Total View : 1653

शांति और सम्मान

  
  • Part-1
  • Part-2

बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम।

‘‘ ईश्वर के नाम से जो अत्यन्त कृपाशीलबड़ा ही दयावान है।’’

शान्ति और सम्मान 

 

किसी व्यक्ति या किसी समुदाय की यह इच्छा कि संसार में उसे प्रतिष्ठा प्राप्त हो और आदर की दृष्टि से उसे देखा जाए, अत्यन्त स्वाभाविक है। लेकिन वास्तविक प्रतिष्ठा के लिए महानता चाहिए। धारणाओं की सत्यता, भावनाओं की सुन्दरता और चारित्रिक शक्ति के अभाव में न तो किसी महानता की कल्पना की सकती है और न ही ऐसी दशा में किसी के लिए हम किसी प्रतिष्ठा की आशा कर सकते हैं। प्रतिष्ठा उनके लिए होती है, जो दूसरों को गर्त से निकाल कर उन्हें उच्चता के शिखर पर खड़ा कर सकें, जिनका दृष्टिकोण संकुचित न हो, जो पूर्वाग्रह, अज्ञान और पक्षपात से बहुत ऊपर उठ चुके हों; जिनके विचार सत्य और तर्कसंगत हों; जिनकी भावनाओं और आचरण के मध्य एकात्मकता और सामंजस्य पाया जाता हो; जो जीवन के रहस्य से परिचित हों; जो जानते हों कि जीवन का वास्तविक लक्ष्य क्या है और वे कौन-से चारित्रिक गुण हैं जिन पर जीवन की सफलता निर्भर करती है।


जिस धर्म या संस्कृति की आधारशिला सत्य न हो उसकी कोई भी क़ीमत नहीं। जीवन को मात्र दुख और पीड़ा की संज्ञा देना जीवन और जगत् दोनों ही का तिरस्कार है। क्या आपने देखा नहीं कि संसार में काँटे ही नहीं होते, फूल भी खिलते हैं। जीवन में बुढ़ापा ही नहीं यौवन भी होता है। जीवन निराशा द्वारा नहीं, बल्कि आशाओं और मधुर कामनाओं द्वारा निर्मित हुआ है। हृदय की पवित्र एवं कोमल भावनाएँ निरर्थक नहीं हो सकतीं। क्या बाग़ के किसी सुन्दर महकते फूल को निरर्थक कह सकते हैं? एक छोटे-से पुष्प को निरर्थक नहीं कहा जा सकता, तो जीवन को, जो अपने में जाने कितनी सुन्दरता और गहराइयाँ लिये हुए है, कैसे अशुभ एवं असुन्दर कह सकते हैं? जीवन के प्रति वही दृष्टिकोण सत्य के अनुकूल हो सकता है, जिसमें विसंगतियाँ कदापि न हों; जो मानव को ऊँचा उठा सके; जो हमें तुच्छता से नहीं श्रेष्ठता से जोड़ सके। हम फिर कहेंगे, श्रेष्ठ वही हो सकते हैं, जो दूसरों को प्रतिष्ठित कर सकें; जो दूसरों की उदासी और निराशा को छीन सकें और उन्हें आशावान बना सकें; जिनका हृदय इतना विशाल हो कि वे संसार के सारे लोगों को कह सकें कि वे हमारे हैं। 


इच्छाओं और नैसर्गिक अभिलाषाओं को नियंत्रण में रखना इसलिए आवश्यक होता है ताकि हम अपना संतुलन न खो सकें। हमारी स्वभावजन्य इच्छाएँ और कामनाएँ न पाप हैं और न उन्हें दुख का मूल कारण कहा जा सकता है। दुख का कारण तो सदैव अज्ञान हुआ करता है। 


आप क़दम किस ओर उठाने जा रहे हैं? कहीं ऐसा न हो कि मानहीनता और अन्धकार से निकल कर मानहीनता और अन्धकार ही की ओर आप बढ़ रहे हों।


प्रेम पूर्वक हम आपको आमंत्रित करते हैं कि आप ठहर कर इस्लाम का भी अध्ययन कर लें, जो पर्याय है मानव के उत्कर्ष का। अतः वास्तविक धर्म भी यही है। यह जीवन यातना नहीं हृदय-सखा का अनुग्रह है। इस्लाम लौकिक जीवन के विषय में कहता है कि यह एक अनन्त और सुन्दरतम जीवन का सांकेतिक निमंत्रण है। यह किसी सुन्दर का मधुर सन्देश है। इससे बढ़कर दुर्भाग्य क्या होगा, यदि हम इस आमंत्रण का अवमान करते और सत्य से विमुख ही रहते हैं। याद रहे, इस्लाम संसार को त्याग देने की शिक्षा कदापि नहीं देता। यह यहाँ मानवों में जो चीज़ देखना चाहता है वह है: न्याय, प्रेम और करुणा! इस्लाम मनुष्य की श्रेष्ठता का पक्षधर है। इसका कहना है कि मनुष्य की श्रेष्ठता को कोई छीन नहीं सकता। हाँ, यह सम्भव है कि कोई व्यक्ति या समुदाय स्वयं अपनी श्रेष्ठता को न समझ सके और श्रेष्ठता के प्रतिकूल कर्म करने लग जाए। इस प्रकार उसकी श्रेष्ठता धूमिल या नष्ट हो कर रह जाए। 
इस्लाम आपको वास्तविक प्रतिष्ठा और उच्चता की ओर बुलाता है, बुलाता रहेगा। काश! हमें अपने हित का ध्यान हो और हम इस बुलावे को रद्द न करें।

इंसान की ज़िन्दगी समस्याओं से ख़ाली नहीं है। लेकिन कोई भी समस्या ऐसी नहीं होती कि उसका मुनासिब हल न निकल सके। प्रत्येक समस्या का हल सम्भव है, शर्त यह है कि हल के लिए उचित उपाय अपनाया जाए। अगर उपाय उचित नहीं है, तो समस्या का सही अर्थ में अस्थायी हल भी नहीं निकल सकता। अगर किसी तरह से अस्थायी हल खोज भी लिया जाए, किन्तु उपाय अनुचित है, तो इससे समस्या की भयावहता में कोई सकारात्मक परिवर्तन नहीं होता, बल्कि वह कुछ अधिक ही संगीन और विकराल होती जाती है और अनुचित उपाय रिसते घाव पर मामूली फाहे की भाँति ही रहता है, रोग के निवारण से उसका कोई सीधा सम्बन्ध नहीं रहता। ऐसी परिस्थिति में रोग बढ़ते रहने के साथ-साथ तकलीफ़ें भी बढ़ती जाती हैं और पीड़ा-यंत्रणा बढ़ने के साथ ही व्यक्ति का व्यक्तित्व ख़तरे में पड़ जाता है। 


प्रायः जब दलित भाइयों की समस्या पर विचार करते समय उनके दुख-दर्द को उनकी नियति मान लिया जाता है, तो इस प्रकार मानवीय अधिकारों की अनदेखी करने का सिलसिला शुरू हो जाता है, जो समस्या के समाधान में कभी उचित उपाय अपनाने नहीं देता। यदि कोई उपाय यह जानकर और इस आशा के साथ अपनाया जाता है कि वह समस्या का उचित समाधान कर देगा, तो व उसी रूप में फलदायी हो सकता है जब हल बताने वाला मनुष्य की मौलिक प्रकृति और जगत्-व्यवस्था की सभी परिस्थितियों व वास्तविकताओं का ज्ञाता हो एवं मनुष्यों का सबसे बढकर हितैषी हो। 


स्पष्ट है, मनुष्य का सबसे बड़ा हितैषी, शुभचिन्तक और मददगार उसके स्रष्टा व पालनहार के सिवा कोई और नहीं हो सकता। उसे ही सारे तथ्यों का ज्ञान है। अतः यह आवश्यक है कि मनुष्य अपनी समस्याओं के समाधान के लिए ईश्वरीय आदेशों और शिक्षाओं की ओर रुजू करे। 


जब तक वह ऐसा नहीं करता, इधर-उधर भटकता फिरेगा, फिर भी उसे मंज़िल नहीं मिल सकती। 

इस्लाम वह सत्य धर्म है जिसे जगत् के स्रष्टा और पलनहार ने इंसान के मागदर्शन और कल्याण के लिए अवतरित किया है। इंसानों के बीच न्याय स्थापित करना और यह तय करना कि उनके लिए क्या चीज़ उचित नहीं है, इसका सही निर्धारण ईश्वर ही कर सकता है। वास्तविकता यह है कि किसी दूसरे को यह अधिकार है ही नहीं कि वह न्याय-अन्याय उचित-अनुचित का मानदंड निर्धारित करे और न ही किसी दूसरे में यह योग्यता ही पायी जाती है कि वह वास्तविक न्याय स्थापित करने, ऊँच-नीच, छूत-छात, शोषण और अत्याचार का अन्त करने एवं प्रत्येक इंसान को सम्मानजनक जीवन जीने की उचित शिक्षा दे सके।


इंसान, यद्यपि समस्त प्राणियों में श्रेष्ठ एवं महान् है, किन्तु वह स्वयं अपना स्वामी और शासक नहीं है कि अपने लिए जीवन के मानदंड निर्धारित करने का अधिकारी हो। जगत् में उसकी हैसियत ईश्वर के दास और प्रजा की है, इसलिए जीवन के मानदंड निर्धारित करना उसका अपना नहीं, बल्कि उसके स्वामी और शासक का दायित्व है। इंसान चाहे कितने ही उच्च स्तर का हो और चाहे एक इंसान ही नहीं, बल्कि बहुत-से श्रेष्ठ योग्यता प्रतिभावाले इंसान मिलकर अपनी बुद्धि का प्रयोग करें तो भी अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं, अभिरुचियों और भेदभाव से छुटकारा पाने का उनके पास कोई मार्ग नहीं है। अतः इसकी कोई सम्भावना नहीं है कि इंसान कोई ऐसी व्यवस्था कर सके जो वास्तव में न्याय और समानता पर आधारित हो। कभी ऐसा मालूम होता है कि अमुक मानव-निर्मित व्यवस्था अच्छी है, पर शीध्र ही उसका व्यावहारिक प्रयोग यह प्रमाणित कर देता है कि वह न्यायपूर्ण नहीं है। इसी कारण प्रत्येक मानवीय व्यवस्था कुछ समय तक चलने के बाद खोटी साबित हो जाती है और इंसान उससे मुँह फेरकर एक दूसरे मूर्खातापूर्ण प्रयोग की ओर क़दम बढ़ाने लगता है, जबकि उसे अपनी ग़लती दोहराने के बजाय अपनी समस्याओं के संतोषजनक एवं स्थायी हल के लिए ईश्वरीय शिक्षाओं की ओर रुजू करना चाहिए। प्रत्येक इंसानी समाज हज़ारों और लाखो लोगों से मिलकर बनता है। इस समूह का प्रत्येक व्यक्ति आत्मा, बुद्धि और विवेक रखता है। प्रत्येक व्यक्ति अपना अलग व्यक्तित्व रखता है, जिसे फलने-फूलने और विकसित होने के लिए उपयुक्त अवसर की ज़रूरत है। उसको यदि अवसर नहीं प्राप्त होता है और व्यक्तित्व के विकास की आज़ादी नहीं होती है, तो वह कुंठित हो जाता है और उसका जीवन पशुवत् हो जाता है।


दूसरी ओर रंग, नस्ल, जाति-बिरादरी के झूठे दम्भ का शिकार होकर इंसान अपने जैसे ही इंसानों पर अत्याचार करने लगता है और उनके लिए तरह-तरह की परेशानियाँ व रुकावटें खड़ी कर देता है, ताकि वे कहीं अपनी उन्नति करके उसके प्रभाव को चुनौती न देने लग जाएँ। स्पष्ट है, यह घिनौनी स्वार्थपरता मानवता के लिए अत्यन्त हारिकारक है।


इस्लाम इंसान का प्राकृतिक एवं स्वाभाविक धर्म है। इस पर आश्रित है सारी इंसानियत का हित व कल्याण और इसके ज़रिए हर प्रकार की समस्या का समाधान सम्भव है। इस्लाम की दृष्टि में सारी इंसानियत ईश्वर का परिवार है। इस्लाम की शिक्षा है कि सारे इंसान एक ही समुदाय हैं। कोई इंसान केवल विशेष जाति, रंग, नस्ल, क्षेत्र में पैदा होने से न तो उच्च, श्रेष्ठ और सज्जन कहलाने का अधिकारी है और न ही यह न्यूनता, अपमान और निकृष्टता का मानदंड है, बल्कि सारे इंसान चाहे किसी भी जाति, रंग और नस्ल के हों आपस में भाई-भाई हैं।


क़ुरआन में है-
‘‘लोगो, हमने तुमको एक पुरुष और एक स्त्री से पैदा किया और तुम्हें बिरादरियों और क़बीलों का रूप दिया, ताकि तुम एक-दूसरे को पहचानो। वास्तव में अल्लाह की दृष्टि में तुममें सबसे ज़्यादा प्रतिष्ठित वह है जो तुम में सबसे अधिक परहेज़गार है। निश्चय ही अल्लाह सब कुछ जाननेवाला और ख़बर रखनेवाला है।'' (क़ुरआन-49:13)
अल्लाह के दास और आख़िरी पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) ने कहा कि ‘‘ऐ लोगो, जान लो तुम्हारा रब एक है। तुम्हारा पिता (हज़रत आदम अलैहि0) एक है। किसी अरबवासी को किसी ग़ैर-अरबवासी पर श्रेष्ठता नहीं और न किसी ग़ैर-अरबवासी को किसी अरबवासी पर, न गोरे को काले पर और न काले को गोरे पर श्रेष्ठता प्राप्त है। श्रेष्ठता यदि किसी को है तो सिर्फ़ ईश-भय और परहेज़गारी से है।'' (हदीस: मुस्नद अहमद)


हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) के महानतम व्यक्तित्व के द्वारा सम्पूर्ण एवं व्यापक सद्क्रान्ति आई और अनेक समस्याओं, संकटों व परेशानियों से जूझती मानवता का उद्धार हुआ। एक ओर जहाँ विभिन्न कुरीतियों व व्यसनों का अन्त हुआ, स्त्रियों, दासों और अनाथों को भी सम्मान मिला, वहीं दूसरी ओर वंश, रंग आदि के भेदभाव का अन्त हो गया। जो अरबवासी हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) के आगमन से पूर्व काले लोगों से नफ़रत करते थे, उन्होंने इस्लाम की शिक्षाएँ अपना कर अपनी लोक-परलोक की ज़िन्दगियाँ सुधार ली और उनकी नफ़रतें प्रेम में बदल गईं। उन्हीं अरब वासियों में एक हब्शी ग़ुलाम हज़रत बिलाल (रज़ि0) मस्जिदे नबवी के मुअज़्ज़िन की हैसियत से प्रतिष्ठित हुए और उन्हें उच्च स्थान प्रदान किया गया। 


दुनिया इंसान के लिए परीक्षा की घड़ी है। दुनिया नश्वर है और परलोक की ज़िन्दगी शाश्वत एवं स्थायी है। प्रलय के दिन सारे इंसानों को जीवित किया जाएगा। प्रत्येक व्यक्ति को उस दिन अपने पालनकर्ता-प्रभु के सामने उपस्थित होकर हिसाब देना है कि जो शक्तियाँ और योग्यताएँ उसे दुनिया में प्रदान की गई थीं, उनसे काम लेकर और जो साधन उसे प्रदान किये गये थे उनका उपयोग करके वह अपने व्यक्तित्व का कैसा स्वरूप बनाकर लाया है। ईश्वर के सामने की यह जवाबदेही व्यक्तिगत रूप से होगी। वहाँ वंश, समुदाय और जातियाँ खड़ी होकर हिसाब नहीं देंगी, बल्कि दुनिया के सारे सम्बन्धों से काटकर ईश्वर प्रत्येक व्यक्ति को अपनी अदालत में हाज़िर करेगा और प्रत्येक व्यक्ति से अलग-अलग हिसाब लेगा। अतः आवश्यक है कि इंसान उस मार्ग पर चले, जिससे उसको पैदा करनेवाला ख़ुश हो और वह उसकी ख़ुशी हासिल कर सके। यह मार्ग सिर्फ़ इस्लाम है, जिस पर चलकर इंसान अपनी सभी समस्याएँ हल कर सकता है और इज़्ज़त व सम्मान की ज़िन्दगी प्राप्त कर सकता है। 


आज प्रत्येक भाषा में इस्लामी साहित्य उपलब्ध है। आप किसी भी भाषा में इस्लाम की शिक्षाओं का अध्ययन करें, तो इस्लाम का सही स्वरूप आपके सामने आ सकेगा, जो सत्यमार्ग पर अग्रसर होने में आपका सहायक सिद्ध होगा।