनेकेश्वरवाद और मूर्तिपूजा से स्पष्ट रूप से रोका गया है और इस पर यातना से भी डराया गया है। इस प्रकार की शिक्षाएं वेदों में बहुतायत से मौजूद हैं।
हिन्दू समाज के एक बड़े सुधारक और विद्वान स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने भी अनेकेश्वरवाद और मूर्तिपूजा की भीषण हानियों और अति भयानक परिणाम से लोगों को सावधान किया है। और इन कर्मों को समाज और स्वयं इन्सानों के लिए घातक बताया है।

फुटनोट

1. महर्षि दयानन्द सरस्वती (यजुर्वेद भाषा भाष्य, प्रकाशक : सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा, नई दिल्ली, संस्करण 2001)
2. पं॰ श्रीपाद दामोदर, सातवलेकर ऋग्वेद का सुबोध भाष्य, प्रकाशक : वसंत श्रीपाद सातवलेकर, स्वध्याय मण्डल पारडी गुजरात, संस्करण 1993
3. सत्यार्थ प्रकाश अध्याय 7, पृ॰ 126 हिन्दी संस्करण 1989 ई॰ प्रकाशक आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, 455 खारी बावली दिल्ली-6
4. उपर्युक्त
5. उपर्युक्त
6. सत्यार्थ प्रकाश अध्याय 11, पृष्ठ 223 प्रकाशक : आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट दिल्ली-6
7. उपर्युक्त
8. अनुवाद—पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य, शान्तिकुंज, हरिद्वार (यू॰पी॰)

क़ुरआन पर ईमान लाना ज़रूरी है
क्या क़ुरआन के अलावा दूसरी धार्मिक किताबों, जैसे वेदों या बाइबल को मानकर ज़िन्दगी बसर करना सांसारिक कल्याण और पारलौकिक मुक्ति के लिए काफ़ी? इस अहम सवाल पर भावनाओं और पहले से प्रचलित विचारों से ऊपर उठकर ठण्डे दिल और दिमाग़ से सोचने-समझने की ज़रूरत है। इसी सोच-विचार के नतीजे में सत्य की तलाश में कामयाबी नसीब होगी। कुछ विद्वानों और धर्म गुरुओं का विचार है कि क़ुरआन से पहले की धार्मिक किताबें अपने मौजूदा रूप में ख़ुदा के कलाम (ईश-वाणी) ही की हैसियत रखती हैं। उनमें क़ुरआन ही की तरह एक ख़ुदा को मानने और उसकी दी हुई शिक्षाओं पर चलने की दावत दी गई है। इसलिए पिछली धार्मिक किताबों को मानकर उनकी शिक्षाओं पर चलना कामयाबी और मुक्ति के लिए काफ़ी है। 
उनका यह भी विचार है कि क़ुरआन पर ईमान लाना, उसकी शिक्षाओं पर चलना, साथ ही आख़िरी पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) पर ईमान लाना कुछ ज़रूरी नहीं। हालांकि जो लोग क़ुरआन को अल्लाह की किताब और मुहम्मद (सल्ल॰) को आख़िरी पैग़म्बर मानकर ज़िन्दगी बसर करते हैं, वे भी सत्य पर हैं और वे भी कामयाब होंगे। यह एक संवेदनशील और महत्वपूर्ण बहस है। 
आज दुनिया में जिनको धार्मिक किताबें कहा जाता है, उनमें प्रमुख किताबें हैं—वेद, गीता, बाइबल और क़ुरआन आदि। धार्मिक किताबें और भी हैं, लेकिन उन सबका उल्लेख करना विस्तार का कारण बनेगा। इसलिए उनमें से केवल वेद, बाइबल और क़ुरआन पर ग़ौर करना ही अपेक्षाकृत आसान है। 
वेदों में सबसे प्राचीन ऋग्वेद है। इसके बाद अथर्ववेद, यजुर्वेद, सामवेद हैं। वेदों का निर्माणकाल कम-से-कम तीन हज़ार साल पूर्व का है। कुछ शोधार्थी इससे भी अधिक प्राचीन बताते हैं। बाइबल का निर्माणकाल कम-से-कम दो हज़ार साल पुराना है। एक बात यक़ीनी तौर पर कही जा सकती है कि ये किताबें सुरक्षित नहीं रही हैं। सवाल पैदा होता है कि इनकी अस्ली शिक्षाएं क्या थीं? क्या वे शिक्षाएं हर दौर के लिए थीं? आज के दौर में धर्म और इन्सानी ज़िन्दगी के बारे में पैदा होने वाले सवालों का जवाब क्या इन किताबों में मौजूद है? क्या ये किताबें मतभेदों और विरोधाभासों से पाक हैं? जिस किताब या वाणी में मतभेद और विरोधाभास पाया जाए, वह ईश-वाणी या ईश-ग्रंथ नहीं हो सकती। मतभेद और विरोधाभासों के मौजूद होने की स्थिति में इन्सान इस मुश्किल से दोचार होता है कि किस बात को माने और किसको न माने। 
एक और पहलू से ग़ौर करें कि आज धर्म के हवाले से इन्सान को सिर्फ़ आस्था की ज़रूरत नहीं है, बल्कि धर्म ऐसा होना चाहिए जो ज़िन्दगी और ब्रह्माण्ड के बारे में पैदा होने वाले महत्वपूर्ण सवालों के जवाब उपलब्ध करता हो। उसका दृष्टिकोण बुद्धि और स्वभाव को अपील करे और इन्सान के अपने अस्तित्व और उसके बाहर फैली हुई निशानियों के अनुसार हो। इसी के साथ यह ज़रूरी है कि धर्म, व्यक्ति, परिवार और समाज को बनाने-संवारने का काम करे और पूर्ण मार्गदर्शन की ज़रूरत को पूरा करने वाला हो, यानी धर्म को अस्ल में एक पूर्ण जीवन-व्यवस्था (System of Life) और आचार-संहिता (Code of Conduct) होना चाहिए। 
सभी धार्मिक किताबों का सम्मान करते हुए यह बात लिखनी ज़रूरी है कि वेद और बाइबल दोनों इस बारे में एक ही पोज़ीशन रखते हैं। यानी उनमें कोई जीवन-व्यवस्था और पूर्ण जीवन-विधान (शरीअत) नहीं पाया जाता। इसी लिए अनुमान लगाया जा सकता है कि वेदों और बाइबल की शिक्षा एक ख़ास ज़माने के लिए थी। सम्भव है कि ये किताबें ख़ुदाई हिदायतनामे (ईश-मार्गदर्शन) पर आधारित रही हों। लेकिन आज वे परिवर्तनों, मतभेदों और विरोधाभासों के कारण मानव-जीवन का मार्गदर्शन करने में असमर्थ हैं। विश्वव्यापी और शाश्वत मार्गदर्शन का सामान उनमें नहीं मिलता और एक पूर्ण जीवन-व्यवस्था का नक़शा नहीं पाया जाता। हां, कुछ नैतिक शिक्षाएं मिलती हैं। इसलिए उन किताबों का सम्मान करना चाहिए, लेकिन क़ुरआन के बाद वे किताबें निरस्त हैं। ज़िन्दगी की हिदायत और रहनुमाई का सामान, ज़िन्दगी की समस्याओं का हल और पारलौकिक मुक्ति का रास्ता सिर्फ़ क़ुरआन में मिलेगा। 
एक महत्वपूर्ण सच्चाई यह है कि क़ुरआन मजीद को मानने में पिछली धार्मिक किताबों को मानना शामिल है। इसी तरह क़ुरआन मजीद के इन्कार का मतलब यह होगा कि पिछली धार्मिक किताबों को न माना जाए। बाइबल में Old Testament और New Testament दोनों शामिल हैं, इनमें कोई पूर्ण जीवन-विधान (शरीअत) नहीं पाया जाता, क्योंकि मौजूदा ईसाई धर्म के संस्थापक सेंट पॉल ने शरीअत को निरस्त ठहरा दिया था। इसलिए ज़िन्दगी बसर करने के लिए ईश्वरीय आदेशों की बुनियाद ही ख़त्म हो गई। आज दुनिया में सत्तर से कुछ अधिक अलग-अलग बाइबल के नुस्ख़े पाए जाते हैं, जिनको विभिन्न मसीही संप्रदाय अस्ली बाइबल मानते हैं और दूसरी बाइबल का इन्कार करते हैं। क़ुरआन के अलावा अधिकतर धार्मिक किताबों में संन्यास, एकाकी और ब्रह्मचर्य-जीवन बसर करने को आदर्श कहा गया है। ज़ाहिर है कि अगर सभी लोग संन्यास ग्रहण कर लें, संन्यासी हो जाएं तो परिवार, समाज और सभ्यता-संस्कृति की ज़रूरत नहीं रहेंगी। दूसरी तरफ़ कुछ धार्मिक विचारों में प्रबल भौतिकवाद और सांसारिकता का रुझान भी मिलता है। इसलिए इस स्थिति में सच्ची ईश्वर-भक्ति की गुंजाइश कहां बाक़ी रह सकती है? 
क़ुरआन के बारे में ग़ौर करें, आज से 1450 साल पहले मुहम्मद (सल्ल॰) पर अरब के शहर मक्का में क़ुरआन का अवतरण आरम्भ हुआ। तेईस सालों में थोड़ा-थोड़ा करके इसका अवतरण पूर्ण हुआ। मुहम्मद (सल्ल॰) ने अन्तिम ईश-वाणी की हैसियत से इसको पेश किया। आप (सल्ल॰) की ज़िन्दगी में ही इसका संकलन पूरा हुआ। क़ुरआन मजीद अपने-आपको ईश-वाणी की हैसियत से पेश करता है। यह एलान कि क़ुरआन कोई इन्सानी रचना नहीं है, बल्कि इन्सानियत के नाम ईश्वर का पैग़ाम और हिदायतनामा है, क़ुरआन मजीद में बार-बार दोहराया गया है। मुहम्मद (सल्ल॰) की कही हुई बातों को या उनके अमल (कर्म और आचरण) को ‘हदीस’ कहा जाता है। क़ुरआन मजीद प्रामाणिक और सुरक्षित है। 
क़ुरआन मजीद पिछली किताबों की पुष्टि करता है। पिछली किताबों में जो सच्चाइयां पेश की गई थीं वे गुम होकर रह गईं और मनमाने बदलाव का शिकार होने के कारण सच्चाई गुम हो गई। इसलिए क़ुरआन मजीद को फ़ुरक़ान (कसौटी) कहा गया। यानी क़ुरआन मजीद पिछली किताबों की शिक्षाओं को परखने के लिए कसौटी भी है और वह निगरां (निगरानी करने वाली) भी है। क़ुरआन मजीद आख़िरी किताब होने के कारण सारे इन्सानों के लिए है। इस किताब में बार-बार यह बात बताई गई है कि सारे इन्सानों की हिदायत और रहनुमाई अब सिर्फ़ क़ुरआन मजीद के ज़रिए से सम्भव है। 
क़ुरआन की एक विशेषता यह है कि इसका अवतरण किसी विशेष जाति, ज़माने या नस्ल के लिए नहीं हुआ है, बल्कि इसमें रहती दुनिया तक सारे इन्सानों की हिदायत और रहनुमाई का सामान मौजूद है। इसका केन्द्रीय विषय इन्सान है यानी वह इन्सान की सफलता और मुक्ति की राह खोलता है। नाकामी और नरक की यातना से बचने के लिए उसकी रहनुमाई करता है। क़ुरआन बुद्धि और स्वभाव को बुनियाद बनाता है। अपने व्यक्तित्व से लेकर ब्रह्माण्ड में फैली हुई अनगिनत निशानियों पर सोच-विचार करने के बाद सत्य-सन्देश को स्वीकार करने की दावत देता है। इसकी हर बात दलील की रौशनी में है। वह आंखें बन्द करके अपनी किसी शिक्षा या रहनुमाई को स्वीकार करने के लिए नहीं कहता। बुद्धि से काम लेने और सोच-विचार करने के बाद फ़ैसला करने की शिक्षा देता है। क़ुरआन में कहीं भी कोई मतभेद या विरोधाभास नहीं पाया जाता। इसमें एक मज़बूत और सच्ची आस्था, इबादतों की सुव्यवस्थित और व्यापक व्यवस्था, नैतिकता, चरित्र और ज़िन्दगी के मामलों के बारे में समुचित और सन्तुलित रहनुमाई मिलती है। इतना ही नहीं, बल्कि इन्सानी ज़िन्दगी के सामूहिक विभागों, जैसे शिक्षा, संस्कृति-सभ्यता, राजनीति, अर्थव्यवस्था, सामाजिक ज़िन्दगी और जीवन के दूसरे विभागों के बारे में इसमें सर्वव्यापी मार्गदर्शन मौजूद है। क़ुरआन इन्सानी ज़िन्दगी की समस्याओं का हल पेश करता है। क़ुरआन की बुनियाद पर मुहम्मद (सल्ल॰) ने व्यक्ति, परिवार, समाज और व्यवस्था का निर्माण किया। 
अरब में मुहम्मद (सल्ल॰) ने एक पूर्ण क्रान्ति पैदा कर दी। सभी बड़ी-छोटी बुराइयों से समाज पाक हो गया। शराब, जुआ, बलात्कार, बच्चियों की अकारण हत्या, चोरी-लूटमार, हत्या और ख़ून-ख़राबा इत्यादि बुराइयों को आज सभ्य सरकारें करोड़ों-अरबों रुपये ख़र्च करके और पुलिस, क़ैदख़ानों और अदालती व्यवस्था करके भी मिटाने में नाकाम हैं। इतना ही नहीं, बल्कि ग़रीबी, भूख, बीमारी, अज्ञानता और अकाल को पंचवर्षीय योजना बनाकर भी दूर नहीं कर सकी हैं, लेकिन मुहम्मद (सल्ल॰) की क्रान्ति में इन सब बुराइयों की समाप्ति हुई। समाज में सुख-शान्ति, न्याय और इन्सानी बराबरी का वातावरण क़ायम हुआ। इन्सानियत बाहर आई। इतिहास में इसकी कोई मिसाल नहीं मिलती। ख़ासतौर पर पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) ने औरतों, कमज़ोरों और ग़ुलामों का इन्सानी मक़ाम ऊंचा किया। उनके अधिकार निर्धारित किए और अधिकारों के हनन पर सबके लिए एक समान क़ानून लागू किए। यह क्रान्ति सिर्फ़ भौतिक या आर्थिक नहीं थी, बल्कि एक समय में नैतिक, आध्यात्मिक और शैक्षिक और राजनीतिक क्रान्ति थी। यह एक सर्वव्यापी क्रान्ति थी, जिसकी इन्सानियत को आज भी बहुत ज़रूरत है। इस क्रान्ति को बरपा करने के लिए पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) के सिद्धांतों और व्यावहारिक नमूने से फ़ायदा उठाने की ज़रूरत है।




अवतारवाद या रिसालत
हमारे देश के गै़र-मुस्लिम भाइयों की आस्था ‘अवतारवाद’ पर है। इसका अर्थ यह बताया जाता है कि जब ज़मीन में बिगाड़ पैदा होता है और ज़मीन अत्याचार और फ़साद से भर जाती है तो सुधार के लिए ईश्वर ख़ुद ज़मीन पर किसी रूप में प्रकट होता है और बिगाड़, अत्याचार और फ़साद को दूर करके चला जाता है। विष्णु जी के निम्नलिखित दस अवतार माने गए हैं—
राम, परशुराम, कृष्ण, बलराम, महावीर जैन, गौतम बुद्ध, नरसिंह (आधा नर यानी इन्सान आधा सिंह) मछली, कछुआ और सूअर। 
कुछ लोगों ने अवतारों की संख्या चौबीस या उससे भी अधिक बताई है। शिव जी के भी अवतार माने गए हैं। 
लेकिन कुछ धार्मिक विशेषज्ञों का कहना है कि ‘अवतार’ का अर्थ ख़ुदा का ख़ुद प्रकट होना नहीं है, बल्कि अवतरित होना है। यानी किसी सन्देश का अवतरित किया जाना या उतरना है। मतलब यह कि शब्द ‘अवतार’ का अर्थ सन्देश लाने वाले का ज़मीन पर भेजा जाना या अवतरित होना है। 
डॉ॰ एम॰ ए॰ श्रीवास्तव लिखते हैं—
‘‘अवतार का यह अर्थ नहीं है कि ख़ुदा ख़ुद ज़मीन पर साक्षात स-शरीर आता है, बल्कि सच्चाई यह है कि वह अपने पैग़म्बर (अवतार) भेजता है। उसने इन्सानों के कल्याण, मार्गदर्शन और मुक्ति के लिए अवतार या पैग़म्बर भेजे। यह सिलसिला मुहम्मद (सल्ल॰) पर ख़त्म कर दिया गया। स्वामी विवेकानन्द और गुरु नानक जैसी महान हस्तियों ने भी पैग़म्बरी और रिसालत की पुष्टि की है। पंडित सुन्दरलाल, डॉ॰ वेदप्रकाश उपाध्याय, डॉ॰ पी॰ एच॰ चौबे, डॉ॰ रमेश प्रसाद गर्ग और पं॰ दुर्गाशंकर सत्यार्थी जैसे योग्य शोधार्थियों ने अवतार का अर्थ ख़ुदा के ज़रिए से इन्सानियत के कल्याण और मुक्ति के लिए अपने पैग़म्बर और रसूल भेजना बताया है।’’  (हज़रत मुहम्मद सल्ल॰ और भारतीय धर्मग्रन्थ, पृ॰-5)
अन्तिम अवतार को ‘कल्कि अवतार’ या ‘नराशंस’ कहा गया है। 
उल्लेखनीय बात यह कि ‘अवतार’ की धारणा वेदों में नहीं है। सम्भवतः अवतारवाद हिन्दू धर्म की धारणा नहीं थी। इसे बाहर से लाकर शामिल कर लिया गया। हालांकि गीता और पुराणों में अवतारवाद का उल्लेख मौजूद है। अवतारवाद के बारे में निम्नलिखित सवाल पैदा होते हैं—
1. धार्मिक किताबों, वेदों और विशेषकर क़ुरआन मजीद के अनुसार ख़ुदा सभी इन्सानी कमज़ोरियों से पाक है। वह ज़िन्दगी और मौत से परे है। उस जैसा कोई नहीं है और न हो सकता है, लेकिन अवतार की आम लोकप्रिय अवधारणा में सभी कमज़ोरियां ख़ुदा की हस्ती में पाई जाती हैं। ज़रा सोचिए कि ब्रह्माण्ड के स्रष्टा की यह कितनी अपमानजनक अवधारणा है कि वह किसी नर का वीर्य बनकर किसी नारी के गर्भ में नौ महीने रहकर बच्चा बनकर पैदा हो। बचपन और जवानी के मरहलों से गुज़रे, फिर इन्सानी समाज में अत्याचार और बिगाड़ को ख़त्म करके और सुधार-कार्य को अंजाम देकर मृत्यु की गोद में सो जाए। क्या ख़ुदा की महानता इस विचार की अनुमति देती है कि उसका अवतार मछली, सूअर और नरसिंह हो।
2. ख़ुदा की जो विशेषताएं धार्मिक किताबों में बताई गई हैं और ख़ुदा की महानता और शान की जो अवधारणा पाई जाती है, अवतारवाद की अवधारणा उसके बिल्कुल ख़िलाफ़ है। यह पहलू भी विचारणीय है कि ख़ुदा ख़ुद आकर सब काम करके चला जाता है, तो वह इन्सान के लिए कोई नमूना नहीं हो सकता। इन्सानों के लिए तो इन्सान ही नमूना और मॉडल बन सकते हैं। इस सिलसिले में वेदों पर ग़ौर करें तो मालूम होता है कि इन्सानों की हिदायत के लिए नराशंस के आने की भविष्यवाणियां मौजूद हैं। वेदों में सबसे पुराना ऋग्वेद है। सबसे आख़िर में अथर्ववेद है। पंडित वेदप्रकाश उपाध्याय ने वेदों के हवाले देकर साबित किया है कि ‘नराशंस’ और ‘अन्तिम ऋषि’ की यह भविष्यवाणी मुहम्मद (सल्ल॰) के सम्बन्ध में है। वेदों में ‘मुहम्मद’ और ‘अहमद’ दो नाम आए हैं। नराशंस की विशेषताएं जो वेदों में बताई गई हैं, वे मात्र मुहम्मद (सल्ल॰) पर पूरी उतरती हैं।
इसी तरह पुराणों और उपनिषदों में अन्तिम अवतार का उल्लेख ‘कल्कि अवतार’ के नाम से मिलता है। 
कल्कि अवतार की जो विशेषताएं और निशानियां बताई गई हैं वे सिर्फ़ मुहम्मद (सल्ल॰) पर चरितार्थ होती है। पुराणों में विशेषकर भविष्य पुराण और भगवत पुराण में कल्कि अवतार के रूप में हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के आगमन की भविष्यवाणियां मौजूद हैं। 
(देखें, डॉ॰ वेदप्रकाश उपाध्याय की पुस्तकें ‘नराशंस और अन्तिम ऋषि’ और कल्कि अवतार और मुहम्मद साहब) 
प्रबल सम्भावना है कि अतीत के विभिन्न कालखण्डों में भारत में पैग़म्बर और नबी आए होंगे, जिन्होंने ईश्वर का पैग़ाम पेश किया होगा। अवतार और ऋषि जिन महापुरुषों को कहा जाता है वे अस्ल में पैग़म्बर और नबी रहे होंगे। पैग़म्बरों और नबियों के भारत में आगमन को स्वीकार नहीं किया जाए तो इन धार्मिक किताबों में मुहम्मद (सल्ल॰) के आगमन की भविष्यवाणियों की क्या व्याख्या की जाएगी। यह एक कड़वा सच है कि कुछ होशियार लोगों ने पैग़म्बरों और नबियों की शिक्षाओं को छिपाया, अपने विशेष गरोह के अलावा किसी को उन शिक्षाओं का पता नहीं दिया। कुछ निरपेक्ष शोधार्थियों ने संस्कृत सीखकर और वेदों और दूसरी किताबों का अध्ययन करके दुनिया को उनसे परिचित कराया। उनकी शिक्षाओं से बहुदेववाद, आवागमन (पुनर्जन्म) और अवतारवाद की लोकप्रिय व्याख्या की इमारत ढह जाती है।
मुसलमानों ने भारत में अपने आगमन के बाद अपने दीर्घ शासनकाल में देशवासियों के धर्म के बारे में जानने की पूरी कोशिश नहीं की। संस्कृत भाषा सीखकर धार्मिक किताबों का गहरा अध्ययन किया जाता और मुहम्मद (सल्ल॰) के आगमन की भविष्यवाणियों पर शोध किया जाता तो देशवासियों की बड़ी संख्या इन सच्चाइयों से परिचित होकर सत्य-धर्म से क़रीब हो जाती। 
अवतारवाद की प्रचलित व्याख्या के विपरीत इस्लाम ने जो अवधारणा पेश की है, उसे रिसालत की अवधारणा कहते हैं। यह बात स्पष्ट है कि इन्सान सिर्फ़ रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा और इलाज इत्यादि का मुहताज नहीं है, बल्कि वह अपने लिए हिदायत और मार्गदर्शन का (जो एक पूर्ण जीवन-व्यवस्था के रूप में हो) इन सबसे बढ़कर मुहताज है। सवाल यह है कि हिदायत और मार्गदर्शन कहां से आए ? कौन हिदायत दे, क्योंकि रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, इलाज जैसी ज़रूरतों की पूर्ति के लिए तो एक हद तक बुद्धि, अनुभव और इन्सान की योग्यताएं भी काफ़ी हैं, लेकिन ज्ञान के साधन-संसाधन हिदायत और मार्गदर्शक और जीवन-व्यवस्था भी दे सकते हैं? इसका जवाब नहीं में है। इन्सान ने अपनी बुद्धि, अनुभवों और पिछले इतिहास से फ़ायदा उठाकर जितने दृष्टिकोण, दर्शनशास्त्र और धर्म बनाए वे सब नाकाम हो गए। 
ईश्वर स्रष्टा, मालिक और पालनहार ही नहीं, बल्कि वह बेहतरीन हिदायत देने वाला और मार्गदर्शन करने वाला भी है। उसने इन्सानों को प्रतिनिधि, ख़लीफ़ा और सर्वश्रेष्ठ प्राणी बनाया। उसे वह अपनी दयालुता प्रदान करता है। उसकी विशेषता इन्साफ़ और हुकूमत और ईश्वरत्व से अपेक्षित है कि वह अपने बन्दों को हिदायत और मार्गदर्शन दे। इसलिए ईश्वर ने आदम (अलैहिस्सलाम), जो पहले इन्सान और पहले पैग़म्बर थे और उनकी नस्ल को आरम्भ से ही हिदायत और मार्गदर्शन प्रदान की। 
समय गुज़रने के साथ इन्सानी आबादी फैलती गई तो ईश्वर ने विभिन्न क़ौमों की हिदायत और मार्गदर्शन के लिए अपने चुने हुए बन्दों को अपना रसूल (ईशदूत) बनाया। उनको नबी और पैग़म्बर कहते हैं। इस सिलसिले को रिसालत या नुबूवत का सिलसिला कहा जाता है। मशहूर रिवायत अगर सही हो तो मुहम्मद (सल्ल॰) का समय आने तक लगभग एक लाख चौबीस हज़ार पैग़म्बर और नबी दुनिया में आ चुके थे। आप (सल्ल॰) के ज़माने में संचार-माध्यम और यातायात के साधनों में इतनी तरक़्क़ी हो चुकी थी कि एक विश्वव्यापी समाज अस्तित्व में आ गया था। इसी लिए अब अलग-अलग क़ौमों के लिए नबियों और पैग़म्बरों को भेजने के बजाय एक ही पैग़म्बर का सारे इन्सानों के लिए नियुक्त किया जाना काफ़ी था। मुहम्मद (सल्ल॰) और उन पर अवतरित की हुई किताब क़ुरआन मजीद केवल अरब क़ौम के लिए नहीं, बल्कि सारे इन्सानों के लिए है। 
मुहम्मद (सल्ल॰) को इन्सानों की हिदायत और मार्गदर्शन का अन्तिम, सर्वव्यापी और पूर्ण एडिशन इस्लाम धर्म के नाम से प्रदान किया गया। आप (सल्ल॰) इतिहास की पूरी रौशनी में तशरीफ़ लाए। आप (सल्ल॰) की जीवनी और कथन सुरक्षित हैं, जो किताब आप (सल्ल॰) पर 23 वर्षों में थोड़ी-थोड़ी करके ईश्वर की ओर से अवतरित हुई थी, वह पूरी तरह सुरक्षित है। क़ुरआन मजीद का संकलन आप (सल्ल॰) की ज़िन्दगी में पूरा हो चुका था। इस कारण अब किसी नए पैग़म्बर या नबी और नई किताब की कोई ज़रूरत इन्सानों की हिदायत के लिए बाक़ी नहीं रही।

नराशंस और कल्कि अवतार
विभिन्न धार्मिक किताबों में मुहम्मद (सल्ल॰) के आगमन की भविष्यवाणियां मौजूद हैं। आप (सल्ल॰) के हुलिए के बारे में साफ़ और स्पष्ट निशानियों का उल्लेख है। कुछ ऐसी निशानियां भी बताई गई हैं, जो सिर्फ़ मुहम्मद (सल्ल॰) पर चरितार्थ होती हैं। आप (सल्ल॰) के सिवा कोई दूसरी हस्ती इन भविष्यवाणियों और निशानियों को धारण नहीं करती है।
दुनिया में हमेशा यह होता रहा है कि पिछले पैग़म्बरों की शिक्षाएं मिटा दी गईं और उनकी किताबों में इतने बदलाव हो गए कि आज उनकी अस्ली शिक्षाओं का पता लगाना सम्भव नहीं रहा। उन किताबों में मनमानी बढ़ोत्तरी की गई और बहुत-सी शिक्षाओं को निरस्त कर दिया गया। कभी-कभी इन्सानी व्याख्याओं को ईश-वाणी में इस तरह मिला दिया गया कि मिलावट के नतीजे में ईश्वर की वाणी विकृत होकर रह गई। इन सबके बावजूद वेदों में (जो प्राचीनतम धर्म-ग्रंथ समझे जाते हैं) मुहम्मद (सल्ल॰) का उल्लेख पाया जाता है। वेदों के अलावा तौरात, इंजील और साथ ही बुद्धमत और जैनमत के धर्म-ग्रंथों में ये भविष्यवाणियां पाई जाती हैं। पुराणों में मुहम्मद (सल्ल॰) का कल्कि अवतार के नाम से उल्लेख हुआ है। इस सिलसिले में कुछ हिन्दू विद्वानों ने अपने लेखनों में प्रमाण के साथ साबित किया है कि जिस महान हस्ती के आगमन के सम्बन्ध में ये भविष्यवाणियां और निशानियां अंकित हैं, वे सिर्फ़ मुहम्मद (सल्ल॰) हैं। वेदों में आप (सल्ल॰) को नराशंस कहा गया है। मुहम्मद और अहमद, जो आप (सल्ल॰) के दो नाम हैं, विधिवत अंकित हैं। नराशंस संस्कृत शब्द है। यह दो शब्दों का योग है ‘नर’ और ‘आशंस’। नर का अर्थ इन्सान होता है और आशंस का अर्थ है जिसकी प्रशंसा की गई हो। नराशंस के बारे में चारों वेदों में 31 स्थानों पर उल्लेख किया गया है। 
पंडित वेदप्रकाश उपाध्याय अपनी किताब ‘नराशंस और अन्तिम ऋषि’ में कहते हैं—
‘‘हमें एक ऐसे व्यक्ति को प्रमाणित करना है, जो मनुष्य भी हो, और वह यह प्रशासित भी हो। मुहम्मद साहब मनुष्य भी थे, इसलिए उनमें नरत्व और आशंसत्व दोनों गुण घटित हो जाते हैं। इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि नराशंस शब्द अरबी में मुहम्मद शब्द से अभिहित व्यक्ति के लिए प्रयुक्त हुआ है।’’ 
(पृष्ठ-14)
अथर्ववेद में मुहम्मद (सल्ल॰) के स्थान का स्पष्टीकरण निम्नलिखित शब्दों में किया गया है—
इससे स्पष्ट होता है कि मुहम्मद (सल्ल॰) जिस इलाक़े में आएंगे, वहां ऊंट सवारी के लिए इस्तेमाल किए जाते होंगे। इसलिए यह सत्य है कि मुहम्मद (सल्ल॰) का इलाक़ा रेगिस्तानी था और सवारी के लिए आप (सल्ल॰) ने ऊंट का इस्तेमाल किया है।
डॉ॰ एम॰ए॰ श्रीवास्तव अपनी किताब हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) और भारतीय धर्म-ग्रंथ (पृ॰ 30) में आलोपनिषद से निम्नलिखित मंत्र उद्धृत करते हैं—
‘‘उस देवता का नाम अल्लाह है। वह एक है। मित्र, वरुण इत्यादि उसके गुण हैं। वास्तव में अल्लाह वरुण है, जो सम्पूर्ण सृष्टि का बादशाह है। दोस्तो! उस अल्लाह को अपना उपास्य समझो। ...अल्लाह सबसे बड़ा, सबसे बेहतर, सबसे सर्वाधिक पूर्ण और सर्वाधिक पवित्र है। मुहम्मद अल्लाह के श्रेष्ठतर रसूल हैं। अल्लाह आदि, अन्त और सारे संसार का पालनहार है। सारे अच्छे काम अल्लाह के लिए हैं। वास्तव में अल्लाह ही है, जिसने सूरज, चांद और तारे पैदा किए हैं।’’ (1,2,3)
मुहम्मद (सल्ल॰) के बारे में और अधिक निशानियों का विवरण निम्नलिखित है—
अथर्ववेद के निम्नलिखित इबारत पर ध्यान दें—
‘‘हे जनो-लोगो! नरों (इद्रादि देवों) की प्रशंसा में स्तवन किए जाते हैं, उन्हें सुनो। हे कौरम (कर्मठ-नायक)! हम छः हज़ार नब्बे रूशमों (वीरों) को पाते या नियुक्त करते हैं।’’ (20/127/1)
‘‘बीस ऊंट अपनी वधुओं (शक्तियों) सहित उस (नर) के रथ को खींचते हैं। उस रथ के सिर द्युलोक को स्पर्स करने की इच्छा के साथ चलते हैं। इस (नर श्रेष्ठ ने) मामह ऋषि को सौ स्वर्ण मुद्राओं, दस हारों, तीन सौ अश्वों तथा दस हज़ार गौओं का दान दिया।’’ (20/127/2-3)
इन मंत्रों के बारे में पंडित वेदप्रकाश उपाध्याय ने अपनी किताब ‘नराशंस और अन्तिम ऋषि’ में सिद्ध किया है कि सौ दीनार का मतलब सुफ़्फ़ा वाले साथी (रज़ि॰), तीन सौ तेरह घोड़ों से तात्पर्य बद्र की लड़ाई के प्यारे साथी (रज़ि॰) और दस हज़ार गांवों का मतलब मक्का-विजय की सेना है।
कल्कि अवतार
इस शीर्षक के अन्तर्गत जो बातें नीचे लिखी जा रही हैं, वे डॉ॰ एम॰ ए॰ श्रीवास्तव की किताब ‘हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) और भारतीय धर्म ग्रंथ’ (पृ॰ 32 से 36) का सारांश हैं। जो पाठक विस्तार से जानना चाहें, उन्हें मूल किताब का अध्ययन करना चाहिए। 
अवतार का मतलब इन्सानों को ईश्वर का पैग़ाम पहुंचाने वाले महात्मा का ज़मीन पर पैदा होना है या दूसरे शब्दों में ईश्वर से सम्बन्ध रखने वाले व्यक्ति का ज़मीन पर भेजा जाना है। ख़ुदा से सबसे ज़्यादा सम्बन्ध रखने वाला, उसका भक्त या बन्दा ही हो सकता है। प्राचीनकाल में एक अवतार से पूरी दुनिया का सुधार सम्भव नहीं था। इसलिए हर देश या ज़माना के लिए अलग-अलग अवतार हुए हैं। क़ुरआन में है—
‘‘हर क़ौम के लिए एक मार्गदर्शक है।’’ 
(क़ुरआन, सूरा-13 रअ्द, आयत-7)
आख़िरी अवतार कल्कि की विशेषता विशिष्ट है, क्योंकि वह किसी एक भूभाग के लिए नहीं, बल्कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के लिए भेजे गए हैं। जब लोग सत्य-धर्म से हट या भटककर अधार्मिकता की राह अपना लेते हैं या धर्म को अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए विकृत कर देते हैं तो उन्हें सही रास्ता दिखाने के लिए ख़ुदा अपने अवतार या पैग़म्बर भेजता है।
आख़िरी अवतार के आगमन के लक्षण और निशानियां
कल्कि के आने के समय के वातावरण का चित्रांकन इस तरह किया गया है कि हर तरफ़ बर्बरता का वर्चस्व होगा, लोगों में हिंसा, अराजकता और विधिहीनता का बोलबाला होगा। दूसरों को मारकर उनका माल लूट लिया जाएगा। लड़कियों के पैदा होते ही उन्हें ज़मीन में गाड़ दिया जाएगा। एक ईश्वर को छोड़कर सैकड़ों ख़ुदाओं की पूजा और उपासना आम होगी।
मुहम्मद (सल्ल॰) के आगमन के ज़माने में लोगों ने मूल धर्म को भुला दिया था और एक ख़ुदा की जगह कहीं तीन, कहीं सैकड़ों ख़ुदा बना लिए गए थे। धर्म का मतलब अंधविश्वासों पर विश्वास और मूर्ति-पूजा था। यह बात ध्यान देने योग्य है कि अन्तिम अवतार का ज़माना युद्धों में घोड़ों और तलवारों के इस्तेमाल का ज़माना था। तलवारों और घोड़ों का दौर तो अब ख़त्म हो चुका है। अब युद्धों में टैंकों और आधुनिक शस्त्रों का इस्तेमाल होता है। चौदह सौ साल पूर्व तलवार और घोड़े इस्तेमाल किए जाते थे। 
कल्कि अवतार का स्थान कल्कि पुराण और भागवत पुराण में सम्भल गांव बताया गया है। सम्भल गांव का नाम है या गांव की विशेषताएं, यह शोध का विषय है। इसी लिए शोधार्थियों ने बताया है कि सम्भल अस्ल में गांव की विशेषताएं हैं। यानी वह स्थान जिसके आसपास पानी हो और वह स्थान अत्यन्त सुन्दर, आकर्षक और सुख-शान्ति वाला हो। सम्भल का शाब्दिक अर्थ है शान्ति की जगह। मक्का को दारुल-अमान यानी शान्ति-गृह कहा जाता है, जिसका शाब्दिक अर्थ ‘शान्ति का घर’ होता है।
कल्कि पुराण के दूसरे अध्याय के श्लोकों में अन्तिम अवतार की जन्म- तिथि और उनके माता-पिता के नामों का उल्लेख है। यह भी बताया गया है कि उसकी पैदाइश से दुखी इन्सानियत को मुक्ति नसीब होगी। उसकी पैदाइश वसन्त ऋतु के रबी फ़सल में चांद की 12वीं तारीख़ को होगी। 
मुहम्मद (सल्ल॰) की पैदाइश 12 रबीउल-अव्वल को मक्का में हुई। रबी का अर्थ है वसन्त ऋतु का महीना। कल्कि के माता-पिता का नाम विष्णुयशसः बताया गया है। मुहम्मद (सल्ल॰) के बाप का नाम अब्दुल्लाह था। विष्णु यानी अल्लाह और यश यानी बन्दा। कल्कि की मां का नाम सुमति आया है। इसका अर्थ है शान्ति और सोच-विचार का गुण रखने वाली। मुहम्मद (सल्ल॰) की मां का नाम आमिना था, जिसका अर्थ शान्ति वाली होता है।
कल्कि अवतार की विशेषताएं
वह घोड़े पर सवारी करने वाला होगा।
वह अत्याचारियों का ज़ोर ख़त्म करेगा। 
चार भाइयों के सहयोग से सुशोभित होगा। (कल्कि चार भाइयों के सहयोग से शैतान से निबटेगा।) हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के चार साथी अबू-बक्र (रज़ि॰), उमर (रज़ि॰), उसमान (रज़ि॰) और अली (रज़ि॰) थे। 
कल्कि को अन्तिम समय का अवतार बताया गया है। भागवत पुराण के चौबीस अवतारों में कल्कि सबसे आख़िरी अवतार हैं। मुहम्मद (सल्ल॰) ने एलान किया कि वह ख़ुदा के आख़िरी पैग़म्बर (अवतार) हैं। 
कल्कि की आठ विशेषताएं
कल्कि अवतार को भागवत पुराण के स्कंध बारह, अध्याय दो में आठ विशेषताओं से सुशोभित किया गया है। इन विशेषताओं का उल्लेख महाभारत में भी हुआ है। ये विशेषताएं निम्नलिखित हैं—
(1) वह बड़ा विद्वान होगा। 
(2) वह उच्च कुल का होगा। 
(3) वह इंद्रिय-निग्रह करने वाला और परहेज़गार होगा। 
(4) प्रकाशना (वह्य) का ज्ञान रखने वाला होगा। 
(5) वह बहादुर और हौसलामन्द होगा। 
(6) वह अल्पभाषी होगा। 
(7) वह दानी होगा। 
(8) वह कृतज्ञ होगा। 
उपर्युक्त विशेषताओं को मुहम्मद (सल्ल॰) के पवित्र जीवन में पूरी तरह से देखा जा सकता है।

आवागमन या परलोक 
की इस्लामी धारणा
मौत के बाद ज़िन्दगी के बारे में हमारे देश के भाइयों और बहनों की लोकप्रिय विचारधारा आवागमन की अवधारणा है, इसका एक बौद्धिक और शोधपरक विश्लेषण नीचे पेश किया जाता है—
मौत एक ऐसी सच्चाई है जिसे आज तक किसी ने नहीं झुठलाया। मौत के बाद ज़िन्दगी है या नहीं? अगर है तो वह कैसी होगी? क्या वह हमेशा की ज़िन्दगी होगी? वहां कामयाबी पाने के लिए इस दुनिया की ज़िन्दगी में क्या करना होगा? मौत के बाद ज़िन्दगी नहीं है तो क्या यह दुनिया की ज़िन्दगी ही इन्सान की आख़िरी मंज़िल है और मौत इस ज़िन्दगी का ख़ातिमा कर देती है? 
मौत के बाद क्या होगा? इसे अवलोकन या अनुभव या किसी और तरीक़े से मालूम करने का हमारे पास कोई ज़रिआ नहीं है। इन्सान लोगों को मरते हुए देखता है और यह भी देखता है कि मरकर जाने वाला कभी लौटकर नहीं आता। वह ख़ुद भी एक दिन मर जाता है, लेकिन मालूम नहीं कर सकता की मौत के बाद लोग कहां जाते हैं? जहां जाते हैं वहां कब तक रहेंगे? यह केवल दार्शनिक सवाल नहीं, बौद्धिक या अकादमिक मसला नहीं, बल्कि हर इन्सान की हमेशा की कामयाबी और नाकामी का मसला है। यह इतना अहम मसला है कि इन्सान इसको दूसरों का मसला कहकर टाल नहीं सकता। मान लीजिए मौत के बाद कोई ज़िन्दगी बिल्कुल नहीं है। न क्षणिक और न हमेशा रहने वाली तो इस स्थिति में इन्सान को मौत के बाद की ज़िन्दगी के बारे में न सोचने की ज़रूरत है, न कुछ करने की। जो कुछ है वह सिर्फ़ इस दुनिया की ज़िन्दगी है और यहां की कामयाबी और नाकामी आख़िरी चीज़ है। बस इसी को सामने रखकर इन्सान अपनी ज़िन्दगी बसर करेगा। लेकिन अगर मौत के बाद ज़िन्दगी है और वह हमेशा के लिए होगी तो वहां कामयाबी हासिल करने के लिए दुनिया की ज़िन्दगी में कुछ करना होगा। सत्य पर आधारित आस्थाओं, उसूलों, आदेशों और नियमों को स्वीकार करके उनके अनुसार कार्यशैली अपनाना ज़रूरी होगा। किसी ने इन सबको स्वीकार किए बिना ज़िन्दगी बसर की होगी तो उसे मौत के बाद ज़बरदस्त नाकामी का सामना करना पड़ेगा। यह सबसे बड़ी महरूमी और बदनसीबी होगी। मौत के बाद ज़िन्दगी को न मानने वाले इतनी बात यक़ीनन कह सकते हैं कि मौत के बाद क्या होगा, हम नहीं जानते, लेकिन वे यह नहीं कह सकते कि हां, हम जानते हैं कि मौत के बाद कोई ज़िन्दगी नहीं है। 
हमारे देश में मौत के बाद की ज़िन्दगी के बारे में पुराने ज़माने से निम्नलिखित विचारधाराएं पाई जाती हैं—
एक विचारधारा यह है कि ज़िन्दगी और मौत जो कुछ है, बस इसी दुनिया की हद तक है। यानी जो इन्सान मर गया, वह हमेशा के लिए ख़त्म हो गया। इसलिए कामयाबी और नाकामी दोनों का सम्बन्ध इसी दुनिया से है। कर्मों की पूछताछ, परलोक, स्वर्ग और नरक वास्तव में कोई चीज़ नहीं, इसी लिए इन्सान को इस दुनिया में ज़्यादा-से-ज़्यादा ऐश और मौज की ज़िन्दगी बसर करनी चाहिए और अपनी इच्छाओं की पूर्ति करनी चाहिए। यह विचार रखने वाले लोग कुछ ज़्यादा नहीं हैं। 
एक दूसरी विचारधारा यह है कि इन्सान मरने के बाद कर्मों की बुनियाद पर अच्छी या बुरी योनी लेकर दुनिया में नई देह पाएगा। आत्मा मरती नहीं है। इन्सान को अपने कर्मों का नतीजा भुगतना ही पड़ता है। जन्म, मौत और फिर उसके बाद जन्म का यह सिलसिला लगातार जारी रहता है। 84 लाख योनियों को इन्सान अपनाता है और अन्त में अच्छा इन्सान बनकर पैदा होता है, फिर इस चक्कर से उसे मुक्ति मिलती है या मुक्ति की यह स्थिति बनती है कि आत्मा जाकर परमात्मा में मिल जाती है। इस विचारधारा के अनुसार मौत के बाद लगातार जन्म और फिर मौत के इस चक्कर में इन्सान कर्मों की बुनियाद पर एक-दूसरे इन्सान, जानवर, पेड़ या कीड़े-मकोड़े इत्यादि किसी भी काया में पैदा हो सकता है। यह यहां की आबादी के अधिकांश लोगों की विचारधारा है। 
तीसरी विचारधारा यह है कि आदम (अलैहिस्सलाम) से जन्नत में एक गुनाह हो गया। उस गुनाह का दाग़ पैदा होने वाले हर बच्चे के साथ लगा हुआ है। इसके अलावा भी इन्सान से ज़िन्दगी में गुनाह होते हैं। मौत के बाद ज़िन्दगी यक़ीनन है और वहां मुक्ति (मोक्ष) और कामयाबी की सूरत यह है कि ईसा (अलैहिस्सलाम), ख़ुदा के पैग़म्बर, को ख़ुदा का बेटा होने और ख़ुद ख़ुदा होने की हैसियत से माना जाए। यहां तक कि सभी इन्सानों के गुनाहों के प्रायश्चित के रूप में सूली पर चढ़ाए जाने पर ईमान लाया जाए। मौत के बाद की ज़िन्दगी में यही मुक्ति का एकमात्र रास्ता है। यह विचारधारा ईसाइत पेश करती है।
एक विचारधारा इस्लाम प्रस्तुत करता है। वह विचारधारा यह है कि दुनिया की ज़िन्दगी आज़माइश और क्षणिक है, लेकिन मौत के बाद एक और ज़िन्दगी होगी, जो हमेशा के लिए होगी। इन्सान को यहां इम्तिहान के लिए रखा गया है। यह दुनिया परलोक की खेती है। इन्सान सही आस्था और सत्कर्म अपना करके नेकियों की जो फ़सल बोएगा, परलोक में उसका बदला स्वर्ग के रूप में पाएगा। बाप की ग़लती की सज़ा औलाद को नहीं दी जाएगी। हर आदमी अपने अच्छे-बुरे कर्मों के लिए ख़ुद ज़िम्मेदार होगा। कोई इन्सान दूसरे इन्सानों के कर्मों का बोझ नहीं उठाएगा। मौत नष्ट होने या मर जाने का नाम नहीं है, बल्कि दुनिया और मौत से गुज़रकर ही इन्सान परलोक का शाश्वत सफ़र करता है। परलोक की ज़िन्दगी का प्रबन्ध सांसारिक उसूलों से भिन्न होगा। परलोक इसलिए ज़रूरी है कि दुनिया में इन्साफ़ और न्याय की अपेक्षाएं पूर्ण रूप से पूरी नहीं हो रही हैं। कितने ही वंचित, बिगाड़ फैलाने वाले और उद्दंड लोग साफ़ बच निकलते हैं या पूरी सज़ा नहीं पाते। 
परलोक इसलिए भी ज़रूरी है कि ख़ुदा ने सृष्टि के अन्दर हर चीज़ का जोड़ा पैदा किया है। जोड़ा अपने जोड़े से मिलकर एक मक़सद को पूरा करता है और कोई नतीजा निकलता है। मिसाल के तौर पर धूप और छांव, रात और दिन, अन्धेरा और उजाला इत्यादि। इसी तरह दुनिया का जोड़ा परलोक है। परलोक के बिना दुनिया उद्देश्यहीन, निष्फल और और अन्धेर नगरी चैपट राजा के समान होगी। 
एक पहलू और भी है। ख़ुदा ने इन्सान को दुनिया में नेमतें, अधिकार और सीमित आज़ादी प्रदान की है। एक दिन ज़रूर ऐसा आना चाहिए कि जब इन सबके सम्बन्ध में उससे सवाल हो कि उसने इन सबका इस्तेमाल ईश्वर के हुक्म के अनुसार किया या उसकी मर्ज़ी और उसके हुक्म के ख़िलाफ़ इस्तेमाल करके उससे ग़द्दारी और नाफ़रमानी करता रहा।
आधुनिक विज्ञान बताता है कि दुनिया क्रमशः अपने विनाश की तरफ़ बढ़ रही है। इस्लाम में यह शिक्षा दी गई है कि एक ख़ास वक़्त पर क़ियामत घटित हो जाएगी। उसे अल्लाह के सिवा कोई नहीं जानता। यह पूरी व्यवस्था टूट-फूट जाएगी। उसको क़ियामत कहा गया है। इसके बाद मरे हुए इन्सान दोबारा अल्लाह के हुक्म से जी उठेंगे और उनके सभी कर्मों का हिसाब-किताब होगा। जो लोग अल्लाह पर ईमान रखते थे और उसके आदेशों पर चलकर पूरी ज़िन्दगी में उसके वफ़ादार थे, वे जन्नत में जाएंगे और जिन्होंने अल्लाह से बग़ावत की होगी, वे जहन्नम की आग में डाले जाएंगे। 
आधुनिक विज्ञान कहता है कि दुनिया में हर इन्सान की सारी गतिविधियां, बातचीत वग़ैरा अन्तरिक्ष में सुरक्षित रहती हैं। उसको रिकॉर्ड किया जा सकता है। इस्लामी विचारधारा की अहमियत और सच्चाई का यह पहलू अहम है कि आधुनिक विज्ञान इसकी पुष्टि करता है। इसके अलावा इन्सानी इतिहास अखण्डनीय सुबूत पेश करता है। यानी पैग़म्बरों और नबियों ने मौत के बाद एक हमेशा की ज़िन्दगी की ख़बर दी है। ये नबी और पैग़म्बर निहायत ही सच्चे और अच्छे चरित्र के इन्सान थे। अपनी पूरी ज़िन्दगी में उन्होंने कभी एक बार भी झूठ बात नहीं कही।
हिन्दू धर्म की बुनियाद चार वेदों पर है। उनमें आवागमन की विचारधारा नहीं पाई जाती, बल्कि मौत के बाद ज़िन्दगी, स्वर्ग और नरक की अवधारणा पाई जाती है। विभिन्न प्रकार के गुनाहों की सज़ाएं, विभिन्न नामों के नरक में दी जाएंगी। वेदों में ‘पितरलोक’ की चर्चा भी मिलती है जिसे आलमे-बरज़ख़ भी कहा जा सकता है। यानी मौत के बाद क़ियामत तक इन्सानों का दोबारा ज़िन्दा होना, हिसाब-किताब और जज़ा-सज़ा का फ़ैसला होने तक बरज़ख़ के क्षणिक मरहले की चर्चा उपनिषद, महाभारत और गीता वग़ैरा में मौजूद है। 
आवागमन पर ग़ौर करने से निम्नलिखित सवाल पैदा होते हैं—
1. सृष्टि में सबसे पहले किस चीज़ का निर्माण हुआ? अगर इन्सान का तो ये इन्सान किनके कर्मों के नतीजे में पैदा हुए? अगर यह कहा जाए कि इन्सान से पहले सृष्टि में जानवर, पेड़-पौधे इत्यादि पहले से पैदा हुए, तो यह किन कर्मों के नतीजे में हुआ?
2. वेदों के अनुसार इन्सान से पहले वे जीव-जन्तु पैदा हुए जिनको इन्सानी गुनाहों का नतीजा क़रार दिया जाता है यानी पेड़-पौधे, जीव-जन्तु और पशु-पक्षी इत्यादि पहले पैदा हुए और इन्सान बाद में पैदा हुआ। वैदिक साहित्य ही इन्सान को बताते हैं कि अच्छे कर्म कौन से हैं जिसके नतीजे में अच्छे जन्म मिलेंगे और बुरे कर्म कौन से हैं जिनके कारण बुरे जन्म मिलेंगे?
सवाल यह है कि क्या जज़ा और सज़ा के हुक्म और क़ानून यानी वैदिकशास्त्र दिए जाने से पहले ही इन जीवों को सज़ा दे दी गई।
3. आवागमन के अनुसार गुनाह और पाप ज़रूरी ठहराया गया है, क्योंकि इसके बिना अनाज और सब्ज़ी, फल-फूल और पेड़-पौधे उग नहीं सकते। एक अजीबो-ग़रीब पहलू इसका यह भी है कि रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में इन्सान को सब्ज़ियां, फल-फूल इस्तेमाल नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह पता नहीं पिछले जन्म में किसी-न-किसी इन्सान की आत्मा उसमें बसी होगी जो इस जन्म में सब्ज़ी, फल-फूल इत्यादि बन गए। आवागमन के अनुसार किसी मुसीबत या परेशान-हाल की मदद नहीं करनी चाहिए। भूखों को खाना खिलाना, बीमारों की देखभाल करना, नंगों को कपड़ा देना, मतलब यह कि इन्सानों की सेवा का कोई काम नहीं करना चाहिए, क्योंकि ये लोग पिछले जन्म के गुनाहों की सज़ा भुगत रहे हैं। वे अपनी पूरी सज़ा भुगतें।
4. इन्सान बुद्धि और चेतना, बोलने की शक्ति, सोचने और कर्म करने की आज़ादी और अधिकार रखता है। नेकी और बदी, भलाई और बुराई, सही और ग़लत की तमीज़ भी रखता है। ये गुण इन्सान के अलावा किसी भी दूसरे प्राणियों में नहीं पाए जाते। लेकिन इन्सान गुनाहों के कारण जानवर, कीड़े-मकोड़े और सब्ज़ी, फल-फूल बन जाता है। तो फिर इस काया में नेकी और बदी का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता। ये सब मजबूर हैं। प्रकृति ने जो काम उनके ज़िम्मे कर दिया है और जो उसूल उनके जीने-मरने के लिए तय किए हैं, सब कुछ उसी के अनुसार हो रहा है। इन्सान के अलावा सारे प्राणी अपनी स्वतंत्र इच्छा, रुचि और अधिकार से भला या बुरा कुछ भी नहीं कर सकते। उनके सामने मोक्ष या मुक्ति की तलाश का मसला नहीं है। 
5. इस विवेचन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि आवागमन यानी इन्सान की पैदाइश और मौत के चक्कर में ख़ुदा का कोई रोल या उसकी कोई भूमिका है ही नहीं। इसके अलावा वह ख़ुदा भी ऐसा है जो बन्दों से गुनाह होने पर माफ़ करना और दरगुज़र से काम लेना जानता ही नहीं, बल्कि आवागमन के इस चक्कर में वह ख़ुद भी बेबस नज़र आता है। 
मतलब यह कि आवागमन की अवधारणा बुद्धि और दलील की किसी कसौटी पर पूरी नहीं उतरती। यह अप्राकृतिक और अस्वाभाविक है। ऐसा मालूम होता है कि यह हिन्दू धर्म में बाहर से लाकर शामिल की गई है। वेदों में इसका उल्लेख नहीं मिलता।

स्वर्ग और नरक के दृश्य
पिछले पन्नों में यह बात बताई जा चुकी है कि इन्सान की मौत के बाद उसके लिए हमेशा की ज़िन्दगी तय है। वहां उसके लिए दो में से एक ही ठिकाना होगा यानी स्वर्ग या नरक! 
हर प्राणी को मौत का मज़ा चखना है, लेकिन इन्सान की मौत का मतलब फल-फूल, पेड़-पौधे या कीड़े-मकोड़े और अन्य प्राणियों की मौत नहीं है। इन्सान के अलावा जितने भी प्राणी हैं, उनकी मौत उनका हमेशा के लिए ख़ातिमा है। अपने वुजूद के मक़सद को पूरा करने के बाद उनको मौत आती है। इस दृष्टि से उनकी ज़िन्दगी और उनके वुजूद दोनों का हमेशा के लिए ख़ातिमा हो जाता है, लेकिन इन्सान के साथ ऐसा नहीं है। मौत के बाद उसकी हमेशा की ज़िन्दगी का सफ़र शुरू हो जाता है। यह ज़िन्दगी कर्म-क्षेत्र, आज़माइश और परीक्षा का समय है। यह ज़िन्दगी एक ख़ुदा को मानकर उसके आदेशों और उसकी मर्ज़ी पर चलने और उसके रसूल (सल्ल॰) की पूरी पैरवी अपनाने के लिए दी गई है। क़ुरआन में दलीलों के साथ बताया गया है कि एक निर्धारित समय पर क़ियामत घटित होगी। दुनिया की यह व्यवस्था ख़त्म हो जाएगी। एक नई दुनिया और नई व्यवस्था यहां से बिल्कुल अलग सिद्धान्तों पर बनाई जाएगी। सभी इन्सान ईश्वर के आदेश से दोबारा पैदा किए जाएंगे। सभी इन्सानों के ईमान और कर्मों का हिसाब लिया जाएगा। यह इन्सान के अस्ली और आख़िरी परीक्षा का परिणाम होगा। उस परीक्षा में जो कामयाब होंगे, वे स्वर्ग में और जो नाकाम होंगे, वे नरक में भेज दिए जाएंगे।

क़ियामत
इस सम्बन्ध में क़ियामत, स्वर्ग और नरक के दृश्यों से सम्बन्धित क़ुरआन की आयतों पर ग़ौर करें—
‘‘और हमने तो आकाशों और धरती को और जो कुछ उनके मध्य है सोद्देश्य पैदा किया है और निश्चय ही फ़ैसले की घड़ी आकर रहेगी।’’            (क़ुरआन, सूरा-15 हिज्र, आयत-85) 
‘‘क्या इन्सान ने यह समझ रखा है कि वह यूं ही आज़ाद छोड़ दिया जाएगा।’’        (क़ुरआन, सूरा-75 क़ियामह, आयत-36) 
‘‘कहता है : कौन हड्डियों में जान डालेगा जबकि ये जीर्ण-शीर्ण हो चुकी होंगी? कह दो: इनमें वही जान डालेगा जिसने पहले इन्हें पैदा किया था और वह पैदा करने का हर काम जानता है।’’              (क़ुरआन, सूरा-36 या-सीन, आयतें-78, 79)
‘‘ये लोग तुमसे पूछते हैं कि क़ियामत कब आएगी? कह दो कि उसका ज्ञान तो मेरे रब ही को है। अतः उसे अपने समय पर वही प्रकट करेगा। आसमानों और ज़मीन में वह बड़ा कठिन समय होगा। बस वह तुम पर अचानक आ जाएगा।’’ 
(क़ुरआन, सूरा-7 आराफ़, आयत-187) 
क़ियामत का दृश्य
‘‘जब आकाश फट जाएगा और जबकि तारे बिखर जाएंगे और जबकि समुद्र बह पड़ेंगे और जब क़ब्रें उखेड़ दी जाएंगी, उस समय प्रत्येक व्यक्ति को उसका अगला-पिछला सब किया-धरा मालूम हो जाएगा।’’      (क़ुरआन, सूरा-82 इनफ़ितार, आयतें-1 से 5) 
‘‘पूछता है आख़िर क़ियामत का दिन कब आएगा? तो जब आंखें चौंदिया जाएंगी और चांद प्रकाशहीन हो जाएगा और चांद-सूरज मिलाकर एक कर दिए जाएंगे। उस समय यही इन्सान कहेगा, ‘‘कहां भागकर जाऊं?’’ हरगिज़ नहीं, वहां पनाह लेने की कोई जगह न होगी। उस दिन तेरे रब ही के सामने जाकर ठहरना होगा। उस दिन इन्सान को उसका सब अगला-पिछला किया-कराया बता दिया जाएगा।’’ 
(क़ुरआन, सूरा-75 क़ियामह, आयतें-6 से 13)
‘‘ये लोग उसे दूर समझते हैं और हम उसे क़रीब देख रहे हैं। (यह अज़ाब उस दिन होगा) जिस दिन आसमान पिघली हुई चांदी की तरह हो जाएगा और पहाड़ रंग-बिरंग के धुनके हुए ऊन जैसे हो जाएंगे और कोई घनिष्ठ मित्र अपने घनिष्ठ मित्र को न पूछेगा। हालांकि वे एक-दूसरे को दिखाए जाएंगे। अपराधी चाहेगा कि उस दिन के अज़ाब से बचने के लिए अपनी औलाद को, अपनी बीवी को, अपने भाई को, अपने निकटतम परिवार को जो उसे पनाह देने वाला था और ज़मीन के सब लोगों को फ़िदया (मुक्ति-प्रतिदान) के रूप में दे दे और यह उपाय उसे  छुटकारा दिला दे। हरगिज़ नहीं, वह तो भड़कती हुई आग की लपट होगी।’’ 
(क़ुरआन, सूरा-70 मआरिज़, आयतें-6 से 15) 
‘‘जब ज़मीन इस प्रकार हिला दी जाएगा जैसा उसको हिलाया जाना है और ज़मीन अपने अन्दर के सारे बोझ निकालकर बाहर डाल देगी और इन्सान कहेगा कि इसको क्या हो रहा है? उस दिन वह अपने (ऊपर बीते हुए) हालात बयान करेगी, क्योंकि तेरे रब ने उसे (ऐसा करने का) आदेश दिया होगा। उस दिन लोग विभिन्न दशा में पलटेंगे हैं, ताकि उनके कर्म उनको दिखाए जाएं। फिर जिस किसी ने कण-भर नेकी की होगी, वह उसको देख लेगा और जिसने कण-भर बुराई की होगी, वह भी उसको देख लेगा।’’         
(क़ुरआन, सूरा-99 ज़िलज़ाल, आयतें-1-8)
‘‘आख़िरकार जब वह कान बहरे कर देने वाली आवाज़ ऊंची होगी उस दिन आदमी अपने भाई और अपनी मां और अपने बाप और अपनी पत्नी और अपनी औलाद से भागेगा। उनमें से हर व्यक्ति पर उस दिन ऐसा समय आ पड़ेगा कि उसे अपने सिवा किसी का होश न होगा।’’ 
(क़ुरआन, सूरा-80 अ-ब-स, आयतें-33 से 37) 
क़ुरआन में स्वर्ग के दृश्य
क़ुरआन में स्वर्ग के दृश्य का एक चित्र देखें—
‘‘स्वर्ग में जिधर भी तुम नज़र डालोगे नेमतें-ही-नेमतें और एक बड़े राज्य की सामग्री तुम्हें दिखाई देगी। उनके ऊपर बारीक रेशम के हरे वस्त्र और अतलस और दीबा के कपड़े होंगे, उनको चांदी के कंगन पहनाए जाएंगे और उनका रब उनको अत्यन्त पवित्र पेय पिलाएगा। यह तुम्हारे किए का बदला है और तुम्हारी कोशिशें (ईश्वर के यहां) स्वीकृत हुईं।’’ 
(क़ुरआन, सूरा-76 दहर, आयतें-20 से 22)
‘‘जिस स्वर्ग का परहेज़गार (ईशपरायण) लोगों के लिए वादा किया गया है, उसकी शान तो यह है कि उसमें नहरें बह रही होंगी निथरे हुए पानी की, नहरें बह रही होंगी ऐसे दूध की जिसके मजे़ में तनिक भी अन्तर न आया होगा, नहरें बह रही होंगी ऐसी शराब की जो पीने वालों के लिए स्वादिष्ट होंगी, नहरें बह रही होंगी साफ़-सुथरे शहद की। उसमें उनके लिए हर तरह के फल होंगे और उनके रब की ओर से क्षमा।’’ 
(क़ुरआन, सूरा-47 मुहम्मद, आयत-15) 
‘‘उस दिन उन लोगों से जो हमारी आयतों पर ईमान लाए थे और आज्ञाकारी बनकर रहे थे, कहा जाएगा : ‘ऐ मेरे बन्दो! आज तुम्हारे लिए कोई डर नहीं और न तुम्हें कोई चिन्ता सताएगी। दाख़िल हो जाओ स्वर्ग में तुम और तुम्हारी पत्नियां, तुम्हें ख़ुश कर दिया जाएगा।’ उनके आगे सोने की थालियां और जाम-सागर फिराए जाएंगे और हर मनभावती और नज़रों को लज़्ज़त देने वाली चीज़ वहां मौजूद होगी। उनसे कहा जाएगा : तुम अब यहां हमेशा रहोगे। तुम इस स्वर्ग के वारिस अपने उन कर्मों के कारण हुए जो तुम दुनिया में करते रहे। तुम्हारे लिए यहां ढेर सारे मेवे मौजूद हैं, जिन्हें तुम खाओगे।’’ 
(क़ुरआन, सूरा-43 जुख़रुफ़, आयतें-68 से 73)
‘‘जो लोग ईमान लाए हैं और उनकी सन्तान भी ईमान के किसी दरजे में उनके पदचिन्हों पर चली है, उनकी उस सन्तान को भी हम (स्वर्ग में) उनके साथ मिला देंगे और उनके कर्म में कोई घाटा उनको न देंगे।’’ (क़ुरआन, सूरा-52 तूर, आयत-21) 
हदीस में स्वर्ग के दृश्य
पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) ने स्वर्ग के दृश्य पेश करते हुए कहा है—
‘‘एक पुकारने वाला स्वर्गवासियों को पुकारकर कहेगा कि यहां तुम सेहतमन्द रहोगे, कभी बीमार न होगे, ज़िन्दा रहोगे, तुम्हें कभी मौत न आएगी। जवान रहोगे, कभी तुम पर बुढ़ापा नहीं आएगा। ऐश और आराम में रहोगे, कभी कठिनाई, मुसीबत और दुख न देखोगे।’’                        (हदीस : मुस्लिम) 
‘‘स्वर्ग में एक कोड़ा रखने के बराबर जगह दुनिया और उनकी नेमतों से बेहतर है।’’              (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम)
एक दूसरी हदीस में पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) ने कोड़े की जगह कमान रखने के बराबर जगह का उल्लेख किया है। यानी स्वर्ग में किसी को कमान रखने के बराबर भी जगह नसीब हो जाए तो वह पूरे विश्व से बेहतर है—
‘‘जब स्वर्ग में जाने वाले स्वर्ग में चले जाएंगे तो अल्लाह कहेगाः क्या तुम्हें कोई और चीज़ चाहिए? वे निवेदन करेंगे: ऐ अल्लाह! क्या तूने हमारे चेहरे रौशन नहीं किए? क्या तूने हमें स्वर्ग में दाख़िल नहीं किया? क्या तूने हमें आग से छुटकारा नहीं दिलाया? (और क्या चाहिए) फिर अचानक परदा उठाया जाएगा और स्वर्गवासियों को अपने रब की तरफ़ देखना हर चीज़ से ज़्यादा प्यारा लगेगा, जो उन्हें स्वर्ग में दी गई थी।’’ 
(हदीस : मुस्लिम)
नरक के दृश्य
नरक के दृश्य के सम्बन्ध में अल्लाह का कथन है—
‘‘वास्तविकता यह है कि जो अपराधी बनकर अपने रब के सामने हाज़िर होगा, उसके लिए नरक है जिसमें न वह जिएगा, न मरेगा।’’              (क़ुरआन, सूरा-20 ता-हा, आयत-74) 
‘‘सत्य का इन्कार करने वालों के लिए आग के कपड़े काटे जा चुके हैं। उनके सिरों पर खौलता हुआ पानी डाला जाएगा, जिससे उनकी खालें ही नहीं, पेट के भीतर के भाग तक गल जाएंगे और उनको सज़ा देने के लिए लोहे के गुर्ज़ (गदाएं) होंगे। जब कभी भी वे घबराकर नरक से निकलने की कोशिश करेंगे, फिर उसी में धकेल दिए जाएंगे कि चखो अब जलने की सज़ा का मज़ा।’’         
(क़ुरआन, सूरा-22 हज, आयतें-19 से 22) 
‘‘मगर उनमें से किसी ने माना और कोई उससे मुंह मोड़ गया और मुंह मोड़ने वालों के लिए तो बस नरक की भड़कती आग ही काफ़ी है। जिन लोगों ने हमारी आयतों को मानने से इन्कार कर दिया है, उन्हें ज़रूर ही हम आग में झोकेंगे और जब उनके बदन की खाल गल जाएगी तो उसकी जगह दूसरी खाल पैदा कर देंगे, ताकि वे अच्छी तरह यातना का मज़ा चखें, अल्लाह बड़ी सामर्थ्य रखता है और अपने फ़ैसलों को व्यवहार में लाने की हिकमत को ख़ूब जानता है।’’ 
(क़ुरआन, सूरा-4 निसा, आयतें-55, 56)
‘‘आज मेरा माल मेरे कुछ काम न आया। मेरा सारा प्रभुत्व समाप्त हो गया। आदेश होगा: पकड़ो इसे और इसका गर्दन में तौक़ डाल दो। इसे नरक में झोंक दो। फिर इसको 70 हाथ लम्बी ज़ंजीर में जकड़ दो। यह न महिमावान ईश्वर पर ईमान लाता था और न मुहताज को खाना खिलाने पर उभारता था। अतः आज न यहां इसका कोई हमदर्द मित्र है और न घावों के धोवन के सिवा इसके लिए कोई भोजन जिसे अपराधियों के सिवा कोई नहीं खाएगा।’’    (क़ुरआन, सूरा-69 हाक़्क़ा, आयतें-28 से 37) 
नरक के बारे में पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) ने कहा है—
‘‘नरक में सबसे हलकी यातना वाला वह आदमी होगा जिसकी चप्पलें और फीते (तसमे) आग के होंगे, जिनकी वजह से उसका दिमाग़ इस तरह खौलेगा जिस तरह देग़ची चूल्हे पर खौलती है और वह यह नहीं समझेगा कि कोई उससे बढ़कर अज़ाब में है। हालांकि वह सभी नरकवासियों से हलकी यातना में होगा।’’                       
(हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम)
‘‘ज़क़्क़ूम (नरक में पैदा होने वाला पेड़) नरकवासियों का भोजन बनेगा। अगर उसकी बूंद दुनिया में टपक जाए तो ज़मीन पर बसने वालों की ज़िन्दगी के सारे सामान को ख़राब कर दे। अतः क्या गुज़रेगी उस आदमी पर जिसका खाना वही जक़्क़ूम होगा।’’                               (हदीस : तिरमिज़ी)

कलिमा-ए-शहादत
(इस्लाम का मूल मंत्र)
इस्लाम की बुनियाद जन्म, रंग-नस्ल, भाषा और क्षेत्र पर नहीं है। ये सारी बातें ऐसी हैं, जो इन्सान के अधिकार-क्षेत्र से बाहर हैं। दुनिया में कोई इन्सान अपनी मर्ज़ी और पसन्द से पैदा नहीं होता और न किसी ख़ास रंग-नस्ल या भाषा और इलाक़े को अपना सकता है। उसकी मर्ज़ी और पसन्द का कोई दख़ल इन मामलों में नहीं है।
इस्लाम एक स्वाभाविक, विश्वव्यापी और मानवतापूर्ण धर्म है। इसलिए दुनिया का कोई इन्सान, चाहे वह किसी रंग-नस्ल, ख़ानदान और इलाक़े से सम्बन्ध रखता हो इस्लाम पर अमल कर सकता है। शर्त यह है कि उसे इस्लाम की सच्चाई पर विश्वास हो। अगर किसी आदमी ने केवल किसी से शादी करने की नीयत से या किसी आर्थिक फ़ायदे या लालच के कारण या किसी से बदला लेने के लिए सत्य धर्म को अपनाया है, तो इन सब स्थितियों में आशंका है कि अल्लाह की ख़ुशी उसे हासिल न हो।
क़ुरआन में बताया गया है कि ज़ोर-ज़बरदस्ती और बलपूर्वक किसी को इस्लाम अपनाने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। दलीलों की रौशनी में इसका सत्य होना स्पष्ट हो चुका है। इसको अपनाने के नतीजे में दुनिया में कामयाब ज़िन्दगी बसर होगी और परलोक में नरक की आग से सुरक्षा हो सकेगी। दूसरी ओर सत्य स्पष्ट होने के बाद उसे झुठलाने के नतीजे में दुनिया में नाकामी नसीब होगी और परलोक में नरक की आग का ख़तरा है।
मुस्लिम होने के लिए कलिमा-ए-शहादत को सोच-समझकर और दिल से मानकर ज़बान से अदा करना होता है।
यह कलिमा-ए-शहादत अस्ल में एक वादा है जो एक बन्दा अपने पैदा करने वाले और मालिक से करता है। इस वादे को ज़िन्दगी-भर निभाने और इसकी अपेक्षाओं को व्यावहारिक जीवन में पूरा करने की हर मुमकिन कोशिश करनी चाहिए।
कलिमा-ए-शहादत यह है—
अशहदु अल्ला इला-ह इल्लल्लाह व अशहदु अन-न मुहम्मदन अब्दुहू व रसूलुहू।
इसका मतलब यह है—
‘‘मैं गवाही देता हूं कि ईश्वर के सिवा कोई माबूद (पूज्य) नहीं और मैं गवाही देता हूं कि मुहम्मद (सल्ल॰) ईश्वर के बन्दे और उसके रसूल हैं।’’
इस कलिमे में ख़ास बात यह है कि इसमें पहले शिर्क यानी बहुदेववाद का निषेध है यानी ‘नहीं है कोई ख़ुदा’, इसके बाद तौहीद यानी एकेश्वरवाद की शिक्षा है यानी ‘सिवाय ईश्वर के’। शिर्क यानी बहुदेववाद के पूर्ण निषेध के बिना एकेश्वरवाद की कोई कल्पना नहीं की जा सकती।
कलिमा में अल्लाह (ईश्वर) शब्द प्रयुक्त हुआ है। ईश्वर स्रष्टा, मालिक, पालनहार, दुआओं का सुनने वाला, बन्दों और प्राणियों की रहनुमाई करने वाला और क़ानून प्रदान करने वाला है। इन सभी पहलुओं से एक ख़ुदा के वुजूद (अस्तित्व) पर ईमान लाना और व्यावहारिक जीवन में ईमान की अपेक्षाओं को पूरा करना ज़रूरी है।
कलिमे का दूसरा अंश बताता है कि मुहम्मद (सल्ल॰) ईश्वर के पैग़म्बर हैं। उन्हीं के ज़रिए से अल्लाह की हिदायत और रहनुमाई या ईश्वर का दीन (धर्म) इन्सानों तक पहुंचा। ईश्वर को उपर्युक्त तरीक़े पर मान लेने और मुहम्मद (सल्ल॰) को उसका पैग़म्बर स्वीकार कर लेने से इस्लाम में दाख़िला पूरा हो जाता है।
मुहम्मद (सल्ल॰) को अल्लाह का पैग़म्बर मानने की अपेक्षाएं निम्नलिखित हैं—
पैग़म्बर (सल्ल॰) पर ईमान और यक़ीन के साथ उनसे गहरी मुहब्बत रखी जाए, यह माना जाए कि वे ईश्वर के आख़िरी पैग़म्बर हैं। ईश्वर ने अपनी आख़िरी किताब क़ुरआन मजीद को उन पर अवतरित किया। पैग़म्बर (सल्ल॰) की पूरी ज़िन्दगी हमारे लिए आदर्श और नमूना है। उनकी पैरवी ईमान की बुनियादी मांग है। ईश्वर ने इन्सान की ज़िन्दगी को कामयाब बनाने और परलोक की ज़िन्दगी में नरक की यातना से बचाने के लिए विस्तृत नियम प्रदान किए हैं। मुहम्मद (सल्ल॰) ने दीन और शरीअत (धर्म और जीवन-विधान) को लागू करके आदमी का बेहतरीन प्रशिक्षण किया और मिसाली ख़ानदान, समाज और व्यवस्था क़ायम करके दिखाई। इस हिदायत और रहनुमाई और शरीअत के क़ानून की अवहेलना की जाए तो यह केवल पैग़म्बर (सल्ल॰) की नाफ़रमानी नहीं है, बल्कि ईश्वर की नाफ़रमानी है। यह ईश्वर से बग़ावत और सरकशी का रास्ता है। 
सच्चाई को अपनाना
सच्चाई को जान लेने के बाद उसे अपना लेने या न अपनाने का अधिकार और आज़ादी हर इन्सान को हासिल है। यह अधिकार और आज़ादी ख़ुद ईश्वर ने प्रदान की है। उसने हर इन्सान को यह अधिकार दिया है, तो इससे वंचित करने का अधिकार दुनिया में किसी को हासिल नहीं है। हमारे देश में संविधान और क़ानून की दृष्टि से आस्था और धर्म की आज़ादी हासिल है। इसलिए यह ज़रूरी है कि धर्म के मामले में किसी तरह की ज़ोर-ज़बरदस्ती न हो। क़ुरआन में ईश्वर ने कहा है—
‘‘धर्म के मामले में कोई ज़बरदस्ती नहीं।’’ 
(क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, आयत-256)
सच्चाई को अपना लेना केवल धार्मिक पहचान के परिवर्तन का नाम नहीं, बल्कि यह अपनी प्रकृति के सबसे महत्वपूर्ण मांगों को पूरा करना है। यह सच है कि हर इन्सान की प्रकृति और आत्मा की गहराइयों में एक ही स्रष्टा, परम पूज्य और पालनहार पर ईमान लाने, उसकी पूरी बन्दगी और ग़ुलामी अपनाने का जज़बा शामिल है। अगर उसकी प्रकृति विकृत नहीं हुई है तो वह इन्सान जो पहले सच से परिचित नहीं था, या उसके बारे में ग़लतफ़हमियों का शिकार था, सच का सही और पूर्ण परिचय होते ही उसे अपना लेगा। यह मानो अपनी प्रकृति के अहम और बुनियादी मांगों की पूर्ति है। इसे धर्म-परिवर्तन का नाम देना, सत्य की त्रुटिपूर्ण व्याख्या है। ग़लत प्रोपगंडे के नतीजे में यह एक बदनाम परिभाषा बन गई है। ग़ौर करें तो मालूम होगा कि हर इन्सान अपनी ज़िन्दगी के कुछ पहलुओं पर चलने को मजबूर है। यानी वह अल्लाह के बनाए हुए क़ानून पर चल रहा है। मिसाल के तौर पर अपनी आंखों, कानों, ज़बान, मुंह, हाथों और पैरों से वह वही काम ले रहा है जिस काम के लिए ये अंग ईश्वर ने उसे दिए हैं। इस बारे में इन्सान बिल्कुल मजबूर है। इससे हटकर कोई दूसरा काम लेने या ईश्वर के क़ानून के ख़िलाफ़ अमल करने की आज़ादी उसे हासिल नहीं है। लेकिन ज़िन्दगी के कुछ मामले ऐसे हैं जिन्हें करने या न करने का पूरा अधिकार और आज़ादी उसे प्राप्त है। वह चाहे तो सत्य को स्वीकार करे या उसका इन्कार कर दे। दोनों स्थितियों में इसका नतीजा उसे ख़ुद देखना और भुगतना होगा। ईश्वर कहता है—
‘‘और क्या हमने भलाई और बुराई के दोनों-के-दोनों स्पष्ट रास्ते उसे (नहीं) दिखा दिए?’’  
(क़ुरआन, सूरा-90 बलद, आयत-10) 
‘‘स्पष्ट कह दो कि यह सत्य है तुम्हारे पालनहार-प्रभु की तरफ़ से। अब जिसका जी चाहे मान ले और जिसका जी चाहे इन्कार कर दे।’’         (क़ुरआन, सूरा-18 कह्फ़, आयत-29)
अब तक के विवेचन से यह बात स्पष्ट हो गई है कि इस्लाम दुनिया के सभी इन्सानों को स्वाभाविक आस्थाओं की शिक्षा देता है। इन अक़ीदों (आस्थाओं) की पुष्टि में इन्सान के अपने वुजूद से लेकर पूरे विश्व में दलीलें और निशानियां पाई जाती हैं। सत्य के विरुद्ध जो भी दूसरी आस्था और धारणा कोई इन्सान अपनाता है, वह अप्राकृतिक और अबौद्धिक होती है। मानो इस तरह वह अपनी प्रकृति से ख़ुद ही लड़ता है। अपनी ख़ुद की बनाई हुई आस्थाओं और धारणाओं के समर्थन में आदमी कोई दलील और प्रमाण अपने व्यक्तित्व के अन्दर से या पूरे विश्व से पेश नहीं कर सकता।
कौन लोग सत्य को स्वीकार करते हैं?
जो लोग सत्य की खोज में लगे रहते हैं और सोच-विचार से काम लेते हैं, अपने स्रष्टा की ख़ुशी पाने की और उसकी नाराज़गी और पकड़ से बचने की इच्छा रखते हैं। 
जिन्हें अपने अंजाम की चिंता होती है। 
जो पक्षपात और घमण्ड से बचकर ज़िन्दगी गुज़ारते हैं। 
जो परहेज़गारी (ईशपरायणता) की ज़िन्दगी बसर करना चाहते हैं, नेकियों और भलाइयों को अपनाना चाहते हैं।
जो अच्छे स्वभाव के होते हैं, जो अपनी अन्तरात्मा और स्वभाव की मांगों को सत्य की रौशनी में पूरा करना चाहते हैं। 
जिनमें सच को स्वीकार करने के नतीजे में आज़माइशों और क़ुरबानियों को सहन करने की हिम्मत और हौसला होता है। 
इस दुनिया में सच को स्वीकार करने का नतीजा इन्सान के कल्याण और छुटकारे, सुख और शान्ति के रूप में सामने आता है। सत्य से जुड़ाव आख़िरत में हमेशा की ख़ुशी और शान्ति के स्थान (स्वर्ग) को पाने का ज़रिआ है और नरक की आग से बचने की गारंटी है।
सत्य को न मानने के कारण
निम्न कारणों से लोग सत्य का इन्कार करते हैं—
1. ज़िद और हठधर्मी,
2. बाप-दादा के रास्ते पर बिना सोचे-समझे चलना, 
3. दुनियापरस्ती,
4. मन की इच्छाओं की बेलगाम पैरवी,
5. जातीय और नस्लीय श्रेष्ठता की भावना और पक्षपात और संकीर्णता, 
6. घमण्ड व तकब्बुर।
इसके अलावा और भी कारण हो सकते हैं। सत्य की तलाश करने वालों को चाहिए कि इन नकारात्मक जज़बों से ख़ुद को बचाने का प्रयत्न करें। 

आख़िरी बात
थोड़ी देर के लिए मान लीजिए कि क़ियामत, परलोक, मरने के बाद की ज़िन्दगी, हश्र का मैदान, कर्मों के बारे में पूछ-ताछ, स्वर्ग और नरक कुछ नहीं है। दुनिया की ज़िन्दगी ही एकमात्र आख़िरी सच्चाई है। ऐसी स्थिति में ख़ुदा का इन्कार करने वाले, एक ख़ुदा को मानने वाले या बहुत सारे ख़ुदाओं को मानने वाले, सबका अंजाम एक जैसा होगा। किसी के लिए परलोक की नाकामी का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता, क्योंकि मरने के बाद ज़िन्दगी ही न हो तो कैसी कामयाबी और कैसी नाकामी?
लेकिन अगर मामला इसके उलटा हो और सचमुच क़ियामत आ जाती है तो क्या होगा? ईश्वर सारे इन्सानों को इकट्ठा करके ईमान और अच्छे कर्मों के बारे में पूछताछ करेगा। परलोक की ज़िन्दगी में ईमान और कर्मों की बुनियाद पर स्वर्ग देगा, ख़ुदा के इन्कार या ख़ुदा का साझीदार बनाने की बुनियाद पर नरक का फ़ैसला करेगा। 
ऐसी स्थिति में जिन लोगों ने परलोक का इन्कार किया था, उनका अंजाम कितना दर्दनाक होगा। दुनिया की तरह परलोक की ज़िन्दगी क्षणभंगुर और नाशवान नहीं होगी, बल्कि हमेशा के लिए होगी। क़ुरआन ने स्पष्ट रूप से बताया है कि परलोक का इन्कार करने वाले गिड़गिड़ाकर फ़रियाद करेंगे कि ईश्वर उन्हें फिर दुनिया में एक बार भेज दे, ताकि वे अच्छे काम करके ईश्वर के इनाम के हक़दार बनें, मगर उस समय उन्हें बता दिया जाएगा कि मौक़ा तो उन्हें दिया जा चुका। दुनिया में उन्हें ज़िन्दगी की मुहलत दी गई थी, ज्ञान, बुद्धि और चेतना की नेमतें प्रदान की गई थीं। उनके अपने व्यक्तित्व और ज़मीन व आसमानों के अन्दर अनगिनत निशानियां पैदा की गई थीं। इसके अलावा आख़िरी पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) पर क़ुरआन उतारा गया था और आप (सल्ल॰) की पूरी ज़िन्दगी का विस्तृत विवरण भी सुरक्षित था, लेकिन उनमें से किसी चीज़ से उन्होंने फ़ायदा नहीं उठाया। अपने परलोक के लिए ईमान और अच्छे काम का रास्ता नहीं अपनाया और मुहम्मद (सल्ल॰) की पैरवी नहीं की। इसलिए वे नाकाम और अभागे ठहराए गए और उनका अंजाम नरक की यातना है। नाकामी और नरक की यातना का भागी होने की ज़िम्मेदारी उन पर ही लागू होती है। 
यह ज़िन्दगी एक ही बार मिली है। मौत अचानक उसका ख़ातिमा कर देगी। इसलिए इन्सान को चाहिए कि दुनिया में मिलने वाले मौक़े से फ़ायदा उठाए और अपने-आपको परलोक की नाकामी और रुसवाई से बचाए। 
ऐ इन्सान ! ख़ुद को पहचान !!